Monday, January 6, 2014

प्रेम और भक्ति |

                                        प्रेम ही परमात्मा है|जिसका ह्रदय प्रेमपूर्ण होता है वही सब जगह,सभी में परमात्मा के दर्शन करता है |हम जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति जिसने इस संसार में जन्म लिया है ,परमात्मा को प्राप्त करने की कोशिश करता है |परमात्मा को प्राप्त करने के मार्ग अलग अलग हो सकते हैं,परमात्मा के बारे में अलग अलग धारणाएं हो सकती है |परन्तु सबका लक्ष्य एक ही होता है-परमात्म-दर्शन |परमात्मा को पाने के लिए जिन रास्तों की चर्चा सबसे ज्यादा होती है ,उनमे सबसे अधिक लोकप्रिय भक्ति-मार्ग है |भक्त का शाब्दिक अर्थ ही एकाकार होना है-परमात्मा के साथ |भक्त वही जिसे विभक्त नहीं किया जा सके |और जहाँ दो नहीं हो,एक ही रह जाये- वह प्रेम कहलाता है,वही भक्ति कहलाती है |भक्ति में भक्त परमात्मा के साथ योग करके परमात्मा ही हो जाता है |यह सब भक्ति के कारण ही संभव है |भक्ति और प्रेम शब्द भले ही दो नज़र आते हों परन्तु दोनों समानार्थी कहे जा सकते हैं |
                      गीता के बारहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण से अर्जुन पूछते हैं कि जो भक्त आपको सगुण और साकार रूप में भजते हैं और अन्य भक्त जो निराकार ब्रह्म को अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं उन दोनों में अतिउत्तम कौन है ?यहाँ अर्जुन ने दोनों को उत्तम ही बताया है,फिर भी उसकी शंका है कि दोनों में अतिउत्तम कौन है?श्रीकृष्ण ने उत्तर में सगुण-साकार की भक्ति करने वाले को दोनों में श्रेष्ठ बताया और कहा कि सगुणरूप परमेश्वर को भजने वाले योगियों में अतिउत्तम योगी कहे जाते हैं |निराकार की भक्ति करने वालों के बारे में वे कहते हैं -
                        क्लेशोSधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् |
                       अव्यक्ता      हि    गतिर्दु:खं  देहवद्भिरवाप्यते || गीता १२/५||
अर्थात्,उस निराकार ब्रह्म में आसक्ति चित्त वाले पुरुषों के साधन में अधिक परिश्रम है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्त अर्थात निराकार को दुःख पूर्वक ही प्राप्त किया जा सकता है |
        यहाँ भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि निराकार रूप में भजने वाले अपनी देह का अभिमान रखते हैं |इसका अर्थ यह है कि परमात्मा निराकार है और इसे मानव देह से ही साधना करके पाया जा सकता है |यही द्वैतवाद है |परमात्मा और हम दोनों को अलग अलग माना जाता है |जहाँ दों है ,वहाँ प्रेम हो ही नहीं सकता |इसीकारण से ऐसे व्यक्तियों में अपनी मानव देह के बारे में अभिमान होता है |ऐसे व्यक्ति निराकार की प्राप्ति के लिए जो भी साधन करते है , सभी कष्ट देने वाले होते हैं |इस प्रकार स्पष्ट है कि इस मानव देह अतिशय दुःख देकर ही निराकार को प्राप्त किया जा सकता है |द्वैतवाद में दो होते हैं इसलिए एक को कष्ट देकर ही दूसरे को पाना ही लक्ष्य होता है |जब दो के स्थान पर एक हो तो फिर किसको कष्ट देना और किसके लिए देना ?
                            ऐसा क्यों होता है कि साकार रूप की उपासना ,सगुण की आराधना का मार्ग तो आसान है और निराकार की साधना का मार्ग अति कठिन ?इसका एक मात्र उत्तर है-प्रेम|आप आश्चर्य कर रहे होंगे कि साकार और निराकार की भक्ति के बीच यह प्रेम कहाँ से आ गया ?परन्तु यह शत-प्रतिशत सत्य है |प्रेम के लिए सौंदर्य आवश्यक है |और सौंदर्य व्यक्त में ही होता है साकार में ही होता है,अव्यक्त या निराकार में नहीं |आपको प्रकृति में सुंदरता नज़र आती है,आपको वृक्षों में सुंदरता नज़र आती है,आप समंदर को देखकर उसकी सुंदरता की गहराई में डूब जाते हो,आप सूर्योदय की लालिमा देखकर अभिभूत हो जाते हो ,आप किसी कलाकार की कलाकृति देखकर वाह वाह करते हो-क्यों?क्या आप बिना किसी दृश्य के किसी भी प्रकार की सुंदरता की कल्पना कर सकते हो ?नहीं,बिलकुल नहीं|और बिना सौंदर्य के प्रेम की भी कल्पना नहीं की जा सकती |सचमुच में बिना सौंदर्य के प्रेम होता भी कहाँ है ?यह साकार के सौंदर्य से अभिभूत होकर ही आपमें प्रेम का झरना फूट पड़ता है और यही प्रेम आपको परमात्मा तक ले जाता है |
                         निराकार की भक्ति करना रेगिस्तानी क्षेत्र में यात्रा करने के समान है |बिलकुल रूखा,सूखा मार्ग |किसी से भी निराकार के बारे में चर्चा करो तो बहुत कम लोगों को रूचिकर लगेगी |परमात्म-दर्शन में मैंने लिखा था कि भगवान कभी भी आपको अपनी कल्पना के आधार पर चतुर्भुज रूप में दर्शन नहीं देने वाले |इस प्रकार कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं था कि साकार भक्ति गलत है |अगर मेरे उन शब्दों से किसी की भावना को ठेस पहुंची हो तो मैं क्षमा चाहता हूँ|मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना कदापि नहीं था |साकार भक्ति प्रेम पैदा करती है और प्रेम ही परमात्मा है |परमात्मा साकार है या निराकार,यह एक बहस का विषय हो सकता है |परन्तु प्रेम ही परमात्मा है ,यह बहस का विषय हो ही नहीं सकता |
                               हम सब भलीभांति जानते हैं कि परमात्मा वास्तव में निराकार ही है और समय समय पर वह साकार रूप में प्रकट होता रहता है |अंतिम सत्य तो निराकार ही है परन्तु उसको प्राप्त करने  के लिए आपको साकार की भक्ति के मार्ग से ही गुजरना होगा |क्योंकि आप साकार में ही सौंदर्य देख सकते हैं ,साकार से ही प्रेम कर सकते हैं ,निराकार से नहीं |जब आप साकार भक्ति से परमात्मा के साथ एकता स्थापित कर लेते हैं तो निराकार की अनुभूति अपने आप ही हो जाती है |यह ध्रुव सत्य है कि बिना प्रेम के परमात्मा है ही कहाँ ?निराकार परमात्मा को भी प्रेम पाने के लिए साकार यानि व्यक्त होना ही होता है |साकार रूप में वह प्रेम कर भी सकता है और प्रेम पा भी सकता है |
                           || हरिः शरणम् ||
                    

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