हम प्रार्थना(Pray) तभी करते है जब हम किसी परेशानी में होते है,जब हमें किसी चीज की जरूरत(Demand)होती है,दिग्भर्मित(Confused) होते
है या दुखी होते हैं.|ऐसी परिस्थिति में हम अपने अलावा किसी और के सन्मुख होते
है.अन्यथा हमें किसी और की जरुरत ही नहीं होती है|.ऐसे वक्तमें की हुई प्रार्थना के
बाद मिले उत्तर की वास्तविकता (Reality)कुछ भी नहीं होती है.|यह उत्तर केवल अपने आप का ही एक
संभावित उत्तर(Expected answer) का विश्वास (Belief)होता है,जिससे हम स्वयं को संतुष्टि(Self satisfaction) दे सके.|अगर ऐसा नहीं
हो तो हम कभी भी इस प्रार्थना को या ईश्वर की उपस्थिति को अस्वीकृत कर
देंगें.|
इसलिए हम बारबार प्रार्थना करते रहते हँ,अलग अलग
तरीकों से,और अपनी पसंदानुसार उत्तर(Answer according to our choice) भी प्राप्त करते रहते हँ |,अब ऐसा बार बार होने से एक प्रार्थी(Requesting person),एक
उत्तरदात्ता(Answering person) और एक पूजा(Pray) का वर्तुल(Circle) बन जाता है.और उस व्यक्ति के मन का विस्तार(Extension of mind) ऐसा
हो जाता है कि इस वर्तुल का तोडना(Breaking the circle) असंभव(Impossible) सा हो जाता है|.इस वर्तुल को तोड़ने
के लिए यह जरुरी है की मन बिलकुल मौन हो जाये,एकदम शांत (Peaceful mind) हो जाये | इस मन का शांत
हो जाना न तो किसी दबाव से होना चाहिए और न ही अन्य किसी तरीके
से |जबरदस्ती मन को वश में करना वैसा ही होगा जैसे की किसी बच्चे को जबरदस्ती घर के एक कोने में बैठा देना|.भले ही वह बच्चा ऊपर से शांत नजर
आ रहा हो पर वास्तव में वह भीतर ही भीतर उबल रहा होता है|.इसी प्रकार किसी दबाव(Pressure) या
अनुशासन (Discipline)से वश(Control) में किया हुआ मन कभी भी शांत नहीं हो सकता |और ऐसा मन कभी भी उस सत्य(Truth) को, उस परम को नहीं पा सकेगा |
|| हरिः शरणम् ||
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