Sunday, July 24, 2016

ज्ञान-विज्ञान-3

     उपरोक्त श्लोक में स्पष्ट कहा गया है कि मैं तुम्हें वह ज्ञान कहने जा रहा हूँ जिसके जान लेने के बाद संसार में कुछ भी जानने योग्य नहीं रहेगा | साथ ही श्री कृष्ण यह भी कह रहे हैं कि मैं तुम्हें विज्ञान सहित तत्वज्ञान को सम्पूर्ण रूप से कहूँगा | आइये, अब हम उनकी इस बात में छुपे निहितार्थ को समझने का प्रयास करते हैं | प्रथम बात, विज्ञान सहित तत्व ज्ञान अर्थात जिस ज्ञान का प्रारम्भ विज्ञान होता है, वहां से कहना प्रारम्भ करेंगे और फिर धीरे धीरे तत्वज्ञान की ओर बढ़ेंगे और कथन का समापन समस्त जानने योग्य ज्ञान को कहकर करेंगे | दूसरी बात, इस संसार में जो कुछ भी जानने योग्य है, वह सब भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को आज बता ही देंगे | इस संसार में जो कुछ भी जानने योग्य है उसको जान लेने पर फिर कुछ जानने के लिए रह ही कहाँ जाता है ?
                प्रथम बात, हम आज जो कुछ भी ज्ञान के नाम पर जानते हैं वह विज्ञान ही है | इस सिरे को पकड़ते हुए ही किसी बात को कहने पर व्यक्ति के वह बात समझ में आती है अन्यथा नहीं | जितना वह जनता है, वक्ता को उस स्तर पर आकर आगे की बातें समझानी पड़ती है | सीधे तत्वज्ञान की बात कहने से उसके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ेगा | अतः एक आदर्श वक्ता की यही विशेषता होती है कि वह श्रोता का स्तर जांचे और फिर उसे उपदेश दे | एक किसान को अगर उपदेश देना हो तो उपदेश का प्रारम्भ खेती बाड़ी और मवेशियों की बातों से करना होगा और अगर एक शिक्षक को उपदेश देना हो तो उससे सम्बंधित विषय से बात प्रारम्भ करनी होगी | किसान का विज्ञान खेत है और शिक्षक का विज्ञान उससे सम्बंधित विषय | गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन का स्तर जांच कर ही बात प्रारम्भ कर रहे हैं | गीता में श्री कृष्ण एक आदर्श उपदेशक है और अर्जुन एक आदर्श श्रोता, नहीं तो यह उपदेश अर्जुन के अतिरिक्त के द्वारा भी तो सुना गया था |
क्रमशः आगे की कड़ी 6/8/2016 को |  

|| हरिः शरणम् ||   

Saturday, July 23, 2016

ज्ञान-विज्ञान-2

                      ज्ञान अगर प्राप्त करना है तो सबसे पहले विज्ञान की राह पकड़नी होगी | विज्ञान ज्ञान को ग्राह्य बना देता है | बिना विज्ञान की राह पकडे अगर हम ज्ञान को पकड़ने का प्रयास करते हैं, तो हमें अज्ञान के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगेगा | भक्ति अवश्य ही सीधे परमात्मा का ज्ञान करा देती है परन्तु थोड़ी सी भी विज्ञान की समझ रखने वाले को तो  सीधे भक्ति ही प्राप्त नहीं होती, परमात्मा को प्राप्त करना तो दूर की कौड़ी है | इसी लिए कहा जाता है कि अल्प ज्ञान के स्थान पर अज्ञानी होना ज्यादा अच्छा है | अर्जुन के साथ भी तो यही हुआ था, वह अपने आपको ज्ञानी समझ रहा था जबकि वास्तव में उसे कुछ भी ज्ञान नहीं था | यही कारण है कि गीता के प्रारम्भ से सातवें अध्याय तक आते आते भगवन श्री कृष्ण को आभास हो गया कि अर्जुन को समझाने के लिए कोई और रास्ता ही अपनाना पड़ेगा | सातवें अध्याय के प्रारम्भ में भगवान् कहते हैं-
ज्ञानं तेSहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः |
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोSन्यजज्ञातव्यमवशिष्यते || गीता 7/2 ||
अर्थात मैं तेरे लिए इस विज्ञान सहित तत्वज्ञान को सम्पूर्ण तया कहूँगा, जिसको जानकर संसार में फिर कुछ भी जानने योग्य शेष नहीं रह जाता |
            भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि अर्जुन अपनी सांसारिक जानकारी को ही ज्ञान समझ रहा है, जबकि सांसारिक जानकारी केवल सूचना देने वाला ज्ञान मात्र होता है | इस सूचना मात्र ज्ञान को ही विज्ञान कहा जाता है | विज्ञान ज्ञान के केवल एक अति सूक्ष्म भाग की सूचना मात्र ही तो है | इस सूचना की मूल को जान लेना ही वास्तविक ज्ञान है |
क्रमशः  

|| हरिः शरणम् ||       

Friday, July 22, 2016

ज्ञान-विज्ञान

           इस भारतीय संस्कृति की महानता का कितना भी गुणगान करूँ, मुझे वह सदैव अपर्याप्त ही लगता है | जब भी मैं वैदिक शास्त्रों के एक एक प्रसंग में गहरे से उतरता हूँ तो यह दो नेत्र मेरे अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा से भर आते हैं | कहाँ तो इस संसार में आकर जीवन के पूर्वार्ध में आधुनिक विज्ञान में रम गया था और आज, आज जीवन के इस उतरार्ध में परमात्मा ने मुझ पर ऐसी कृपा की है, जो एक से बढ़कर एक वैदिक शास्त्रों का साथ मिल रहा है और साथ ही साथ ऐसे संतों का सानिध्य भी मिल रहा है जिनके आशीर्वाद से  इन शास्त्रों में वर्णित एक एक बात का मर्म स्पष्ट होता जा रहा है | विज्ञान ने मुझे वह सोच प्रदान की है, जो बाध्य करती है, प्रत्येक बात का सूक्ष्म अन्वेषण करने को | इसी अन्वेषण ने मेरे ह्रदय में अपने शास्त्रों के प्रति अगाध श्रद्धा पैदा कर की है | सन् 1996 से पूर्व मुझे केवल और केवल अपने विज्ञान पर ही पूर्ण विश्वास था और् दम्भ भरता था, अपने चिकित्सकीय विज्ञान का | चिकित्सकीय सेवा के दौरान मेरे समक्ष आये एक ही उदाहरण ने मेरी इस सोच को बदलने के लिए मुझे विवश कर दिया | उसी दिन मैंने पहली बार श्री मद भागवत गीता को गंभीरता के साथ पढ़ना प्रारम्भ किया और उसके बाद आज तक पीछे मुड़कर नहीं देखा |
               आज उस घटना के बीस वर्ष बाद मुझे अपने वैदिक शास्त्रों के समक्ष विज्ञान की पुस्तकें उसी प्रकार  नज़र आती है, जैसे भरी दुपहरी में दीपक का प्रकाश | जिस प्रकार दीपक की महता से इंकार नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार विज्ञान की महता को भी नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता | दीपक सूर्य की अनुपस्थिति अर्थात गहन अंधकार में हमें मार्ग दिखलाता है, उसी प्रकार विज्ञान भी हमारे प्रारम्भिक अज्ञान को दूर रखता है | सूर्य के उदय होते ही जिस प्रकार दीपक को हम एक तरफ रख देते हैं, उसी प्रकार विज्ञान से आवश्यक ज्ञान प्राप्त कर वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसे भी एक तरफ रख देना चाहिए |

      इतनी भूमिका इसलिए आपके समक्ष प्रस्तुत की है क्योंकि मैं जानता हूँ कि आधुनिक जीवन शैली में हमारे धर्मशास्त्र किस प्रकार उपेक्षित होते जा रहे हैं | आज आवश्यकता महसूस हो रही है कि हमारे इन सनातन धर्म शास्त्रों को विज्ञान की कसौटी पर परख कर आज की युवा शक्ति के सामने प्रस्तुत किया जाये | वास्तविकता तो यह है कि आधुनिक विज्ञान को हमारे शास्त्रों से ही प्राण मिले हैं परन्तु आज के दिग्भ्रमित साथियों और युवाओं को केवल विज्ञान से इनकी तुलना कर के ही मार्ग दिखलाया जा सकता है | कान चाहे सीधे पकड़ें अथवा हाथ घुमाकर, दोनों में कुछ भी अंतर नहीं है | टिहरी में गंगा पर जब बाँध बांधा गया था, तब कुछ दिनों के लिए गंगा उलटी बहने लगी थी | इसका अर्थ यह नहीं है कि गंगा वापिस गंगोत्री पहुंच गयी होगी | गंगा को तो सागर में समाना होता है, वह तो बाँध के भरते ही पुनः सागर की और चल पड़ी | इसी प्रकार कुछ समय के लिए हमारा शास्त्रीय ज्ञान, सांसारिक उपभोग के लिए विज्ञान बनकर बहने लगा है | एक न एक दिन हम पुनः हमारे शास्त्रों में वर्णित वास्तविक ज्ञान की तरफ लौटेंगे ही, ऐसा मुझे विश्वास है | 
                || हरिः शरणम् ||      

Thursday, July 21, 2016

चंद्रमा पर विजय या मन पर विजय ?

                     दिनांक-21 जुलाई 1969, आज से ठीक 47 वर्ष पूर्व मनुष्य ने चन्द्रमा पर विजय पताका फहराई थी | जितना ही मनुष्य भौतिक प्रगति करता जा रहा है, उतना ही वह आध्यात्मिक रूप से पिछड़ता जा रहा है | हमारे शास्त्र  कहते हैं कि मन का स्वामी चंद्रमा है | अब आप ही देख लीजिये, मनुष्य ने मन के स्वामी चन्द्रमा को तो छू लिया परन्तु अपने मन पर विजय पाने की तरफ से बेफिक्र है | चंद्रमा पर पहुँचने से अधिक आवश्यकता है, मन के भीतर झांकने की | जब तक मन को गंभीरता से नहीं देखोगे, परखोगे; तब तक कोई लाभ नहीं है चंद्रमा को जानने से | स्वामी को जानना है, तो पहले दास से मिलो | राम को जानना है तो पहले हनुमान से मिलना पड़ेगा | हनुमान को जिस दिन जान जाओगे, राम को जानने की आवश्यकता ही नहीं होगी क्योंकि फिर राम और हनुमान का अंतर ही समाप्त हो जायेगा |
             चंद्रमा पर पहुँचने के 47 साल बाद हमें विश्लेषण करना होगा कि इससे मनुष्य को क्या प्राप्ति हुआ ?  चंद्रमा अभी भी अन्तरिक्ष में पूर्व की भांति पृथ्वी और सूर्य की परिक्रमा कर रहा है, चंद्रमा पर मनुष्य की इस उपलब्धि का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है | परन्तु मनुष्य का मन इस उपलब्धि से कई नयी कामनाओं से और भर गया है | वह इस उपग्रह की खोज से आगे जाकर ग्रहों तक पहुँचने की योजना बना रहा है | अभी कुछ दिन पूर्व ही वृहस्पति की कक्षा में उसका यान प्रवेश कर उसकी परिक्रमा कर रहा है | इसे ही मनुष्य की कामनाओं का विस्तार होना कहा गया है |
            मैं विज्ञान की इस उपलब्धि की कोई आलोचना नहीं कर रहा हूँ | मैं कहना चाहता हूँ कि कहीं हम भौतिक प्रगति के नीचे धीरे धीरे अपनी आध्यात्मिक सोच को दफ़न तो नहीं करते जा रहे हैं ? सत्य तो यही है | आज आवश्यकता है, मन को नियंत्रण में रखने की | अतः उसे केवल भौतिक कामनाओं से ही न भरें बल्कि आध्यात्मिकता की तरफ भी उन्मुख करें | आत्मोत्थान के लिए परमात्मा को जानना ग्रहों को जानने से अधिक  महत्वपूर्ण है |
             मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो: |
            बन्धाय विषयासक्तं मुक्तं निर्विषयं स्मृतम् ||
मनुष्य का यह मन ही उसके बंधन और मोक्ष का कारण है | विषय भोग और भौतिकता की चकाचौंध की ओर मन का अग्रसर होना बंधन पैदा करता है और इनसे अप्रभावित रहकर परमात्मा की ओर उन्मुख होना मोक्ष को उपलब्ध कराता है |
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, July 20, 2016

कठोपनिषद से-

   इन्द्रियों, मन और बुद्धि के आपसी सम्बन्ध को उजागर करते हुए कठोपनिषद के अध्याय एक की तृतीय वल्ली में कहा गया है-
यस्त्वविज्ञानवान् भवत्ययुक्तेन मनसा सदा |
तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथे || कठोपनिषद 1/3/5 ||
अर्थात जो सदैव विवेकहीन बुद्धिवाला और चंचल मन से युक्त रहता है; उसकी इन्द्रियां असावधान सारथि के दुष्ट घोड़ों की भांति वश में न रहने वाली हो जाती है |
रथ में जुड़े घोड़ों (इन्द्रियों) का नियंत्रण लगाम (मन) के पास है और लगाम (मन) होती है सारथि (बुद्धि) के हाथ में | सारथि (बुद्धि) अगर विवेकहीन हो तो लगाम (मन) पर नियंत्रण नहीं रख पता है | लगाम (मन) पर नियंत्रण खोते ही रथ (भौतिक शरीर) को घोड़े (इन्द्रियां) अपनी मर्जी से चाहे जिधर ले जा सकते हैं | कठोपनिषद का उपरोक्त मन्त्र इस बात को स्पष्ट करता है कि व्यक्ति को अपनी बुद्धि से विवेक पैदा करना होगा तभी वह मन पर प्रत्येक स्थिति में अपना नियंत्रण स्थापित रख सकता है |
      गोस्वामीजी रामचरित मानस में बुद्धि में विवेक जाग्रत करने का उपाय बतलाते हुए कहते हैं कि -
“बिनु सत्संग विवेक न होई | राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ||”
 बुद्धि का नाश ही कुसंग में जाने से होता है और सत्संग में रहने से बुद्धि को धार मिलती है और व्यक्ति में विवेक जाग्रत हो उठता है | परन्तु यह सत्संग बिना परमात्मा की कृपा हुए किसी को भी सुलभ नहीं होता है | परमात्मा की कृपा ही आपकी बुद्धि के स्तर को ऊपर उठा कर उसे विवेक में परिवर्तित कर देती है | विवेक से ही मनुष्य मन को सदैव के लिए नियंत्रण में रखने में सफल हो सकता है, केवल बुद्धि से नही | बुद्धि पर मन कभी भी प्रभावी हो सकता है परन्तु विवेक कभी भी अपने ऊपर मन को प्रभावी नहीं होने देगा | इसीलिए इस मन्त्र में ‘अविज्ञानवान’ शब्द का उपयोग हुआ है, जिसका अर्थ है, विवेकहीन बुद्धि वाला अर्थात जिस मनुष्य में बुद्धि तो है, परन्तु विवेक नहीं | 

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, July 19, 2016

गुरु-वंदन

                  आज गुरु पूर्णिमा है | मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने में जिन महापुरुषों ने योगदान दिया है, आज उन सभी की वंदना करने का दिवस है | वैसे ये महापुरुष नित्य ही वन्दनीय है | भागवत में भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं-
स वै सत्कर्मणां साक्षाद् द्विजातेरिह सम्भवः |
आद्योSन्ग यत्राश्रमिणां यथाहं ज्ञानदो गुरुः || भागवत-10/80/31 ||
          भगवान श्री कृष्ण अपने मित्र सुदामा को कहते हैं कि वर्ण और आश्रम व्यवस्था का पालन करने वालों के तीन गुरु होते हैं |  इस संसार में शरीर का कारण- जन्मदाता पिता प्रथम गुरु है | इसके बाद उपनयन-संस्कार करके सत्कर्मों की शिक्षा देने वाला दूसरा गुरु है, वह मेरे ही समान पूज्य है | तदनन्तर तीसरा ज्ञानोपदेश करके परमात्मा को प्राप्त कराने वाला गुरु तो मेरा स्वरुप ही है |
     इन तीनों में सबसे महत्वपूर्ण गुरु है-जो परमात्मा का ज्ञान करा दे | हालाँकि पहले दो गुरु भी महत्वपूर्ण है क्योंकि बिना पिता के यह मानव देह मिलना ही असंभव है और प्रारम्भिक तथा सत्कर्मों की शिक्षा देने वाला दूसरा गुरु आपको जीवन यापन करने हेतु शिक्षा के साथ साथ सत्कर्म करने को भी प्रेरित करता है | इस दूसरे गुरु की भूमिका आपको आजीविका कमाने और परमात्मा का ज्ञान कराने के लिए आधार तैयार करने में है |
           धर्म-शास्त्रों में पढ़े हुए को आत्मसात करना बहुत ही मुश्किल है; क्योंकि व्यक्ति स्वयं के पढ़े हुए की व्याख्या अपने स्वभाव और विवेक के अनुसार ही करता है | स्वभाव पूर्वजन्म के संस्कार और वर्तमान जीवन की अभिलाषा से बनता है | आप उस पढ़े गए ज्ञान के माध्यम से सही मार्ग की तलाश कर भी सकते हैं और नहीं भी कर पाते है | सही मार्ग की पहचान करने के लिए हमें एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है, जो अपने लिए सही मार्ग तलाश कर उस पर चल रहा हो | वह व्यक्ति ही आपका गुरु होता है | पुस्तकीय ज्ञान केवल सैद्धांतिक ज्ञान ही होता है, प्रायोगिक अथवा व्यवहारिक ज्ञान नहीं | सैद्धांतिक ज्ञान से आप यह अवश्य ही जानते हैं कि हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को  मिलाने से जल बनता है परन्तु जब तक आपको जल के निर्माण का प्रायोगिक ज्ञान नहीं हो जाता तब तक व्यवहार रूप से आप जल को नहीं बना सकते | एक पंडित और कथा वाचक के पास केवल सैद्धांतिक ज्ञान ही होता है; जबकि एक गुरु के पास सैद्धांतिक ज्ञान के साथ साथ प्रायोगिक और व्यवहारिक ज्ञान भी होता है | मेरे समस्त संकलन उन्हीं महान संतो से ( जिनमें प्रमुख थे, ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदास जी महाराज)  मिला आशीर्वाद है, जो मेरी लेखनी के माध्यम से व्यक्त हो रहा है | इसी प्रायोगिक और व्यवहारिक ज्ञान को धार मिल्र रही है, हरिः शरणम् आश्रम के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा से | उनका मेरे बड़े भाई से गुरु के रूप में परिवर्तित हो जाना मुझे सदैव ही आनंदित करता रहता है | उनके ज्ञान के समक्ष मेरा यह कथित ज्ञान तुच्छ है और मैं अपने जीवन में उनका सदैव ऋणी रहूँगा |
       प्रथम और द्वितीय गुरु की भूमिका आपको योग्य बनाने तक है, परन्तु तीसरे गुरु की भूमिका आपके मनुष्य जीवन को सार्थक बनाने में है | वैसे मेरे इस जीवन में तीसरे गुरु के रूप में बहुत से संत-महात्मा हैं परन्तु परमात्मा-विषयक ज्ञान में अंगुली थाम कर राह दिखाने वाले आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा की महत्वपूर्ण भूमिका है | मेरा यह परम सौभाग्य है कि उनका स्नेह और सानिध्य मुझे सतत मिल रहा है | आज गुरु पूर्णिमा के दिन मैं सादर वंदन करते हुए उन्हें साष्टांग प्रणाम करता हूँ |
                    || हरिः शरणम् ||          

   

Monday, July 18, 2016

श्री मद्भागवत महापुराण से-

                   महाभारत और गीता में इन्द्रियों, मन और बुद्धि के बारे में जो कुछ कहा गया है, भागवत में वही बात और अधिक स्पष्ट हो जाती है | 
भागवत में भगवान श्रीकृष्ण उद्धव को कहते हैं -
मनोगतिं न विसृजोज्जितप्राणो जितेन्द्रियः |
सत्वसम्पन्नया बुद्ध्या मन आत्मवशं नयेत् || भागवत-11/20/20 ||
अर्थात मनुष्य को चाहिए कि वह इन्द्रियों और प्राणों को अपने वश में रखे और मन को एक क्षण के लिए भी स्वतन्त्र न छोड़े | उसकी एक-एक चाल, एक-एक हरकत को देखता रहे | इस प्रकार सत्व संपन्न बुद्धि के द्वारा धीरे-धीरे मन को अपने वश में कर लेना चाहिए |
      अतः यह स्पष्ट है कि सत्व संपन्न बुद्धि अर्थात स्व-विवेक से ही मन को नियंत्रित किया जा सकता है परन्तु अगर बुद्धि सत्व संपन्न न होकर स्वयं ही पथभ्रष्ट हो जाये तो क्या किया जा सकता है ? बुद्धि को भी सही मार्ग पर रखना आवश्यक है और यह बुद्धि परमात्मा की भक्ति करने से ही सही मार्ग पर रह सकती है अन्यथा यह कामनाओं के प्रभाव से पथच्युत हो सकती है | इस बारे में भागवत में ही लिखा है कि परमात्मा के भक्त की बुद्धि स्थिर रहती है, कभी भी विचलित नहीं हो सकती |
न धीर्मय्येकभक्तानामाशीर्भिर्भीद्यते क्वचित् || भगवत-10/51/60 ||
भगवान् श्री कृष्ण राजा मुचुकुन्द से कहते हैं कि मेरे जो अनन्य भक्त हैं, उनकी बुद्धि कभी भी कामनाओं से इधर उधर नहीं भटकती |
यह अनन्य भक्ति प्राप्त होती है सत्संग से, गुरु के सानिध्य से | अतः ध्यान रहे, सत्संग और गुरु का प्रभाव ही आपको विवेकशील और परमात्मा का अनन्य भक्त बना सकता है | आपको भी सद्गुरु मिले, यही परमेश्वर से प्रार्थना है | कल गुरु पूर्णिमा है, आप सभी अपने गुरु का वंदन अवश्य करें |

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, July 17, 2016

श्री मद्भागवत गीता से-

        महाभारत में जो बात मन और इन्द्रियों के विषय में कही गई है, वही बात गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं –
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथिनी हरन्ति प्रसभं मनः || गीता-2/60 ||
अर्थात हे अर्जुन ! आसक्ति का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियां यत्न करते हुए बुद्धिमान मनुष्य के मन को बलात हर लेती है |
भोगों की बार बार चाहना ही भोगों के प्रति आसक्ति है | भोगों को उपलब्ध कराना इन्द्रियों का कार्य है | इन्द्रियों का स्वभाव है कि वे भोगों की तरफ आकृष्ट होती रहती है परन्तु बिना मन की सहमति के वे भोग उपलब्ध कराने में असहाय होती है | ऐसी स्थिति में ये इन्द्रियां बार बार भोगों की ओर दौड़ती रहती है और उनके इस प्रमथन स्वभाव के कारण मन भी दीर्घ काल तक प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता | अंततः इन्द्रियां मन को अपने वश में कर ही लेती है | मन के वश में होते ही बुद्धि भी निष्प्रभावी हो जाती है | मनुष्य ऐसी परिस्थिति में मन, इन्द्रियों और भोगों के पराधीन होकर रह जाता है |
            बुद्धि अगर मन पर पूर्ण नियंत्रण रखे तो ही इन्द्रियों को वश में किया जा सकता है, अन्यथा नहीं | बुद्धि मनुष्य का मुख्य आधार है, जो उसे अन्य प्राणियों से विशेषता प्रदान करता है | ज्योंहि बुद्धि का प्रभाव मन पर ढीला पड़ता है, इन्द्रियां उस मन को अपने पक्ष में कर लेती है | एक बार मन का भटकना प्रारम्भ हुआ कि मनुष्य का पतन होना निश्चित है | अतः केवल बुद्धि ही मनुष्य को किसी भी संभावित पतन से बचा सकती है |

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, July 16, 2016

महाभारत से-

महाभारत से-
चलानि हिमानि षडिन्द्रियाणि
तेषां यद्यद् वर्धते यत्र यत्र |
ततस्ततः स्रवते बुद्धिरस्य
छिद्रोदकुम्भादिव नित्यमम्भः || महा./उदयोग.-36/48 ||
मन सहित छहों ज्ञानेन्द्रियाँ बड़ी चंचल है | उनमें से जो भी इन्द्रिय जिस जिस विषय में आगे बढ़कर भोग करती है, वहां वहां से मनुष्य की बुद्धि ऐसे ही क्षीण होती चली जाती है; जैसे छेद  वाले जल के घड़े में से लगातार जल बहता रहता है |
           महाभारत के उद्योग पर्व से उद्घृत यह श्लोक स्पष्ट करता है कि यह मन बड़ा ही चंचल है, जिस कारण से इसे नियंत्रण में रखना बहुत ही मुश्किल है | मन के कारण ही इन्द्रियां स्वच्छंद होकर भोगों में लग जाती है | सतत भोग मनुष्य के शरीर और बुद्धि दोनों का ही नाश करते हैं | प्रारम्भ में ये भोग मनुष्य को शारीरिक सुख प्रदान करते हैं, परन्तु लगातार इन इन्द्रियों के भोगों में लगे रहने से दुःख का कारण बनते हैं | यह दुःख मिलता है, शारीरिक व्याधि के रूप में, मानसिक आधि के रूप में और फिर बार बार 84 के व्यूह में फंसने के रूप में | अतः मन को जीवन के प्रारम्भ काल से ही नियंत्रण में रखने का प्रयास करे | उसके कहे अनुसार न चले, बुद्धि का उपयोग करें जो मनुष्य नाम के प्राणी को परमात्मा से आशीर्वाद स्वरुप मिली है | कबीर ने कहा भी है-
मन के मते न चालिए, मन के मते अनेक |
|| हरिः शरणम् || 

Friday, July 15, 2016

चिराग और जिन्न-समापन कड़ी

              इस जिन्न (मन) को नियंत्रित कर सकते हैं, हम अपनी बुद्धि से | परमात्मा ने हमें बुद्धि दी है, उस बुद्धि से स्वयं में विवेक पैदा करें और उस विवेक से मन को परमात्मा में लगा दें | पाठ्यक्रम में जो कहानी थी, उसमें बोतल खोल जिन्न को बाहर निकालने वाला व्यक्ति अपने विवेक का उपयोग करता है | वह जिन्न को कहता है कि तुम इतने विशाल शरीर के मालिक हो, मुझे विश्वास नहीं हो रहा है, तुम इतनी छोटी सी बोतल में कैसे समा सकते हो ? मेरी मरने से पहले एक इच्छा है कि मैं यह देखूं कि एक विशालकाय जिन्न भी इस छोटी सी बोतल में समा सकता है | जिन्न उसका आग्रह मान कर पुनः उस छोटी सी बोतल में घुस जाता है | तत्काल ही वह व्यक्ति बोतल का ढक्कन लगा देता है | इस प्रकार जिन्न पुनः कैद हो जाता है अर्थात नियंत्रित हो जाता है | ठीक इसी प्रकार हमें भी अपने मन को बाहर संसार में भटकने से रोकना है |
        जहाँ मन है, वहां अहंकार भी है और जहाँ अहंकार है वहां विनाश तो होगा ही | मन में अहंकार तभी पैदा होता है, जब मन को खाली और खुला छोड़ दिया जाये क्योंकि स्वतन्त्र मन कुछ ऐसा करना चाहेगा, जिसमें कर्तापन का भाव हो | कर्ता भाव रखना ही अहंकार पैदा करना है | कामनाओं और तृष्णाओं की पूर्ति में लग जाने के कारण ही मन ऐसे कर्मों को करने में उलझ जाता है जो अहंकार उत्पन्न करे | ऊपर वर्णित श्लोक हमें इस बात का स्पष्ट इशारा भी कर रहा है |
           परमात्मा कहते हैं, ‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन’, अतः परमात्मा की आज्ञा तो माननी ही पड़ेगी | निमित्त मात्र बन जाओ और इस चिराग (भौतिक शरीर) में अवस्थित जिन्न (चित्त) को परमात्मा में लगा दो | फिर देखो, यह जिन्न (चित्त) कैसे आपको मृत्यु के भय से दूर कर मुक्ति की ओर ले जाता है | यही मर्म छुपा है, बचपन में सुनी इस अलादीन के चिराग और इसके भीतर बैठे हुए जिन्न की कहानी में |

                     || हरिः शरणम् ||         

Thursday, July 14, 2016

चिराग और जिन्न-4

                 अब हमारे सामने यही प्रश्न आता है कि फिर इस जिन्न को, इस मन को ऐसा कौन सा कार्य बताया जाये जिससे यह मन वासनाओं में न उलझे | इसके लिए यह आवश्यक है कि मन अर्थात इस चित्त की वृतियों का निरोध किया जाये | चित्त की वृतियों  के निरोध को ही योग साधना कहा गया है |
        चित्त की वृतियों क्या है यह हम सब जानते ही हैं, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद आदि | एक परमात्मा में चित्त लगाना ही चित्त की वृतियों पर नियंत्रण करना है | अतः सदैव मन को परमात्मा में ही लगायें | संसार में मन को लगाने से वह वासनाओं और तृष्णाओं में ही जाकर फंसेगा |
 गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                   मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
                   अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसी विनंक्ष्यसि || गीत18/58 ||
अर्थात उपर्युक्त प्रकार से मुझ में चित्त वाला होकर तू मेरी कृपा से समस्त संकटों को अनायास ही पार कर जायेगा और यदि अहंकार के कारण मेरे वचनों को नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायेगा अर्थात परमार्थ मार्ग से भटक जायेगा |

              परमात्मा कहते हैं कि मैंने यह संसार केवल भोगों के लिए नहीं बनाया है, बल्कि आत्म-ज्ञान के लिए बनाया है | जिस दिन आत्म-ज्ञान हो जायेगा, हम इस मन को भटकने से रोक सकते हैं |  परमात्मा की सुंदर सृष्टि को हम सब देखते हैं परन्तु उस परमात्मा को कोई नहीं देखता | प्रभु की कृपा से ही हम इस मायावी संसार सागर के पार जा सकते हैं, अपने निजी प्रयास से नहीं | जब तक हम इस एक जीव की चेतना में है तब तक परमात्मा की माया का आवरण नहीं हटेगा | हमारे ऊपर परमात्मा की कृपा होने से ही यह माया का छद्म आवरण हट सकता है और इसके लिए परमात्मा के प्रति समर्पण आवश्यक है |
क्रमशः 
                       || हरिः शरणम् ||          

Wednesday, July 13, 2016

चिराग और जिन्न-3

                        अभी पीछे एक दिन ईद का अवकाश था और मैं घर पर यूँ ही बैठा था | कोई काम नहीं था मेरे पास | मस्तिष्क में कई विचार आ जा रहे थे | कभी शिक्षा प्राप्त करने वाले दौर को याद करता, कभी आश्रम व आचार्यजी का स्मरण होता और कभी कभी बचपन की चुहलबाजी को याद कर हंस पड़ता | उसी विचारों के प्रवाह में बहते उतरते बचपन में सुनी इसी कहानी पर आकर मस्तिष्क ठहर गया | मैं यह कल्पना करने लगा कि क्या ऐसा कोई चिराग और उसमें कोई जिन्न भी हो सकता है कि जो कभी काम करते थकता भी न हो, जो कभी खाली भी नहीं रह सके ? अचानक मेरे दिमाग में एक बात कौंधी कि अभी मैं भी खाली बैठा हूँ क्या ? गहराई से सोचा तो पता चला कि मेरे पास आज कोई काम नहीं है और मैं तो खाली हूँ परन्तु फिर सोचा कि मस्तिष्क में यह विचारों का प्रवाह कैसे चल रहा है ? गहरे से अनुभव किया तो पता चला कि यह विचार तो मन के भीतर चल रहे है | यह तो मेरा मन ही है, जो कभी खाली नहीं बैठ सकता |  यह अलादीन का चिराग अथवा वह बंद बोतल ही तो मनुष्य का शरीर है और यह जिन्न उस शरीर में अवस्थित मन है, जो कभी भी खाली बैठा रह ही नहीं सकता |

            ओहो ! दादी जब कहानी सुनाती थी, तब हम उस जिन्न की कल्पना कर के ही डर जाते थे ओर दादी के और अधिक निकट जाकर उनसे चिपक कर सो जाते थे | आज पता चला है कि अपना मन ही वह जिन्न है और आज हम सब जिन्न से भी अधिक डरावने अपने मन से बिलकुल भी नहीं डर रहे हैं | यह मन का खाली न रह पाना, इस मन का  बेवजह इधर उधर भटकाव ही व्यक्ति की मृत्यु है | जब तक इस जिन्न रूप मन को काम में लगाये रखेंगे तब तक सब ठीक चलता रहेगा और ज्योंही इसको जरा सा भी खाली छोड़ दिया, यह आपको वासनाओं के जाल में, तृष्णाओं के भँवर में डाल देगा और फिर मृत्युपर्यंत उसी में फंस के रहना होगा | वासनाएं किसी भी प्रकार से मृत्यु से कम नहीं है | बचपन से जिस जिन्न से डरते थे, आज उसी जिन्न को हम आराम से भटकने दे रहे हैं, अपनी कामनाओं और वासनाओं की पूर्ति के लिए; यह जानते हुए भी कि एक दिन हमें ही यह जिन्न मार डालेगा |
                        || हरिः शरणम् ||

Tuesday, July 12, 2016

चिराग और जिन्न-2

            आज टीवी सुनाता है, टॉम व जेरी, डोरेमोन आदि की कहानियां, जो न तो ज्ञानवर्धक होती हैं और न ही स्वस्थ मनोरंजन करती है | बच्चे का मस्तिष्क एक काल्पनिक संसार में भ्रमण करने लगता है और वह धीरे धीरे वास्तविकता से दूर जाने लगता है | इन कहानियों का कथानक इतना अधिक प्रभावशाली होता है कि सतत देखे जाने पर बच्चा कुछ ही दिनों में एक कल्पना लोक में जीने लगता है | मैंने ऐसे बच्चे देखें हैं, जो टीवी पर ऐसे ही किसी एक कार्यक्रम को नशे की हद तक पसंद करते हैं और इसके आदी हो चुके हैं |
             कहाँ भटक गया मैं भी, बात कह रहा था बचपन में सुने हुए किस्से - कहानियों की और पहुँच गया आज के दौर में | मैं आप से आग्रह करता हूँ कि पुरानी सुनी गयी कहानियों को एक बार फिर याद करें, अपने से आगे की पीढ़ी को सुनाएँ और साथ ही साथ उनके भीतर के मर्म को जानने का प्रयास भी करें | वे कहानियां आपको एक अलग रूप से सोचने को विवश कर देंगी |

             चलिए, मैं भी आपको ऐसी ही बचपन में सुनी एक कहानी सुनाता हूँ | कहते हैं, अलादीन के पास एक चिराग था उसमें एक जिन्न था जो चिराग को घिसने से बाहर निकल आता था | उस जिन्न में एक खूबी थी कि वह कभी भी खाली नहीं बैठ सकता था | उससे कोई न कोई काम करवाते रहना आवश्यक था | अगर उसको कोई काम नहीं मिलता तो वह उस चिराग को घिसने वाले को ही मार डालता था | एक बार यह चिराग किसी एक व्यक्ति के हाथ लग गया | उसने ज्यों ही उसे घिसा, जिन्न उसके सामने हाज़िर हो गया | बड़े होने पर इसी से मिलती जुलती एक कहानी हमारे पाठ्यक्रम में भी होती थी | उसमें जिन्न चिराग के स्थान पर एक बोतल में बंद होता है | बोतल का ढक्कन खोलते ही जिन्न बाहर आकर काम पूछता है | कोई अंतर नहीं है, दोनों ही कहानियों के मूल सन्देश में | वह जिन्न बाहर निकलते ही काम बताने की कहने लगा | उस व्यक्ति ने उसे कई काम बताये, जिन्न ने तुरंत ही वे सब काम कर डाले | जब व्यक्ति के सभी काम हो गए और कोई काम कराने को शेष नहीं रहा तो जिन्न ने उस व्यक्ति को .............| आगे आप इस कहानी को समझ ही गए होंगे | इसे मैं एक कहानी मात्र ही समझता रहा, जीवन भर |
क्रमशः  
                       || हरिः शरणम् ||

Monday, July 11, 2016

चिराग और जिन्न-1

                  मनुष्य का बचपन शैक्षिक वातावरण के लिए बहुत ही अनुकूल होता है | आज विज्ञान भी यही कहता है कि अगर बचपन से ही बालक को अच्छी शिक्षा दी जाये तो बड़ा होकर वह अपने परिवार, समाज और देश के लिए उपयोगी साबित हो सकता है | मैं इस विज्ञान से भी दो कदम आगे जाकर एक बात इसमें और जोड़ना चाहता हूँ | मैं कह रहा हूँ कि अगर बचपन में बालक को अच्छे वातावरण में जीवनोपयोगी किस्से कहानियां सुनाई जाये तो भविष्य में वह स्वयं भी एक अच्छा नागरिक साबित होगा और बचपन की शिक्षाएं उसका जीवन भर मार्गदर्शन भी करती रहेगी | हमारे बचपन में संयुक्त परिवार हुआ करते थे | हमारे पिताजी भारत के सुदूर पूर्व में आजीविका कमाने के लिए कम से कम एक वर्ष के लिए जाते थे | आज के युग की तरह आवागमन के इतने अधिक और त्वरित साधन तो थे नहीं जो प्रत्येक महीने अपने घर आ जाये |कभी कभी तो अधिक व्यस्तता के कारण दो साल बाद ही उनका आना होता था |ऐसे में हमारे लालन पालन की जिम्मेवारी हमारी माताजी और दादी जी के  कन्धों  पर होती थी |

               रात को जब सोने जाते थे, तब तत्काल नींद नहीं आती थी | हमारी दादी उस समय हमें बड़ी अच्छी और ज्ञानवर्धक कहानियां सुनाया करती थी | उस बचपन में हमें वे कहानियां मात्र एक कहानी से अधिक कुछ भी नहीं लगती थी परन्तु आज जब हम उस कहानी को याद कर विश्लेषण करते हैं, तब उस कहानी के पीछे छुपे हुए मर्म उजागर होते हैं | आपने भी अपने बचपन में ऐसी ही अनगिनत कहानियां अपने दादा-दादी से अवश्य ही सुनी होगी | उनमें कुछ कहानियां इस प्रकार की होती थी- एक राक्षस के प्राण एक तोते में होना, झिन्तिया का अपने ननिहाल ढोलक में बैठ कर जाना, अलादीन का चिराग और उसमें जिन्न का बंद होना, लोमड़ी के द्वारा अंगूर खट्टे बताना, दो बैलों की दोस्ती और सिंह द्वारा उनकी दोस्ती तुडवाना, भगवान् राम और रावण के युद्ध की कहानी, कालिदास की मूर्खता की कहानी आदि सैंकडों कहानियां आपने बचपन में अवश्य ही सुनी होगी | आज के बच्चे ऐसे बचपन से बहुत दूर निकल गए हैं | संयुक्त परिवार व्यवस्था दम तोड़ रही है और एक बच्चे को दूसरा बच्चा साथी के रूप में नहीं मिल रहा है | कहानियां टीवी सुनाता है, खेलता है यंत्रित खिलोनों से और वही बच्चा बड़ा होकर एक यंत्रित व्यवहार करने वाला नागरिक बनता है |                 
क्रमशः 
                  || हरिः शरणम् ||

Sunday, July 10, 2016

भक्ति और मुक्ति-3 समापन कड़ी

                        यह स्पष्ट है कि सांसारिकता से तो भक्त मुक्त हो ही जाता है परन्तु वह भक्ति से आगे की पूर्ण मुक्ति अर्थात मोक्ष बिलकुल भी नहीं चाहता | सालोक्य से सायुज्य तक के सभी मोक्ष की वह अवहेलना ही करता है | ऐसी स्थिति में जो दृश्य बनता है, आइये तनिक उसकी कल्पना करें | वह ब्रह्माण्ड की सम्पूर्णता में परमात्मा को देखता है, यहाँ तक कि स्वयं को भी; परन्तु परमात्मा से अलग खड़ा होकर | हालाँकि वह समस्त के साथ साथ स्वयं में भी परमात्मा का उपस्थित होना मानता है परन्तु साथ ही साथ परमात्मा से अपने आपको भिन्न भी मानता है | इसका कारण है कि सामीप्य से लेकर सायुज्य मोक्ष की उपलब्धि हो जाने पर भक्त का सेवा भाव और प्रेम तिरोहित हो सकता है | इसी कारण से भक्त कभी मोक्ष की कामना तक नहीं करता है | परमात्मा के साथ सायुज्य हो जाने पर कौन तो सेवा करवाए और कौन सेवा करे ? सेवा और प्रेम करने के लिए दो का होना आवश्यक है | अतः पहुंचा हुआ भक्त कभी भी मोक्ष की कामना नहीं करता क्योंकि मोक्ष होते ही भक्त और भगवान का सायुज्य हो जाता है अर्थात दो का मिलन होकर केवल एक परमात्मा ही रह जाते हैं | जो आनंद परमात्मा के साथ रहने से है उससे अधिक आनंद परमात्मा से अलग रहकर उसकी सेवा करने में है, उस परमात्मा और उसकी समस्त सृष्टि से प्रेम करने में है | अतः भक्ति को मोक्ष से महत्वपूर्ण कहा गया है | कबीर ने इसी मोक्ष को ठुकराते हुए कहा भी है –
       राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय |
      जो सुख साधु संग में, सो वैकुण्ठ न होय ||
          इस का  स्पष्ट अर्थ यही है कि मोक्ष की कामना को एक तरफ रख दीजिये, परमात्मा से प्रेम कीजिये | संसार की निष्काम भाव से सेवा करना ही परमात्मा से प्रेम करना है | इस भौतिक शरीर को त्यागने के साथ ही सायुज्य मोक्ष और निर्वाण पद मिलना तय है, परन्तु तभी जब आपका लक्ष्य केवल प्रेम करना हो; भक्ति हो, मोक्ष पाना नहीं |

                   || हरिः शरणम् ||

Saturday, July 9, 2016

भक्ति और मुक्ति-2

                     वेदों ने भक्ति की राह में आने वाली ऐसी ही मुक्ति के चार भेद बताएं है | प्रथम प्रकार की मुक्ति है, “सालोक्य” प्रदान करने वाली, दूसरी प्रकार की मुक्ति है, “सारूप्य” प्रदान करने वाली, तीसरी मुक्ति है, “सामीप्य” प्रदान करने वाली तथा चौथी और अंतिम प्रकार की मुक्ति है, “निर्वाण” पद तक पहुँचाने वाली | परमात्मा का परम भक्त कभी भी ऐसी किसी भी प्रकार की मुक्ति नहीं लेना चाहता, वह तो सदैव प्रभु की सेवा में ही लगे रहना चाहता है | भक्त पुरुष तो शिवत्व, विष्णुत्व, अमरत्व व ब्रह्मत्व तक की अवहेलना करते है | भक्ति में निरंतर सेवा भाव बना रहता है, जब कि मुक्ति सेवा रहित होती है | यही भक्ति और मुक्ति में मूलभूत अंतर है |
           इसी बात को भागवत में महामुनि कपिल अपनी माता देवहूति को भक्ति के बारे में पूछने पर स्पष्ट करते हैं और कहते हैं कि –
          सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत |                                                 दीयमानं न गृहँन्ति विना मत्सेवनं जनाः || भागवत 3/29/13 ||
    अर्थात जो मेरे निष्काम, निर्गुण भक्त है, वे दिए जाने पर भी मेरी सेवा को छोडकर सालोक्य, सार्ष्टि, सामीप्य, सालोक्य और सायुज मोक्ष तक नहीं लेते |
सालोक्य = भगवान के नित्य धाम में निवास |  
सार्ष्टि = भगवान के समान ऐश्वर्य भोग |
सामीप्य = भगवान की नित्य समीपता |
सारूप्य = भगवान का सा रूप |

सायुज्य = भगवान के विग्रह में समा जाना, उनसे एक हो जाना या ब्रह्मरूप को प्राप्त कर लेना |      यही निर्वाण पद को प्राप्त कर लेना है |
क्रमशः 
                   || हरिः शरणम् ||

Friday, July 8, 2016

भक्ति और मुक्ति-1

भक्ति और मुक्ति –
           हम प्रायः भक्ति और मुक्ति इन दो शब्दों का प्रयोग एक दूसरे के सम्बन्ध में करते हैं | जैसे की प्रभु कि प्रार्थना में हम कहते हैं ‘भक्ति मुक्ति दाता’ | कथा करने वाले पंडित भी कहते रहते हैं, मुक्ति चाहिए तो परमात्मा की भक्ति कीजिये अथवा भक्ति से मुक्ति की प्राप्ति होती है आदि | यह विडंबना ही है कि इन दोनों ही शब्दों को अनुचित रूप से प्रयोग में लिया जा रहा है | भक्ति पर अभी कुछ समय पूर्व ही मैंने स्पष्ट करने का प्रयास किया था और आपके समक्ष प्रस्तुत भी किया था | आज इन्हीं भक्ति और मुक्ति के आपस के भेद को स्पष्ट करने का प्रयास कर रहा हूँ, जिससे हम लोग भ्रम में न रहें और अपना आचरण उसी अनुरूप रखें | वैसे भक्ति और मुक्ति में अधिक भेद नहीं है परन्तु अति अल्प अंतर भी शब्दों को समझने में उनके अर्थ का अनर्थ कर देते हैं | यह सत्य है कि संसार के विकारों से मुक्त होकर भक्ति को पाया जा सकता है और यह भी सत्य है कि भक्ति की पराकाष्ठा मुक्ति अर्थात मोक्ष को भी प्राप्त करा देती है |

              भक्ति, भगवान के सन्मुख होने का नाम है और मुक्ति इस भौतिक संसार से मुक्त हो जाने को कहते हैं | संसार से मुक्त होने का अर्थ केवल शरीर से मुक्त होना नहीं है बल्कि सांसारिकता को त्यागने से है | जब भक्ति का विस्तार होता है, तब मुक्ति का आगमन होता है | सांसारिकता से मुक्त होना आवश्यक है परन्तु भक्ति-मार्ग पर चलते हुए मुक्ति के जो विभिन्न रूप भक्त के सामने आते हैं, भक्त उन सबकी अवहेलना ही करता है क्योंकि जो आनंद भक्ति में उसे मिलता है, वह मुक्ति में कहाँ है ? दूसरे शब्दों में कहूँ तो पूर्ण मुक्ति की अवस्था को ही को मोक्ष कहा जाता है |
क्रमशः 
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, July 7, 2016

एक जिज्ञाषा |

               “प्रेय से श्रेय की ओर” लेख पर कुछ प्रश्न मिले हैं | प्रायः प्रश्नों के उत्तर उसी लेख को पूर्ण रूप से एक साथ पढ़ने पर मिल जाएंगे | एक प्रश्न आदरणीय श्री कन्हैया लाल जी शर्मा का दिल्ली से है | प्रश्न तो उसको नहीं कहा जा सकता बल्कि उस लेख में आयी एक बात को उन्होंने उत्कंठा वश थोडा और स्पष्ट करने का आग्रह किया है |
        ‘परमात्मा को मनुष्य नाम के प्राणी के निर्माण की आवश्यकता ही क्यों हुई ? केवल प्रेय में ही लगे रहने के लिए नहीं बल्कि साथ ही साथ श्रेय को जानने के लिए भी | अगर सभी प्राणी प्रेय-मार्ग के अनुगामी बने रहते तो इस सृष्टि का काल चक्र भी थम जाता | विभिन्न कल्पों और बारम्बार सृष्टि की रचना का आधार ही ये दो मार्ग हैं | किसी एक मार्ग का होना अर्थात केवल एक मार्ग पर प्राणियों का चलना सृष्टि की परिवर्तनशीलता में बाधक है | यह एक अलग विषय है, जो काल की गति, विभिन्न सृष्टियों की रचना, युगों और कल्पों की अवधारणा को पुष्ट करता है | इसकी चर्चा फिर आगे कभी करेंगे |’
          लेख से उपरोक्त अंश उद्घृत करते हुए उन्होंने लिखा है कि मनुष्य के द्वारा किसी एक मार्ग पर चलना कठिन है, इसे और स्पष्ट करें |
        प्रेय से श्रेय की ओर मनुष्य जाना तो चाहता है परन्तु उसका मानसिक द्वंद्व उसे बार बार  मार्ग बदलने को विवश करता रहता है | प्रेय मार्ग पर चलते हुए जब इन्द्रिय सुख शारीरिक व्याधि अथवा दुःख में परिवर्तित होने लगते हैं तब वह श्रेय मार्ग के सम्मुख होता है और जब वह श्रेय मार्ग पर चलता है तब मन पुनः उन इन्द्रिय सुखों की कामना करने लग जाता है | ऐसे वह बार बार श्रेय मार्ग को त्यागकर इन्द्रिय संसार में लौटता रहता है | इस प्रकार यह द्वंद्व उसे कहीं का नहीं छोड़ता | ब्रह्मलीन स्वामी रामसुख दासजी महाराज कहा करते थे –
    कुछ श्रद्धा कुछ दुष्टता, कुछ संशय कुछ ज्ञान |
    घर का रहा न घाट का, ज्यों धोबी का श्वान ||
     ठीक इसी धोबी के कुत्ते की तरह ही मनुष्य की मानसिकता हो गई है | आया के साथ आया और गया के साथ गया | कभी प्रेय अच्छा लगता है और कभी श्रेय | इसी द्वंद्व में वह न तो संसार का होकर रह पाता है और न ही परमात्मा को पा सकता है | कभी इस पर और कभी उस पर चलते हुए वह इस संसार में ही उलझा रहता है और आवागमन से मुक्त नहीं पाता | मनुष्य का किसी एक मार्ग पर निरंतर चल पाना इसी मन के द्वन्द्व के कारण संभव नहीं है |
             केवल श्रेय के मार्ग को अपना लेने मात्र से ही इस संसार में आवागमन से मुक्ति मिल जाएगी और अगर सभी मनुष्य श्रेय मार्ग पर चलने लगे तो फिर शेष 84 लाख योनियों में जन्म किसका होगा ? ऐसे में ये सभी प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी और सृष्टि का काल चक्र रूक जायेगा | इसी सृष्टि के काल चक्र को निरंतर चलाते रहने के लिए ही परमात्मा ने मन की रचना की है | मन की उपस्थिति के कारण ही यह जीव मनुष्य कहलाता है | मन है, तो द्वंद्व है और द्वंद्व के कारण कभी श्रेय और कभी प्रेय | फिर वही 84 लाख में भटकना | सब प्रभु की लीला है | जिस मनुष्य ने प्रभु की इस लीला को समझ लिया, वह श्रेय को अपनाकर एक ही छलांग में संसार चक्र से बाहर निकल आता है |

               || हरिः शरणम् ||   

Wednesday, July 6, 2016

नवधा-भक्ति-7-समापन कड़ी

                भक्ति कोई विवेचन का विषय नहीं है; बल्कि जीवन में आत्मसात करने का विषय है | नवधा-भक्ति के अंतर्गत बताये गए नौ साधनों में से किसी भी एक साधन को मन लगाकर अपना लेने पर भगवत प्राप्ति हो जाती है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है | इस भौतिक संसार में और विशेष रूप से इस कलियुग में एक मात्र भक्ति ही आत्म-कल्याण का मार्ग है | पूर्वकाल में नवधा-भक्ति के एक एक साधन पर चलने वाले महापुरुषों और योगियों ने निष्ठां पूर्वक पालन करते हुए उदाहरण प्रस्तुत किया है | प्रत्येक भक्ति के साधन का एक एक उदाहरण आपके समक्ष प्रस्तुत है-
प्रथम भक्ति- श्रवण- महाराज परीक्षित, जिन्होंने मन लगाकर शुकदेव से भागवत सुनी |
द्वितीय भक्ति- कीर्तन- आचार्य शुकदेव, जिन्होंने राजा परीक्षित को भागवत सुनाई |
तृतीय भक्ति- विष्णु स्मरण-भक्त प्रह्लाद, हिरण्यकशिपु का पुत्र, जिसने अपने जीवन में कभी श्री हरि को विस्मृत नहीं होने दिया |
चतुर्थ भक्ति- पाद सेवन- लक्ष्मीजी, जो सदैव विष्णु के पाँव दबाती हुई उनकी सेवा में रत रहती है |
पंचम भक्ति- अर्चन- राजा पृथु |
षष्ठी भक्ति – वंदन- अक्रूरजी |
सप्तम् भक्ति- दास्य- हनुमानजी महाराज, भगवान् श्री राम के दास |
अष्टम भक्ति- सख्य- महान धनुर्धारी अर्जुन, भगवान् श्री कृष्ण के मित्र |
नवम् भक्ति- आत्म-निवेदन- महान राजा बलि |
    इसी प्रकार आज के युग में भी कई महापुरुष मिल जायेंगे जो इन्हीं नौ में से किसी एक साधन को अपनाकर महान भक्तों की श्रेणी में सम्मिलित हो गए | आवश्यकता है, मन लगाकर साधन को अपनाने की | परमात्मा आपको भी किसी एक साधन को अपनाने को प्रेरित करे |
                   || हरिः शरणम् ||

Tuesday, July 5, 2016

नवधा-भक्ति-6

भक्ति को समझने के लिए भागवत का दसवां स्कंध सबसे महत्वपूर्ण है | इसके 29 से 33 वें अध्याय में रास लीला का वर्णन आता है | भागवत के 10 वें स्कंध के इन पाँच अध्यायों को लेकर विभिन्न हिंदी और संस्कृत के लेखकों ने ‘रास पंचाध्यायी’ की रचना की है | इनमें मुख्य हैं- रहीम खानखाना, हरिराम व्यास और नवलसिंह कायस्थ | रास पंचाध्यायी का महत्त्व प्रेमाभक्ति के सन्दर्भ में उल्लेखनीय है | ‘रास पंचाध्यायी’ में प्रसंग आता है, रास लीला का | शरद पूर्णीमा की रात को बांसुरी की मधुर ध्वनि को सुनकर गोपियाँ भगवान् श्री कृष्ण के पास आती है और प्रत्येक गोपी स्वयं के साथ रास का आग्रह करती है | कृष्ण उन्हें वापिस लौट जाने का निवेदन करते हैं परन्तु गोपियाँ अपना आग्रह दोहराती रहती हैं | भगवान लीला करते हैं और लीला के मध्य यकायक अन्तर्धान हो जाते हैं | उस समय गोपियों की जो दशा हुई है, उसका बहुत ही सुन्दर चित्रण है | परमात्मा के विरह में भक्त की क्या दशा होती है, इसका वर्णन बहुत ही सुन्दर रूप से किया गया है | भागवत में गोपिका-गीत का अध्याय पठनीय है |
रास शब्द में रस महत्वपूर्ण है | ‘रासो वे सः’ अर्थात वे स्वयं रस है | रस का अर्थ होता है, प्रेम | परमात्मा स्वयं प्रेम है और प्रेम को प्रेम से ही पाया जा सकता है | मनुष्य में प्रेम पैदा होता है, सेवा से और सेवा का आधार है, भक्ति | अतः नवधा-भक्ति के नौ साधनों में से किसी भी एक साधन को अपनाकर परमात्मा को पाया जा सकता है |
भक्ति के प्रधान दो भेद हैं - एक साधनरूप, जिसको वैध और नवधा भक्ति के नाम से भी कहा है और दूसरा साध्यरूप , जिसको प्रेमा – भक्ति, प्रेमलक्षणा आदि नामों से कहा है | इनमें नवधा साधनरूप है और प्रेम साध्य है | श्रीमद्भागवत में प्रह्लादजी ने कहा है ' भगवान विष्णु के नाम, रूप, गुण और प्रभाव आदि का श्रवण, कीर्तन और स्मरण तथा भगवान की चरणसेवा, पूजन और वन्दन एवं भगवान में दासभाव, सखाभाव और अपने को समर्पण कर देना - यह नौ प्रकार की भक्ति है |' इस उपर्युक्त नवधा भक्ति में से एक का भी अच्छी प्रकार अनुष्ठान करने पर मनुष्य परम पद को प्राप्त हो जाता है; फिर जो नवों का अच्छी प्रकार से अनुष्ठान करने वाला है उसके कल्याण में तो कहना ही क्या है ?
क्रमशः
|| हरिःशरणम् ||

Monday, July 4, 2016

नवधा-भक्ति-5

                  भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसको सभी सुगमता से कर सकते हैं और जिसमें सभी मनुष्यों का अधिकार है | इस कलियुग में तो भक्ति के समान आत्मोद्धार के लिए दूसरा कोई सुगम उपाय है ही नहीं; क्योंकि ज्ञान, योग, तप, त्याग आदि इस समय सिद्ध होने बहुत ही कठिन है | संसार में धर्म को मानने वाले जितने लोग हैं उनमें अधिकांश ईश्वर - भक्ति को ही पसंद करते हैं | जो सत युग में श्री हरी के रूप में, त्रेता युग में श्रीराम रूप में, द्वापर युग में श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हुए थे, उन प्रेममय नित्य अविनाशी, सर्वव्यापी हरी को ईश्वर समझना चाहिए | महर्षि शांडिल्य ने कहा है ' ईश्वर में परम अनुराग, परा अनुरक्ति [ प्रेम ] ही भक्ति है |' देवर्षि नारद ने भी भक्ति - सूत्र में कहा है ' उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है और वह अमृतरूप है |' भक्ति शब्द का अर्थ सेवा होता है | प्रेम सेवा का फल है और भक्ति के साधनों की अंतिम सीमा है | जैसे वृक्ष की पूर्णता और गौरव फल आने पर ही होता है इसी प्रकार भक्ति की पूर्णता और गौरव भगवान में परम प्रेम होने में ही है | प्रेम ही उसकी पराकाष्ठा है और प्रेम के ही लिए सेवा की जाती है | इसलिए वास्तव में भगवान में अनन्य प्रेम का होना ही भक्ति है | नवधा-भक्ति में जो नौ साधन बताये गए हैं, श्रवण से लेकर आत्म-निवेदन तक; वे सभी सुगमता के साथ प्रत्येक मनुष्य के लिए उपलब्ध है और अल्प प्रयास से अपनाये जा सकते हैं |
क्रमशः 
                     || हरिः शरणम् ||