"दिव्य प्रेम" परमात्मा के द्वारा मानव जाति को दिया हुआ अमूल्य उपहार है |दिव्य प्रेम का स्थान सभी भावनाओं और भावुकता से ऊपर है क्योकि दिव्य प्रेम में ही सभी समस्याएं सुलझाने की क्षमता होती है |दिव्य प्रेम मानवता की खुशबू है,और परमात्मा की प्रार्थना का सर्वोत्तम उत्तर भी |दिव्य प्रेम सदैव प्रवाहित होने वाली अविरल धारा है |जब दिव्य प्रेम में इतनी खासियत है तो फिर व्यक्ति अपने जीवन से खुश क्यों नहीं है ?यह प्रश्न उठना स्वभाविक है |इसका एकमात्र उत्तर है-व्यक्ति का अहंकार |जैसे आप रेडियो पर एक समय में केवल एक निश्चित आवृति वाला प्रसारण ही सुनपाते है,उसी प्रकार या तो आप दिव्य-प्रेम का अनुभव कर सकते हैं या अपने अहंकार का |अगर हम सदा "मैं"और "मेरा"का ही सोचते रहेंगे तो फिर अपने में दिव्य-प्रेम का प्रवेश कैसे संभव हो पायेगा?विश्व प्रसिद्द कवियों में से एक,संत कबीर ने आज से लगभग पांचसौ वर्ष पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि-
प्रेम गली अति सांकडी,जा में दो ना समाय |
जब "मैं"था तब हरि नहीं,अब हरि है "मैं"नाय ||
सभी मानव इस दिव्य-प्रेम से सरोबर है,आश्चर्य है फिर भी वह इस प्रेम को पाने के लिए बाहर इधर उधर ढूँढता फिर रहा है |इस प्रेम को पाने के लिए वह किसी और को खोज रहा होता है |दिव्य-प्रेम तो अपने चारों और प्रकृति में बिखरा पड़ा है-सूर्य की धूप में,ठंडी बह रही बयार में,चिड़ियों के चहचहाने में ,बारिश की बूंदों में,धरती की सौंधी महक में आदि |यह सब लगातार प्रवाहित होते रहने वाली चीजें है |इनका प्रवाह कभी भी बाधित नहीं होता |आवश्यकता है ,हम अपने "मैं "को छोड़कर समग्रता के साथ प्रकृति का अवलोकन करें|अगर हम इस दिव्य-प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकते तो इसमे हमारी ही कोई कमी है |यह दिव्य-प्रेम तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है -
(१)हम अपने वर्तमान को यथावत स्वीकार करें |हम अपने आप से प्रेम करें |हम हमेशा एक अंतर्द्वंद्व से पीड़ित रहते हैं |हम जैसे है वैसे बने रहने की बजाय किसी और की तरह बनना चाहते हैं |यह दिव्य प्रेम को प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा है |अतः आवश्यक है कि हम अपनी स्थिति जो भी है ,जैसी भी है उसमे संतुष्ट रहें|
(२)जो भी हमें प्राप्त हुआ है उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद दें |दिव्य-प्रेम आपको बाहर से कोई दूसरा उपलब्ध नहीं कराएगा|दिव्य-प्रेम तो आपके अंदर ही भरा पड़ा है |
(३)अपने आप को परमात्मा को समर्पित कर दें|शरणागति दिव्य-प्रेम को पाने का सबसे अच्छा तरीका है |परमात्मा से दिव्य-प्रेम प्राप्त करने की प्रार्थना कीजिये |
|| हरिः शरणम् ||
प्रेम गली अति सांकडी,जा में दो ना समाय |
जब "मैं"था तब हरि नहीं,अब हरि है "मैं"नाय ||
सभी मानव इस दिव्य-प्रेम से सरोबर है,आश्चर्य है फिर भी वह इस प्रेम को पाने के लिए बाहर इधर उधर ढूँढता फिर रहा है |इस प्रेम को पाने के लिए वह किसी और को खोज रहा होता है |दिव्य-प्रेम तो अपने चारों और प्रकृति में बिखरा पड़ा है-सूर्य की धूप में,ठंडी बह रही बयार में,चिड़ियों के चहचहाने में ,बारिश की बूंदों में,धरती की सौंधी महक में आदि |यह सब लगातार प्रवाहित होते रहने वाली चीजें है |इनका प्रवाह कभी भी बाधित नहीं होता |आवश्यकता है ,हम अपने "मैं "को छोड़कर समग्रता के साथ प्रकृति का अवलोकन करें|अगर हम इस दिव्य-प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकते तो इसमे हमारी ही कोई कमी है |यह दिव्य-प्रेम तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है -
(१)हम अपने वर्तमान को यथावत स्वीकार करें |हम अपने आप से प्रेम करें |हम हमेशा एक अंतर्द्वंद्व से पीड़ित रहते हैं |हम जैसे है वैसे बने रहने की बजाय किसी और की तरह बनना चाहते हैं |यह दिव्य प्रेम को प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा है |अतः आवश्यक है कि हम अपनी स्थिति जो भी है ,जैसी भी है उसमे संतुष्ट रहें|
(२)जो भी हमें प्राप्त हुआ है उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद दें |दिव्य-प्रेम आपको बाहर से कोई दूसरा उपलब्ध नहीं कराएगा|दिव्य-प्रेम तो आपके अंदर ही भरा पड़ा है |
(३)अपने आप को परमात्मा को समर्पित कर दें|शरणागति दिव्य-प्रेम को पाने का सबसे अच्छा तरीका है |परमात्मा से दिव्य-प्रेम प्राप्त करने की प्रार्थना कीजिये |
|| हरिः शरणम् ||
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