Tuesday, December 31, 2013

प्रेम-किससे?(Love-To whom?)

                                      मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि प्रेम कोई छोटा सा शब्द नहीं है कि उसके बारे में तुरंत ही कोई अर्थ ,उसका कोई मतलब निकल जाये |यह शब्द अपने भीतर एक समग्रता लिए हुए है ,एक प्रकार की गहराई समेटे हुए है |प्रेम शब्द को और प्रेम को हलके में लेना बहुत ही अनुचित होगा |जिस प्रकार से आजकल इस शब्द का प्रयोग किया जा रहा है,लगता है थोड़े समय बाद ही यह शब्द ,यह प्रेम अपनी विश्वसनीयता ही खो देगा |प्रेम में धोखा,प्रेम में हत्या -क्या है यह सब?क्यों प्रेम का इतना उपहास किया जा रहा है ?ऐसा केवल वे ही लोग कर रहे हैं जिन्हें भाषा का केवल छिछला ज्ञान है |आजकल ऐसे कई व्यक्ति आपको मिल जायेंगे जो कहते फिरते हैं कि उसने फलां लड़की से प्रेम किया और उसने धोखा दे दिया |क्या प्रेम अब केवल विपरीत लिंग के व्यक्ति को करने तक ही सीमित रह गया है ?क्या प्रेम करते हुए भी कोई धोखा दे सकता है ?
                                  कितनी बड़ी विडंबना है कि जब भी कोई हमें कहता है कि वह किसी के प्रेम में है तो हम तुरंत उससे उस लड़के या लड़की का नाम जानना चाहते हैं |क्या प्रेम केवल विपरीत लिंग के व्यक्ति से ही होता है ?नहीं|प्रेम अगर होता है तो सम्पूर्णता के साथ होता है ,इस ब्रह्माण्ड में स्थित प्रत्येक व्यक्ति,वस्तु और प्रकृति से | यहाँ उपस्थित कोई भी व्यक्ति ,वस्तु कुरूप नहीं है |सभी अपने भीतर एक तरह की सुंदरता समेटे हुए है | प्रत्येक में सुंदरता को देखने वाला ही प्रेम करने का अधिकारी होता है |सौंदर्य देखने के लिए भी विशेष प्रकार की दृष्टि चाहिए |उसके लिए केवल नेत्रों का होना ही प्रयाप्त नहीं है |
                           आप इतने वर्षों से महानगर में ,शहर में या गांव में रहते आये हैं |क्या आपको अपने वहाँ की सुंदरता नज़र आयी है ?आप दिनभर यहाँ ,इस संसार के क्रियाकलापों में इतने व्यस्त रहते हैं कि आपको कहीं भी कोई सुंदरता नज़र आती ही नहीं है |फिर भी आप कहते हैं कि आप किसी से प्रेम करते हैं |अगर आपको प्रकृति की सुंदरता ही नज़र नहीं आती तो कैसा प्रेम और किससे प्रेम ?प्रेम का प्रारम्भ बिना सुंदरता के हो ही नहीं सकता |सौंदर्य आपके चारों और बिखरा हुआ है और आप उसको देख नहीं पा रहे है ,यह आपकी विफलता है ,न कि सौंदर्य की |कभी प्रातः जल्दी उठकर बाहर मैदान में ,खेतों में घूमने निकले|सूर्योदय का नज़ारा देखें-कितना सुन्दर लगता है यह दृश्य|व्यक्ति एक बार तो स्वयं को ही भूल जाता है |समंदर के किनारे चले जाईये|देखिये किस तरह से लहरें एक दूसरे के ऊपर से उछलती हुई किनारे को छूकर लौट जाती है |कभी प्रारम्भिक स्कूल में जाईये और देखिये छोटे छोटे बच्चे बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे के साथ मस्ती करते है|आप यह सब देख सकते हैं अगर आप सिर्फ सवयं के बारे में ही नहीं सोच रहे हो तो|अन्यथा आपको केवल आपसे सम्बन्धित दृश्य ही नज़र आएगा |न सूर्योदय का मनोरम दृश्य,न ही समुद्र में उठती लहरें और न ही बच्चों की मासूमियत,कुछ भी नज़र नहीं आएगा |आप इस सौंदर्य से वंचित ही रहेंगे |फिर आपमें कैसा प्रेम,आपके लिए किसका प्रेम ?
               दिनभर आप अपने कार्यों में,पैसे कमाने में,संसार की झूठी जिम्मेदारियां उठाने में इतने अधिक व्यस्त रहते हैं कि आपका भीतरी सौंदर्य तक निखर नहीं पाता,बाहर के सौंदर्य को देखने का तो प्रश्न ही नहीं|आपके पास ऐसी दृष्टि भी नहीं है कि स्वयं का सौदर्य भी देख सको |इसका एक ही अर्थ है कि आप अपने से भी प्रेम नहीं कर रहे हैं |फिर और किसी से प्रेम क्या कर पाएंगे?जब आप स्वयं को इतना समय देंगे कि खुद को जान सके,खुद को प्रेम कर सकें उस दिन यह प्रश्न ही समाप्त हो जायेगा कि प्रेम किससे करें ?आप सभी से प्रेम करने लगेंगे|इतना परिवर्तन आते ही चारों और प्रेम ही प्रेम होगा,आपका आंतरिक सौंदर्य ,बाहर नज़र आने लगेगा और आप सबसे प्रेम करने लगेंगे और सब आपसे |जब यह सब होगा,संसार भी सुन्दर लगने लगेगा |यही प्रेम का साध्य है कि संसार में सबसे प्रेम करें |
                                    प्रेमी  ढूंढें  प्रेमी को,प्रेमी  मिला ना कोय |
                                    प्रेमी से प्रेमी मिले, सब विष,अमृत होय ||
                               || हरिः शरणम् ||

Monday, December 30, 2013

प्रेम और सौंदर्य(Love and beauty)

                              क्या आपको कभी ऐसा महसूस नहीं होता की प्रेम एक असाधारण अहसास है ?आप को प्रेम का कभी भी अहसास नहीं होगा,आपको प्रेम कभी भी अनुभव नहीं होगा यदि आप सदैव अपने बारे में ही सोचते रहते हो |स्वयं के बारे में न सोचो इसका अर्थ कदापि भी यह नहीं है कि आप किसी अन्य के बारे में सोचो |प्रेम है,इसका मतलब प्रेम है |प्रेम का कोई विषय,लक्ष्य,वस्तु या अभिप्राय नहीं होता है| प्रेम तो बस केवल प्रेम ही होता है |कोई धार्मिक और अध्यात्मिक मन ही प्रेम कर सकता है क्योंकि ऐसा मन सत्य,वास्तविकता और परमात्मा को जानने को उत्सुक होता है |और केवल ऐसा मन ही सौंदर्य क्या होता है,जान सकता है |मन,जो किसी दार्शनिकता और विश्वास में नहीं उलझता,अपनी कामनाओं से ऊपर उठ जाता है,वह संवेदनशील,जागरूक,और सदैव सक्रिय रहता है |ऐसा मन ही वास्तव में सुन्दर मन कहलाता है |मन का सौंदर्य ही सच्चे प्रेम की पहचान है |
                    जब आपके मन की कामनाएं आपके ह्रदय को संतुष्ट नहीं कर पाती है,ह्रदय अपने आप में कोई कमी महसूस करता है ,तब प्रेम का बीजारोपण होता है |कामनाएं कभी भी किसी को संतुष्ट नहीं कर पाती है |एक कामना पूरी हो जाती है तो फिर या तो उसी कामना का और अधिक विस्तार हो जाता है या फिर कोई नई कामना जन्म ले लेती है |जब ह्रदय इनसे आहत होकर अपने आपमें रिक्तता अनुभव करने लगता है तब उस रिक्तता को प्रेम ही पूर्णता प्रदान करता है |आप वास्तव में तभी प्रेम कर सकते हैं जब आप किसी पर भी अपना अधिकार ज़माने की कोशिश न करे,किसी भी प्रकार की ईर्ष्या से परे रहें,शत्रुता न रखे |तब आपका ह्रदय क्षमा करने की स्थिति प्राप्त कर लेगा|आप में सबके लिए सम्मान की भावना,सब के लिए दया भाव व सहानुभूति पैदा हो जायेगी |प्रेम कही पर भी पैदा नहीं किया जा सकता,प्रेम कभी भी अभ्यास करके प्राप्त नहीं किया जा सकता और विचार करके भी कभी प्रेम नहीं किया जा सकता |प्रेम का विचार केवल मन ही कर सकता है |जब आप मन में उठ रहे इन विचारों पर नियंत्रण कर लेंगे तब आप इस स्थिति में होंगे कि जान सके कि प्रेम क्या होता है और सौंदर्य क्या है ?
                   परोक्ष रूप से देखा जाये तो लोग आजकल केवल बाहरी सुंदरता को ही महत्त्व देते हैं |हालाँकि बात वे आंतरिक सुंदरता की ही करते हैं |यह आंतरिक सौंदर्य की आड़ उन्हें अपनी आकांक्षाएं पूरी करने के लिए आवश्यक महसूस होती है |आंतरिक सौंदर्य की बात करने से आप अपने प्रेम को बेहतर तरीके से व्यक्त कर सकते हैं |परन्तु आंतरिक सौंदर्य व बाह्य सौंदर्य में बहुत बड़ा अंतर है |आपमें आंतरिक सौंदर्य तभी पैदा होगा जब आप संसार में प्रत्येक व्यक्ति से प्रेम करने लगोगे |आप बहुत अच्छे कवि और लेखक हो सकते है,आप अपने काम में बहुत ही कुशल होंगे,परन्तु अगर आप में प्रेम करने की क्षमता नहीं है तो फिर सब व्यर्थ है |वास्तविक सौंदर्य तो आपके ह्रदय का प्रेम से परिपूर्ण होना ही है |आपकी कार्य कुशलता आपका बाहरी सौंदर्य है जिसका कोई ज्यादा महत्त्व नहीं है |जब आपके हृदय में  प्रेम होगा तो आपका आंतरिक सौदर्य निखरेगा |आंतरिक सौंदर्य कभी भी भीतर छुपा नहीं रह सकता |वह एक दिन बाहर प्रकट हो ही जायेगा |कहते है न कि सुंदरता तो देखने वाले की नज़रों में होती है |आपकी आँखे केवल बाहरी सुंदरता देखती है जबकि आपकी दृष्टि आंतरिक सुंदरता |बाहरी सौंदर्य से आपका किसी विशेष के प्रति आकर्षण और लगाव हो सकता है |भीतरी सौंदर्य ही आपको किसी के बारे में वास्तविक प्रेम उपलब्ध करवा सकता है |अतः आपको बाहरी सौंदर्य पर ध्यान देने के स्थान पर भीतरी सौंदर्य पर ध्यान देना चाहिए |जिस दिन आप भीतर से सुन्दर होंगे,बाहरी सुंदरता अपने आप निखर आएगी |यही वास्तविक प्रेम की पहचान है |
                           || हरिः शरणम् ||

Sunday, December 29, 2013

प्रेम और भावुकता (Love and sentiments)

                              प्रायः लोग प्रेम को एक प्रकार की भावुकता समझते हैं |परन्तु वास्तव में यह एक भावुकता नहीं है |भावुक होना,भावना में बहना ,प्रेम कदापि नहीं है |जज्बाती होना और भावुक होना एक प्रकार की संवेदनशीलता है,एक प्रकार का अहसास है |जो प्रेम की प्रारंभिक अवस्था में प्रायः प्रकट हो ही जाता है |अगर वास्तव में आप प्रेम को प्राप्त हो जाते हो तो फिर उस प्रेम में भावुकता का स्थान खो जाता है |हो सकता है आपको मेरा यह कहना सही नहीं लगे ,परन्तु यह सत्य है की वास्तविक प्रेम में भावुकता का स्थान कहीं पर भी नहीं होता है |आपने प्रायः देखा होगा कि परमात्मा की भक्ति की प्रारंभिक अवस्था में जब लोग उनकी पूजा और आराधना करते हैं तब उनकी आँखों से अश्रुधारा बह निकलती है |आप समझते हैं कि इस व्यक्ति का परमात्मा के प्रति अगाध प्रेम है,इस लिए उस कारण से यह अश्रु प्रवाह है |
                           मैं पूछता हूँ कि क्या आपका यह कहना सही है ?आप का जवाब "हाँ"में होगा |हो सकता है कि आप सही कह रहे हो |परन्तु मेरे विचार इस सम्बन्ध में आपसे भिन्न हैं |मैं कहता हूँ कि यह आपकी भावुकता हो सकती है,प्रेम नहीं |प्रेम में दो कभी भी रहते ही नहीं है,सदैव एक ही रहता है |जबकि भावुकता में दो का होना आवश्यक है |आप और परमात्मा ,अगर दो हैं तो आपका परमात्मा के लिए अश्रुप्रवाह एकदम सही है |और आपकी यह अश्रुधारा भावुकता का प्रदर्शन है,प्रेम का नहीं |जब आप और परमात्मा एक ही हैं तो फिर किसके लिए रोना और क्यों रोना ?प्रेम में प्रेमी(Lovers) और प्रमेय(Measurement of love) दोनों ही खो जाते हैं |और जब दोनों में अंतर मिट जाता है ,दोनों एक हो जाते है तो फिर किसको किसकी कमी खलेगी,कौन किसको चोट पहुँचायेगा,कौन किसका अपमान करेगा,कौन किससे दूर चला जायेगा और कौन किसको खो देगा ?जब इन सबकी सम्भावना मन में उठती रहती है तब प्रेम पर भावुकता हावी हो जाती है ,और प्रेम ही खोने लगता है |
                                    अतः भावुक होना प्रेम से दूर जाना है,प्रेमी को खो देने का डर है,प्रेमी द्वारा अपमान करने का भय है,प्रेमी के द्वारा चोट पहुंचाए जाने का भय है और बिछोह का संदेह होना है||और जहाँ भय है ,संदेह है वहाँ भावुकता हो सकती है,प्रेम नहीं |
                                  || हरिः शरणम् ||

Saturday, December 28, 2013

प्रथम-प्रेम |(First love)

                                         जहाँ प्रेम है तो वहाँ उसकी कहानियां ,उसकी कथाएं तो होगी ही |इस संसार में अधिकतम चर्चाएँ उन्ही बातों की होती है जिनकी उपलब्धता सबसे कम होती है |जब प्याज सस्ते मिला करते थे तब कभी आपने उसकी  चर्चा की क्या ?और जब प्याज की कीमत आसमान छूने लगी तब चारों और प्याज ही प्याज की चर्चाए ,उसकी बातें होने लगी |दीपक की कमी हमें तभी खलती है जब अँधेरी रात में अचानक वह बुझ जाता है |जब तक वह जल रहा होता है तब तक हम उस दीपक की,उसके प्रकाश की बात बिलकुल भी नहीं करते हैं |कहने का मंतव्य यह है कि हमें जिस चीज की आवश्यकता होती है और अगर उसकी उपलब्धता कम होती है तो हमें उस चीज की कमी खलने लगती है | उस कमी के कारण और जिसकी हमें आवश्यकता होती है उसको लेकर फिर कहानियां और कथाये बन ही जाती है |जो कालान्तर में हमें मार्ग-दर्शन करती रहती है |
                          प्रथम-प्रेम के बारे में भी ऐसी ही एक कथा बहुत प्रसिद्ध है |एक लड़का ,एक लड़की के प्रेम में,उसके प्यार में गहराई तक डूब गया था |उस लड़की को उसका प्रेम मात्र शारीरिक आकर्षण महसूस हो रहा था |उस लड़की ने उसके प्रेम की परीक्षा लेनी चाही |उसने लड़के को एक दिन कहा कि अगर वह सच्चे मन से उसे इतना ही प्रेम करता है ,तो वह अपनी माँ का कलेजा लाकर उसे दे |तभी वह उसके  प्रेम को वास्तविक प्रेम मानेगी |लड़का यह बात सुनकर अपनी माँ के पास पहुंचा |माँ ने उसे अनमना देखकर उससे इसका कारण पूछा|उसने सारी बात बता दी और स्पष्ट कर दिया कि वह उस लड़की के बिना जिन्दा नहीं रह पायेगा |माँ ने उसे प्यार किया ,बड़े स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरा और बोली-"बेटा,तूँ पहले हाथ-मुंह धो ले |आराम से खाना खा ले |फिर चाकू से मेरा कलेजा मुझे चीर कर निकाल लेना ,और उसे दे देना |मेरा क्या है,मैंने तो अपनी जिंदगी जी ली |मेरी जिंदगी तो सिर्फ और सिर्फ तुम्हारे लिए है |"इतना कहकर माँ ने बड़े प्रेम से उसे खाना खिलाया और अपने पुत्र के सामने बैठ गयी |पुत्र ने अपनी माँ को मारकर उसका कलेजा निकाल लिया |लड़के ने अपने माँ का कलेजा अपनी हथेली पर रखा और बड़ी तेजी से अपनी प्रेमिका को देने के लिए चला |रास्ते में पड़े पत्थर से ठोकर खाकर वह गिर पड़ा |अचानक हथेली पर रखे माँ के ह्रदय में से आवाज आयी-"बेटा उठ,तुम्हे कहीं चोट तो नहीं लगी |"बेटा हतप्रभ रह गया |वह उठा और तेजी से चलकर अपनी प्रेमिका के पास पहुंचा|उसने उस लड़की के सामने माँ का  कलेजा रख दिया |अब हतप्रभ रहने की बारी लड़की की थी |वह उसकी माँ के कलेजे को देखकर रोती हुई उस लड़के से बोली-"मैं तुम्हारा प्रेम अस्वीकार करती हूँ |जो अपनी माँ को भी प्रेम नहीं कर सका ,वह मुझे क्या खाक प्रेम करेगा " अब आप उस लड़के की मनोस्थिति का ख्याल कीजिये |क्या बीत रही होगी उसके दिल पर ,यह सब सुनकर ?उसे जरूर इस वक्त अपनी माँ के प्रेम की,माँ की कमी खल रही होगी |
                     कहानी का अर्थ एक ही है |जिंदगी में हर किसी को पहला प्यार अपनी माँ से ही मिलता है |यहीं से उसके ह्रदय में प्रेम का बीजारोपण होता है |अगर आप अपनी जिंदगी में ,अपनी आकांक्षाये,अपनी कामनाये पूरी करने के लिए माँ के प्यार की बलि चढाते हैं तो जीवन भर आपको उस प्रथम-प्रेम की कमी खलेगी और फिर से इस प्रेम की कोई न कोई एक नई कहानी बन जायेगी |जब भी आप किसी दुःख दर्द से परेशान होते हो ,तकलीफों का सामना कर रहे होते हो तो सबसे पहले आपके मुंह से माँ का नाम निकलेगा,अन्य किसी का नहीं |जब भी बचपन में आपको किसी भी चीज की आवश्यकता महसूस हुई थी, आपने प्रत्येक के लिए अपनी माँ से ही उपलब्ध कराने को कहा था ,किसे अन्य को नहीं |यही है आपके जीवन का प्रथम-प्रेम|कृपया इसे कभी भी भूलिएगा नहीं |अगर भूल गए तो फिर आपको परमात्मा नहीं मिल पाएंगे |माँ भी तो परमात्मा है |माँ के दर्शन ही तो भगवान के दर्शन है |
                          जब माँ गर्भ-धारण करती है तभी से इस संसार में आने वाले शिशु से उसका प्रेम-सम्बन्ध बन जाता है |जब शिशु जन्म लेता है ,तब माँ बड़े प्यार और जतन से उसका लालन-पालन करती है |शिशु का लगाव भी अपनी माँ से बढता जाता है |आपने यह कई बार अनुभव किया होगा कि शिशु जब रोता है तब माँ के अलावा यदि उसे कोई गोद में लेता है तो भी उसका रोना बंद नहीं होता है |ज्यों ही माँ उसे अपनी गोद में लेती है ,तुरंत ही शिशु चुप हो जाता है और बड़े ही प्यार से अपनी माँ को निहारता है और उसे यूँ देखता है मानो शिकायत कर रहा हो कि तुम इतनी देर कहाँ थी?धीरे धीरे शिशु जब बड़ा होता है ,सारी बातें और सब कुछ अपनी माँ से ही सिखता जाता है |संसार में इतनी अधिक बोलचाल की भाषाएँ है परन्तु शिशु सबसे पहले "माँ" शब्द ही बोलना शुरू करता है |है ना,आश्चर्य की बात | एक अध्ययन से पता चला है कि जिस शिशु की माँ जन्म के तुरंत बाद ही उसे त्याग देती है उन शिशुओं का शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है और अन्य समान उम्र के शिशुओं से वह धीमी गति से विकास करता है |उसमे असुरक्षा की भावना ज्यादा  होती है और वह संकोची स्वभाव वाला होता है |
                       शिशु द्वारा अपनी माँ से जो लगाव जन्म से ही होता है वह उसके जीवन का प्रथम-प्रेम है |यह प्रेम अविस्मरणीय है |चाहे इस संसार की चकाचौंध में वह बड़ा होकर इसे भूल जाये परन्तु प्रत्येक मुसीबत के समय उसे जरूर इस प्रेम का स्मरण हो आता है ,और तत्काल उसके मुंह से निकल आता है -"हे,माँ|"
                               || हरिः शरणम् ||

Friday, December 27, 2013

दिव्य प्रेम (Divine love)

                         "दिव्य प्रेम" परमात्मा के द्वारा मानव जाति को दिया हुआ अमूल्य उपहार है |दिव्य प्रेम का स्थान सभी भावनाओं और भावुकता से ऊपर है क्योकि दिव्य प्रेम में ही सभी समस्याएं सुलझाने की क्षमता होती है |दिव्य प्रेम मानवता की खुशबू है,और परमात्मा की प्रार्थना का सर्वोत्तम उत्तर भी |दिव्य प्रेम सदैव प्रवाहित होने वाली अविरल धारा है |जब दिव्य प्रेम में इतनी खासियत है तो फिर व्यक्ति अपने जीवन से खुश क्यों नहीं है ?यह प्रश्न उठना स्वभाविक है |इसका एकमात्र उत्तर है-व्यक्ति का अहंकार |जैसे आप रेडियो पर एक समय में केवल एक निश्चित आवृति वाला प्रसारण ही सुनपाते है,उसी प्रकार या तो आप दिव्य-प्रेम का अनुभव कर सकते हैं या अपने अहंकार का |अगर हम सदा "मैं"और "मेरा"का ही सोचते रहेंगे तो फिर अपने में दिव्य-प्रेम का प्रवेश कैसे संभव हो पायेगा?विश्व प्रसिद्द कवियों में से एक,संत कबीर ने आज से लगभग पांचसौ वर्ष पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि-
                        प्रेम गली अति सांकडी,जा में दो ना समाय |
                       जब "मैं"था तब हरि नहीं,अब हरि है "मैं"नाय ||
                           सभी मानव इस दिव्य-प्रेम से सरोबर है,आश्चर्य है फिर भी वह इस प्रेम को पाने के लिए बाहर इधर उधर ढूँढता फिर रहा है |इस प्रेम को पाने के लिए वह किसी और को खोज रहा होता है |दिव्य-प्रेम तो अपने चारों और प्रकृति में बिखरा पड़ा है-सूर्य की धूप में,ठंडी बह रही बयार में,चिड़ियों के चहचहाने में ,बारिश की बूंदों में,धरती की सौंधी महक में आदि |यह सब लगातार प्रवाहित होते रहने वाली चीजें है |इनका प्रवाह कभी भी बाधित नहीं होता |आवश्यकता है ,हम अपने "मैं "को छोड़कर समग्रता के साथ प्रकृति का अवलोकन करें|अगर हम इस दिव्य-प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकते तो इसमे हमारी ही कोई कमी है |यह दिव्य-प्रेम तीन प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है -
          (१)हम अपने वर्तमान को यथावत स्वीकार करें |हम अपने आप से प्रेम करें |हम हमेशा एक अंतर्द्वंद्व से पीड़ित रहते हैं |हम जैसे है वैसे बने रहने की बजाय किसी और की तरह बनना चाहते हैं |यह दिव्य प्रेम को प्राप्त करने में सबसे बड़ी बाधा है |अतः आवश्यक है कि हम अपनी स्थिति जो भी है ,जैसी भी है उसमे संतुष्ट रहें|
        (२)जो भी हमें प्राप्त हुआ है उसके लिए परमात्मा को धन्यवाद दें |दिव्य-प्रेम आपको बाहर से कोई दूसरा उपलब्ध नहीं कराएगा|दिव्य-प्रेम तो आपके अंदर ही भरा पड़ा है |
        (३)अपने आप को परमात्मा को समर्पित कर दें|शरणागति दिव्य-प्रेम को पाने का सबसे अच्छा तरीका है |परमात्मा से दिव्य-प्रेम प्राप्त करने की प्रार्थना कीजिये |
                             || हरिः शरणम् || 

Thursday, December 26, 2013

सांसारिक प्रेम (worldly love,conditional love)

                            सांसारिक प्रेम का दूसरा नाम सशर्त प्रेम (Conditional love)भी है |सांसारिक प्रेम अपने सहयोगी साथी से कुछ न कुछ पाना चाहता है,उसपर अपना एक मात्र अधिकार स्थापित करना चाहता है,और किसी के साथ उसे बाँटना नहीं चाहता |वह सिर्फ यही चाहता है कि उसकी चाहत उसका प्रेम केवल मेरे लिए ही हो |वह उसे किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता नहीं देना चाहता |सांसारिक प्रेम शर्त रहित वास्तविक प्रेम के एकदम उलट है |क्योंकि सांसारिक प्रेम के साथ कई प्रकार की शर्तें संलग्न रहती है |ये शर्तें समयानुसार बदलती और बढती भी रहती है |इन शर्तों को पूरा करना किसी के लिए भी संभव नहीं होता है |सांसारिक प्रेम हालाँकि सकारात्मक भावनाओं से जुड़ा होता है ,परन्तु इसके साथ इसी के कारण कई समस्याएं भी जुडी होती है |सांसारिक प्रेम के साथ मुख्य रूप से चार प्रकार की समस्याएं होती हैं-
            (१)संतुष्टि का अभाव(Never satisfied)- कोई भी व्यक्ति सांसारिक प्रेम करने वाले को संतुष्ट नहीं कर सकता |क्योंकि वह व्यक्ति प्रेम के स्थान पर शर्तें पूरी होने यानि कामनाओं को पूरी करने को ज्यादा महत्त्व देता है |
           (२)सम्बन्ध की अल्पावधि(Short life of relation ship) -सांसारिक प्रेम केवल थोडे समय के लिए ही कायम रहता है |जब आपकी आकांक्षाये पूरी हो जाती है तब सम्बन्ध एक बोझ लगने लगता है |जैसे आप एक नई कार खरीदते है,आपकी यह कार पाने की इच्छा पूरी हो जाती है |आपका सांसारिक प्रेम कार के प्रति होता है |कार खरीदते ही आप उसके पेट्रोल,बीमा और अन्य उसपर होने वाले खर्चों को सोचकर उस कार से मोह भंग हो जाता है |यही सांसारिक प्रेम की परिणिति है |अपनी आकांक्षाएं पूरी होने के बाद व्यक्ति अपने साथी के साथ संबंधों को महत्त्व देना बंद कर देता है |
          (३)अधिकार ज़माने की भावना(Possessiveness) -सांसारिक प्रेम के साथ चूँकि शर्तें संलग्न रहती है,अतः उन शर्तों को या उन आकांक्षाओं को पूरा करने हेतु व्यक्ति अपने साथी पर अधिकार जमाना चाहता है |अधिकार स्थापित करने के बाद वह उसको अपने अनुसार बदलने का प्रयास करता है,जिससे वह अपनी कामनाएं पूरी कर सके|
          (४)नकारात्मक भावनाओं का आगमन(Negative thinking)-सांसारिक प्रेम के कारण हम शर्तों और वास्तविकताओं के मध्य संघर्षरत रहते है |धीरे धीरे इस जाल में फंसकर हम अपनी मूल पहचान ही खो देते है |तब हममे नकारत्मकता का प्रवेश हो जाता है |हम ईर्ष्यालू,बात बात में झगडा करने वाले,और अपने आप के अधिकार की बातें करने वाले बन जाते है |हम अपनी संवेदनशीलता(Sensitivity) को भी खो देते हैं |
                               इस प्रकार हम देखते है कि सांसारिक प्रेम केवल स्वयं के अधिकार की बात तो करता है परन्तु किसी को अधिकार देना नहीं चाहता |सब कुछ पाना चाहता है परन्तु कुछ भी देना कभी भी पसंद नहीं करता |सवयं स्वतन्त्र रहना चाहता है और दूसरे की स्वतंत्रता का हनन करता है |अतः सांसारिक प्रेम अपनी कामनाओं और ईच्छाओं को पूर्ण करने का एक सशर्त समझौता मात्र है,प्रेम नहीं|इसे प्रेम का नाम देना सर्वथा अनुचित है |
                                      || हरिः शरणम् ||

Wednesday, December 25, 2013

वास्तविक प्रेम (Unconditional love )

                       प्रेम सदैव बिना किसी शर्त(Conditions) के होता है |जहाँ कोई शर्त होती है वहाँ कभी प्रेम नहीं होता है |जब भी प्रेम में शर्तें लागु की जाती है ,प्रेम फिर प्रेम नहीं रहता ,वह लगाव(Attachment) में बदल जाता है | यह लगाव बहुत ही अपेक्षाएं(Expectations) अपने अंदर समेटे होता है |आपसी संबंधों में एक तरह का रिक्त स्थान बना रहता है क्योंकि लगाव में अपेक्षाओं और वास्तविकता(Reality) में बहुत अधिक अंतर होता है |लगाव संबंधों को कभी भी प्रगाढ़ नहीं होने देता है |
       अगर हम गंभीरता से अपनी मनःस्थिति(Mental status) का अध्ययन करें तो पाएंगे कि किसी व्यक्ति से किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित करने से पहले हम उस व्यक्ति के बारे में अधिकतम जानकारी प्राप्त कर एक निश्चितता प्राप्त करना चाहते है |इस दौरान हम उसके कार्यों ,उसकी हैसियत,उसके सम्मान देने के तरीके ,हमारे साथ उसके व्यवहार आदि का बड़े गौर से अध्ययन करते हैं और फिर निर्णय करते है कि वह हमारे योग्य है अथवा नहीं |अगर हमारी आकांक्षाओं पर वह खरा नहीं उतरता तो हम उसे अयोग्य घोषित करने में क्षण भर की देरी भी नहीं करते |यहाँ अगर वह हमारी आकांक्षाओं के अनुरूप होता है तो हमारा उसके प्रति आकर्षण पैदा हो जाता है और एक रिश्ता बन जाता है |परन्तु इस रिश्ते को आप स्वार्थवश पैदा हुए लगाव के कारण बना रिश्ता कह सकते हैं|प्रेम का इस रिश्ते में सर्वथा अभाव होगा |
                 आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हम स्वयं से भी प्रेम नहीं करते हैं |क्योंकि हम जैसे होते हैं ,,वैसे कभी भी बने रहना नहीं चाहते |स्वयं हम अपने आपको भीतर से कुछ शर्तें लादते हुए प्रदर्शित करते है |  कभी हमें अपने आप की लघुता का अहसास(Inferiority complex) होता है| हम सदैव ही अपने बारे में नकारात्मक सोच के शिकार होते हैं |हम जैसे भी है, उसी स्थिति में अपने आप को स्वीकार नहीं करते है|हम अपनी उर्जा का आधा हिस्सा तो जैसे हम नहीं है, वैसा दिखाने में गँवा देते है और आधा हिस्सा जैसे भी हम है, उसे छुपाने में |फिर स्वयं से प्रेम करने के लिए उर्जा बचती भी कहाँ है |
                यह लगाव शब्द  पूर्वाग्रह की तरफ इशारा करता है |हम सभी अपने स्वार्थों और आकाक्षाओं में इतने रत हैं कि हमें यह भी ख्याल नहीं आता है कि कौन वास्तव में हमें प्रेम करता है और कौन प्रेम करने का ढोंग कर रहा है |कई बार तो ऐसा होता है कि वास्तविक प्रेम(Unconditional love) करने वाले को हम स्वार्थवश पैदा हुआ लगाव समझ बैठते हैं ,और कई बार स्वार्थवश किये जा रहे प्रेम पर्दशन को वास्तविक प्रेम समझ बैठते हैं |अगर हमें कोई ऐसा व्यक्ति प्रेम करता है जो अपने अनुसार हमारे से रिश्ता रखने की योग्यता नहीं रखता हो तो हम उसके इस  प्रेम को अहंकारवश उसका स्वार्थ समझते हुए स्वीकार नहीं करते |यहाँ कहा जा सकता है कि हमारे में प्रेम का सर्वथा अभाव है |कोई भी ऐसी बात जिसमे अहंकार सम्मिलित होता है वहाँ प्रेम का होना असंभव है |
               बिना शर्त का प्रेम व्यापकता लिए होता है |इसमे जिस व्यक्ति से भी प्रेम होता है वह उसे प्रत्येक स्थिति में स्वीकार्य होता है |वहाँ यह नहीं देखा जाता कि वह साथ में बैठने योग्य है या नहीं,उसकी आर्थिक स्थिति कैसी है,पुरुष है या स्त्री ,इसको मेरे अनुकूल कैसे परिवर्तित किया जा सकता है आदि सब सोच से भी परे होता है |शुद्ध और सात्विक प्रेम बिलकुल सीधा,सरल,तनाव रहित भावनाओं से ओतप्रोत,टिकाऊ और गहराई लिए होता है | जबकि सशर्त प्रेम अर्थात लगाव या आकर्षण बहुत ही कमजोर, छिछला, और काफी हद तक दिखाऊ और स्वार्थ पर आधारित होता है |
                संत कबीर ने कितनी सच्ची बात कही है-
                     प्रेम न बाड़ी उपजे,प्रेम न हाट बिकाय |
                     राजा प्रजा जो भी रुचे,शीश देई ले जाय ||
        अब प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या प्रेम बिना किसी शर्त,बिना किसी कामना के भी हो सकता है?मैं कहूँगा-हाँ,क्यों नहीं? प्रतिदिन सूर्य बिना किसी आकांक्षा के सारे संसार को प्रकाशित कर सकता है,जल अपने संपर्क में आनेवाले को बिना भेदभाव किये भिगो सकता है,वृक्ष सबको फल और ठंडी छाया प्रदान करता है तथा ठंडी बयार सबको आनन्दित करती है |ये सब ऐसा इसलिए करते हैं क्योंकि ये सब अपनी प्रकृति में ही जीते हैं |जब हम भी अपनी वास्तविकता में जीने लगेंगे,हमारा जीवन भी प्रेम से ओत-प्रोत हो जायेगा |किसी ने सच ही कहा है-न तो किसी अभाव में जीओ,न किसी प्रभाव में जीओ ,जीना है तो सिर्फ अपने स्वभाव में जीओ |अपने स्वभाव में जीना ही वास्तविक प्रेम है |

                              || हरिः शरणम् ||         

Tuesday, December 24, 2013

Love and forgiveness.

                                    Have you noticed?  In day to day life,your beloved talks about forgiveness. I ask-Is forgiveness love?What is implied in forgiveness? You insult me or you hurt me and I resent it;remember it;then either through compulsion(बाध्यता) or through repentance (पश्चाताप),I say"I forgive you". First I retain and then I reject. Which means what? I am still the central figure;it is I who am forgiving somebody. As long as there is attitude of forgiving it is  I who am important ;not the man who is supposed to have insulted me or hurt me. So I accumulate resentment (आक्रोश)and then deny that resentment.,which you call forgiveness,it is not love. A man who loves obviously has no enmity and to all these things he is indifferent.Sympathy,forgiveness,the relationship of possessiveness,jealousy and fear all these things are not love.They are all of the mind.Are they not?Am I wrong?
                      || हरिः शरणम् ||

Monday, December 23, 2013

प्रेम का अर्थ |

                              संसार में जितने भी शब्द कोष हैं उनमे प्रेम शब्द उपलब्ध है |वास्तव में प्रेम शब्द का सही अर्थ क्या है,सब अपने विवेकानुसार अनुसार इसकी व्याख्या करते हैं |परन्तु यह शब्द इतना सस्ता भी नहीं है कि इसका वास्तविक अर्थ जाने बिना इसका किसी भी स्थान पर उपयोग कर लिया जाये |इस शब्द का जितना दुरूपयोग समाचार जगत ने किया है उतना शायद ही किसी ने किया है |मैं एक दो समाचारों का उदहारण देना चाहूँगा ,जो  आये दिनों आपको अखबारों में पढने को मिल जाते हैं |जैसे प्रेमी ने प्रेमिका की हत्या की,एकतरफा प्रेम में प्रेमी ने एक लडकी की जान ली आदि |अब जरा सोचिये-क्या कोई लड़का वास्तव में किसी लड़की को प्रेम करता हो तो वह उस लड़की की जान ले सकता है ?नहीं,कदापि नहीं |फिर समाचारपत्र ऐसा क्यों लिखते हैं ?मैं आज तक समझ नहीं पाया हूँ |
                            प्रेम तो आपस में एक दूसरे के लिए मिटना सिखाता है,एक दूसरे को मिटाना नहीं |जहाँ एक दूसरे के प्रति सम्पूर्णता के साथ समर्पण का भाव नहीं है वहाँ प्रेम कैसे हो सकता है?यहाँ अगर लड़का किसी लड़की की हत्या करता है ,तो स्पष्ट है कि उस लड़के का उस लड़की के साथ प्रेम तो कदापि नहीं था |अगर आप वासना,कामना या लगाव को ही प्रेम का नाम देते हैं,तो बात अलग है |
                 आज इस कामनाओं और इच्छाओं से भरे संसार में प्रेम बचा ही कहाँ है,सिवाय शब्द कोष के |हम आकर्षण और लगाव को ही प्रेम का नाम दे रहे हैं |प्रेम तो मानव मन में उठ रही वो तरंगे है जो अपने प्रेमी के मन की बात मीलों दूर बैठे ही महसूस कर लेता है |प्रेम में जुबान तो एकदम मौन ही हो जाती है |जिस प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए आपको शब्दों का सहारा लेना पड़े ,तो फिर आप किसी और की बात कह रहे है ,प्रेम की नहीं |आज प्रेम का इज़हार लोग उपहारों और शब्दों के माध्यम से कर रहे है|क्या अब प्रेम को इन उपहारों और शब्दों की जरुरत पडने लग गयी है ?नहीं,प्रेम कोई उपहार या शब्दों का मोहताज नहीं है |अगर कोई व्यक्ति आपके प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए उपहार,शब्द या अन्य माध्यम का इंतज़ार करता है,समझ लीजिए उसका आपके प्रति मात्र आकर्षण है,प्रेम नहीं |
                        प्रेम को समझ पाना और इस शब्द की व्याख्या करना बहुत ही मुश्किल है |कोई एक परमात्मा को समर्पित,प्रेम को समर्पित व्यक्ति भले ही ऐसा कर सकता हो|मैंने तो जितना इस शब्द के बारे में पढ़ा है और समझा है ,शब्दों से उस प्रेम को व्यक्त कर रहा हूँ |हालाँकि मैं जानता हूँ कि प्रेम कोई शब्दों में व्यक्त करने की बात नहीं है |इस भौतिक संसार ने प्रेम का जिस प्रकार से विभाजन किया है ,उस पर एक नज़र डालना और आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ |प्रेम पर लिखना इसी कारण से मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ |
                         प्रेम प्रेम सब कोई कहै,प्रेम न चीन्हे कोई |
                         आठ पहर भीगा रहे,प्रेम कहावे सोई ||
                                  || हरिः शरणम् ||

Sunday, December 22, 2013

प्रेम की भ्रान्ति |

      आज मैं अपनी बात एक कहानी के साथ शुरू कर रहा हूँ |एक बार सतयुग में शिव-पार्वती कैलाश से उतर कर विश्व-भ्रमण पर निकले |उस समय पार्वती ने देखा कि मरुस्थल में एक तालाब के किनारे मृग जोड़े के दो शव पड़े हैं |पार्वती ने भगवान शंकर से पूछा-"भगवन!ये दोनों कैसे मर गए ?"शिव ने कहा-"प्रिये!ये दोनों प्यास से मर गए |"पार्वती को आश्चर्य हुआ तालाब में दोनों के लिए प्रयाप्त पानी भी था |बिलकुल किनारे पर ही दोनों शव पड़े थे |फिर प्यास से कैसे मर गए?पार्वती ने शंकर से अपनी इस शंका को दूर करने की प्रार्थना की |शिव ने कहा-"हे गिरिजे!ये दोनों एक दूसरे से अतिशय प्रेम करते थे |दोनों में से हरेक यह चाहता था कि पहले वह पानी पिए और अपनी प्यास बुझाये |परन्तु दोनों में से कोई भी पहले क पानी पीने को तैयार नहीं था |इसी पहले आप,पहले आप के आग्रह में समय बीत गया और दोनों जल के अभाव में मूर्छित होकर धरा पर गिर गए और अंत में मृत्यु को प्राप्त हो गए |"पार्वती को दोनों के बीच अगाध प्रेम होने की बात सुनकर आश्चर्य हुआ और दोनों का एक दूसरे के प्रति समर्पण जानकर उस प्रेम को प्रणाम किया |
                       समय पंख लगाकर उड़ता गया |दिन,साल और काल बीतते गए |कलियुग आ गया |शिव-पार्वती फिर से एक दिन कैलाश से उतारकर विश्व-भ्रमण को निकले |जब उसी मरुस्थल से गुजर रहे थे तो उसी तालाब के किनारे उसी प्रकार एक मृग जोड़े के शव पड़े थे |पार्वती उनको देखकर शिव से बोली -"देखिये महाराज|इनके बीच का जन्म-जन्मों का प्रेम देखकर मैं आश्चर्य चकित हूँ |पानी होते हुए भी एक दूसरे के प्रेम में ये दोनों प्यासे ही मर गए |"शंकर मुस्कुराये |पार्वती की तरफ उन्मुख होकर बोले-"नहीं प्रिये|ऐसा कुछ भी नहीं है |ये दोनों पति-पत्नी जरूर है |प्यासे होने पर तालाब के किनारे पानी पीने आये भी थे |परंतु दोनों में प्रत्येक को पानी अपने लिए ही प्रयाप्त लगा |अतः दोनों जिद्द करने लगे कि पानी पहले वह स्वयं पीएगा |इसी चक्कर में दोनों एक दूसरे को पानी पीने से रोकते रहे |इस रोका टोकी में समय बीतता गया और प्यास से व्याकुल दोनों ही मूर्छित होकर मृत्यु को प्राप्त हुए |"
                           अब पार्वती को आश्चर्य होना ही था |वह बोली-"भगवन!इतने समय में ऐसा क्या परिवर्तन आ गया कि इन दोनों का प्रेम वैसा नहीं रहा जैसा कुछ काल पूर्व में था |"शिव बोले-"यह सब समय का फेर है दैवी |साथ साथ रहना प्रेम पैदा करदे यह आवश्यक नहीं है |जब दोनों में से कोई एक के मन में भी स्वार्थवश एक आकांक्षा जन्म ले लेती है तो फिर प्रेम का अभाव होना अवश्यम्भावी है |लेकिन दोनों का एक साथ बने रहना प्रेम की भ्रान्ति ही पैदा करता है, वास्तव में वहाँ प्रेम होता नहीं है |"
                               यह सुनकर पार्वती ने क्या सोचा होगा ,शंकर को और क्या पूछा होगा मैंने कहीं भी पढ़ा नहीं है |परन्तु भगवान शंकर द्वारा पार्वती को अंत में जो कुछ भी कहा वह प्रेम के और प्रेम होने की भ्रान्ति के बारे में सब कुछ स्पष्ट कर देता है |
                                           || हरिः शरणम् ||

Saturday, December 21, 2013

प्रेम का प्रारंभ |

जहाँ आपकी कामनाओं और इच्छाओं का अंत होता है,प्रेम का प्रारंभ वहीँ से होता है |संसार में जितनी भी त्यागने योग्य वस्तुएं या बातें है,उनके त्याग के पश्चात जो शेष रहता है,वही प्रेम है |किसी से कोई आकांक्षा रखना,किसी से वैमनस्य रखना,किसी को दुःख पहुँचाना,हानि पहुँचाना,बेवजह किसी को परेशानी में डालना,अपने स्वार्थ के कारण किसी से ज्यादा की आशा रखना,सम्मान की अपेक्षा रखना आदि सब त्याज्य है |जिस दिन व्यक्ति का इन सब से मोह भंग हो जायेगा ,उसी दिन वह प्रेम को उपलब्ध हो जायेगा | प्रेम के लिए केवल अपने आप को मिटा देना होता है |जितनी भी इच्छाए,कामनाएं और आकांक्षाएं हैं वे सब व्यक्ति के अहम् का ही पोषण करती है |और जब तक आप के अंदर अहम् का अस्तित्व है ,तब तक प्रेम का अंकुरण हो ही नहीं सकता |
         प्रत्येक व्यक्ति का अपने परिवार,पत्नी,पति,मित्र,राष्ट्र आदि के साथ एक प्रकार का लगाव और आकर्षण होता है |आप अपने पति या पत्नी के साथ जीवन बिताते हैं,आपको एक दूसरे की आवश्यकता होती है |इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आपके मध्य एक प्रकार का बंधन पैदा हो जाता है |यह बंधन तब तक ही रहता है जब तक पति-पत्नी की आकांक्षाएं एक दूसरे से पूरी हो रही होती है |जिस दिन इनके पूरी होने में व्यवधान पैदा होगा,उस दिन यह बंधन भी ढीला पड़ने लगता है |यह बंधन आपस में एक दूसरे के प्रति लगाव तो पैदा कर सकता है,परन्तु प्रेम नहीं |प्रेम पैदा होने के लिए दोनों के मध्य पैदा हुई आकांक्षाओं का समाप्त होना आवश्यक है |आज संसार में पति-पत्नी के मध्य इन्ही आकांक्षाओं के कारण अविश्वास की भावनाये पैदा हो रही है ,जिनका परिणाम तलाक के रूप में सामने आ रहा है |बढाती तलाक की संख्याये इस को साबित कर रही है |आज के समय में शादी,पति-पत्नी की एक दूसरे की आकांक्षाएं पूरी करने का समझौता बनती जा रही है |एक दूसरे के प्रति समर्पण की भावना न जाने कहाँ खो गयी है ?बिना समर्पण के समझौता तो हो सकता है,प्रेम नहीं |
         यह जीवन बिना प्रेम के एक शुष्क मरुस्थल के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है |क्योंकि यहाँ अपने आनंद के लिए प्रत्येक के मन में केवल कामनाएं भरी है |प्रेम के लिए कोई स्थान उपलब्ध नहीं है |बिना प्रेम के आपके जीवन का कोई मूल्य नहीं है |बिना प्रेम के जीवन यंत्रवत होता है |जहाँ प्रत्येक दिन,सुबह से शाम तक व्यक्ति अपनी कामनाएं पूरी करने के लिए एक मशीन की भांति कार्य करता रहता है |
                 प्रेम के प्राकट्य के लिए सुनदरता का होना आवश्यक है |बिना सुंदरता के आपमें प्रेम का अंकुरण हो ही नहीं सकता |सुंदरता से अर्थ केवल सुंदर चहरे,मोहरे से नहीं है |सुंदरता दिल की भी होती है,वह दिल जो जानता हो कि प्रेम क्या होता है? यह सुंदरता जब आप को किसी के प्रति आकर्षित होने को मजबूर कर देती है ,तब वह आकर्षण ही प्रेम के प्रारंभ होने की पहली सीढ़ी बन जाती है |यहाँ मन आकांक्षाओं से रहित होता है,इसलिए यही मन की सुंदरता है जिसका आकर्षण प्रेम का बीज बन जाता है|जब आपका मन सुन्दर होगा,आपके भीतर प्रेम होगा ,तब आप जो कुछ भी करेंगे वह सब सही होगा |फिर आप किसी को दुखी नहीं कर सकोगे,किसी के साथ दुर्व्यवहार नहीं कर सकते,आप किसी को हानि नहीं पहुंचा सकते और ऐसा कोई कार्य आपसे हो ही नहीं सकता जो अनुचित हो |                                             
                                 ||हरिः शरणम् ||
If you know how to love,then you can do what you like because it will solve all other problems.
                                                        -J.Krishnamurti
  

Friday, December 20, 2013

कामनाएं और प्रेम(Desire and love)

                                                  हम सब कामनाओं के जाल में इस हद तक उलझे हुए हैं कि हम किसी भी कीमत पर अपनी कामनाएं पूरी करना चाहते हैं |हम कामनाओं के द्वारा ही अपने जीवन में संतुष्ट होना चाहते हैं |हम यह कभी भी अनुभव नहीं कर सकते कि इन कामनाओं ने इस संसार को कितनी अधिक हानि पहुँचाई है-हमारी व्यक्तिगत सुरक्षा को,हमारी सफलताओं को,हमारी शक्ति और इज्जत को |हम यह कभी भी नहीं जान पाते हैं कि हमारे साथ जो कुछ भी हो रहा है ,सब के लिए हम स्वयं ही जिम्मेवार हैं,अन्य कोई नहीं |अगर मानव जीवन में कोई अपनी कामनाओं और इच्छाओं को भली भांति समझ ले ,उनकी प्रकृति को जान ले तब अनुभव होता है कि जीवन में कामनाओं और इच्छाओं का कितना और कैसा महत्त्व है ?जहाँ प्रेम है ,वहाँ कामनाओं का क्या कोई महत्व हो सकता है ?
                            सच कहूँ,वास्तव में हम सबमे प्रेम का अभाव है |हम खुश हैं,आनंदित हैं,हमें अच्छी अनुभूति होती है,विपरीत सेक्स के प्रति हमारा आकर्षण है,परिवार,पुत्र,पत्नी ,पति और राष्ट्र के साथ हमारा लगाव हो सकता है|परन्तु आप इन सबको प्रेम नहीं कह सकते |यह आकर्षण होना ,लगाव होना प्रेम नहीं है |न ही प्रेम कोई दैवीय होता है |प्रेम तो किसी के समक्ष पूर्णता के साथ ,समर्पण होता है |आप एक पेड की अच्छी तरह देखभाल करते हो,पडौसी के साथ आपका व्यवहार अच्छा हो,बच्चों की देखभाल भली प्रकार कर रहे हो,उनकी शिक्षा का ख्याल रख रहे हो आदि |केवल बच्चे को स्कूल में दाखिला दिला देना,उसे ऐसी शिक्षा दिलाना जिससे उसे अच्छी नौकरी मिले ,यह उसके प्रति प्रेम नहीं ,बल्कि उसमें आपकी आकांक्षाएं प्रदर्शित होती है |प्रेम के बिना आपमें नैतिकता नहीं होगी,सात्विकता नहीं होगी |आप सम्मानित हो सकते है परन्तु आप नैतिक हो ही,नहीं कहा जा सकता |आप किसी की कोई वस्तु नहीं चुराते है,आप किसी की कोई आलोचना नहीं करते ,आप पडौसी से अच्छा व्यवहार रखते है ,आप किसी  स्त्री का पीछा नहीं करते हैं -ऐसा आप कानून के डर से ,या समाज में इज्जत पाने की भावना से भी कर सकते है |संसार में सम्मान पाने की कामना रखना ,इस संसार की सबसे निम्न स्तर की कामना करना है |जब इन छोटी छोटी निम्न स्तर की बातों से ,कामनाओं से अपने आप को अलग कर लेंगे  तब आप सबसे प्रेम करने लगोगे और आपमें नैतिकता अपने आप आ जायेगी |फिर आप अपने अंदर प्रकट हुए प्रेम के कारण,अपनी नैतिकता के बल पर वह सब करोगे जो आप आज सम्मान पाने की कामना से करते हैं |
                            || हरिः शरणम् ||

Thursday, December 19, 2013

परमात्म-दर्शन |

                                  कल किसी मित्र ने पूछा कि क्या परमात्मा के दर्शन संभव है ?
            समझ में नहीं आता,उसे क्या उत्तर दूं?जिस प्रश्न का उत्तर केवल वही जान पायेगा,जो इसे जानने का प्रयास करेगा |पानी कितना गहरा है,यह नदी या झील के किनारे बैठ कर या उसमे कंकड फैंक कर पता नहीं किया जा सकता |गहराई मापने के लिए तो आपको नदी या झील में छलांग लगानी ही होगी |
                         परमात्मा मानने की वस्तु नहीं है,बल्कि यह एक जानने का विषय है |अगर कोई व्यक्ति यह सोचता है कि परमात्मा एक छवि ,एक व्यक्ति के रूप में प्रकट होकर दर्शन देंगे,तो यह मात्र एक कल्पना होगी |परमात्मा के दर्शन एक छवि या मानव के रूप में होना असंभव है |कई कई बार ऐसा सुनने में आता है कि अमुक व्यक्ति में देवता आकर बोलते हैं |कितना हास्यस्पद है कि एक देवता को भी अपनी बात कहने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है |यह सब व्यक्ति की विकृत मानसिक स्थिति के प्रकट होने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और अन्य लोग अज्ञान वश ऐसी घटनाओं पर विश्वास कर लेते हैं |
                          आत्मा इस भौतिक शरीर में परमात्मा का ही एक अंश है |आप एक शरीर नहीं है |जिसे आप "मैं"कहते हैं वह अपने शरीर को नहीं कहते |यह "मैं" आप अपनी आत्मा को कहते हैं|स्वयं को जानना जितना आवश्यक है उतना किसी अन्य को जानना आवश्यक नहीं है |जिस दिन आपका ज्ञान इस चरम अवस्था को प्राप्त हो जायेगा कि आप स्वयं को जान जाओगे ,आप परमात्मा को अपने आप जान जाओगे | आप में और आत्मा में कोई अंतर नहीं है और आत्मा परमात्मा का ही एक अंश है |जिस दिन आपको आत्म-दर्शन हो जायेगा ,उसी दिन आप परमात्मा के दर्शन कर लेंगे |
                    परमात्मा कभी भी आपको चतुर्भुज रूप में आकर दर्शन नहीं देने वाले |अगर आप उसके दर्शन उस चतुर्भुज रूप में करने की आशा रखते हैं तो आपके कई जन्म बीत जायेंगे परन्तु ऐसे दर्शन सुलभ नहीं होंगे |और जिस दिन आप आत्म-दर्शन को उपलब्ध हो जाओगे उसी दिन सभी जगह,सब जीवों ,सभी भौतिक वस्तुओं में परमात्म-दर्शन कर पाओगे |अतः परमात्म-दर्शन के लिए आवश्यक है आत्म-दर्शन|
                                           || हरिः शरणम् ||
                                  "आत्मा अज्ञान के कारण सीमित प्रतीत होती है,परन्तु जब अज्ञान मिट जाता है,तब आत्मा के वास्तविक स्वरुप का ज्ञान हो जाता है,ठीक उसी प्रकार जैसे बादलों के हट जाने से सूर्य दिखाई देने लगता है |"
              -आदि शंकराचार्य
                                 "जिस प्रकार एक प्रज्वलित दीपक को चमकने के लिए किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती ,उसी प्रकार आत्मा जो स्वयं ज्ञान स्वरुप है उसे अपने स्वयं के ज्ञान के लिए किसी और ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती |"
              -आदि शंकराचार्य
       

Wednesday, December 18, 2013

Peace of mind

मन शांत रखने के दस सूत्र-
(१)किसी के काम में दखल तब तक न दें,जब तक कि आपसे पूछा न जाये |
(२)जो कभी भी बदल नहीं सकता,उसे सहना सीखो |
(३)खुद को प्रत्येक प्रकार के वातावरण में ढालना सीखो |
(४)उतना ही काटें,जितना कि चबा सकें यानि उतना ही काम हाथ में ले जितना पूरा करने की क्षमता हो|
(५)जलन की भावना से बचें |
(६)माफ़ करना और कुछ बातों को भूलना सीखें |
(७)किसी भी काम को टालें नहीं और कोई ऐसा काम न करें जिससे आपको बाद में पछताना पड़े |
(८)पहचान पाने की लालसा न रखें |
(९)दिमाग को कभी भी खाली न रहने दें |
(१०)रोजाना ध्यान करें |

              || हरिः शरणम् ||

Tuesday, December 17, 2013

Happiness

Life is so confusing..
What we want we don't get...
What we get we r not satisfied..
What we expect never happens and
What we hate generally repeats.
That's life.
If u wait for happy moments,
u will wait forever.
But if u start believing that u r happy,
u will b happy forever.
That's also life.

Thanks to God for every thing.

Monday, December 16, 2013

परमात्मा को मानें या जानें ?

                     "मैं ईश्वर को मानता नहीं हूँ,मैं ईश्वर को जानता हूँ | क्योंकि ईश्वर मानने का विषय है ही नहीं,ईश्वर तो केवल जानने का विषय है |"
                      किसी भी बात को मानने का अर्थ यह होता है कि किसी ने आपको वह बात कही और आपने उस बात को सही मान लिया |आपने उस बात या उस विषय के बारे में किसी भी प्रकार की जानकारी प्राप्त करने की कोशिश नहीं की |आपने उस बात का कोई विरोध भी नहीं किया और मान लिया |आज के समय में यही मानना चलन में है |और आप जानते ही हैं कि मानना सत्य नहीं है ,वह सत्य से बहुत परे है |आपको किसी ने कह दिया कि ईश्वर होता है और आपने आँख मूँद कर मान लिया कि हाँ होता है |यह आपकी ईश्वर के प्रति आस्था और विश्वास बिलकुल भी प्रकट नहीं करता है |जब भी कोई अन्य व्यक्ति आपको यह कह देगा कि ईश्वर नहीं है,आप तुरंत ही उस बात को मान लोगे |अगर आपका ईश्वर को मानना ,आपकी ईश्वर के प्रति दृढ आस्था और विश्वास होता तो आप कदापि इस दूसरे व्यक्ति की बात नहीं मानते |
                        जब भी कोई व्यक्ति आपको किसी भी विषय में कोई बात कहता है तो सबसे पहले आपको उस बात की गहरे में जाकर उसको समझना होगा |उसकेबारे में कब,क्यों कैसे कहाँ आदि के बारे में समस्त जानकारी प्राप्त करनी आवश्यक होगी |तभी आप उस विषय के बारे में जान पाएंगे,अन्यथा उस विषय को मात्र मानना ही होगा |परमात्मा को मानना आपको कर्मकांडों की तरफ ले जायेगा जबकि परमात्मा को जान लेना इन सबसे आपको मुक्ति दिला देगा |एक बार अगर आप ईश्वर को जान जाते हैं ,तो फिर कोई कितना ही उसके अस्तित्व पर प्रश्न उठाये,कोई कितना ही उसके होने पर सवाल उठाये, आपकी उसके प्रति आस्था ,उसके प्रति आपका विश्वास कभी भी विचलित नहीं होगा |यह सब परमात्मा को जान लेने से ही संभव है |परमात्मा को जानना ही असली ज्ञान है |यह ज्ञान ही आपको सभी प्रकार के कर्मों और उससे प्राप्त होने वाले फलों से मुक्ति प्रदान करेगा |
                         || हरिः शरणम् ||    

Saturday, December 14, 2013

आत्मा से परमात्मा -महेश्वर |

                                  आत्मा अपने भोक्ता स्वरुप में शरीर और मन पर अपना पूर्ण अधिकार कर लेती है |अब व्यक्ति का मन इधर उधर भटकने के स्थान पर केवल आध्यात्मिकता में ही सुख अनुभव करने लगता है |इस भौतिक संसार में रहते हुए भी सांसारिकता में वह पुनः लिप्त नहीं हो पाता |वास्तविकता में संन्यास की स्थिति यही होती है |संसार में रहते हुए भी संसार को अपने भीतर प्रवेश करने से रोकने में जो भी व्यक्ति सक्षम हो जाता है,वास्तव में संन्यासी कहलाने का अधिकारी वही होता है |संन्यासी का अर्थ संसार से दूर भागकर केवल भगवा वस्त्र धारण करने से नहीं है |अगर आप अपना घर बार छोड़कर,गेरुयें वस्त्र धारण कर संसार से दूर भी चले जाते हों और वहाँ बैठकर संसार एवं परिवार के बारे में ही चिंतन करते रहते हो ,तो आपका वहाँ जाना संसार में बने रहने से भी ज्यादा गलत है |इससे तो अच्छा होता कि संसार में रहते हुए भी परमात्मा का जितना भी चिंतन हो सकता,करते |
                             मुझे एक कहानी याद आ रही है |एक व्यक्ति अपना परिवार छोड़कर हरिद्वार आकर साधू बन गया |उसने परमात्मा का कई वर्षों तक चिंतन किया |सत्पुरुषों के साथ रहा |परन्तु अपनी पत्नी की याद को अपने से अलग नहीं कर सका |उसने प्रयाप्त कोशिश की,परन्तु असफल रहा |अंत में उसको एक उपाय सूझा |उसने स्त्रियों से मिलना बंद कर दिया |स्त्रियां दूर से ही उनके दर्शन कर सकती थी |उस साधू की प्रशंसा दूर दूर तक फ़ैल गयी |उसकी पत्नी तक भी यह बात पहुंची |वह भी उत्सुकतावश साधू के दर्शन करने गयी |साधू ने अपनी पत्नी को दूर से ही पहचान लिया और चिल्लाया कि तुम यहाँ क्यों आयी हो ?उसकी पत्नी तुरंत ही समझ गयी कि इसको अभी भी स्त्रियों में अपनी पत्नी ही दिखाई दे रही है |अभी भी उसके मन में संसार बसा है |ऐसे में यह अभी संन्यास को कैसे उपलब्ध हो सकता  है ? उसने कहा कि आपने मेरे को अपने से अलग ही कब किया जो पूछ रहे हो कि क्यों आयी हो ?मैं तो आपको देखते ही समझ गयी थी कि आप वही हो,घर से इतनी दूर आकर भी वहीँ पर खड़े हो,जहाँ पहले थे |कहानी का अर्थ यह है कि संसार से दूर जाकर भी अगर संसार आपके अंदर बैठा है ,तो फिर दूर जाने का कोई औचित्य नहीं है |कबीर ने सच ही कहा है-
                                      माया माया सब कहे,माया लखे न कोय |
                                      जो मन से ना निसरे,कहिये माया सोय ||
                      एक छोटा सा ही उदहारण काफी है ,इस बात को समझने के लिए |बाज़ार में किसी की जेब से कोई सिक्का अगर सड़क पर गिरता है तो आस पास के लोगों की पचासों नज़रें उस सिक्के की खनक की दिशा में देखने लगेगी |परन्तु गरीब,बीमार और जरूरतमंद की आवाज वहाँ किसी को भी सुनाई नहीं देती |इसी को कहते है मन में बाजार की ,संसार की उपस्थिति |
                       संसार किसी भी प्रकार से गलत नहीं है |संसार को अपने भीतर ,अपने मन के भीतर प्रवेश देना अनुचित है |संसार बाहर से कहीं भी खराब नहीं है |संसार को जाने बिना संसार की आलोचना करना अनुचित है |संसार को जाने बिना परमात्मा को जानना असंभव है |और जिस दिन आप संसार को अच्छी तरह जान जाओगे ,परमात्मा को भी जान जाओगे |उस दिन संसार आपके भीतर प्रवेश नहीं पा सकेगा |यही संन्यास की अवस्था है |और आत्मा का यह पड़ाव ,आत्मा की यह स्थिति उसका महेश्वर होना है |जब आप का संयोग अर्थात न्यास ,सत्य या सत् के साथ हो जाता है ,वही संन्यास (सत्+न्यास ) है |और यही आपका संन्यास आपको भोक्ता से महेश्वर बना देता है |
                            महेश्वर ,आत्मा की यात्रा का अंतिम पड़ाव है जहाँ आप परमात्मा के बिलकुल पास में खड़े होते हो |आप अब किसी भी वक्त परमात्मा में समाहित हो सकते हैं |भोक्ता के पड़ाव तक पहुँच कर भी आप कभी भी संसार की तरफ लौट सकते थे |परन्तु महेश्वर की अवस्था के बाद संसार अदृश्य हो जाता है ,और चारों और मात्र परमात्मा ही दृष्टिगोचर होता है |
                          || हरिः शरणम् ||

Friday, December 13, 2013

आत्मा से परमात्मा-भोक्ता |(Occupier)

                                 आत्मा शुरुआत में उपदृष्टा की भूमिका में होती है |फिर व्यक्ति जब अपने लिए एक मार्ग चुन लेता है,तब अगर वह मार्ग सही हुआ तो आत्मा ,अनुमन्ता की भूमिका निभाती है और उसे उस राह पर अग्रसर होने के लिए अनुमति प्रदान करती है |जब मनुष्य उस राह पर चल देता है तब उसके सामने अपने जीवन काल की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की समस्या होती है |ऐसी स्थिति में आत्मा एक भर्ता की भूमिका निभाती है |  उसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के साथ साथ आध्यात्मिकता के रास्ते में जो भी उपलब्धियां प्राप्त की है उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी निभाती है |इस प्रकार प्रत्येक स्थिति में अपने आप को सुरक्षित पाने के बाद व्यक्ति तेज गति के साथ उस मार्ग पर चल पड़ता है |उसके मन और मस्तिष्क में कोई विचार कभी भी उत्पन्न नहीं  होता जिससे उसे इस राह पर चलना अनुचित लगे |आत्मा अब भर्ता के पड़ाव से आगे बढ़ते हुए भोक्ता की भूमिका में आ जाती है |
                                 ऐसी अवस्था में आत्मा इतनी निश्चिन्त हो जाती है कि वह व्यक्ति के मन को भी पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेती है |जो भी अभी तक उपलब्धियां प्राप्त हुई है वह उन सब की भोक्ता बन जाती है |स्थितियां उसके इतनी नियंत्रण में रहती है कि मनुष्य को आध्यात्मिकता के रास्ते का पूरा आनंद आने लगता है |इस आनंद की आत्मा ही भोक्ता होती है |ऐसी स्थिति प्राप्त कर लेने के पश्चात मनुष्य की उस मार्ग से विचलित होने की सम्भावना नहीं के बराबर होती है |परमात्मा के मार्ग पर चलने वालों के लिए यह सबसे बड़ी उपलब्धि होती है |
                       आध्यात्मिकता के मार्ग पर चलने वाले मनुष्यों में ज्यादातर तो दूसरे पड़ाव के बाद ही विचलित हो जाते हैं |बहुत ही कम लोग इस चौथे भोक्ता वाले पड़ाव तक पहुँच पाते हैं |  चौथे पड़ाव तक आने के बाद प्रायः मनुष्य संतुष्ट हो जाता है और आगे की यात्रा या तो प्रारम्भ ही नहीं करता अथवा फिर बहुत ही धीमी गति से चलता है |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                         मनुष्याणां    सहस्रेषु   कश्चिद्यतति   सिद्धये |
                         यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः ||गीता ७/३||
अर्थात्, हजारों मनुष्यों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है,और उन योगियों में कोई एक मेरे को तत्व रूप से अर्थात यथार्थ रूप से जान पाता है |
                                  || हरिः शरणम् ||

Thursday, December 12, 2013

आत्मा से परमात्मा-भर्ता |(Provider)

                                      जब आत्मा के निर्देशानुसार उचित-अनुचित को जानकर व्यक्ति आध्यात्मिकता की राह पर चलने की सोचता है तब आत्मा अनुमन्ता के रूप में उसे उस राह पर चलने की अनुमति प्रदान कर देती है |जब व्यक्ति उस राह पर आगे बढ़ने लगता है तब आत्मा भर्ता के रूप में अपने आप को ले आती है |आत्मा जो कि परमात्मा का ही एक अंश है ,व्यक्ति की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जिम्मेवारी अपने ऊपर ले लेती है |इसी  लिए आत्मा को यहाँ भर्ता अर्थात भरण-पोषण करने वाली बताया गया है |
                   गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
                                      अनन्याश्चिन्तयन्तो  मां  जनाः  पर्युपासते |
                                      तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् || गीता ९/२२||
अर्थात्, जो अनन्य जन मुझ परमेश्वर का निरंतर चिंतन करते हुए निष्काम भाव से कार्य करते हैं ,उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वालों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ |
          यहाँ भगवान कह रहे हैं कि सही मार्ग चुनकर उसपर चलने वालों को अपने कार्य के प्रति किसी भी प्रकार की चिंता नहीं करनी चाहिए |उसके योगक्षेम की चिंता मुझे है |योगक्षेम का अर्थ है अप्राप्त की प्राप्ति करवाना और प्राप्त किए हुए की रक्षा करना |निष्काम भाव से कार्य करना ही यहाँ सही मार्ग है |चूँकि परमात्मा का एक अंश आत्मा ही है जो मनुष्य के शरीर में परमात्मा का प्रतिनिधित्व करती है |अतः शरीर में परमात्मा ही सही मार्ग पर चलने वालों के लिए भर्ता का रूप धारण करता है |आत्मा के परमात्मा बनने की राह में यह  तीसरा पड़ाव आता है जहाँ आत्मा स्वयं भर्ता होती है |
                                     || हरिः शरणम् ||

Wednesday, December 11, 2013

आत्मा से परमात्मा-अनुमन्ता |(Permissive)

                                            साक्षी के रूप में जब आत्मा व्यक्ति की मानसिक स्थिति का पूर्णरूप से अवलोकन कर लेती है,तब वह ऐसी स्थिति में होती है कि उस व्यक्ति को सही और गलत के बारे में निर्देशित कर सके |अब यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह उस निर्देश को माने अथवा उसकी अवहेलना करे |आत्मा की इस बारे में मजबूरी होती है कि इन निर्देशों को मानने के  लिए वह व्यक्ति पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं डाल सकती | हाँ,ऐसा अवश्य है कि जब व्यक्ति गलत राह पर चलने की सोचता है तो आत्मा उसे टोक जरूर देती है |उस राह पर चलने की उसे अनुमति बिलकुल भी नहीं देती है |
                                            जब आप सही राह पकड़ते हैं तब आत्मा आपको अनुमति प्रदान कर देती है |आत्मा इस स्थिति में अनुमन्ता कही जा सकती है |आपने जीवन में कई बार महसूस किया होगा जब आप कोई गलत कार्य करने जा रहे होंगे,तब आपके भीतर से एक आवाज आयी होगी कि नहीं,आपको ऐसा नहीं करना चाहिए |इसे हम अंतरात्मा की आवाज कहते हैं |इस स्थिति में व्यक्ति के भीतर अंतःकरण का विकास हो जाता है |यही आत्मा का अनुमन्ता के रूप में परमात्मा की राह का दूसरा पड़ाव है |
                                            हम अपने जीवन में क्या सही है और क्या गलत है,सब समझते हैं |प्रत्येक सही या गलत को करने से पहले आपको उस कार्य को करने या न करने के बारे में आपकी आत्मा द्वारा निर्देशित कर दिया जाता है |आप चाहे तो उस निर्देश को मान सकते हो और चाहो तो उस निर्देश की अवहेलना कर सकते हो |यदि आप आत्मा के निर्देश की अवहेलना करते हो तो आत्मा आपको उस राह पर चलने की अनुमति किसी भी परिस्थिति में नहीं देगी |और आप उसके निर्देश को मान लेते हो तो वह आपको उस राह पर चलने की अनुमति प्रदान कर देती है |
                                 आध्यात्मिकता की राह पर चलने के लिए यह अनुमति आसानी से मिल जाती है |संसार में रहते हुए तामसिक कर्मों के लिए आत्मा आपको हर बार टोकेगी अवश्य,फिर भी अगर आप उस कार्य के लिए उसकी अनुमति लेने को कहेंगे तो भी वह इसकी अनुमति नहीं देगी |ऐसे में आपका पतन निश्चित है और आपका परमात्मा की तरफ बढ़ना बाधित हो जायेगा |आत्मा की यह मजबूरी है कि वह आपके कार्यों से असंतुष्ट होते हुए भी आपके मन से सम्बंधित होने के कारण आपका साथ छोड़ भी नहीं सकती |ऐसी स्थिति में आत्मा का यह दूसरा पड़ाव ही उसका आखिरी पड़ाव बन जाता है |आपके मन की इच्छाओं और कामनाओं के कारण उसे नए शरीर में जाकर अपनी यात्रा फिर से पहले पड़ाव से शुरू करनी पड़ेगी |इस प्रकार यह जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है |
                                                || हरिः शरणम् ||

Tuesday, December 10, 2013

आत्मा से परमात्मा -उपदृष्टा |(Viewer)

                                              जब आत्मा अपने साथ चित्त को लिए नए शरीर में प्रवेश करती है तब प्रारंभिक अवस्था में उसका व्यवहार एक उपदृष्टा का होता है |शरीर में प्रवेश करने के साथ ही वह शरीर में स्थित मन के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित  कर लेती है |परन्तु उसका कार्य मात्र एक उपदृष्टा का ही रहता है |दृष्टा वह होता है जो पूरी समग्रता के साथ दृश्य को देखता है तथा उस दृश्य को देखकर वह प्रभावित भी होता है |वह उस दृश्य का एक भाग होता है और आवश्यकता होने पर हस्तक्षेप करते हुए अपनी उपस्थिति भी प्रदर्शित करता है |जबकि उपदृष्टा वह होता है जो दूर खड़े होकर पूरी समग्रता के साथ दृश्य को देखता तो है परन्तु उस दृश्य का हिस्सा बिलकुल भी नहीं होता है | वह दृश्य में हस्तक्षेप करते हुए अपनी उपस्थिति का प्रदर्शन कदापि नहीं करता है |जैसे किसी भी खेल में एक निर्णायक होता है वह उस दृश्य यानि खेल का हिस्सा होता है |वह खेल से प्रभावित भी होता है और उसमे आवश्यकता पड़ने पर हस्तक्षेप भी करता है |अतः उसे दृष्टा कहा जा सकता है |उस खेल को देख रहे दर्शक उस खेल का हिस्सा बिलकुल भी नहीं होते है |दर्शक खेल में बिलकुल भी हस्तक्षेप नहीं करते है |इसलिए दर्शक उस दृश्य का हिस्सा भी नहीं होते हैं |यहाँ दर्शक की भूमिका एक उपदृष्टा की है |सुविधानुसार हम उपदृष्टा को मात्र साक्षी कह सकते हैं |
                                    हाँ,तो प्रारम्भिक अवस्था में आत्मा एक दर्शक की भूमिका में होती है |अगर आप अपना कार्य अपनी ही मर्जी से कर रहे हो तो वह आपको कही भी और कभी भी टोकेगी नहीं | इस स्थिति में वह आपको किसी विशेष कार्य करने के लिए बाध्य भी नहीं करेगी |यह शरीर की बाल्यावस्था होती है |बचपन में सभी बच्चे नए नए कार्य करते हैं जिनसे उन्हें कई तरह के नए नए अनुभव भी होते हैं |यह सीखने की अवस्था होती है |इस अवस्था में न तो किसी कार्य करने की दक्षता होती है और न ही कार्य करने का उद्देश्य |इस अवस्था में आत्मा केवल अवलोकन का कार्य ही करती है |इस लिए उसकी भूमिका इस प्रारम्भिक जीवन काल में एक दर्शक से ज्यादा नहीं होती |यह अवस्था आत्मा का परमात्मा बनाने की दिशा का पहला पड़ाव है |यहाँ आत्मा उपदृष्टा की तरह ही होती है |
                                || हरिः शरणम् ||

Monday, December 9, 2013

आत्मा से परमात्मा का मार्ग |

                         वैसे हम जानते ही हैं कि आत्मा,परमात्मा का ही एक अंश है |आत्मा सत् (तत्व) है जो असत् के साथ मिलकर  अस्तित्व (असत्+तत्व) प्राप्त करती है |एक दिन उसे वापिस परमात्मा बनना ही है |समुद्र से पानी वाष्प के रूप में उड़कर धरा पर बरसता है,पहाड़ों पर बर्फ के रूप में गिरता है और फिर नदी के रूप में बहता है |बहते बहते अंत में वह समुद्र में मिलकर उसके साथ एकाकार हो जाता है |यही स्थिति आत्मा की है |परमात्मा से चलकर संसार में आती है ,नदी की तरह यहाँ से वहाँ बहती रहती है परन्तु केवल बहते रहना ही उस आत्मा की नियति नहीं है |उसे एक दिन पुनः अपने मूल श्रोत में लौटना ही होगा जैसे नदी समुद्र में आकर अपना अस्तित्व खो देती है उसी प्रकार आत्मा भी एक दिन परमात्मा के साथ मिलकर अपना अस्तित्व समाप्त कर देती है |
                         इस आत्मा को भी परमात्मा बनने के लिए कई रास्तों और पड़ावों से गुजरना पड़ता है |इन पड़ावों का चित्रण श्रीमद्भागवतगीता के एक श्लोक में किया गया है -
                           उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः |
                          परमात्मेति चाप्युक्तो देहेSस्मिन्पुरुषः परः ||गीता १३/२२||
अर्थात्,इस देह में स्थित आत्मा ही वास्तव में परमात्मा ही है |वही साक्षी होने से उपद्रष्टा ,यथार्थ सम्मति देने वाला होने से अनुमन्ता,सबका भरण पोषण करने वाला होने से भर्ता,जीव रूप से भोक्ता,ब्रह्मा आदि का स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा ऐसा कहा गया है |
       उपरोक्त श्लोक को अगर हम सम्पूर्णता के साथ देखें तो हम समझ सकते हैं कि आत्मा से परमात्मा बनने की राह में प्रमुख रूप से पांच पड़ाव आते है ,जो प्रारम्भ से लेकर आत्मा के परमात्मा बनने तक क्रमवार इस प्रकार आते हैं-
                      १.उपदृष्टा
                      २.अनुमन्ता
                      ३.भर्ता
                      ४.भोक्ता
                      ५.महेश्वर
         महेश्वर की स्थिति प्राप्त कर लेने के बाद थोड़े से ही प्रयास से परमात्मा की स्थिति को प्राप्त किया जा सकता है |इस पूरी प्रक्रिया में मनुष्य को कई जन्म लग सकते हैं |यह सब तत्काल भी संभव है ,आवश्यकता केवल प्रयास करने की है |आज के भौतिक युग में इस शरीर और संसार से विमुख हुए बिना तत्काल परमात्म तत्व की स्थिति प्राप्त करना दूर की कौड़ी ही है |इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि यह शरीर और संसार आलोच्य है ,कुछ भी नहीं है |यह शरीर और संसार हमें क्यों उपलब्ध हुए हैं ,यह जानना आवश्यक है |यह संसार और शरीर मात्र साधन है ,साध्य नहीं |मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि वह साधन को ही साध्य मान लेता है |यही उसके दुःख और पीड़ा का सबसे बड़ा कारण है |
                           || हरिः शरणम् ||

Sunday, December 8, 2013

Desire is part of pleasure


                                      Desire is part of pleasure. The fulfilment of desire is the very nature of pleasure. Desire may be the cause of disorder--each one wanting to fulfil his own particular desire. So together we are going to investigate whether desire is one of the major causes of disorder; we must explore desire, not condemn it, not escape from it, not try to suppress it. Most religions have said, “Suppress desire”—which is absurd. So let us look at it. What is desire? Put that question to yourself. Probably most of us have not thought about it at all. We have accepted it as a way of life, as the natural instinct of a man or a woman, and so we say, “Why bother about it?”. Those people who have renounced the world, those who have entered monasteries, and so on try to sublimate their desires in the worship of a symbol or a person. Please bear in mind that we are not condemning desire. We are trying to find out what is desire, why man has, for millions of years, been caught not only physically but also psychologically in the trap of desire, in the network of desire. 

Saturday, December 7, 2013


                         Why is it that all religions, all so-called religious people, have suppressed desire? All over the world, the monks, the sannyasis, have denied desire, though they are boiling inside. The fire of desire is burning, but they deny it by suppressing it or identifying that desire with a symbol, with a figure and surrendering that desire to the figure, to that person. But it is still desire. Most of us, when we become aware of our desires, either suppress or indulge it or come into conflict; the battle goes on. We are not advocating either to suppress it or to surrender to it or to control it. That has been done all over the world by every religious person. We are examining it very closely so that out of your own understanding of that desire, how it arises, its nature, out of that understanding, self-awareness of it, one becomes intelligent. Then that intelligence acts, not desire. 

Friday, December 6, 2013

कोर्ट-मार्शल



आर्मी कोर्ट रूम में आज एक
केस अनोखा अड़ा था
छाती तान अफसरों के आगे
फौजी बलवान खड़ा था

बिना हुक्म बलवान तूने ये
कदम कैसे उठा लिया
किससे पूछ उस रात तू
दुश्मन की सीमा में जा लिया

बलवान बोला सर जी! ये बताओ
कि वो किस से पूछ के आये थे
सोये फौजियों के सिर काटने का
फरमान कोन से बाप से लाये थे

बलवान का जवाब में सवाल दागना 
अफसरों को पसंद नही आया
और बीच वाले अफसर ने लिखने
के लिए जल्दी से पेन उठाया

एक बोला बलवान हमें ऊपर
जवाब देना है और तेरे काटे हुए
सिर का पूरा हिसाब देना है

तेरी इस करतूत ने हमारी नाक कटवा दी
अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में तूने थू थू करवा दी

बलवान खून का कड़वा घूंट पी के रह गया
आँख में आया आंसू भीतर को ही बह गया

बोला साहब जी! अगर कोई
आपकी माँ की इज्जत लूटता हो
आपकी बहन बेटी या पत्नी को
सरेआम मारता कूटता हो

तो आप पहले अपने बाप का
हुकमनामा लाओगे ?
या फिर अपने घर की लुटती
इज्जत खुद बचाओगे?

अफसर नीचे झाँकने लगा
एक ही जगह पर ताकने लगा

बलवान बोला साहब जी गाँव का
गंवार हूँ बस इतना जानता हूँ
कौन कहाँ है देश का दुश्मन सरहद
पे खड़ा खड़ा पहचानता हूँ

सीधा सा आदमी हूँ साहब !
मै कोई आंधी नहीं हूँ
थप्पड़ खा गाल आगे कर दूँ
मै वो गांधी नहीं हूँ

अगर सरहद पे खड़े होकर गोली
न चलाने की मुनादी है
तो फिर साहब जी ! माफ़ करना
ये काहे की आजादी है

सुनों साहब जी ! सरहद पे
जब जब भी छिड़ी लडाई है
भारत माँ दुश्मन से नही आप
जैसों से हारती आई है

वोटों की राजनीति साहब जी
लोकतंत्र का मैल है
और भारतीय सेना इस राजनीति
की रखैल है

ये क्या हुकम देंगे हमें जो
खुद ही भिखारी हैं
किन्नर है सारे के सारे न कोई
नर है न नारी है

ज्यादा कुछ कहूँ तो साहब जी
दोनों हाथ जोड़ के माफ़ी है
दुश्मन का पेशाब निकालने को
तो हमारी आँख ही काफी है

और साहब जी एक बात बताओ
वर्तमान से थोडा सा पीछे जाओ

कारगिल में जब मैंने अपना पंजाब
वाला यार जसवंत खोया था
आप गवाह हो साहब जी उस वक्त
मै बिल्कुल भी नहीं रोया था

खुद उसके शरीर को उसके गाँव
जाकर मै उतार कर आया था
उसके दोनों बच्चों के सिर साहब जी
मै पुचकार कर आया था

पर उस दिन रोया मै जब उसकी
घरवाली होंसला छोड़ती दिखी
और लघु सचिवालय में वो चपरासी
के हाथ पांव जोड़ती दिखी

आग लग गयी साहब जी दिल
किया कि सबके छक्के छुड़ा दूँ
चपरासी और उस चरित्रहीन
अफसर को मै गोली से उड़ा दूँ

एक लाख की आस में भाभी
आज भी धक्के खाती है
दो मासूमो की चमड़ी धूप में
यूँही झुलसी जाती है

और साहब जी ! शहीद जोगिन्दर
को तो नहीं भूले होंगे आप
घर में जवान बहन थी जिसकी
और अँधा था जिसका बाप

अब बाप हर रोज लड़की को
कमरे में बंद करके आता है
और स्टेशन पर एक रूपये के
लिए जोर से चिल्लाता है

पता नही कितने जोगिन्दर जसवंत
यूँ अपनी जान गवांते हैं
और उनके परिजन मासूम बच्चे
यूँ दर दर की ठोकरें खाते हैं..

भरे गले से तीसरा अफसर बोला
बात को और ज्यादा न बढाओ
उस रात क्या- क्या हुआ था बस
यही अपनी सफाई में बताओ

भरी आँखों से हँसते हुए बलवान
बोलने लगा
उसका हर बोल सबके कलेजों
को छोलने लगा

साहब जी ! उस हमले की रात
हमने सन्देश भेजे लगातार सात

हर बार की तरह कोई जवाब नही आया
दो जवान मारे गए पर कोई हिसाब नही आया

चौंकी पे जमे जवान लगातार
गोलीबारी में मारे जा रहे थे
और हम दुश्मन से नहीं अपने
हेडक्वार्टर से हारे जा रहे थे

फिर दुश्मन के हाथ में कटार देख
मेरा सिर चकरा गया
गुरमेल का कटा हुआ सिर जब
दुश्मन के हाथ में आ गया

फेंक दिया ट्रांसमीटर मैंने और
कुछ भी सूझ नहीं आई थी
बिन आदेश के पहली मर्तबा सर !
मैंने बन्दूक उठाई थी

गुरमेल का सिर लिए दुश्मन
रेखा पार कर गया
पीछे पीछे मै भी अपने पांव
उसकी धरती पे धर गया

पर वापिस हार का मुँह देख के
न आया हूँ
वो एक काट कर ले गए थे
मै दो काटकर लाया हूँ

इस बयान का कोर्ट में न जाने
कैसा असर गया
पूरे ही कमरे में एक सन्नाटा
सा पसर गया
पूरे का पूरा माहौल बस एक ही
सवाल में खो रहा था
कि कोर्ट मार्शल फौजी का था
या पूरे देश का हो रहा था ?
                                                                साभार-फेसबुक में रश्मि शर्मा के पेज से |