Tuesday, March 31, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -21-समापन कड़ी


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-21 समापन कड़ी-
         अब तक किये गए विवेचन का सारांश यह है कि पुरुष स्व-स्वरूप से नित्य मुक्त होते हुए भी प्रकृति के साथ तादात्म्य के कारण जीव बनकर संसार के सुख-दुःख को भोगता है। इसी तादात्म्य के कारण उसमें उत्पन्न हुई वासनाओं के अनुरूप विभिन्न योनियों में उसे जन्म लेना पड़ता है। परन्तु जो साधक साधन संपन्न होकर गुरु के उपदेश से प्रकृति-पुरुष, उनके परस्पर सम्बन्ध तथा प्रकृति के विभिन्न प्रकार के प्रभाव रखने वाले गुणों को तत्व से जान लेता है, वही पुरुष वास्तव में ज्ञानी है। वही पुरुष सदा के लिए संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।
               किसी वस्तु को सम्पूर्ण रूप से जानने के लिए उससे विलग हो जाना चाहिए। संसार को भी संसार से विलग होकर जाना जा सकता है। यदि हम संसार में उलझे हुए हैं तो संसार को कभी भी नहीं जान सकेंगे। अतः प्रकृति के विकारों (देहादि) और गुणों (सुख-दुःख) को जानने के लिए हमें उन सबका द्रष्टा बनकर उनसे दूर जाकर स्थित हो जाना चाहिए तभी हम परमात्मा को जान पाएंगे। ब्रह्मलीन स्वामी श्री रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे कि संसार को संसार से भिन्न होकर जाना जा सकता है और परमात्मा को परमात्मा से अभिन्न होकर जाना जा सकता है।
        अतः अनंत-स्वरूप परमात्मा को, परम ब्रह्म को अपने आत्म-स्वरूप से जानने का अर्थ ही अविद्या को नष्ट करना है। ऐसे में पूर्ण ज्ञानी व्यक्ति का पुनः प्रकृति के साथ मिथ्या तादात्म्य स्थापित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसीलिए भगवान कहते हैं कि फिर सब प्रकार से रहते हुए भी ऐसे ज्ञानी का पुनर्जन्म नहीं होता। भगवान् का कहने का अभिप्राय यह है कि ज्ञानी पुरुष इस संसार में कर्म करता हुआ भी सामान्य मनुष्यों के समान नई-नई वासनाओं को अपने में उत्पन्न ही नहीं होने देता और किसी बंधन में नहीं बंधता क्योंकि उसका अहंकार सर्वथा नष्ट हो चूका होता है। ब्रह्म को जान लेने वाला ब्रह्म ही बन जाता है और उसके समस्त कर्म नष्ट हो जाते है, यह सभी उपनिषदों के द्वारा प्रतिपादित सत्य है।    
  अंत में कहना चाहूंगा कि -
   जगच्चित्रं स्वचैतन्ये पटे चित्रमिवार्पितम् ।
   मायया तदुपेक्ष्यैव चैतन्यं परिशेष्यताम् ।।
             -पंचदशी-6/289
अर्थात कपड़े पर खिंचे हुए चित्र की तरह अपने आत्म चैतन्य में जो जगत रुपी चित्र माया के प्रताप से खिंच गया है, उस जगत की उपेक्षा करके अपने आत्म चैतन्य को परिशेष कर डालो अर्थात शेष बचे हुए तत्व का भी बोध कर डालो। 
प्रस्तुति-डॉ.प्रकाश काछवाल
।। हरिः शरणम्।।

Monday, March 30, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -20


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-20
        गीता के पन्द्रहवें अध्याय के इस पांचवें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने ब्रह्म की स्थिति को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति में कितनी विशेषताएं होनी चाहिए, का वर्णन किया है। ये विशेषताएं हैं-
-मान-अपमान में सम रहना।
-मोह (अज्ञान) से रहित होना।
-अनासक्त हो जाना।
-कामना रहित हो जाना।
-इन्द्रिय-जनित दोषों (विकारों) पर विजय प्राप्त कर लेना।
-निर्द्वंद्वता की स्थिति को उपलब्ध हो जाना।
           इन सभी विशेषताओं को आत्मसात कर लेने वाला व्यक्ति ब्रह्म की स्थिति को उपलब्ध हो जाता है। ऐसी स्थिति को उपलब्ध हो जाने पर ही हमें ब्रह्मतत्त्व का बोध हो सकेगा। ब्रह्म तत्व को जान लेने का क्या परिणाम होता है, इस बात को मुण्डकोपनिषद में स्पष्ट किया गया है-
स यो ह वै तत्परं ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति नास्याब्रह्मवित्कुले भवति। तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति।। तृतीयमुण्डक-2/9।।”
अर्थात निश्चय ही जो कोई भी उस परम ब्रह्म को जान लेता है; वह महात्मा ब्रह्म ही हो जाता है; इसके कुल में ब्रह्म को न जानने वाला नहीं होता। वह शोक से पार हो जाता है; पाप समुदाय से तर जाता है; हृदय की गांठों से सर्वथा छूटकर अमर हो जाता है।
गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यही बात इस प्रकार से स्पष्ट करते हैं-
यः एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिं च गुणैः सह।
सर्वथावर्तमानोऽपि न स भूयोऽभिजायते।। 13/23।।
अर्थात इस प्रकार पुरुष को और गुणों के सहित प्रकृति को जो मनुष्य अलग अलग जानता है, वह सब तरह का बर्ताव करते हुए भी पुनःजन्म (Rebirth) नहीं लेता।
कल अंतिम कड़ी 
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, March 29, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -19


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-19
   यदि वैराग्य, उपरति और बोध तीनों पक्के हो जाएं तो यह करोड़ों पूर्वजन्मों के पुण्यों का फल ही माना जायेगा। अगर वैराग्य और उपरति पूर्ण हो चुके हों तो भी मोक्ष होना असंभव है। उसको तो किसी उच्च-लोक की प्राप्ति अवश्य हो जाएगी। अगर किसी को बोध हो जाये और वैराग्य तथा उपरति न हो तो मोक्ष तो हो जाएगा परंतु उसके जीवन में दृष्ट दुःखों का नाश नहीं हो पायेगा अर्थात वह जीवन-मुक्ति का आनंद नहीं ले पायेगा। नित्य-अनित्य वस्तु विवेक, शम-दम आदि साधन, वैराग्य और मुमुक्षु का केवल भाव रहने पर ही ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। ज्ञान हो जाये और वैराग्य तथा उपरति न हो, तो यह एक काल्पनिक और असाधारण अवस्था बनती है। हाँ, किसी का प्रारब्ध (Destiny) ही ऐसा हो कि वह आत्मबोध को पहले उपलब्ध हो गया हो और जीवन के अंतिम भाग में वैराग्य और उपरति को भी प्राप्त कर लिया हो, केवल इसी स्थिति में वह मोक्ष को उपलब्ध हो सकता है। वरना तो, बिना वैराग्य और उपरति के केवल आत्मबोध (Realization)को उपलब्ध हो जाना और मोक्ष को पा जाना कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। अतः यह समझा जा सकता है कि वैराग्य और उपरति को धारण करके ही ब्रह्मतत्त्व के बोध प्राप्त कर लेने की अवस्था तक पहुंचा का सकता है। बिना वैराग्य अथवा उपरति के  आत्म-ज्ञान को उपलब्ध होना असंभव नहीं तो इतना सरल भी नहीं है।
भगवान् श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं कि-
निर्मानमोहा जितसंगदोषा-
        अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वंद्वेर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञै-
      र्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्।। 15/5।।
अर्थात जो मान और मोह से रहित हो गए हैं, जिन्होंने आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है, जो नित्य निरंतर परमात्मा में ही लगे हुए हैं, जो सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गए हैं, जो सुख-दुःख आदि द्वंद्वों से मुक्त हो गए हैं ऐसे मोहरहित भक्त ही उस अविनाशी परम-पद (परमात्मा, ब्रह्म) को प्राप्त होते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, March 28, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -18


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-18
     शास्त्र के सिद्धांत तो यह है कि “वैराग्य“, “बोध“ और “उपरम“ अथवा “उपरति“ ये तीनों ब्रह्मतत्त्व बोध के लिए सहायक हैं। ये तीनों प्रायः एक साथ ही रहते हैं। हाँ, कभी कभी अलग अलग भी पाए जाते हैं। इन तीनों में बोध ही प्रधान है क्योंकि यही साक्षात मोक्ष देने वाला है। वैराग्य और उपरति तो तत्त्व-बोध में सहायक हैं। इन तीनों के कारण, स्वरूप और कार्य/फल भिन्न भिन्न हैं जो निम्न प्रकार हैं -
वैराग्य--(Detachment)--
     वैराग्य का कारण-विषयों में दोष दृष्टि ।
     वैराग्य का स्वरूप-विषयों को त्यागने की अभिलाषा।
     वैराग्य का कार्य/फल-भोगों के प्रति दीनता का अभाव।
बोध--(Realization)--
      बोध का कारण-श्रवण,मनन और निदिध्यासन।
      बोध का स्वरूप-सत और असत का विवेक।
      बोध का कार्य/फल-ग्रंथि का फिर कभी भी न बनना।
उपरति--(Diapause)--
       उपरति का कारण-यम नियम आदि।
       उपरति का स्वरूप-मन और बुद्धि का निरोध।
       उपरति का कार्य/फल-व्यवहार का समाप्त हो जाना।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, March 27, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -17


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-17
        केवल की जा रही क्रियाओं (Actions) को देखकर किसी का तत्वज्ञानी होना निश्चित नहीं किया जा सकता। क्रिया तो ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही एक जैसी करते हैं। भेद केवल इतना ही है कि ज्ञानी रंगमंच के कलाकार (Actor) के अभिनय (Acting) करने की तरह अपने हिस्से आया काम कर जाता है और अज्ञानी रो रो कर, खीज खीज कर अपने हिस्से आया काम राग अथवा द्वेष से करता है।
ब्रह्मतत्त्व का बोध
         हमारी  कामनाएं ही ब्रह्मतत्त्व के बोध में बाधक हैं। इसके लिए हमारा अहंकार और चिदात्मा का संग (Combination) उत्तरदायी (Responsible) है। अहंकार और चिदात्मा को अपने अज्ञान से एक बनाकर जब ऐसी आशा करने लग जाते हैं कि हमें यह भी मिले, वह भी मिले। बस, हमारी यही इच्छाएं ही ’काम’ कहलाती हैं। अगर चिदात्मा को उसमें प्रविष्ट न किया जाये और अहंकार को उससे पृथक (Separate) करके देख लिया जाये तो फिर भले ही लाखों करोड़ों इच्छाएं करो, कुछ भी हानि नहीं होगी। फिर ऐसी इच्छाओं से तो केवल लोक संग्रह ही होगा। अगर हम गंभीरता से विचार करें तो अनुभव होगा कि हमारा अहं ही सब कुछ चाहता है चिदात्मा तो सदैव निर्मल (Pure) है। अतः विचार कर इन दोनों का संग नहीं होने देना चाहिए। दोनों का साथ होना चिज्जड़-ग्रंथि कहलाता है और दोनों को अलग अलग मान लेना ग्रंथि भेद। ग्रंथि भेद हो जाने के बाद भी कामनाएं और इच्छाएं जन्म ले सकती है तो उसका कारण प्रारब्ध कर्म (Destiny) की प्रबलता मानी जाती है। देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि जब किसी काम में प्रवृत्त (Incline) अथवा निवृत (Decline) होती हैं तब ज्ञानी और अज्ञानी में बाहरी रूप से अल्प सा भी अंतर नहीं रह जाता परंतु आंतरिक रूप से ’ग्रंथि’ और ’ग्रंथिभेद’ का अंतर होता है। गीता में इसी बात को भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक के माध्यम से स्पष्ट किया है |
“उदासीनवदासीनः गुणैर्यो न विचाल्यते। 
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेंगते।।“(गीता-14/23) 
अर्थात जो उदासीन की तरह स्थित है और जो गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता तथा गुण ही गुण में बरत रहे हैं-इस भाव से जो अपने स्वरुप में स्थित रहता है और स्वयं कोई प्रयास नहीं करता। ऐसा मनुष्य ही गुणातीत कहलाता है। इस संसार में ही देख लीजिए, संग (Attached) करने वाले तो लोग बंधे फिर रहे हैं और निःसंग (Unattached) व्यक्ति मौज में रहते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, March 26, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -16


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-16
       ईश्वर और जीव को इस प्रकार समझा जा सकता है मानो माया (प्रकृति) नाम की एक कामधेनु है। उसके दो बछड़े हैं। एक का नाम है; ईश्वर (सत्व शुद्ध प्रकृति) और दूसरे का जीव (सत्व मलिन प्रकृति)। वे दोनों द्वैतरूपी दूध को पेट भरकर जितना चाहे पीते रहें परंतु वास्तविक तत्व तो अद्वैत (ब्रह्म) ही है। यह अद्वैत ब्रह्मतत्त्व तीनों कालों में रहता है। वह आज भी है और मुक्ति हो जाने पर भी भविष्य में वह बना रहेगा। इतना जान लेने के उपरांत भी अगर भेद (Difference) बना रहता है तो इसका कारण है कि उस परम ब्रह्म की माया ने ही हमें भरमा (Confuse) रखा है। बंधन माया के कारण है। बंधन मन की चीज है। ज्ञानी का बंधन टूट जाता है। अद्वैत भाव-प्रधान है। जब ’द्वैत असत है’ क्योंकि द्वैत मायामय है, ऐसा मान लिया जाता है, तब ज्ञानी को अद्वैत स्वयंमेव ही स्पष्ट हो जाता है। द्वैत का मिथ्यापन बार बार विचार करते रहने से स्पष्ट हो सकता है।
          इसी प्रकार कई बार साकार और निराकार को मानने वालों में मतभेद सामने आते हैं। अतः साकार-निराकार के भेद को स्पष्ट करना भी आवश्यक है। श्री मद्भागवत महापुराण में प्रजापति दक्ष भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं-
अस्तीति नास्तीति च वस्तुनिष्ठयो-
            रेकस्थियोर्भिन्नविरुद्धधर्मयोः।
अवेक्षितं किञ्चन योगसांख्ययोः
            समं परं ह्यनुकूलं बृहत्तत्।। भागवत-6/4/32।।
अर्थात भगवन् ! उपासक लोग कहते हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादि से युक्त साकार विग्रह है और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान हस्त-पादादि विग्रह से रहित निराकार हैं। यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तु के दो परस्पर विरोधी धर्मों का वर्णन करते हैं, परन्तु फिर भी उसमें विरोध नहीं है क्योंकि दोनों एक ही परम वस्तु में स्थित हैं। बिना किसी आधार के हाथ-पैर आदि का होना संभव नहीं है और निषेध की भी कोई न कोई अवधि होनी चाहिए। आप वही आधार और निषेध की अवधि हैं। इसलिए आप साकार, निराकार दोनों से ही अविरुद्ध सम परम ब्रह्म हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, March 25, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -15


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-15
       एक जगत तो ईश्वर ने बनाया है, जिसका वर्णन पहले ही किया जा चुका है। ईक्षण (देखना, देखभाल) से लेकर प्रवेश पर्यंत सृष्टि तो ईश्वर की बनाई हुई है। फिर जाग्रत से लेकर मोक्ष पर्यंत की सृष्टि का सृजन अर्थात अपने संसार का निर्माण स्वयं जीव ने किया है। यहां आकर हम ईश्वर को जीव से भिन्न मान लेते हैं। नहीं, जीव और ईश्वर में कोई भिन्नता नहीं है। भिन्नता मानने का कारण है : कर्तृत्व धर्म तो जीव का मान लिया जाता है और सर्वज्ञता वाला गुण ईश्वर का। इस प्रकार मान लेने का कारण अविद्या ही है।
           वास्तव में देखा जाए तो केवल ब्रह्म तत्व ही सत्य है शेष सभी एक स्वप्न से अधिक कुछ भी नहीं है। अतः जानना है तो उस ब्रह्म को जानो, तत्वज्ञान को प्राप्त करो, केवल ईश्वर की पूजा करने से कुछ नहीं होगा । पूजन करना है तो उस परम का करो जो इस ईश्वर का भी कारण है। उस परमेश्वर, उस परमात्मा के अतिरिक्त कोई सत्य नहीं है, सब कुछ स्वप्नवत है। जिनको ब्रह्म-तत्व का ज्ञान नहीं होता है, उनका इस संसार से आवागमन कभी नहीं मिट सकता। मनुष्य को ’ईश्वर-तत्व’ के विषय में और ’जीव’ के प्रति बड़ा भ्रम हो रहा है। कहने का अर्थ है कि जो अद्वितीय ब्रह्म को नहीं जानते हैं, वे सभी भ्रमित हैं। उनको मर जाने पर न तो विदेह-मुक्ति ही मिलती है और न ही जीते जी इस लोक में वे सुख पा सकते हैं। अतः मुक्ति चाहने वाले को कभी ’जीववाद’ अथवा ’ईश्वरवाद’ के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिए। उन्हें केवल ब्रह्मतत्त्व का विचार करते हुए वहां तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, March 24, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -14


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-14
     सांसारिक फलों की प्राप्ति तो इन छोटे मोटे ईश्वरीय रूपों की पूजा करने से प्राप्त हो जाती हैं परंतु मुक्ति तो केवल ब्रह्मतत्त्व के ज्ञान से ही होती है। इसके अतिरिक्त मुक्ति का कोई अन्य मार्ग नहीं है। जैसे अपने जागे बिना, देखे जा रहे स्वप्न का भंग होना नहीं होता वैसे ही आत्म-तत्व को जाने बिना यह संसार रुपी स्वप्न भी भंग नहीं होता। जीव और ईश्वर आदि के रूप से वर्तमान में जो यह जड़ात्मक और चेतनात्मक सम्पूर्ण जगत है, यह उस ब्रह्मतत्त्व में ही एक बड़ा स्वप्न (Big dream) मात्र ही तो है। यह सपना तभी अनुभव में आता है जब हम ब्रह्मविद्या से अपना जागरण कर लेते हैं अर्थात आत्मज्ञान प्राप्त कर जाग्रत हो जाते हैं।
       हमारे में स्थित आनंदमय और विज्ञानमय कोश ही ईश्वर और जीव हैं। ये दोनों ही माया से कल्पित हैं। हालांकि ये दोनों ही ब्रह्म से अभिन्न हैं फिर भी ये जगत की ही वस्तुएं हैं जगत से बाहर की नहीं। जगत की वस्तुएं जगत का ही ज्ञान कराने में सक्षम हो सकती है, परमात्मा का ज्ञान नहीं करा सकती। शरीर के सभी कोश शरीर को ही सुख पहुंचा सकते हैं, आत्मा को नहीं। आत्मा को तो सुख का मात्र भ्रम ही होता है, वह भी इसलिए क्योंकि उसने ब्रह्म का संग छोड़ कर संसार का संग कर लिया है। जिस दिन उसे अपने स्वरुप का ज्ञान हो जाएगा उसी दिन वह भी ब्रह्म हो जाएगी।
    विज्ञानमय के बाद आनंदमय कोश आता है। सभी प्राणियों के विज्ञानमय कोश भिन्न भिन्न होते हैं परंतु आनंदमय कोश सभी में एक समान होता है। विज्ञानमय कोश जीव है, आनंदमय कोश ईश्वर है। शूकर को शूकरी में उतना ही आनंद आता है जितना राजा को रानी में; क्योंकि दोनों जीव भिन्न भिन्न होते हुए भी दोनों जीवों में ईश्वर तो एक ही निवास करता है। सभी में ईश्वर तो एक ही है अतः आनंद भी एकसा ही मिलता है परंतु आनंद को अभिव्यक्त (Expression) करना भिन्न भिन्न प्रकार से होता है क्योंकि दोनों में  विज्ञानमय कोश भिन्न भिन्न है। यही ईश्वर और जीव में वेदांत सम्मत भेद है।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, March 23, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -13


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-13
सृष्टि -(Creation)-
       इतना ज्ञान हो जाने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि ईश्वर से यह जगत किस प्रकार बना | आइये, अब जानें कि ईश्वर से क्या क्या उत्पन्न हुआ है ? ईश्वर से उत्पन्न सभी ईश्वर के ही रूप हैं। ये रूप हैंः ईश (अंतर्यामी), हिरण्यगर्भ, विराट, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इंद्र, अग्नि, गणेश, यक्ष, राक्षस, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, गौ, घोड़ा, मृग, पक्षी, जलचर, उभयचर, पीपल आदि वृक्ष, जौ आदि अन्न, धान, तिनके, औषधियां आदि, जल, पाषाण, मिट्टी, काठ, कुदाल आदि सभी ईश्वर हैं। जो कोई भी इनकी पूजा करता है, वे उन्हें फल देते हैं। जैसी जिसकी पूजा वैसा ही उसको फल क्योंकि पूज्यों और पूजन के सात्विक, राजस अथवा तामस आदि होने से फल भी उन्हीं के अनुरूप मिलते हैं। इस बात को भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को गीता में स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि -
काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवतिकर्मजा।। 4/12।।
अर्थात कर्मों की सिद्धि (फल) चाहने वाले मनुष्य देवताओं की उपासना किया करते हैं, क्योंकि इस मनुष्य लोक में कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि शीघ्र ही मिल जाती है।
             ऐसी उपासना से हमें संसार के सुख की वस्तुएं तो मिल सकती हैं परन्तु ब्रह्म की स्थिति तक नहीं पहुंच सकेंगे। ब्रह्म में स्थित होने के लिए तो अनन्य भाव से केवल ब्रह्म की ही उपासना करनी होगी।गीता में भगवान कहते हैं-
         यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
         भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोपि माम् ।। 9/25।।
अर्थात देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को और भूत प्रेतों को पूजने वाले भूत प्रेतों को प्राप्त होते हैं। परन्तु मेरा पूजन करने वाले मुझे ही प्राप्त होते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Sunday, March 22, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -12


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-12
       आनंदमय ईश्वर जगत की रचना किस प्रकार करता है? गाढ़ निद्रा (deep sleep) जैसे स्वप्न (Dream) में बदल जाती है उसी प्रकार ईश्वर ने बैठे-बैठे विचार किया कि “अब मैं बहुरूप हो जाऊं“। ऐसा विचार करते ही वह हिरण्यगर्भ रूप हो गया मानो सुषुप्ति ही स्वप्न हो गया हो। इस प्रकार इस सृष्टि का निर्माण (Creation) हुआ। अब प्रश्न उठता है कि सृष्टि क्रमानुसार (In well arranged order) उत्पन्न हुई अथवा एक साथ (Spontaneous)। हमारे शास्त्रों में दोनों ही प्रकार की श्रुतियां विद्यमान है। तैतरीय उपनिषद ( तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः... 2/1/2) की श्रुति में क्रमोत्पन्न सृष्टि का वर्णन है वहीं बृहदारण्यक उपनिषद (इदं सर्वम सृजत....  1/2/5) में युगपत् सृष्टि का वर्णन आता है। दोनों ही सत्य कही जा सकती है। जिस प्रकार स्वप्न भी दो प्रकार के देखे जाते हैं; एक स्वप्न में तो क्रम से पदार्थ उत्पन्न होते हैं तथा किसी दूसरे स्वप्न में सब के सब पदार्थ एक साथ यकायक (spontaneously) उत्पन्न होते दिखाई पड़ते हैं।
      जैसे किसी कपड़े में सूत्र (Thread) गूंथा (Weaved) रहता है वैसे ही जगत में गूंथा रहने वाला सूत्रात्मा (हिरण्यगर्भ) रहता है। इसी हिरण्यगर्भ को जगत की सूक्ष्म देह अथवा लिंग देह भी कहा जाता है। सम्पूर्ण लिंग शरीरों (व्यष्टि लिंग शरीरों) में अहंभाव करने से यह सूत्रात्मा समस्त लिंग शरीरों का समष्टि (Whole) रूप है। इस सूत्रात्मा में ’ज्ञान, इच्छा और क्रिया“ (Knowledge, ambitions and action) ये तीन शक्तियां रहती है। इस समष्टि सूत्रात्मा का स्वभाव हम जैसी समस्त व्यष्टियों (Units) में भी पाया जाता है। इसी कारण से हमें पहले तो किसी पदार्थ (Matter) का ज्ञान (Knowledge) होता है, फिर उसकी चाहना यानी इच्छा (ambition/desire) होती है और फिर उसे प्राप्त करने के लिए क्रिया (Action) की जाती है। इस प्रकार यह समस्त संसार ज्ञान, इच्छा और क्रिया के ही अनंत भंवर (Vicious cycle) में चक्कर काटता रहता है। तत्त्व-ज्ञान हो जाने पर ज्ञान, इच्छा और क्रिया का यह चक्कर बन्द हो जाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Saturday, March 21, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -11


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-11
      ईश्वर का एक रुप हमारे भीतर रहता है - अर्न्तयामी के रुप में और दूसरा रुप हमारे शरीर से बाहर रहकर समस्त संसार का ध्यान रखता है-सर्वेश्वर अर्थात जो सब जगह रहते हुए सबका नियामक है।
2;सर्वेश्वर-(Omnipresent)---
         जिसने बाह्य जगत (outer world) पर अपना आधिपत्य जमा (Possession) रखा है। वायु को बहने का, अग्नि को जलने का, सूर्य को चक्कर काटते रहने का और मृत्यु को मारने का जो आदेश दिया करता है, वही सर्वेश्वर है। यही सर्वेश्वर शरीरों के अंदर रहकर उनका नियमन करने वाला अंतर्यामी कहा जाता है अर्थात बाह्य नियामक सर्वेश्वर और अंदर बैठा नियामक अंतर्यामी कहलाते हैं, ये दोनों एक ही है, जिसे ईश्वर कहा जाता है।
                ईश्वर आनंदमयी है। यही ईश्वर अपने जड़ अंश से तो अचेतनों (Non conscious) का उपादान है (Ingredient/matter) तथा वही अपने चिदाभास अंश से जीवों (Conscious) का कारण (Cause) हो जाता है। भावना (संस्कार), ज्ञान तथा कर्मों के निमित्त से ईश्वर जब तमः प्रधान हो जाता है, तब क्षेत्र अर्थात शरीर आदि का कारण हो जाता है तथा जब चित प्रधान होता है तो चिदात्माओं का कारण बन जाता है। मनुष्य जीवन के रहते हुए हमें अंर्तयामी को जानकर सर्वेश्वर को जानना होगा, तभी हम ब्रह्म तक पहुंच सकते हैं। यही बात आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि पहले स्वयं के भीतर बैठे ईश्वर को जानो और फिर समस्त संसार में ईश्वर को।
      प्रायः हम ईश्वर और ब्रह्म (परमात्मा) को एक ही समझ बैठते हैं। वास्तव में ब्रह्म तो असंग है, वह कुछ करता धरता नहीं है। जगत का सृजन तो केवल मायापति अर्थात मायावी महेश्वर ही किया करता है। श्वेताश्वर उपनिषद में कहा गया है : ’अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत् तस्मिंंश्चान्यो मायया संनिरुद्धः।‘ (4/9) अर्थात मायी (ईश्वर) तो इस जगत को बनाता है परंतु जीव माया के वश होकर इसमें कैद हो कर रह गया है।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Friday, March 20, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -10

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-10
      इस प्रकार अल्प रूप से हमने ईश्वर, हिरण्यगर्भ, विराट, विश्व, शरीर आदि के अस्तित्व में आने की चर्चा की है। अब चलते हैं, ब्रह्मतत्त्व को जानने की यात्रा पर। यह यात्रा प्रारम्भ होती है, गुरु से ईश्वर को जान लेने के बाद। तो आइए, चलते हैं इस यात्रा पर।
ईश्वर के रुप -
     अपने बिम्ब स्वरूप त्रिगुणी प्रकृति के सत्वशुद्ध रूप को अपने वश में कर ब्रह्म, ईश्वर बन जाता है। फिर यही ईश्वर वैश्वानर, हिरण्यगर्भ, तैजस, विश्व का निर्माण करता हुआ स्थूल शरीर बनने की स्थिति तक पहुंच जाता है। इस प्रकार मोटे रूप से ईश्वर के दो रूप माने जा सकते हैं : शरीर के भीतर “अंतर्यामी” (Omniscient) और शरीर के बाहर “सर्वेश्वर” (Omnipresent)। हमें ब्रह्म तक पहुंचना है तो सर्वप्रथम हमें अपने शरीर के भीतर बैठे अंतर्यामी ईश्वर को जानने से प्रारम्भ करना होगा।
1.अंतर्यामी—(omniscient)-
      अंतर्यामी अर्थात शरीर के अंदर रहकर नियमन करने वाला ईश्वर। यह बुद्धि के अंदर रहता है। बुद्धि इसको देख नहीं सकती। वह अंदर रहकर इस बुद्धि को नियम में रख रहा है। यही चोर को चोरी करने को भी उकसाता है, मालिक को सावधान रहने की भी प्रेरणा देता है, बहादुर को लड़ने की और भीरु को भाग जाने की सम्मति देता है। इस प्रकार वह सब जीवों के कर्मों की डोर को अंदर बैठा हुआ हिलाता रहता है। गीता में भगवान श्री कृष्ण अंतिम अध्याय में अर्जुन को एकदम स्पष्ट कर देते हैं-
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारुढानि मायया।। गीता-18/61।।
अर्थात हे अर्जुन ! शरीर रुपी यंत्र में आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियों को अंतर्यामी परमेश्वर अपनी माया से उनके कर्मों के अनुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों के ह्रदय में स्थित है।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Thursday, March 19, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -9


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-9
       गुरु उसको इस संसार सागर के भंवर से बाहर निकालकर विश्राम की अवस्था का अनुभव कराता है। वह उसे शरीर के पांच कोशों के बारे में बताते हुए स्पष्ट करता है कि स्थूल शरीर तो केवल अन्नमय कोश है। यह कोश पांच भौतिक तत्वों से बना हुआ है। फिर उसके भीतर प्राणमय कोश है जिसमें प्राण, अपान, समान, उदान और वियान नामक पांच प्राण होते हैं। प्राणमय कोश के ही भीतर मनोमय कोश होता है, जिसमें मन है। प्राणमय और मनोमय कोश दोनों मिलकर सूक्ष्म शरीर कहलाते हैं। मनोमय के बाद विज्ञानमय कोश आता है जिसमें बुद्धि निवास करती है। अंत में शरीर का सबसे भीतरी कोश आता है : आनंदमय कोश, जिसे कारण शरीर भी कहा जाता है। विज्ञानमय कोश को जीव व आनंदमय कोश को ईश्वर कहा जाता है। आत्मा (ब्रह्म) शरीर के इन पांचों कोशों के भीतर रहती है और इन पञ्च कोशों में सदैव विचरण करती रहती है। मनुष्य की विडम्बना है कि वह इन सभी कोशों का ज्ञान तो रखता है परंतु अपनी आत्मा से अनभिज्ञ बना रहता है। अनभिज्ञ बने रहने का भी एक कारण है। आत्मा आनंदमय कोश के साथ तादात्म्य स्थापित कर स्वयं को आनंदमय कोश ही समझने लग जाती है, जबकि वास्तविकता यह है कि आत्मा इन समस्त कोशों से भिन्न व विलक्षण है। उसी विलक्षण आत्मा के ज्ञान को प्राप्त कर लेना ही आत्मबोध हो जाना अथवा ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान हो जाना है।
                 आत्मा वैसे तो ब्रह्म ही है परन्तु शरीर के प्रति पैदा हुए आकर्षण के कारण वह स्वयं को शरीर ही होना मान लेती है। यही कारण है कि वह अपना स्वरूप तक भूल जाती है और अपने अंशी अर्थात ब्रह्म से दूर हो जाती है। इस वास्तविकता को जिस समय वह जान जाता है, तत्काल ही आत्म-बोध को उपलब्ध हो जाता है। हरिः शरणम् आश्रम बेलडा, हरिद्वार के आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि मनुष्य को चाहिए कि वह सर्वप्रथम स्वयं में परमात्मा को देखे, फिर सभी प्राणियों में परमात्मा के दर्शन करे। इस प्रकार अन्ततः उसके लिए समस्त संसार ही परमात्मा हो जाएगा। इस प्रकार ’वासुदेव सर्वम्’ का भाव रखने से हम ब्रह्म तक पहुंच सकते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, March 18, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -8


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-8  
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
 अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्।।15/14।।
अर्थात मैं ही प्राणियों के शरीर में स्थित रहने वाला प्राण और अपान से संयुक्त वैश्वानर अग्नि रूप होकर सभी प्रकार के अन्न को पचाता हूँ।
     इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी प्राणियों के कारण (Causal body) और सूक्ष्म शरीर (Subtle body) तो समान होते हैं परंतु स्थूल शरीर (Gross body) भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं। स्थूल शरीर की बाह्य दृष्टि (Outward vision) होती है, इसलिए वे आत्मा को देख नहीं सकते। अतः इन स्थूल शरीरों में से किसी को भी आत्म-तत्व का बोध नहीं होता है।
       शरीर और भोग सामग्री की व्यवस्था होने के बाद विषय भोग (Material enjoyment) भोगने के लिए कर्म (Acts) करना प्रारम्भ होते हैं और फिर उन कर्म के फल भी भोगे जाते हैं। जितने भोग प्राप्त किये जाते हैं, व्यक्ति उतना ही अधिक उन विषयों के प्रति आसक्त होता जाता है। इस प्रकार उसके मन में कामनाओं का बार बार उत्पन्न होने और बढ़ते जाने का क्रम प्रारम्भ हो जाता है। जिस प्रकार  जल के भंवर में कोई कीड़ा एक निश्चित सीमा में सतत चक्कर लगाता रहता है, उसी प्रकार मनुष्य भी कामनाओं, कर्म तथा भोगों के भंवर में जन्म जन्मों तक चक्कर लगाता रहता है। यह चक्कर तब तक चलता है, जब तक कोई सहृदय दयालु व्यक्ति आकर उसे उस भंवर से बाहर निकाल नहीं लेता। ऐसा तभी होता है जब किसी पूर्वजन्म के पुण्य परिपक्व हो जाने का समय आ जाता हो। ऐसे महान व्यक्तित्व (Great personality) को ही गुरु कहा जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि सद्गुरु पूर्वजन्म के सत्कर्मों के फलस्वरूप ही किसी किसी व्यक्ति को ही मिलते हैं।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, March 17, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -7


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-7
              जब यह प्राज्ञ (जीव) जब लिंग शरीर में अभिमान करता है तो वह उसे ही “आत्मा“ मानने लगता है और “तैजस“ कहलाता है तथा जब ईश्वर इस लिंग शरीर में अभिमान करता है तब उस स्थिति में आकर वे ईश्वर “हिरण्यगर्भ“ कहलाने लगते हैं। यहां आकर यह जान लेना महत्वपूर्ण है कि तैजस और हिरण्यगर्भ दोनों ही लिंग शरीर पर अभिमान करते हैं परंतु अंतर सिर्फ इतना ही है कि एक ओर हिरण्यगर्भ को तो सदैव अपने ईश्वर होने का भान बना रहता है परंतु दूसरी ओर तैजस को कभी भी अपने ईश्वर होने का भान नहीं रहता। इसका कारण है कि ईश्वर ने तो अपनी सत्व शुद्ध प्रकृति (माया) को अपने वश में कर रखा है परंतु तैजस सत्व मलिन प्रकृति के वश में हो गया है। केवल इसी कारण से उसे ईश्वर न कहकर अविद्या कहा जाता है।
        हिरण्यगर्भ सर्वलिंग शरीरों में अपनी एकता (Uniformity) उपस्थिति को समझता है, इसलिए वह तो समष्टि (Whole) है और तैजस स्वयं केवल एक लिंग शरीर में ही अपनी उपस्थिति समझता है, इससे वह व्यष्टि (Unit) है। दोनों में यह भेद (difference) ही महत्वपूर्ण है।
        अब ईश्वर इन जीवों के लिए भोग (Material enjoyment) के लिए भोग्य यानि अन्नादि (Material) तथा भोग्य-मन्दिर यानि शरीर (Physical body) का निर्माण करता है। इनका निर्माण करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि सत्व मलिन प्रकृति के वश में हुआ वह परमात्मा (आत्मा) इस प्रकृति में उपस्थित दो अन्य प्रभावशाली गुणों यथा रजस और तमस के आकर्षण में आकर भोग करना चाहता है। इसके लिए ईश्वर पांचों भूत तत्वों को पंचात्मक कर (एक निश्चित अनुपात में आपस में मिलाकर) विभिन्न प्राणियों के शरीरों की रचना करते हैं। उन पंचीकृत भूतों से ही ब्रह्मांड (Universe) का निर्माण हुआ है। इसी ब्रह्मांड में अन्न व शरीरों का निर्माण होता है। यह शरीर समष्टि (Whole) के स्तर पर विराट (Massive/grand) कहलाता है और व्यष्टि (Unit) के स्तर (Level) पर स्थूल शरीर (Gross body)। इस विराट में अभिमान कर बैठने वाले हिरण्यगर्भ को “वैश्वानर“ (Global) कहते हैं और स्थूल शरीर को पाकर तैजस भी “विश्व“ (World) हो जाता है।
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||

Monday, March 16, 2020

ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः -6


ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः(ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म में स्थित है)-6  
गीता में भी भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को इसी बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं-
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतनामीश्वरोऽपिसन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया”।। 4/6।।
अर्थात मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए,सम्पूर्ण प्राणियों का ईश्वर (सर्वेश्वर) होते हुए भी अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ।
        दूसरी ओर सत्व मलिन प्रकृति यानी “अविद्या“ प्रकृति की विचित्रता यानि चकाचौंध (Glamour) को देखकर चिदानन्द का प्रतिबिंब अर्थात आत्मा उसके वश में हो गया। ऐसी स्थिति में आत्मा स्वयं को भी सत्व मलिन प्रकृति ही समझ बैठा। यहाँ पर आकर इस प्रकार की स्थिति के पैदा होने से ‘सृष्टि के निर्माण’ (Creation) की राह खुलती है। आत्मा का अज्ञानवश इस सत्व मलिन प्रकृति के वश में हो जाना ही “अविद्या“ है। इस अविद्या को ही “कारण शरीर“ कहा जाता है। इस “कारण शरीर“ कहलाने वाली अविद्या में “अहं“ भाव (ego/significance) रखने वाले प्रतिबिम्ब (आत्मा) को “प्राज्ञ“ कहा जाता है। इसी प्राज्ञ को “जीव“ भी कहा जाता है। यह जीव अविद्या की विचित्रता देखकर बहुत रूपों में व्यक्त होता है। इसके अनेक भेद हो जाते हैं जैसे देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि।
        इस स्थिति को देखकर सत्व शुद्ध प्रकृति को अपने वश में कर बैठे ईश्वर ने प्राज्ञों के भोग के लिए तमः प्रुभत्व वाली प्रकृति (सत्व मलिन प्रकृति) से पांच भूत तत्व यथा पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश उत्पन्न किये। फिर इन पञ्च भूतों के पृथक पृथक  पांच सत्व भागों से पांच ज्ञानेंद्रियों (Senses of knowledge) को उत्पन्न किया। इसके बाद इन्हीं पांच भूतों के पांचों सत्वांशों से मिलकर एक अंतःकरण नाम का द्रव्य (Substance) उत्पन्न हुआ। वह अंतःकरण अपने वृति भेद के कारण दो प्रकार का होता है। इस अंतःकरण के दो वृतिभेद (Difference of nature) हैंः प्रथम, जो संशयात्मक वृति (Doubtful nature) रखता है वह मन कहलाता है (Psyche/mood) और द्वितीय, जिसकी निश्चयात्मक वृति (Determine nature) होती है वह बुद्धि (Mind) कहलाई। तत्पश्चात पांच भूतों के पृथक पृथक राजसी भागों से पांच कर्मेन्द्रियाँ (Senses of action) : वाक(Vocal cords), पाणि (Upper limbs), पाद (Lower limbs), पायु (organs of excretion) और उपस्थ (organs of reproduction) बनी। अंत में पांचों भूतों की राजस प्रकृति से पांच प्राण यथा प्राण, अपान, समान, उदान और वियान (व्यान) बने। इस प्रकार पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच प्राण और मन तथा बुद्धि (अंतःकरण) कुल सत्रह मिलकर “सूक्ष्म शरीर“ (Subtle body) कहलाते हैं। वेदांत में इसी सूक्ष्म शरीर को “लिंग शरीर“ कहा जाता है। 
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||