Thursday, December 12, 2013

आत्मा से परमात्मा-भर्ता |(Provider)

                                      जब आत्मा के निर्देशानुसार उचित-अनुचित को जानकर व्यक्ति आध्यात्मिकता की राह पर चलने की सोचता है तब आत्मा अनुमन्ता के रूप में उसे उस राह पर चलने की अनुमति प्रदान कर देती है |जब व्यक्ति उस राह पर आगे बढ़ने लगता है तब आत्मा भर्ता के रूप में अपने आप को ले आती है |आत्मा जो कि परमात्मा का ही एक अंश है ,व्यक्ति की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेवारी अपने ऊपर ले लेती है |इसी  लिए आत्मा को यहाँ भर्ता अर्थात भरण-पोषण करने वाली बताया गया है |
                   गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
                                      अनन्याश्चिन्तयन्तो  मां  जनाः  पर्युपासते |
                                      तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् || गीता ९/२२||
अर्थात्, जो अनन्य जन मुझ परमेश्वर का निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से कार्य करते हैं ,उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वालों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ |
          यहाँ भगवान कह रहे हैं कि सही मार्ग चुनकर उसपर चलने वालों को अपने कार्य के प्रति किसी भी प्रकार की चिंता नहीं करनी चाहिए |उसके योगक्षेम की चिंता मुझे है |योगक्षेम का अर्थ है अप्राप्त की प्राप्ति करवाना और प्राप्त किए हुए की रक्षा करना |निष्काम भाव से कार्य करना ही यहाँ सही मार्ग है |चूँकि परमात्मा का एक अंश आत्मा ही है जो मनुष्य के शरीर में परमात्मा का प्रतिनिधित्व करती है |अतः शरीर में परमात्मा ही सही मार्ग पर चलने वालों के लिए भर्ता का रूप धारण करता है |आत्मा के परमात्मा बनने की राह में यह  तीसरा पड़ाव आता है जहाँ आत्मा स्वयं भर्ता होती है |
                                     || हरिः शरणम् ||

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