Saturday, December 14, 2013

आत्मा से परमात्मा -महेश्वर |

                                  आत्मा अपने भोक्ता स्वरुप में शरीर और मन पर अपना पूर्ण अधिकार कर लेती है |अब व्यक्ति का मन इधर उधर भटकने के स्थान पर केवल आध्यात्मिकता में ही सुख अनुभव करने लगता है |इस भौतिक संसार में रहते हुए भी सांसारिकता में वह पुनः लिप्त नहीं हो पाता |वास्तविकता में संन्यास की स्थिति यही होती है |संसार में रहते हुए भी संसार को अपने भीतर प्रवेश करने से रोकने में जो भी व्यक्ति सक्षम हो जाता है,वास्तव में संन्यासी कहलाने का अधिकारी वही होता है |संन्यासी का अर्थ संसार से दूर भागकर केवल भगवा वस्त्र धारण करने से नहीं है |अगर आप अपना घर बार छोड़कर,गेरुयें वस्त्र धारण कर संसार से दूर भी चले जाते हों और वहाँ बैठकर संसार एवं परिवार के बारे में ही चिंतन करते रहते हो ,तो आपका वहाँ जाना संसार में बने रहने से भी ज्यादा गलत है |इससे तो अच्छा होता कि संसार में रहते हुए भी परमात्मा का जितना भी चिंतन हो सकता,करते |
                             मुझे एक कहानी याद आ रही है |एक व्यक्ति अपना परिवार छोड़कर हरिद्वार आकर साधू बन गया |उसने परमात्मा का कई वर्षों तक चिंतन किया |सत्पुरुषों के साथ रहा |परन्तु अपनी पत्नी की याद को अपने से अलग नहीं कर सका |उसने प्रयाप्त कोशिश की,परन्तु असफल रहा |अंत में उसको एक उपाय सूझा |उसने स्त्रियों से मिलना बंद कर दिया |स्त्रियां दूर से ही उनके दर्शन कर सकती थी |उस साधू की प्रशंसा दूर दूर तक फ़ैल गयी |उसकी पत्नी तक भी यह बात पहुंची |वह भी उत्सुकतावश साधू के दर्शन करने गयी |साधू ने अपनी पत्नी को दूर से ही पहचान लिया और चिल्लाया कि तुम यहाँ क्यों आयी हो ?उसकी पत्नी तुरंत ही समझ गयी कि इसको अभी भी स्त्रियों में अपनी पत्नी ही दिखाई दे रही है |अभी भी उसके मन में संसार बसा है |ऐसे में यह अभी संन्यास को कैसे उपलब्ध हो सकता  है ? उसने कहा कि आपने मेरे को अपने से अलग ही कब किया जो पूछ रहे हो कि क्यों आयी हो ?मैं तो आपको देखते ही समझ गयी थी कि आप वही हो,घर से इतनी दूर आकर भी वहीँ पर खड़े हो,जहाँ पहले थे |कहानी का अर्थ यह है कि संसार से दूर जाकर भी अगर संसार आपके अंदर बैठा है ,तो फिर दूर जाने का कोई औचित्य नहीं है |कबीर ने सच ही कहा है-
                                      माया माया सब कहे,माया लखे न कोय |
                                      जो मन से ना निसरे,कहिये माया सोय ||
                      एक छोटा सा ही उदहारण काफी है ,इस बात को समझने के लिए |बाज़ार में किसी की जेब से कोई सिक्का अगर सड़क पर गिरता है तो आस पास के लोगों की पचासों नज़रें उस सिक्के की खनक की दिशा में देखने लगेगी |परन्तु गरीब,बीमार और जरूरतमंद की आवाज वहाँ किसी को भी सुनाई नहीं देती |इसी को कहते है मन में बाजार की ,संसार की उपस्थिति |
                       संसार किसी भी प्रकार से गलत नहीं है |संसार को अपने भीतर ,अपने मन के भीतर प्रवेश देना अनुचित है |संसार बाहर से कहीं भी खराब नहीं है |संसार को जाने बिना संसार की आलोचना करना अनुचित है |संसार को जाने बिना परमात्मा को जानना असंभव है |और जिस दिन आप संसार को अच्छी तरह जान जाओगे ,परमात्मा को भी जान जाओगे |उस दिन संसार आपके भीतर प्रवेश नहीं पा सकेगा |यही संन्यास की अवस्था है |और आत्मा का यह पड़ाव ,आत्मा की यह स्थिति उसका महेश्वर होना है |जब आप का संयोग अर्थात न्यास ,सत्य या सत् के साथ हो जाता है ,वही संन्यास (सत्+न्यास ) है |और यही आपका संन्यास आपको भोक्ता से महेश्वर बना देता है |
                            महेश्वर ,आत्मा की यात्रा का अंतिम पड़ाव है जहाँ आप परमात्मा के बिलकुल पास में खड़े होते हो |आप अब किसी भी वक्त परमात्मा में समाहित हो सकते हैं |भोक्ता के पड़ाव तक पहुँच कर भी आप कभी भी संसार की तरफ लौट सकते थे |परन्तु महेश्वर की अवस्था के बाद संसार अदृश्य हो जाता है ,और चारों और मात्र परमात्मा ही दृष्टिगोचर होता है |
                          || हरिः शरणम् ||

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