Tuesday, January 7, 2014

प्रेम की पराकाष्ठा |(Height of the love)

                     प्रेम का प्रारम्भ मन की सुंदरता निखरने के साथ होता है |उसके बाद भावनात्मकता का प्रवेश होता है |भावुकता के दौर में अपने प्रेम और प्रेमी के खोने का डर,एक दूसरे से दूर होने का डर और बिछोह का संदेह बना रहता है |हालाँकि इस अवस्था में समर्पण की भावना जरूर रहती है परन्तु प्रेम के लिए दो का खो जाना आवश्यक होता है ,वह भावुकता की सीढ़ी पर खड़े रहने से संभव नहीं होगा |उससे आगे बढ़ने पर भावुकता खो जाती है और प्रेम प्रकट हो जाता है |जब प्रेम में दो प्रेमी की जगह मात्र एक ही रह जाता है तब यह भावुकता वास्तविक प्रेम में परिवर्तित हो जाती है |
                       यहाँ से प्रेम की प्रगाढता का आरम्भ हो जाता है |धीरे धीरे प्रेम अपने रंग में इन्हें पूर्णतया रंग लेता है |   जब यह रंग और गहराता है तब एक अवसर आता है जब प्रेम ही अदृश्य हो जाता है |अदृश्य होने से अर्थ यह नहीं है कि प्रेम खो जाता है बल्कि आशय यह है कि प्रेम का पता नहीं चलता,प्रेम को मापने का कोई पैमाना नहीं रहता |इसी को प्रेम का अदृश्य हो जाना कहते है |कितना सच है यह कहना --
                                   प्रेम नहीं प्रेमी नहीं,किसका कौन प्रमेय |
                                 स्मरण भूल कैसी कहाँ,ज्ञाता ज्ञान न ज्ञेय ||
                  प्रेम की प्रगाढता को जानने के लिए इससे अधिक सुन्दर पंक्तियाँ हो ही नहीं सकती |जब प्रेम अपनी उच्चत्तम अवस्था में होता है तब न तो कही प्रेम नजर आता है ,न ही कोई प्रेमी और यहाँ तक कि प्रेम मापने का पैमाना (प्रमेय)भी अदृश्य हो जाता है |ऐसी अवस्था में किस को याद करना और किसको भूल जाना ?न तो किसी का ज्ञान रहता है ,न कोई ज्ञानवाला ,जानने वाला और न ही वह जिसे जाना जा सके (ज्ञेय)|सब कुछ अदृश्यमान हो जाना ही प्रेम की पराकाष्ठा है|इसको अधिक समझने के लिए एक कहानी याद आ रही है |
                    एक प्रेमिका अपने प्रेमी से मिलने के लिए बड़ी तेजी से जा रही थी|रास्ते में एक व्यक्ति मगरिब की नमाज अता कर रहा था |उसके सामने बिछे वस्त्र पर से वह लड़की  पाँव रखती हुई तेजी से अपने रास्ते पर निकल गयी ,जहाँ आगे उसका प्रेमी इंतज़ार कर रहा था | अपने प्रेमी से मिलकर जब वह वापिस लौटी तो वही नमाज़ पढ़ रहा व्यक्ति वहीँ बैठा उसका इंतज़ार कर रहा था |उसने लड़की को कहा-"मैं खुदा की इबादत कर रहा था,और तू कितनी पागल थी,किसके लिए अंधी हो गयी थी  कि मेरे वस्त्र पर से पांव धरकर चली गयी |उसे  अपवित्र कर दिया |कहाँ खोई थी इतनी कि तुम्हे इस बात का ख्याल ही नहीं रहा कि मैं खुदा की इबादत कर रहा था?"उस लड़की ने बड़ा ही अच्छा जवाब दिया |वह बोली-"मैं तो अपने प्रेम में सब कुछ भूल बैठी थी,मेरे लिए सब अदृश्य हो गया था |मुझे कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था |परन्तु आप तो खुदा से प्रेम करते हो,उसकी  बंदगी करते हो फिर आपको खुदा के सिवाय यह सब कैसे नज़र आ रहा था ?यह आपका खुदा के प्रति कैसा प्रेम है जो आपको अपना वस्त्र मेरे पैरों से अपवित्र होता नज़र आ गया ?"  यह सुनकर वह नमाज़ी निरुत्तर हो गया |
                            इसको कहते हैं -प्रेम की प्रगाढ़ता|ऐसी प्रगाढता अगर परमात्मा के प्रति हो जाये तो फिर कहना ही क्या ?तभी कहते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है |
                             लाली तेरे लाल  की,जित देखूं तित लाल |
                             लाली मैं देखन चली,हो गई लालम लाल ||
       जहाँ आपस में प्रेम इतना बढ़ जाये कि प्रेम करने वाला स्वयं को खो बैठे ,जब प्रेम करने वाला और प्रेम पाने वाला दोनों खो जाएँ ,दोनों एक दूसरे के रंग में रंग जाये,दो के स्थान पर एक रह ही जाये ,तब होती है प्रेम की उच्चत्तम अवस्था |इसी को कहते हैं -प्रेम की पराकाष्ठा |
                                        || हरिः शरणम् ||

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