Sunday, January 19, 2014

अमृत-धारा |कबीर -१

                                            कबीर ,एक ऐसा व्यक्तित्व जिसके बारे में कुछ भी बोलना सूर्य को दीपक दिखाने के समान ही होगा |उनका उस समय में आगमन हुआ जब मुग़ल काल में कट्टरता अपने चरम पर थी |इसके बावजूद भी कबीर ने कट्टरपंथ पर निर्ममतापूर्वक प्रहार किये|आज के समय में अगर कबीर होते और इस प्रकार से अंधविश्वासों और कट्टरता पर काव्य लिखते तो निश्चित तौर से या तो जेल में सलाखों के पीछे होते या उग्रवाद के शिकार हो गए होते |एक आदर्श कवि वही होता है जो उन्मुक्त होकर काव्य की रचना करे |कबीर एक ऐसी ही प्रतिभा के धनी थे |एक तरफ मुस्लिम कट्टरवाद पर प्रहार करते हुए वे कहते हैं-
                                      काकड पाथर जोड़ कर , मस्जिद लई चुनाय |
                                      ता चढ़ी मुल्ला बांग दे,क्या बहरा भया खुदाय ||
           और दूसरी तरफ हिंदुओं के अन्धविश्वास को आड़े हाथ लेते हैं और कहते हैं-
                                      मूंड मुंडाए हरि मिले,तो सब कोई लेय मुंडाय |
                                      बार  बार के  मुंडते , भेड़  ना  बैकुण्ठ  जाय ||
              अपने समकालीन कवियों में यह विधा केवल कबीर के पास ही थी ,जो एक आध्यात्मिक व्यक्ति होने के बावजूद इतनी गंभीरता से सामजिक विषयों के साथ साथ अंध विश्वासों और कट्टरपन पर भी अपने दोहों से बाण चलाते रहे |अन्य समकालीन संत महापुरुषों ने अपनी समस्त रचनाओं को अपने आराध्य तक ही सीमित रखा |रहीम खानखाना जरूर कुछ हद तक कबीर के समकक्ष कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं |सूर,तुलसी ,मीरा ,रसखान आदि ने भक्ति-रस में डूबकर अपनी रचनाओं में अपनी आत्मा की आवाज़ को पहचान दी है |
                 इस कारण से  कबीर को कई आलोचक संत का दर्जा देने से परहेज करते है|आलोचकों का कहना है कि कबीर हमेश एक द्वंद्व में घिरे नज़र आते हैं |कभी वे समाज सुधारक की भूमिका में नज़र आते हैं और कभी आध्यात्मिक पुरुष के रूप में |कभी वे एक धर्म के नज़र आते है,कभी दूसरे धर्म के |उनके काव्य से उनकी कोई एक पहचान बना पाना असंभव नहीं है तो आसान भी नहीं |
           मुझे इन सबसे कोई मतलब नहीं है |मैंने तो जब भी कबीर को पढ़ा है ,आम आदमी के दिल के करीब ही पाया है |उनकी रचनाएँ एक साधारण व्यक्ति की भावनाओं को ही अभिव्यक्त करती है-सभी छल-प्रपंच से दूर,बड़ी ही सरल भाषा में साधारण और मार्मिक बात |साधारण व्यक्ति को कबीर का कहना अपने अंतर्मन की बात कहना सा ही लगता है |उसे ऐसा महसूस होता है जैसे बात उसके मन की हो और शब्द कबीर के |कबीर की सभी रचनाएँ पढकर आत्मसात करने योग्य है |कबीर की रचनाओं ने जितना हर किसी को झकझोरा है,उतना अन्य किसी की रचनाओं ने नहीं |
                        इन सभी को अलग रखते हुए एक बात आलोचकों के मुंह से भी निकलती है-कबीर,कबीर हैं ,उनके समकक्ष कोई अन्य नहीं |उनको संत कहने पर विवाद हो सकता है,महापुरुष कहने में नहीं |उन्होंने दोहों और भजनों के माध्यम से अपने आपको एक संत,एक समाजसुधारक और एक महापुरुष तीनों का होना ही प्रमाणित किया है |मेरे ऐसा कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए |मैंने तो कबीर में इन तीनों के ही दर्शन किये हैं |मैं तो समय मिलने पर कबीर की रचनाओं में डूबने का प्रयास करता हूँ |और डूबने में जो आनन्द है ,वह तैर कर पार निकलने में कहाँ ?
                                     || हरिः शरणम् ||

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