Wednesday, January 1, 2014

प्रेम-एक आराधना|

Bye bye 2013
Thanks to those,who hated me,they made me a stronger person.
Thanks to those who loved me,they made my heart bigger.
Thanks to those who were worried about me,they let me know that they actually cared.
Thanks to those who left me,they made me realize that nothing lasts forever.
Thanks to those who entered my life,they made me who I am today .
Just want to THANKS all for being there in my life.
                HAPPY NEW YEAR 2014
             
                                                   प्रेम-देखने में,पढने में एक छोटा सा शब्द |परन्तु कितनी गहराई लिए हुए है यह शब्द |इस शब्द की जितनी भी व्याख्या की जाये ,वह कम ही है |कबीर ने कह तो दिया कि "ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय|"परन्तु क्या इस शब्द को ,इस प्रेम को पढना इतना आसान है,जैसा कि यह प्रतीत होता है |नहीं,बिलकुल नहीं |प्रेम को पढ़ा नहीं जाता ,प्रेम किया नहीं जाता बल्कि प्रेम को तो जीया जाता है |इस प्रेम को जीने को ही कबीर ने पढना कहा है |कबीर के अनुसार जो व्यक्ति प्रेम को ही, प्रेम में ही और प्रेम के लिए ही जीता है वास्तव में वही प्रेम को पढ पाता है |वही प्रेम का असली अर्थ जानकर पंडित हो जाता है |
                                                प्रेम कोई करने या होने का कार्य नहीं है |प्रेम तो एक साधना है |प्रेम को जानने और समझने के लिए वर्षों लग जाते हैं ,जब तक आप इस शब्द को साहित्य या शब्दकोष में ढूँढते हो,हो सकता है आप इसको फिर भी समझ न पायें |आप तत्काल भी प्रेम को उपलब्ध हो सकते हैं |आवश्यकता है आपकी लगन की,आपकी साधना के प्रति लगन की |
                                  कबीर कहते हैं-
                                          मन ऐसा निर्मल भया , जैसे गंगा नीर |
                                          पाछे पाछे हरि फिरे , कहत कबीर कबीर ||
             अपना मन इतना पवित्र कर लीजिए कि उसमे प्रेम के सिवाय कुछ भी नहीं रहे |ईर्ष्या,वैमनस्य ,वासना,अधिकार की भावना,अहंकार,कामनाएं, इच्छाएं आदि सब बाहर निकल जाये और सम्पूर्ण मन प्रेम से भीग जाये यह स्थिति एक निर्मल मन की स्थिति होती है |ऐसे मन को फिर परमात्मा को ढूँढने की आवश्यकता नहीं रहती,स्वयं परमात्मा ऐसे मन ,ऐसे सुन्दर मन वाले को ढूंढ ही लेते हैं |
                         परन्तु क्या मन को इतना निर्मल,इतना पवित्र और इतना खूबसूरत कर लेना इतना ही आसान है ?इस भौतिक संसार में सभी व्यक्ति पवित्र मन लेकर ही आते हैं |ज्यों ज्यों संसार सागर की गहराई में  उतरते जाते हैं ,मन इन सब विकारों को ग्रहण करता चला जाता है |प्रेम पाने के लिए वह दर दर भटकता है परन्तु ऐसे मन में प्रेम का अंकुर भी कैसे फूटेगा?यह वह नहीं समझ पाता है |इसके लिए उसे आराधना की आवश्यकता होती है |आराधना,जिसमे सब कुछ भूलकर ,इन सब विकारों से मन को साफ कर केवल अपने साध्य की ,अपने प्रेमी की पूजा ,बंदगी करनी होती है |तभी प्रेम को पाया जा सकता है |
                                   || हरिः शरणम् ||  

No comments:

Post a Comment