Tuesday, December 10, 2013

आत्मा से परमात्मा -उपदृष्टा |(Viewer)

                                              जब आत्मा अपने साथ चित्त को लिए नए शरीर में प्रवेश करती है तब प्रारंभिक अवस्था में उसका व्यवहार एक उपदृष्टा का होता है |शरीर में प्रवेश करने के साथ ही वह शरीर में स्थित मन के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित  कर लेती है |परन्तु उसका कार्य मात्र एक उपदृष्टा का ही रहता है |दृष्टा वह होता है जो पूरी समग्रता के साथ दृश्य को देखता है तथा उस दृश्य को देखकर वह प्रभावित भी होता है |वह उस दृश्य का एक भाग होता है और आवश्यकता होने पर हस्तक्षेप करते हुए अपनी उपस्थिति भी प्रदर्शित करता है |जबकि उपदृष्टा वह होता है जो दूर खड़े होकर पूरी समग्रता के साथ दृश्य को देखता तो है परन्तु उस दृश्य का हिस्सा बिलकुल भी नहीं होता है | वह दृश्य में हस्तक्षेप करते हुए अपनी उपस्थिति का प्रदर्शन कदापि नहीं करता है |जैसे किसी भी खेल में एक निर्णायक होता है वह उस दृश्य यानि खेल का हिस्सा होता है |वह खेल से प्रभावित भी होता है और उसमे आवश्यकता पड़ने पर हस्तक्षेप भी करता है |अतः उसे दृष्टा कहा जा सकता है |उस खेल को देख रहे दर्शक उस खेल का हिस्सा बिलकुल भी नहीं होते है |दर्शक खेल में बिलकुल भी हस्तक्षेप नहीं करते है |इसलिए दर्शक उस दृश्य का हिस्सा भी नहीं होते हैं |यहाँ दर्शक की भूमिका एक उपदृष्टा की है |सुविधानुसार हम उपदृष्टा को मात्र साक्षी कह सकते हैं |
                                    हाँ,तो प्रारम्भिक अवस्था में आत्मा एक दर्शक की भूमिका में होती है |अगर आप अपना कार्य अपनी ही मर्जी से कर रहे हो तो वह आपको कही भी और कभी भी टोकेगी नहीं | इस स्थिति में वह आपको किसी विशेष कार्य करने के लिए बाध्य भी नहीं करेगी |यह शरीर की बाल्यावस्था होती है |बचपन में सभी बच्चे नए नए कार्य करते हैं जिनसे उन्हें कई तरह के नए नए अनुभव भी होते हैं |यह सीखने की अवस्था होती है |इस अवस्था में न तो किसी कार्य करने की दक्षता होती है और न ही कार्य करने का उद्देश्य |इस अवस्था में आत्मा केवल अवलोकन का कार्य ही करती है |इस लिए उसकी भूमिका इस प्रारम्भिक जीवन काल में एक दर्शक से ज्यादा नहीं होती |यह अवस्था आत्मा का परमात्मा बनाने की दिशा का पहला पड़ाव है |यहाँ आत्मा उपदृष्टा की तरह ही होती है |
                                || हरिः शरणम् ||

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