कल किसी मित्र ने पूछा कि क्या परमात्मा के दर्शन संभव है ?
समझ में नहीं आता,उसे क्या उत्तर दूं?जिस प्रश्न का उत्तर केवल वही जान पायेगा,जो इसे जानने का प्रयास करेगा |पानी कितना गहरा है,यह नदी या झील के किनारे बैठ कर या उसमे कंकड फैंक कर पता नहीं किया जा सकता |गहराई मापने के लिए तो आपको नदी या झील में छलांग लगानी ही होगी |
परमात्मा मानने की वस्तु नहीं है,बल्कि यह एक जानने का विषय है |अगर कोई व्यक्ति यह सोचता है कि परमात्मा एक छवि ,एक व्यक्ति के रूप में प्रकट होकर दर्शन देंगे,तो यह मात्र एक कल्पना होगी |परमात्मा के दर्शन एक छवि या मानव के रूप में होना असंभव है |कई कई बार ऐसा सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति में देवता आकर बोलते हैं |कितना हास्यस्पद है कि एक देवता को भी अपनी बात कहने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है |यह सब व्यक्ति की विकृत मानसिक स्थिति के प्रकट होने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और अन्य लोग अज्ञान वश ऐसी घटनाओं पर विश्वास कर लेते हैं |
आत्मा इस भौतिक शरीर में परमात्मा का ही एक अंश है |आप एक शरीर नहीं है |जिसे आप "मैं"कहते हैं वह अपने शरीर को नहीं कहते |यह "मैं" आप अपनी आत्मा को कहते हैं|स्वयं को जानना जितना आवश्यक है उतना किसी अन्य को जानना आवश्यक नहीं है |जिस दिन आपका ज्ञान इस चरम अवस्था को प्राप्त हो जायेगा कि आप स्वयं को जान जाओगे ,आप परमात्मा को अपने आप जान जाओगे | आप में और आत्मा में कोई अंतर नहीं है और आत्मा परमात्मा का ही एक अंश है |जिस दिन आपको आत्म-दर्शन हो जायेगा ,उसी दिन आप परमात्मा के दर्शन कर लेंगे |
परमात्मा कभी भी आपको चतुर्भुज रूप में आकर दर्शन नहीं देने वाले |अगर आप उसके दर्शन उस चतुर्भुज रूप में करने की आशा रखते हैं तो आपके कई जन्म बीत जायेंगे परन्तु ऐसे दर्शन सुलभ नहीं होंगे |और जिस दिन आप आत्म-दर्शन को उपलब्ध हो जाओगे उसी दिन सभी जगह,सब जीवों ,सभी भौतिक वस्तुओं में परमात्म-दर्शन कर पाओगे |अतः परमात्म-दर्शन के लिए आवश्यक है आत्म-दर्शन|
|| हरिः शरणम् ||
"आत्मा अज्ञान के कारण सीमित प्रतीत होती है,परन्तु जब अज्ञान मिट जाता है,तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है,ठीक उसी प्रकार जैसे बादलों के हट जाने से सूर्य दिखाई देने लगता है |"
-आदि शंकराचार्य
"जिस प्रकार एक प्रज्वलित दीपक को चमकने के लिए किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती ,उसी प्रकार आत्मा जो स्वयं ज्ञान स्वरुप है उसे अपने स्वयं के ज्ञान के लिए किसी और ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती |"
-आदि शंकराचार्य
समझ में नहीं आता,उसे क्या उत्तर दूं?जिस प्रश्न का उत्तर केवल वही जान पायेगा,जो इसे जानने का प्रयास करेगा |पानी कितना गहरा है,यह नदी या झील के किनारे बैठ कर या उसमे कंकड फैंक कर पता नहीं किया जा सकता |गहराई मापने के लिए तो आपको नदी या झील में छलांग लगानी ही होगी |
परमात्मा मानने की वस्तु नहीं है,बल्कि यह एक जानने का विषय है |अगर कोई व्यक्ति यह सोचता है कि परमात्मा एक छवि ,एक व्यक्ति के रूप में प्रकट होकर दर्शन देंगे,तो यह मात्र एक कल्पना होगी |परमात्मा के दर्शन एक छवि या मानव के रूप में होना असंभव है |कई कई बार ऐसा सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति में देवता आकर बोलते हैं |कितना हास्यस्पद है कि एक देवता को भी अपनी बात कहने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है |यह सब व्यक्ति की विकृत मानसिक स्थिति के प्रकट होने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और अन्य लोग अज्ञान वश ऐसी घटनाओं पर विश्वास कर लेते हैं |
आत्मा इस भौतिक शरीर में परमात्मा का ही एक अंश है |आप एक शरीर नहीं है |जिसे आप "मैं"कहते हैं वह अपने शरीर को नहीं कहते |यह "मैं" आप अपनी आत्मा को कहते हैं|स्वयं को जानना जितना आवश्यक है उतना किसी अन्य को जानना आवश्यक नहीं है |जिस दिन आपका ज्ञान इस चरम अवस्था को प्राप्त हो जायेगा कि आप स्वयं को जान जाओगे ,आप परमात्मा को अपने आप जान जाओगे | आप में और आत्मा में कोई अंतर नहीं है और आत्मा परमात्मा का ही एक अंश है |जिस दिन आपको आत्म-दर्शन हो जायेगा ,उसी दिन आप परमात्मा के दर्शन कर लेंगे |
परमात्मा कभी भी आपको चतुर्भुज रूप में आकर दर्शन नहीं देने वाले |अगर आप उसके दर्शन उस चतुर्भुज रूप में करने की आशा रखते हैं तो आपके कई जन्म बीत जायेंगे परन्तु ऐसे दर्शन सुलभ नहीं होंगे |और जिस दिन आप आत्म-दर्शन को उपलब्ध हो जाओगे उसी दिन सभी जगह,सब जीवों ,सभी भौतिक वस्तुओं में परमात्म-दर्शन कर पाओगे |अतः परमात्म-दर्शन के लिए आवश्यक है आत्म-दर्शन|
|| हरिः शरणम् ||
"आत्मा अज्ञान के कारण सीमित प्रतीत होती है,परन्तु जब अज्ञान मिट जाता है,तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है,ठीक उसी प्रकार जैसे बादलों के हट जाने से सूर्य दिखाई देने लगता है |"
-आदि शंकराचार्य
"जिस प्रकार एक प्रज्वलित दीपक को चमकने के लिए किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती ,उसी प्रकार आत्मा जो स्वयं ज्ञान स्वरुप है उसे अपने स्वयं के ज्ञान के लिए किसी और ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती |"
-आदि शंकराचार्य
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