Wednesday, December 11, 2013

आत्मा से परमात्मा-अनुमन्ता |(Permissive)

                                            साक्षी के रूप में जब आत्मा व्यक्ति की मानसिक स्थिति का पूर्णरूप से अवलोकन कर लेती है,तब वह ऐसी स्थिति में होती है कि उस व्यक्ति को सही और गलत के बारे में निर्देशित कर सके |अब यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह उस निर्देश को माने अथवा उसकी अवहेलना करे |आत्मा की इस बारे में मजबूरी होती है कि इन निर्देशों को मानने के  लिए वह व्यक्ति पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं डाल सकती | हाँ,ऐसा अवश्य है कि जब व्यक्ति गलत राह पर चलने की सोचता है तो आत्मा उसे टोक जरूर देती है |उस राह पर चलने की उसे अनुमति बिलकुल भी नहीं देती है |
                                            जब आप सही राह पकड़ते हैं तब आत्मा आपको अनुमति प्रदान कर देती है |आत्मा इस स्थिति में अनुमन्ता कही जा सकती है |आपने जीवन में कई बार महसूस किया होगा जब आप कोई गलत कार्य करने जा रहे होंगे,तब आपके भीतर से एक आवाज आयी होगी कि नहीं,आपको ऐसा नहीं करना चाहिए |इसे हम अंतरात्मा की आवाज कहते हैं |इस स्थिति में व्यक्ति के भीतर अंतःकरण का विकास हो जाता है |यही आत्मा का अनुमन्ता के रूप में परमात्मा की राह का दूसरा पड़ाव है |
                                            हम अपने जीवन में क्या सही है और क्या गलत है,सब समझते हैं |प्रत्येक सही या गलत को करने से पहले आपको उस कार्य को करने या न करने के बारे में आपकी आत्मा द्वारा निर्देशित कर दिया जाता है |आप चाहे तो उस निर्देश को मान सकते हो और चाहो तो उस निर्देश की अवहेलना कर सकते हो |यदि आप आत्मा के निर्देश की अवहेलना करते हो तो आत्मा आपको उस राह पर चलने की अनुमति किसी भी परिस्थिति में नहीं देगी |और आप उसके निर्देश को मान लेते हो तो वह आपको उस राह पर चलने की अनुमति प्रदान कर देती है |
                                 आध्यात्मिकता की राह पर चलने के लिए यह अनुमति आसानी से मिल जाती है |संसार में रहते हुए तामसिक कर्मों के लिए आत्मा आपको हर बार टोकेगी अवश्य,फिर भी अगर आप उस कार्य के लिए उसकी अनुमति लेने को कहेंगे तो भी वह इसकी अनुमति नहीं देगी |ऐसे में आपका पतन निश्चित है और आपका परमात्मा की तरफ बढ़ना बाधित हो जायेगा |आत्मा की यह मजबूरी है कि वह आपके कार्यों से असंतुष्ट होते हुए भी आपके मन से सम्बंधित होने के कारण आपका साथ छोड़ भी नहीं सकती |ऐसी स्थिति में आत्मा का यह दूसरा पड़ाव ही उसका आखिरी पड़ाव बन जाता है |आपके मन की इच्छाओं और कामनाओं के कारण उसे नए शरीर में जाकर अपनी यात्रा फिर से पहले पड़ाव से शुरू करनी पड़ेगी |इस प्रकार यह जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है |
                                                || हरिः शरणम् ||

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