आत्मा शुरुआत में उपदृष्टा की भूमिका में होती है |फिर व्यक्ति जब अपने लिए एक मार्ग चुन लेता है,तब अगर वह मार्ग सही हुआ तो आत्मा ,अनुमन्ता की भूमिका निभाती है और उसे उस राह पर अग्रसर होने के लिए अनुमति प्रदान करती है |जब मनुष्य उस राह पर चल देता है तब उसके सामने अपने जीवन काल की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की समस्या होती है |ऐसी स्थिति में आत्मा एक भर्ता की भूमिका निभाती है | उसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ साथ आध्यात्मिकता के रास्ते में जो भी उपलब्धियां प्राप्त की है उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाती है |इस प्रकार प्रत्येक स्थिति में अपने आप को सुरक्षित पाने के बाद व्यक्ति तेज गति के साथ उस मार्ग पर चल पड़ता है |उसके मन और मस्तिष्क में कोई विचार कभी भी उत्पन्न नहीं होता जिससे उसे इस राह पर चलना अनुचित लगे |आत्मा अब भर्ता के पड़ाव से आगे बढ़ते हुए भोक्ता की भूमिका में आ जाती है |
ऐसी अवस्था में आत्मा इतनी निश्चिन्त हो जाती है कि वह व्यक्ति के मन को भी पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेती है |जो भी अभी तक उपलब्धियां प्राप्त हुई है वह उन सब की भोक्ता बन जाती है |स्थितियां उसके इतनी नियंत्रण में रहती है कि मनुष्य को आध्यात्मिकता के रास्ते का पूरा आनंद आने लगता है |इस आनंद की आत्मा ही भोक्ता होती है |ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेने के पश्चात मनुष्य की उस मार्ग से विचलित होने की सम्भावना नहीं के बराबर होती है |परमात्मा के मार्ग पर चलने वालों के लिए यह सबसे बड़ी उपलब्धि होती है |
आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले मनुष्यों में ज्यादातर तो दूसरे पड़ाव के बाद ही विचलित हो जाते हैं |बहुत ही कम लोग इस चौथे भोक्ता वाले पड़ाव तक पहुँच पाते हैं | चौथे पड़ाव तक आने के बाद प्रायः मनुष्य संतुष्ट हो जाता है और आगे की यात्रा या तो प्रारम्भ ही नहीं करता अथवा फिर बहुत ही धीमी गति से चलता है |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ||गीता ७/३||
अर्थात्, हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है,और उन योगियों में कोई एक मेरे को तत्व रूप से अर्थात यथार्थ रूप से जान पाता है |
|| हरिः शरणम् ||
ऐसी अवस्था में आत्मा इतनी निश्चिन्त हो जाती है कि वह व्यक्ति के मन को भी पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेती है |जो भी अभी तक उपलब्धियां प्राप्त हुई है वह उन सब की भोक्ता बन जाती है |स्थितियां उसके इतनी नियंत्रण में रहती है कि मनुष्य को आध्यात्मिकता के रास्ते का पूरा आनंद आने लगता है |इस आनंद की आत्मा ही भोक्ता होती है |ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेने के पश्चात मनुष्य की उस मार्ग से विचलित होने की सम्भावना नहीं के बराबर होती है |परमात्मा के मार्ग पर चलने वालों के लिए यह सबसे बड़ी उपलब्धि होती है |
आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले मनुष्यों में ज्यादातर तो दूसरे पड़ाव के बाद ही विचलित हो जाते हैं |बहुत ही कम लोग इस चौथे भोक्ता वाले पड़ाव तक पहुँच पाते हैं | चौथे पड़ाव तक आने के बाद प्रायः मनुष्य संतुष्ट हो जाता है और आगे की यात्रा या तो प्रारम्भ ही नहीं करता अथवा फिर बहुत ही धीमी गति से चलता है |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये |
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ||गीता ७/३||
अर्थात्, हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है,और उन योगियों में कोई एक मेरे को तत्व रूप से अर्थात यथार्थ रूप से जान पाता है |
|| हरिः शरणम् ||
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