वैसे तो इस संसार परमात्मा और आध्यात्मिकता को लेकर कई पंथ है,जो अपने अपने तरीके से ईश्वर को पाने के लिए तरीके बताते हैं |इसी के लिए वे अपनी बात काव्य-विधा के माध्यम से आमजन तक पहुंचाते है |आज से लगभग पांचसौ वर्ष पहले का समय भक्ति-काल कहलाता है |उस समय में कबीर,रहीम,रैदास,सूरदास,गोस्वामी तुलसीदास,मीराबाई अन्यान्य भक्त इस धरा पर अवतरित हुए |सबने अपनी अपनी सोच के अनुसार ईश्वर भक्ति की |आज उन्ही के कारण हमारे पास भक्ति काव्य का अनमोल खजाना है |काव्य के आधार पर किसी भी बात को कम शब्दों के माध्यम से भी अछे तरीके से समझा जा सकता है |काव्य ज्ञान की गहराई लिए हुए होता है,इसी लिए ज्यादातर कवितायेँ दिल को छू जाती है |बिहारी ने कहा भी है-
सतसैया के दोहरे,ज्यों नाविक के तीर |
देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर ||
काव्य को समझने और समझाने के लिए केवल शब्द-ज्ञान का होना ही प्रयाप्त नहीं है | सभी काव्य विशेष रूप से जो आध्यात्मिकता और परमात्मा से सम्बंधित है एक तरह की गहराई लिए हुए होते है |उनमे शब्द जरूर होते हैं लेकिन उन शब्दों का भाव शब्दों के अर्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है |इस संसार में जितने भी संत महापुरुष हुए हैं उनके द्वारा रचित काव्य जिन्होंने भी पढ़े हैं ,सभी ने अपने विवेकानुसार उनकी व्याख्या की है |उनके लिए यह व्याख्या करना और उस व्याख्या के साथ सहमत होना दोनों अलग अलग हैं |एक के द्वारा की गयी व्याख्या उनके अनुसार सही है ,यही मानना चाहिए |आपको उसमे जो भी उचित लगे उसे ग्रहण कीजिये ,जो अनुचित लगे उसे छोड़ दीजिए |आपको जो भी अनुचित लगे ,आप उस प्रसंग को अन्यत्र किसी अन्य लेखक की रचना में पढ़ लें |फिर निर्णय करे |असहमत होना कोई गलत नहीं है ,गलत है आलोचना |आपके निरंतर बढ़ते ज्ञान से हो सकता है कि एक दिन आपको पूर्व लेखक की व्याख्या सही लगने लगे |श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया ज्ञान श्रीमद्भागवतगीता में संग्रहित है |इसकी टीका कई प्रभुद्जनों द्वारा की गयी है जिसमे अध्यात्मिक संत स्वामी रामसुख दास जी से लेकर तिलक एवं रजनीश जैसे दार्शनिक भी शामिल है |सबने गीता की व्याख्या अपने अपने विवेकानुसार की है |और इन सबको उसी सन्दर्भ में पढ़ना चाहिए | साहित्यकार स्वर्गीय श्री डा. हरिवंशराय बच्चन के जीवनकाल की इसी से सम्बंधित एक घटना है |बच्चन लेखनकार्य प्रारम्भ से ही करते थे और हिंदी में पी.एच.डी.उन्होंने बाद में की |तब तक उनकी रचनाएँ स्नातकोत्तर हिंदी के पाठ्यक्रम में स्थान बना चुकी थी|पी.एच.डी.की परीक्षा के दौरान परीक्षक ने उनसे उन्ही की रचना का भावार्थ पूछ लिया |तब तक उस परीक्षक को यह ज्ञात नहीं था कि जो व्यक्ति "बच्चन"नाम से लिख रहा है,वह यह हरिवंश राय नाम का विद्यार्थी ही है |हरिवंश राय जी ने अपनी ही रचना का भावार्थ परीक्षक को समझाया परन्तु परीक्षक उस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ और उसने बच्चनजी को पी.एच.डी.के अयोग्य घोषित कर दिया |बाद में परीक्षक को पता चला कि यह रचना उसी विद्यार्थी की है और उसका भावार्थ वह सही बता रहा था |यह घटना स्पष्ट करती है कि रचना का भावार्थ प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी सोच के अनुसार अलग अलग हो सकता है |उसे उसी संदर्भ में पढना और समझना चाहिए|
एक विषय की अलग अलग टीकाएं पढने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है की आपकी सोच को एक नयी दिशा मिलती है ,जिससे आप किसी नए विषय को पढते हुए उस के भावों को ज्ञात करने का प्रयास करने लगते हैं |जब आप ऐसा करने में सफल हो जाते हैं ,तो प्रत्येक काव्य को पढने और समझने में आपको आनंद आने लगता है |यही काव्य-विधा की सफलता का राज है |गद्य में जो बात बड़े लंबे चौड़े रूप में कही जाती है,कविता उसे मात्र दो चार पंक्तियों में ही कह देती है |इसीलिए जितने भी संत और महापुरुष हुए है उन्होंने इस विधा का जनहित में अच्छा उपयोग किया है |यह काव्य-विधा एक अमृत के समान है ,और यह अमृत-धारा प्रत्येक मुमुक्षु के लिए संजीवनी का कार्य करती है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
सतसैया के दोहरे,ज्यों नाविक के तीर |
देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर ||
काव्य को समझने और समझाने के लिए केवल शब्द-ज्ञान का होना ही प्रयाप्त नहीं है | सभी काव्य विशेष रूप से जो आध्यात्मिकता और परमात्मा से सम्बंधित है एक तरह की गहराई लिए हुए होते है |उनमे शब्द जरूर होते हैं लेकिन उन शब्दों का भाव शब्दों के अर्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है |इस संसार में जितने भी संत महापुरुष हुए हैं उनके द्वारा रचित काव्य जिन्होंने भी पढ़े हैं ,सभी ने अपने विवेकानुसार उनकी व्याख्या की है |उनके लिए यह व्याख्या करना और उस व्याख्या के साथ सहमत होना दोनों अलग अलग हैं |एक के द्वारा की गयी व्याख्या उनके अनुसार सही है ,यही मानना चाहिए |आपको उसमे जो भी उचित लगे उसे ग्रहण कीजिये ,जो अनुचित लगे उसे छोड़ दीजिए |आपको जो भी अनुचित लगे ,आप उस प्रसंग को अन्यत्र किसी अन्य लेखक की रचना में पढ़ लें |फिर निर्णय करे |असहमत होना कोई गलत नहीं है ,गलत है आलोचना |आपके निरंतर बढ़ते ज्ञान से हो सकता है कि एक दिन आपको पूर्व लेखक की व्याख्या सही लगने लगे |श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया ज्ञान श्रीमद्भागवतगीता में संग्रहित है |इसकी टीका कई प्रभुद्जनों द्वारा की गयी है जिसमे अध्यात्मिक संत स्वामी रामसुख दास जी से लेकर तिलक एवं रजनीश जैसे दार्शनिक भी शामिल है |सबने गीता की व्याख्या अपने अपने विवेकानुसार की है |और इन सबको उसी सन्दर्भ में पढ़ना चाहिए | साहित्यकार स्वर्गीय श्री डा. हरिवंशराय बच्चन के जीवनकाल की इसी से सम्बंधित एक घटना है |बच्चन लेखनकार्य प्रारम्भ से ही करते थे और हिंदी में पी.एच.डी.उन्होंने बाद में की |तब तक उनकी रचनाएँ स्नातकोत्तर हिंदी के पाठ्यक्रम में स्थान बना चुकी थी|पी.एच.डी.की परीक्षा के दौरान परीक्षक ने उनसे उन्ही की रचना का भावार्थ पूछ लिया |तब तक उस परीक्षक को यह ज्ञात नहीं था कि जो व्यक्ति "बच्चन"नाम से लिख रहा है,वह यह हरिवंश राय नाम का विद्यार्थी ही है |हरिवंश राय जी ने अपनी ही रचना का भावार्थ परीक्षक को समझाया परन्तु परीक्षक उस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ और उसने बच्चनजी को पी.एच.डी.के अयोग्य घोषित कर दिया |बाद में परीक्षक को पता चला कि यह रचना उसी विद्यार्थी की है और उसका भावार्थ वह सही बता रहा था |यह घटना स्पष्ट करती है कि रचना का भावार्थ प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी सोच के अनुसार अलग अलग हो सकता है |उसे उसी संदर्भ में पढना और समझना चाहिए|
एक विषय की अलग अलग टीकाएं पढने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है की आपकी सोच को एक नयी दिशा मिलती है ,जिससे आप किसी नए विषय को पढते हुए उस के भावों को ज्ञात करने का प्रयास करने लगते हैं |जब आप ऐसा करने में सफल हो जाते हैं ,तो प्रत्येक काव्य को पढने और समझने में आपको आनंद आने लगता है |यही काव्य-विधा की सफलता का राज है |गद्य में जो बात बड़े लंबे चौड़े रूप में कही जाती है,कविता उसे मात्र दो चार पंक्तियों में ही कह देती है |इसीलिए जितने भी संत और महापुरुष हुए है उन्होंने इस विधा का जनहित में अच्छा उपयोग किया है |यह काव्य-विधा एक अमृत के समान है ,और यह अमृत-धारा प्रत्येक मुमुक्षु के लिए संजीवनी का कार्य करती है |
क्रमशः
|| हरिः शरणम् ||
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