Sunday, January 5, 2014

प्रेम की परीक्षा |

                                          देखा जाये तो प्रेम शब्द इतनी विशालता लिए हुए होता है कि इसकी सीमा को जानना और पहचानना लगभग असंभव है |प्रेम ,इस संसार में प्रत्येक से किया जा सकता है ,चाहे वो आपका शत्रु ही क्यों न है |प्रेम करने वाले का कोई शत्रु नहीं होता परन्तु कोई अन्य व्यक्ति प्रेम करनेवाले से तो वैमनस्य रख ही सकता है ,इससे इन्कार नहीं किया जा सकता |ऐसी स्थिति में गीता स्पष्ट रूप से सन्देश देती है कि प्रत्येक से प्रेम करो,अपने शत्रु से भी परन्तु जो आपका मित्र हो उससे अतिशय प्रेम करो |भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझे भक्त अपनी कामनाओं को पूरा करने के लिए भी भजते हैं ,दुःख पाने वाले और जिज्ञासु भी मुझे भजते है ,वे सभी मुझे प्रिय है |परन्तु सबसे प्रिय मुझे ज्ञानी भक्त है,जो जानते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है और वो मुझे बिना किसी आकांक्षा के प्रेमपूर्वक भजते हैं |श्रीकृष्ण प्रेम के बारे में एकदम स्पष्ट है-संसार में सबसे प्रेम करो और अपने प्रेमी से अतिशय प्रेम करो |यह आपका भेदभाव बिलकुल भी नहीं है |
                                       जब आपको कोई प्रेम करता है तो वह आपको वास्तव में पूरी समग्रता के साथ प्रेम करता है |जीवन में ऐसे प्रेमी की कभी भी परीक्षा लेने की मत सोचना |अपने प्रिय की कही हुई प्रत्येक बात को आँख मूँद कर सही मान लेना,उस पर कभी भी अविश्वास नहीं करना |नहीं तो परिणाम भयावह होते हैं |एक बार एक पति ने अपनी पत्नी की इसी प्रकार प्रेम की परीक्षा लेनी चाही |उसने अपने कार्यालय से किसी अन्य व्यक्ति से फोन करवाया कि उसके पति की कार रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त हो गई है और उस दुर्घटना में उनके पति की मृत्यु हो गयी है |फोन करवाने के बाद पति अपनी पत्नी की प्रतिक्रिया जानने के लिए घर गया तो देखा कि पत्नी फाँसी के फंदे पर झूल रही है और टेबिल पर नोट लिखा पड़ा था "मैं  अपने पति का वियोग सहन नहीं कर सकती ,अतः उनके पास ही जा रही हूँ | "कितना दुखद था -पति का अपनी पत्नी के प्रेम की परीक्षा लेना |
                                       इसी प्रकार का एक प्रसंग रामचरितमानस में शिव-सती से सम्बंधित आता है | एक बार शिव और सती संसार में भ्रमण को निकले |यह त्रेता युग की बात है |आकाश मार्ग से जब वे एक जंगल के ऊपर से जा रहे थे तो दोनों देखते हैं कि राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ सीते सीते नाम का विलाप करते हुए जा रहे थे |उस वक्त रावण ने सीता -हरण कर लिया था |शिव-सती विलाप सुनकर जंगल में उतरे|और राम-लक्ष्मण की तरफ बढे |राम ने शिव को देखकर प्रणाम किया |शंकर ने भी प्रत्युतर में प्रणाम किया |सती ने पूछा कि ये कौन हैं ?शंकर ने कहा कि ये साक्षात् परमात्मा है |सती ने शंका की कि परमात्मा होकर भी अपनी पत्नी के वियोग में इतना विलाप कैसे कर रहे हैं ?इसके लिए इनकी परीक्षा लेनी चाहिए |शंकर ने उन्हें समझाया कि परमात्मा की यह सब लीला है |परीक्षा लेने की सोचना भी मत |सती उनके साथ आगे चल पड़ी |परन्तु उनके मन में अभी भी शंका थी |आगे जाकर सती बोली-"भगवन!आप आगे चले,मैं भी परमात्मा को प्रणाम करके वापिस आपके पास आती हूँ |"शिव उनके मन की बात जान चुके थे |वे सती से बोले-"दैवी!सिर्फ प्रणाम करके लौट आना |परीक्षा लेने की कोशिश मत करना |वे परमात्मा है और परमात्मा की और प्रेम की कभी भी परीक्षा नहीं ली जाती है |"सती ने उनको "हाँ "कह दिया और तुरंत ही वहाँ से निकल पड़ी|रास्ते में शंका ने फिर अपना सर उठा लिया |अंततः सती ने उनकी परीक्षा लेने की ठान ही ली |उसने सीता का वेश बनाया और राम-लक्ष्मण की तरफ चली |राम उन्हें देखकर समझ गए कि यह सीता के वेश में माता सती ही है |उन्होंने उन्हें देखकर प्रणाम किया और बोले-"माते!मेरे ईश्वर कहाँ रह गए?आप अकेले इस वन में कैसे घूम रही है ?"अब सती को काटो तो खून नहीं|उसने तुरंत ही राम को प्रणाम किया और शिव के पास लौट आयी |शिव ने उसे पूछा कि उनकी परीक्षा तो नहीं ली थी ?सती ने झूठ बोलदिया |कहा -"नहीं|मैं तो उनको सिर्फ प्रणाम कर लौट आयी |"शंकर तो सर्वज्ञ हैं |वे सब जान गए |वे तत्काल कैलाश लौट आये |आते ही उन्होंने सती को कहा कि जो अपने प्रिय का कहना नहीं मानता और परमात्मा की परीक्षा लेता है ,उसे मैं बिल्कुल भी पसंद नहीं करता |अतः मैं आज तुम्हारा त्याग करता हूँ |"और इतना कहकर वे समाधिस्थ हो गए |
                                    समाधि से जागने के बाद भी शिव ने सती के साथ प्रिय जैसा व्यवहार कभी भी नहीं किया |एक लंबे समय उपरांत सती अपनी देह अपने पिता दक्ष के घर में त्यागती है औरपार्वती के रूप में  पुनर्जन्म लेकर एक लंबी साधना के बाद शिव को पुनः प्राप्त करती है |
                              ऐसी कहनियाँ हमें सावधान करने के लिए होती है |जिंदगी में कभी भी अपने प्रिय,प्रेम और परमात्मा की परीक्षा लेने का विचार भी नहीं करना चाहिए |
                                    || हरिः शरणम् ||
 

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