Thursday, December 5, 2013

सम-विषम

     सम-विषम (Even-odd)
(Balanced-Unbalanced or adverse)
         श्रीमद्भागवतगीता के सारांश के अंतर्गत सबसे मुख्य बात समता और विषमता की बात है |अध्याय दो,सांख्य-योग में समत्व को ज्यादा महत्वपूर्ण माना गया है |गीता का यह समत्व आज के युग में ही नहीं यह सदैव प्रत्येक देश और काल में उपयोगी और महत्वपूर्ण है|सम और विषम में मेरे अनुसार, भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को इस आशय के साथ समझा रहे हैं-
             मानव को जीवन की मुख्य धारा में सम(Balanced)रहते हुए,सम का आचरण करते हुए पलायनवादी(Escapist)और वर्चस्ववादी(Dominant)दोनों प्रकार के मनोविज्ञान (Psychology)को त्याग देना चाहिए|लेकिन यदि परिस्थितियां विषम(Adverse) हो तो उन्हें सम(Balance)करने के लिए स्वयं को भी विषमता(Adversity) का मार्ग अपनाने में धर्मभीरु बनकर संकोच(Hesitation)नहीं करना चाहिए|
     यहाँ विचारणीय विषय यह है कि जब समता का मार्ग ही सबसे सही और उपयुक्त मार्ग है तो विषम परिस्थितियों में फिर समत्व को क्यों छोड़ देना चाहिये?जब व्यक्ति विषम परिस्थितियों से घिरा होता है ,तब वह दो तरह से व्यवहार कर सकता है |या तो वह उन परिस्थितियों से परेशांन होकर उनका सामना नहीं कर पाता और भाग खड़ा होता है,जैसा कि अर्जुन ने किया था-हथियार डाल दिए थे और कह दिया था कि युद्ध नहीं करूँगा |इसको पलायन(Escape)करना कहते हैं |या फिर वह विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकलने के लिए एक तरह के झूठे वर्चस्व(Dominance)का प्रदर्शन करता है |अपने पास उपलब्ध जितने भी साधन होते हैं उनका एक सीमा से अधिक उपयोग करते हुए वर्चस्व स्थापित करने की कोशिश करता है |पलायन और वर्चस्व दोनों ही मनुष्य की मानसिक स्थितियां है |और दोनों ही मनुष्य को सबसे ज्यादा हानि पहुंचाती है |समत्व में ये दोनों ही प्रकार की मानसिक परिस्थितियां स्वीकार्य नहीं है |
         अब प्रश्न यह पैदा होता है कि फिर विषम परिस्थितियों में मनुष्य को क्या करना चाहिए?गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि ऐसी परिस्थिति से आप भी विषमता अपनाकर ही निकल सकते हैं,और ऐसा करना कहीं से भी अनुचित नहीं है |तभी भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को आदेश देते हैं कि गांडीव उठा और युद्ध कर |इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि श्रीकृष्ण युद्ध को पसंद करते थे |नहीं,बिलकुल नहीं |अगर वे ही युद्ध को पसंद करते तो युद्ध टालने के लिए वे हस्तिनापुर पांडवों के लिए मात्र पांच गांव मांगने के लिए ही क्यों जाते?उन्होंने विषमता को समत्व के साथ दूर करने का भरपूर प्रयास किया ,परन्तु असफल रहे |और जब देखा कि युद्ध-मैदान में अर्जुन धर्मभीरु होकर ,धर्म की आड़ में पलायनवादी(Escapist) हो रहा है,तब जाकर उन्होंने युद्ध करने का ही आदेश दिया |अतः यह स्पष्ट है कि जब विषमता आपके समतापूर्वक किये जा रहे व्यवहार से भी समता में परिवर्तित नहीं हो रही हो तो आप निसंकोच विषमता का रास्ता अपना सकते हैं |इसमे कुछ भी गलत नहीं है |
              एक सटीक गणितीय उदाहरण से इस विषय को और अधिक स्पष्ट करना चाहूँगा |गणित में दो प्रकार की संख्याएँ होती है-सम और विषम |सम संख्याएँ वे होती है ,जिन्हें दो से विभाजित किया जा सकता है जैसे-२,४,६,८,१०,१२.....आदि |विषम संख्याएँ वे होती हैं जिन्हें दो से विभाजित नहीं  किया जा सकता जैसे-१,३,५,७,९,११,१३....आदि |आप किसी भी विषम संख्या को सम में परिवर्तित करने का प्रयास करें |वह विषम संख्या किसी भी सम संख्या के योग से सम संख्या में परिवर्तित नहीं होगी |प्रत्येक विषम संख्या ,विषम संख्या के योग से ही सम संख्या में परिवर्तित हो सकती है |उदाहरणार्थ-
विषम संख्या(९)+सम संख्या (८)=विषम संख्या (१७)
विषम संख्या (९)+विषम संख्या (७)=सम संख्या (१६)
     यही गणितीय सिद्धांत मानव जीवन की सम और विषम परिस्थितियों पर लागु होता है |समत्व प्राप्त करने के लिए विषमता अपनाना आवश्यक हो जाता है तो फिर निःसंकोच विषमता को अपना लेना चाहिए |यह कहीं से भी शास्त्र-विरुद्ध नहीं है|शास्त्र-विरुद्ध ही नहीं ,मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि ऐसा करना शास्त्र सम्मत है |गीता में भगवान श्री कृष्ण ने आगे कहा है -  
            जहाँ अस्तित्व(Existence)पर संकट आ जाये वहाँ संघर्ष(Struggle) करना चाहिए तथा जहाँ अस्तित्व बन जाये वहाँ सहअस्तित्व(Coexistence) को ध्यान में रखकर सभी के अस्तित्व की रक्षा करनी चाहिए|
        गीता में भगवान श्री कृष्ण कहीं पर भी अर्जुन को कायर बने रहने को नहीं कहते है |आज लोग धर्म और शास्त्रों की व्याख्या अपने अपने स्वार्थ के अनुसार कर रहे हैं |इस कारण से वे जगह जगह सनातन शास्त्रों को हंसी का पात्र बनाते हैं|जबकि वास्तविकता में प्रत्येक विषय का समुचित ज्ञान इन शास्त्रों में संग्रहित है |युद्ध और अहिंसा दोनों विपरीत नहीं है |जहाँ अहिंसा से अगर विषमता बढती हो तो फिर एक क्षत्रिय के लिए युद्ध ही धर्म बन जाता है |और युद्ध के उपरांत जब अस्तित्व बन जाता है तब सम होकर अहिंसा को ही धर्म बना लेना चाहिए जिससे सभी का अस्तित्व भी सुरक्षित रहे |

                      || हरिः शरणम् ||

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