Monday, December 2, 2013

प्रारब्ध के पञ्च-संयोग-दैव(संस्कार )

दैव(संस्कार) Hap(Ordination)                

                 प्रारब्ध के पञ्च-सयोगों में अंतिम हेतु है दैव |दैव को आप संस्कार भी कह सकते हैं |इसके अतिरिक्त अन्य लगभग समानार्थ शब्द होनी,भावी,किस्मत,भाग्य आदि माने जा सकते हैं |दैव के लिए सबसे उपयुक्त  पर्यायवाची शब्द संस्कार ही है| मानव जीवन में प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभावानुसार कर्म करता है |इन कर्मों से उसका चरित्र निर्माण होता है |धीरे धीरे उसका यह चरित्र संस्कार का रूप ले लेता है |ये उसके संस्कार जन्म दर जन्म उसके साथ चलते रहते हैं |यही संस्कार उसे कर्मों की सिद्धि प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं|अगर कर्ता व्यक्ति का दैव अर्थात संस्कार अच्छे नहीं हो तो वह चाहे कितने ही साधन के साथ चेष्टा कर ले उसे सफलता मिलनी लगभग असंभव है |
                 अगर कर्ता व्यक्ति, संस्कार या दैव अच्छा न होने के उपरांत भी उपलब्ध अधिष्ठान तथा करण का सदुपयोग करते हुए चेष्टा या प्रयास लगातार करता रहता है तो वह इस जन्म में चाहे कर्मों की सिद्धि प्राप्त न कर सके लेकिन अपने संस्कार या दैव को सुदृढ़ कर सकता है |इन दैव के कारण वह अगले जन्म में कर्मों की सिद्धि के लिए फिर से प्रयास करता हुआ वांछित सफलता प्राप्त कर सकता है |
     दैव आपके पक्ष में नहीं है-यह तभी कहा जा सकता है जब कर्ता द्वारा उपलब्ध अधिष्ठान और करण का समुचित उपयोग करते हुए अपनी चेष्टा में कमी न आने दे |अन्यथा आपके द्वारा किये गए अप्रयाप्त प्रयास ही असफलता के लिए उत्तरदायी होंगे |हाँ,कभी कभी ऐसा अवश्य होता है कि अप्रयाप्त चेष्टा के उपरांत भी कर्मों की सिद्धि प्राप्त हो जाती है या प्रयाप्त चेष्टा के उपरांत भी सिद्धि प्राप्त नहीं हो पाती |ऐसी कारण आप अपने दैव यानि पूर्व जन्म के संस्कारों को मान सकते हैं |
                रामचरितमानस में गोस्वामीजी लिखते हैं-
सखा कही तुम्ह नीक उपाई |करिअ दैव जौ होइ सहाई ||सुन्दरकाण्ड ५१/१||
नाथ दैव कर कवन भरोसा |सोषिअ सिंधु करिअ मन रोषा ||सुन्दरकाण्ड ५१/३||
कादर मन कहुं एक अधारा |दैव  दैव  आलसी  पुकारा ||सुन्दरकाण्ड ५१/४||
                  यहाँ समुद्र के पार जाने के लिए भगवान श्री राम विभीषण से उपाय पूछते हैं |विभीषण कहते हैं कि समुद्र आपके कुल के पूर्वज हैं,उनसे ही पूछिए ,वे ही कोई उपाय बता देंगे |तब भगवान राम कहते हैं कि हे मित्र!तुमने बड़ा अच्छा उपाय बताया |यही किया जाय,अगर दैव सहायक होंगे तो समुद्र पार, बिना परिश्रम के ही कपि सेना पहुँच जायेगी |लक्ष्मण को यह उपाय रास नहीं आया |उन्होंने कहा कि दैव का क्या भरोसा?मन में क्रोध लाइए और समुद्र को सुखा डालिए| यह दैव तो कायर मन का एक आधार है |आलसी लोग ही दैव दैव पुकारा करते हैं |
                   इनसे यह स्पष्ट होता है कि केवल दैव के भरोसे बैठे रहना आपको सिद्धि नहीं दिला सकता |दैव को ही केवल आधार बना लेना ,आलसी और कायर मन वालों का कार्य है |जब आप पहले वाले चार हेतुओं का सदुपयोग कर लेते हैं और वांछित सफलता नहीं मिल पाती ,तब आप दैव को सिद्धि प्राप्त न होने का कारण कह सकते हैं |

                      || हरिः शरणम् ||

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