Friday, January 24, 2014

अमृत-धारा |कबीर -३

                           कबीर ने प्रेम को जितना महत्त्व दिया उतना अन्य किसी को नहीं |प्रेम से आनंद की प्राप्ति होती है और मन की भटकन पर नियंत्रण पाया जा सकता है |मन के बारे में वे कहते हैं कि व्यक्ति का मन कभी भी किसी चीज से भरता नहीं है |यह संसार एक माया है और यह माया महाठगिनी है |इसने मन को ठग लिया है |"माया महाठगिनी हम जानि "|मन और माया का गठबंधन ही इस संसार में सभी समस्याओं के मूल में हैं |अतः कबीर मन-माया के सम्बन्ध में कहते हैं -
                                 माया मुई ना मन मुआ,मरि मरि गया शरीर |
                                  आशा,तृष्णा ना मरी,यूँ कह गया कबीर ||
              कबीर कहते हैं कि न तो माया मरती है और न ही मन मरता है |यह भौतिक शरीर ही बार बार मरता है |माया से मन कभी भी नहीं भरता है लेकिन एक निश्चित अवधि के बाद शरीर जीर्ण-शीर्ण होजाता है जिसके कारण मन की कई इच्छाओं का पूर्ण होना संभव नहीं हो पाता |इस कारण से मन मरता नहीं है परन्तु शरीर को मरना पड़ता है |मन में माया के प्रति जो तृष्णा और आकांक्षाएं होती है वे मन के साथ रहती ही है |शरीर के मरने पर मन आत्मा के साथ शरीर छोड़कर नए शरीर को तलाश करता है जिससे अधूरी कामनाये पूरी हो सके |
                                         मनवा तो पंछी भया,उड़कर चला आकाश |
                                         ऊपर से ही गिर पड़ा,मोह- माया के पाश ||
                          शरीर के मर जाने पर मन एक पक्षी की तरह आत्मा के साथ शून्य में चला जाता है और जब उसे अपनी कामनाये पूरी करने हेतु नया शरीर उपलब्ध होता है तब उस नए शरीर में आकर वह पुनः मोह-माया के पाश में बंध जाता है |यह प्रत्येक शरीर दर शरीर चक्र चलता रहता है |इस चक्र से छुटकारा पाने का उपाय बतलाते हुए कबीर कहते हैं-
                                    मन के मते ना चालिए,मन के मते अनेक |
                                     जो मन पर असवार हो,है साधू कोई एक ||
                         मन तो माया के पाश में बंधा होने के कारण नयी नयी आकंक्षों को पैदा करता रहता है |मन का मत आपको भटका सकता है |इसलिए मन पर आप सवार हो जाइये यानि मन पर अपना नियंत्रण रखें न कि मन आपको अपने नियंत्रण में रखे |परन्तु ऐसा करना बड़ा ही मुश्किल है |जो मन को अपने नियंत्रण में रखता है वही व्यक्ति साधू कहलाने का सच्चा अधिकारी होता है |
                           || हरिः शरणम् ||

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