भक्ति और मुक्ति –
हम प्रायः भक्ति और मुक्ति इन दो शब्दों का प्रयोग एक दूसरे के सम्बन्ध में करते हैं | जैसे की प्रभु कि प्रार्थना में हम कहते हैं ‘भक्ति मुक्ति दाता’ |
कथा करने वाले पंडित भी कहते रहते हैं, मुक्ति चाहिए तो परमात्मा की भक्ति कीजिये
अथवा भक्ति से मुक्ति की प्राप्ति होती है आदि | यह विडंबना ही है कि इन दोनों ही
शब्दों को अनुचित रूप से प्रयोग में लिया जा रहा है | भक्ति पर अभी कुछ समय पूर्व
ही मैंने स्पष्ट करने का प्रयास किया था और आपके समक्ष प्रस्तुत भी किया था | आज इन्हीं
भक्ति और मुक्ति के आपस के भेद को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ, जिससे हम लोग
भ्रम में न रहें और अपना आचरण उसी अनुरूप रखें | वैसे भक्ति और मुक्ति में अधिक भेद
नहीं है परन्तु अति अल्प अंतर भी शब्दों को समझने में उनके अर्थ का अनर्थ कर देते
हैं | यह सत्य है कि संसार के विकारों से मुक्त होकर भक्ति को पाया जा सकता है और
यह भी सत्य है कि भक्ति की पराकाष्ठा मुक्ति अर्थात मोक्ष को भी प्राप्त करा देती
है |
भक्ति, भगवान के सन्मुख होने का नाम है और मुक्ति इस भौतिक संसार से मुक्त
हो जाने को कहते हैं | संसार से मुक्त होने का अर्थ केवल शरीर से मुक्त होना नहीं
है बल्कि सांसारिकता को त्यागने से है | जब भक्ति का विस्तार होता है, तब मुक्ति
का आगमन होता है | सांसारिकता से मुक्त होना आवश्यक है परन्तु भक्ति-मार्ग पर चलते
हुए मुक्ति के जो विभिन्न रूप भक्त के सामने आते हैं, भक्त उन सबकी अवहेलना ही
करता है क्योंकि जो आनंद भक्ति में उसे मिलता है, वह मुक्ति में कहाँ है ? दूसरे
शब्दों में कहूँ तो पूर्ण मुक्ति की अवस्था को ही को मोक्ष कहा जाता है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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