Friday, January 31, 2014

अमृत-धारा |रहीम-३

                           भक्ति और प्रेम कोई अलग अलग नहीं है |जितने भी भक्ति-रस के काव्य हैं ,उनमे प्रेम को प्रमुखता सदैव ही मिली है |आप मीरा का काव्य देख लें चाहे कबीर का ,रसखान का देख लें या सूरदास का |सभी ने प्रेम को परमात्मा के समकक्ष माना है |इससे रहीम भी अछूते नहीं रहे |रहीम का जिक्र हो और उनके प्रेम से सम्बंधित काव्य की चर्चा नहीं हो तो यह उनके साथ अन्याय होगा |प्रेम से सम्बंधित उनके कुछ दोहों ने मुझे प्रभावित किया है |वे ऐसी रचनाएँ है जो प्रेम करने वालों को अपने ह्रदय तक पहुंचती महसूस होती है |यही रहीम की विशेषता है |
                                               कहाँ करों बैंकुठ ले,कल्पवृक्ष की छाँह |
                                           रहिमन ढाक सुहावनो,जो गल प्रीतम बाँह ||
                       रहीम कहते हैं कि अगर परमात्मा  मेरी भक्ति से प्रसन्न हो जाता है और मुझे बैंकुठ में आने के लिए कहता है,तो मैं उसे कदापि स्वीकार नहीं करूँगा |बैंकुठ वह स्थान है जहाँ परमात्मा स्वयं निवास करते हैं |यह एक स्थान है जहाँ कोई दुःख नहीं है,किसी प्रकार की कुंठा नहीं है ,चारों ओर आनंद ही आनंद बरसता है |रहीम परमात्मा के इस सर्वोत्तम प्रस्ताव को ठुकरा देते हैं |कहा जाता है कि बैकुंठ में कल्पवृक्ष है |उसकी छांह में बैठकर व्यक्ति जिस किसी की भी कल्पना करता है,वह वस्तु उसे तुरंत बिना किसी परिश्रम के उपलब्ध हो जाती है |रहीम कहते हैं कि मैं बैंकुठ और कल्पवृक्ष की छांह लेकर भी क्या करूँगा ?मेरे को तो किसी भी वस्तु की चाह है ही नहीं |मैं तो सिर्फ प्रेम चाहता हूँ |मेरे गले में अगर मेरे प्रीतम की बांह हो तो छोटा सा पौधा ढाक यानि बेर का पौधा भी मुझे सुहावना प्रतीत होगा |बेर की झाड़ी होती है ,देखने में बिलकुल भी सुन्दर नहीं होती है और काँटों से भरी भी होती है |नीचे बैठने की जगह भी नहीं होती क्योंकि उसकी डालियाँ जमीन तक झुकी होती है |एक कहावत है न कि "ढाक के तीन पात" |इतना छोटा सा ,काँटों युक्त बेर का पौधा भी रहीम को सुन्दर लगेगा अगर उसके गले में अपने प्रीतम की बांह होगी |
                                                  यह न रहीम सराहिये,लन -देन की प्रीति |
                                                    प्रानन बाजी राखिये,हार होय के जीति ||
                                यह जो प्रेम के नाम पर लेना-देना चल रहा है,उसकी कभी भी सराहना मत करो |रहीम प्रेम में ऐसे लेन-देन को महत्वहीन करार देते हैं |वे कहते हैं कि अगर कुछ लेना देना करना ही है तो अपने प्राण को दांव पर लगाइए |यह बिलकुल भी नहीं सोचना कि आपके इस दांव में आपकी जीत होगी या हार |प्रेम करने वाले हार-जीत की परवाह बिलकुल भी नहीं करते हैं |प्राण की बाज़ी लगाकर ही प्रेम प्राप्त कर सकते हो |बिना प्रेम के परमात्मा कहाँ ?प्रेम में तो स्वयं को ही मिटना होता है |
                                          रहिमन मैन तुरंग चढ़ी,चलिबो पावक मांही |
                                         प्रेम-पंथ ऐसो कठिन , सब कोऊ निबहत नांही ||
                                बड़ा ही सुन्दर दोहा कहा है ,रहीम ने |प्रेम के रास्ते पर चलना आसन कहीं से भी नहीं है |इस पर हर कोई नहीं चल सकता |और अगर कोई चलना शुरू भी करता है तो गंतव्य तक पहुँचना मुश्किल है |"रहिमन मैन तुरंग चढ़ी "-मैन कहते हैं मोम को और तुरंग कहते हैं घोड़े को |अगर कोई व्यक्ति मोम के घोड़े पर चढ कर आग लगे रास्ते पर चलना चाहे तो क्या वह उस रास्ते से पार जा सकेगा ?  बहुत ही मुश्किल है,ऐसे अग्नियुक्त रास्ते पर मोम के  घोड़े पर बैठकर चलना |मोम स्वयं ज्वलनशील है,वह आग को और अधिक तेज कर देता है |जिस कारण से व्यक्ति का भभकती आग से बाहर निकलना ही दुष्कर हो जाता है,पार होना तो अति कठिन है | प्रेम के रास्ते पर भी चलना इसी प्रकार से चलने के समान है |प्रेम करके उसे निबाहना ,उसको ऊंचाई तक ले जाना बहुत ही मुश्किल है |इसी लिए रहीम ने प्रेम-पथ को सबसे कठिन पथ बताया है |
                                         रहिमन प्रीती सराहिये,मिले होत रंग दून |
                                         ज्यों जरदी हरदी तजै,तजै सफेदी चून ||
                              अंत में रहीम कहते है कि प्रेम वही सराहा जाता है,उसी प्रेम की प्रशंसा की जाती है जिसमे दोनों प्रेमी मिलकर एक हो जाते हैं |दोनों के ही रंग मिलकर एक दूसरे में समाकर दुगुने हो जाते हैं |"मिले होत रंग दून "-दोनों एकाकार होकर भी अपने अपने अनुसार दुगुने महसूस करते हैं |दोनों ही अपना स्वभाव छोड़ देते हैं |फिर जो स्वभाव पैदा होता है ,वह पहले से ही कही ज्यादा बेहतर होता है |रहीम ने इसको बड़ी ही शानदार उपमा दी है |
                   "ज्यों जरदी हरदी तजै,तजै सफेदी चून"|जो लोग अंडे का सेवन करते हैं वो जानते हैं कि अंडे को फोड़ने पर अंदर सफ़ेद हिस्से का एक आवरण होता है जो पीले रंग के yolk sac को घेरे रहता है |अंडे के इस भीतरी पीले भाग को रंग के कारण जरदी कहा जाता है |जरदी का अर्थ होता है-पीला रंग |हल्दी को पानी में घोला जाये तो उसका रंग पीला होता है और चूने का घोल सफ़ेद रंग का होता है |अगर दोनों के घोल को मिलाया जाये तो जो मिश्रण बनता है वह लाल रंग का होता है |कभी सब्जी खाते समय कपड़ों पर गिर जाती है तो पीला सा एक दाग कपड़ों पर लग जाता है ,यह रंग सब्जी में डाली हुई हल्दी के कारण होता है |जब उस दाग को साबुन से धोने का प्रयास करते हैं तो पहले वह सुर्ख लाल रंग में परिवर्तित होता है |ऐसा साबुन में उपस्थित चूने के कारण होता है |रहीम कहते है कि दो प्रेमी जब एकाकार होते हैं तब भी ऐसा ही होता है |जैसे हल्दी और चूने के घोल के मिलाने से होता है |मिलाते ही हल्दी अपना पीला रंग और चूना अपना सफ़ेद रंग त्याग देते है और अधिक सुहावना रंग लाल में परिवर्तित हो जाते है |इसी प्रकार प्रेम में जब दोनों प्रेमी मिलते हैं तो दोनों को असीम आनंद की अनुभूति प्राप्त होती है |प्रेमी भक्त जब प्रेमवश परमात्मा का आलिंगन करता है तब भी ऐसा ही उसे अनुभव होता है |आखिर प्रेम ,परमात्मा का ही तो एक नाम है |
                                                     || हरिः शरणम् ||

Thursday, January 30, 2014

अमृत-धारा |कबीर-६

                               कबीर का प्रेम यहाँ पर आकर प्रार्थना बन जाता है |साधारण लोग शारीरिक आकर्षण को प्रेम का नाम दे देते हैं ,लेकिन यह सत्य नहीं है |प्रेम तो सबके लिए एक उपासना है |प्रेम को न तो किसी तराजू में तोला जा सकता है न ही किसी अन्य माप से मापा जा सकता है |न तो प्रेम समय के बंधन को मानता है और न ही किसी विशेष स्थान पर ही किया जा सकता है |प्रेम तो सतत और सनातन है |प्रेम है ,इसका अर्थ एक ही है कि प्रेम है |कम या अधिक नहीं |कबीर स्वयं कहते हैं-
                               प्रेम प्रेम कोई सब कहे,प्रेम ना बुझे कोय |
                               आठ पहर भीगा रहे ,प्रेम कहाए सोय ||
                चाह के मिटते ही मन का निर्मल हो जाना होता है |प्रेम का अर्थ एक ही है-मन में किसी भी प्रकार का मोह,ममता,इर्ष्या और कामनाओं का अभाव |ऐसे मन को साफ और स्वच्छ कहा जा सकता है |बिलकुल दूध की तरह पाक और साफ,बगुले की तरह बेदाग और सफ़ेद |कबीर का एक दोहा है ,जो इस बात का प्रमाण है कि निर्मल मन ही परमात्मा के साथ एकाकार हो सकता है |और निर्मल मन बिना प्रेम के उपलब्ध होना संभव नहीं है |कबीर कहते हैं-
                            उठा बगुला प्रेम का,तिनका चढा आकाश |
                          तिनका तिनके से मिला,तिन का तिन के पास ||
                   "उठा बगुला प्रेम का "-यह निर्मल मन एक बगुले के समान है जिसमें प्रेम के जागृत होते ही आत्मा एकदम से स्वतन्त्र हो जाती है | मन का निर्मल होना और आत्मा का स्वतन्त्र होजाना एक ही प्रक्रिया है |प्रेम के प्रादुर्भाव के साथ ही यह तिनके रुपी आत्मा एक दम हल्की होकर शून्य में उड़ चलती है |आत्मा के साथ जब मन का संयोग होता है तभी वह मन अपने भीतर छुपी कामनाओं की पूर्ति हेतु आत्मा को शरीर की मृत्यु होने के उपरांत नए शरीर में ले आता है |मन में प्रेम जागृत होते ही समस्त कामनाएं समाप्त हो जाती है,और ऐसी स्थिति में मन का आत्मा के साथ योग भी |यह तिनका (आत्मा)शून्य में जाकर तिनके (परमात्मा )से मिल जाती है -"तिनका तिनके से मिला "|आत्मा के परमात्मा से मिलन का अर्थ यही है कि जो जिसका अंश था वह उसके पास ही पहुँच गया |इस प्रकार कबीर अंत में कहते है कि यह आत्मा ,परमात्मा के पास पहुँच ही गयी |"तिन का तिन के पास "-अर्थात यह आत्मा जिसका अंश है उस परमात्मा के पास पहुँच ही गई |कबीर के अनुसार यह सब प्रेम के कारण ही संभव हुआ है |अतः सबसे प्रेम करते रहें यही कबीर का कहना है |कबीर के लिए सबसे प्रेम करना ही एक मात्र परमात्मा की प्रार्थना है |
                         || हरिः शरणम् ||  

Wednesday, January 29, 2014

अमृत-धारा |कबीर-५

                               कबीर एक ऐसा नाम है जिसको लेते ही व्यक्ति का मन प्रफुल्लित हो जाता है |कबीर की हर वाणी एक नए आयाम लिए हुए होती है |प्रेम की भाषा संसार को कबीर ने समझाई|कबीर ने प्रेम और परमात्मा के मध्य सीधा सम्बन्ध होना सिद्ध किया |प्रेम के बारे में कबीर ने जितनी खोज की,शायद ही अब तक किसी ने की होगी |प्रेम से इतर संसार में कोई वस्तु न तो थी और न ही कभी होगी |प्रेम से संसार में सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है,परमात्मा भी |प्रेम की अगर सबसे बड़ी विरोधी कोई है तो वह है व्यक्ति के मन की अनगिनत,कभी भी समाप्त न होने वाली इच्छाएं और कामनाएं|जहाँ किसी से भी हम कोई उम्मीद रखते हैं तो वहाँ प्रेम का स्वतः ही अभाव हो जाता है |व्यक्ति की वह इच्छा या चाह पूरी न होने तक उसका मन उद्विग्न रहता है |दिन रात उसे चिंता घेरे रहती है  |और यह चिंता उसे प्रेम और परमात्मा की तरफ जाने से रोकती है |कबीर कहते हैं-
                                              चाह मिटी चिंता मिटी ,मनवा बेपरवाह |
                                               जिसको कछु न चाहिए,वह है शंहंशाह ||
                जब व्यक्ति के मन की सभी चाह मिट जाती है तो उसकी समस्त चिंताएं स्वतः ही मिट जाती है |समस्त चिंताएं मिटते ही मन को किसी भी बात की परवाह नहीं रहती |ऐसे में मनुष्य अपने आपको दीन-हीन और असहाय समझना बंद कर देता है | यह एक राजा या शहंशाह की स्थिति है |
                 एक बार एक साधू  को एक रूपये का सिक्का कहीं पर पड़ा मिल गया |उस दिन के लिए उसकी दैनिक आवश्यकता की पूर्ति का इंतजाम हो चूका था | साधू पूरा अपरिग्रही था,एकत्रित करने में विश्वास नहीं रखता था | उसने सोचा कि यह सिक्का किसी जरूरतमंद को दे देना चाहिए |उसने एक भिखारी को देने की सोची |भिखारी ने यह कह कर लेने से इंकार कर दिया कि उसका भी आज की आवश्यकता पूरी हो चुकी है |साधू ने सोचा-यह सिक्का उस व्यक्ति को देना चाहिए जिसे उसकी अत्यधिक आवश्यकता हो |वह ऐसे ही किसी जरूरतमंद की तलाश करने लगा |वह एक बाज़ार से गुजर रहा था |उसने देखा कि राज्य के अफसर व्यापारियों से जबरन कर वसूल रहे है |साधू के दिमाग में एक विचार कौंधा और तुरंत राज दरबार में चला गया |उसने राजा को वह सिक्का भेंट करते हुए कहा कि मैं आपके राज्य में घूमता रहा ,यह सिक्का देने के लिए |परन्तु मुझे आपके सिवाय कोई अन्य व्यक्ति जरूरतमंद  नहीं मिला जिसे मैं यह सिक्का दे सकूँ |आपके पास अकूत दौलत होते हुए भी आप करों की वसूली कर रहे है |आप से अधिक गरीब इस राज्य में मिलना मुश्किल है |राजा ने यह सुनकर क्या किया और कहा होगा ,मैं नहीं जानता |परन्तु यह कहानी हमें बताती है कि दौलत पाकर ही कोई व्यक्ति बादशाह नहीं हो जाता |अगर बादशाहत ही चाहिए तो धन-दौलत और सभी चाह-इच्छाओं से ऊपर उठना होगा |
                                कबीर भी यही कहता है |चाह के मिटते ही मन की समस्त चिंताएं मिट जाती है ,मन निर्मल हो जाता है ,साफ हो जाता हो |निर्मल ह्रदय से ही प्रेम की खुशबू निकल सकती है |और प्रेम जहाँ है,परमात्मा वहाँ स्वतः ही है |
                               मन ऐसा निर्मल भया,जैसे गंगा नीर |
                               पाछे पाछे हरि फिरे,कहत कबीर कबीर ||  
     एक बार पुनः कबीर और प्रेम को नमन |
                                 || हरिः शरणम् ||  

Tuesday, January 28, 2014

अमृत-धारा |रहीम-२

                  रहीम ने समाज सुधार के लिए जितने प्रयास  किये ,प्रंशसनीय है |उस समय मुग़ल काल में इस्लाम कट्टरपंथ अपने चरम पर था |इन सब के बावजूद रहीम अपने प्रयास करते रहे और अपनी रचनाओं के माध्यम से जनता को शिक्षित करते रहे |उन्होंने इसके लिए कभी भी धर्म का सहारा नहीं लिया |उन्होंने उन बातों को आमजन तक उनकी भाषा में ही पहुँचाने का अनुकरणीय प्रयास किये |जिसका लाभ आज भी उन्हे पढकर उठाया जा सकता है |
                                सामाजिक स्तर पर सभी प्रकार के व्यक्तियों से आपका दिन-प्रतिदिन सामना होता रहता है |उनमे से कई उच्च स्तर के होते है,कई आपके समकक्ष होते है और कई निम्नतम स्तर के |आपको सबके साथ अपना तालमेल बैठाना पड़ता है |कई ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनके साथ आपका व्यवहार मित्रवत होता है |कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं ,जिनको आप पसंद नहीं करते हो और आप उनका सानिध्य भी पसंद न करते हो |आपको ऐसे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना है,यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है |उच्च स्तर के व्यक्ति तो आप कैसा भी व्यवहार करें ,आपके साथ कोई निम्न स्तर  की हरकत नहीं करेंगे |परन्तु निम्न स्तर के व्यक्तियों के साथ ऐसा नहीं है |इस बारे में रहीम कहते हैं -
                                              रहिमन औछे नरन सूं,बैर भलो ना प्रीत |
                                              काटे चाटे श्वान के ,दोऊ भांति विपरीत ||
                               रहीम कहना चाहते हैं कि जो हल्के स्तर के व्यक्ति होते है उनके साथ आपकी दुश्मनी  और दोस्ती दोनों ही प्रकार का व्यवहार अच्छा नहीं है |चूँकि ऐसे व्यक्ति कि मानसिकता ही सामने वाले के प्रति इतने निम्न स्तर की होती है कि ऐन केन प्रकारेण वह उस व्यक्ति को हानि पहुँचाने की ही सोचता रहेगा |रहीम ने ऐसे स्तर के लोगों की तुलना एक कुत्ते से की है |वे समझाते हैं कि जैसे अगर आप कुत्ते से प्रेम प्रदर्शन करते हैं तो वह आपको अपनी जीभ से चाटता है|और अगर आप उसको गुस्से में डाँटते है अथवा मारते है तो वह आपको  काट भी सकता है |कुत्ते की लार में पागलपन के विषाणु होते हैं |वह आपको चाहे चाटे अथवा आपको काटे,आपके शरीर में पागलपन के विषाणु छोड़ ही देता है |इससे आपको रेबीज नामक बीमारी हो सकती है जिसका अंत केवल मौत है |इस बीमारी का कोई ईलाज आज तक नहीं खोजा जा सका है |इसलिए कुत्ते से दूरी बनाये रखने में ही आपकी भलाई है |
                         लाइलाज बीमारी से बचाव के लिए जिस प्रकार आप एक कुत्ते से दूरी बनाये रखते हैं ,ठीक उसी प्रकार आपको निम्नतम स्तर के व्यक्तियों से दूरी बनाये रखनी होगी ,जिससे सामाजिक स्तर पर वह आपको कोई क्षति न पहुंचा सके |
                                 || हरिः शरणम् ||    

Sunday, January 26, 2014

अमृत-धारा |रहीम-१

                        रहीम ,जन्म से मुस्लिम ,परन्तु मन से सभी धर्मों को बराबर समझने वाले |कबीर की ही भांति आत्म निरीक्षण के समर्थक |परमात्मा को स्वयं से अलग न समझने वाले एक आदर्श "अद्वैतवादी"|काव्य ऐसा कि पढने वाले और सुननेवाले सोचने को मजबूर हो जाये | अपने दोहों से सबको हैरान कर देते है |कट्टर आलोचक भी उनकी इस विधा की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं |रहीम कहते हैं-  
                            बिंदु भी सिंधु समान,को अचरज कासों कहे |
                              हेरनहार  हैरान,  रहिमन  अपने  आपने ||
               "बिंदु भी सिंधु समान " अर्थात् पानी की एक छोटी सी बूँद, एक महासागर के समान है |दोनों में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं है |ऐसा होना अचरज की बात नहीं है तो क्या है ?और यह आश्चर्य भी ऐसा कि किसी से कैसे कहें?यह एक ऐसे अचरज की बात है कि अगर किसी को कहें भी तो वह विश्वास ही नहीं करेगा |वह यह सोचता ही रहेगा कि ऐसा होना कैसे संभव है ?और जब वह इस अचरज पर गहराई से विचार करेगा तो वास्तविकता जानकर वह भी हैरान रह जायेगा ,क्योंकि वह जान जायेगा कि यह सब सत्य है |
                 यहाँ पर बिंदु अर्थात् पानी की एक बूंद तो स्वयं है और परमात्मा समुद्र है |परमात्मा और मनुष्य में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है |परमात्मा अव्यक्त है और परमात्मा का व्यक्त स्वरूप ही व्यक्ति है |और ऐसा होना ही वास्तविकता में सत्य है |इसीलिए ऐसा जानकर ही मनुष्य आश्चर्य करता है कि परमात्मा उसके स्वयं के भीतर आत्मा के रूप में उपस्थित है |अचरज इस बात का होता है कि वह इतने दिनों तक यह सत्य क्यों कर समझ नहीं पाया ?"हेरनहार"अर्थात् इस सत्य को खोजने वाला भी इस सत्य को जानकर हैरान रह जाता है कि जिसको वह खोजने गया था ,वह तो उसके भीतर ही है |उसमे और परमात्मा में कोई भिन्नता है ही नहीं |इस को जानकर वह ऐसे अचरज की बात को किससे कहे?यही उसकी एक मात्र दुविधा है |
                    कबीर भी इसी बात को अलग अंदाज़ में कहते हैं-
                                                   हेरत हेरत हे सखी,रहा कबीर हेराय |
                                              बूँद समाई समुद्र में,अब कित हेरत जाय ||
                          कबीर कितनी मासूमियत के साथ कहते हैं कि हे मित्र,मैं भी ढूँढते ढूँढते अंत में  उसे खोज  कर और उसे जानकर हैरान रह गया कि यह बूंद (आत्मा)जब समुद्र (परमात्मा)में समा जाती है तब उसे ढूँढना बड़ा ही मुश्किल है |जब आत्मा का परमात्मा के साथ मिलन हो जाता है तब दोनों में अंतर करना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है कि कौन परमात्मा है और कौन आत्मा है?कहा जाता है कि जब कबीर ने यह जान लिया कि परमात्मा ही आत्मा के रूप में इस शरीर में विद्यमान है तब उसने दोहे में थोडा सा परिवर्तन करके कहा है-
                                                  हेरत हेरत हे सखी,रहा कबीर हेराय |
                                                 समुद्र समाया बूँद में ,अब कित हेरत जाय ||
                    यहाँ आकर कबीर और रहीम में कितनी समानता है,इसका पता चलता है |यही आध्यात्मिक व्यक्तित्व की पहचान है |
                                    || हरिः शरणम् ||
  

Saturday, January 25, 2014

अमृत-धारा |कबीर-४

                                        कबीर,भक्ति-युग का एक ऐसा नाम जिसने अंधविश्वासों पर इतनी चोट की ,जितनी समकालीन महापुरुषों में कम ही देखने को मिलती है |काशी के बारे में प्रसिद्ध है कि यहाँ बनारस में आकर जो व्यक्ति देह छोड़ता है ,उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है |पास ही में एक जगह है जिसका नाम है मगहर |कहा जाता है कि वहाँ रहते हुए जो भी मृत्यु को प्राप्त होता है उसकी मुक्ति नहीं होती है |अतः उस समय में मगहर में जो भी मरणासन्न होता था उसे घरवाले काशी लेकर आ जाते थे और उसको मृत्युपर्यंत वहीँ रखते थे |यह एक उस समय का बहुत बड़ा अन्धविश्वास था | कबीर काशी में रहते थे |परन्तु जब उनका देह छोड़ने का समय आया तो उन्होंने अपने घरवालों को कहा कि वे उन्हें मगहर ले चले |ऐसे थे कबीर | मृत्युपर्यंत वे इसी प्रकार अंधविश्वासों पर करारे प्रहार करते रहे |
                            वे अंधविश्वासों के मुखर विरोधी जरूर थे,परन्तु कभी भी उन्होंने व्यक्ति विशेष का विरोध नहीं किया |किसी की भी आलोचना करने के विषय में उनका कहना है कि -
                           कबीरा तेरी झोंपड़ी ,गलकटीयन के पास |
                          जो करेगा वो भरेगा ,तूँ क्यों भया उदास ??
                      कनीर कहते हैं कि अगर तुम्हारा निवास स्थान कसाइयों के मोहल्ले में है ,तो तूँ उनके भविष्य की चिंता में उदास क्यूँ है?वे चाहे कितनी ही निर्दयता के साथ पशुवध कर रहे हो,तुम्हे उसकी आलोचना नहीं करनी चाहिए |इस संसार का यह नियम है कि सबको अपने किये का फल अवश्य मिलता है |इस प्रकार इनको भी अपनी करनी का फल अवश्य ही मिलेगा ,इसके बारे में आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है |आलोचना सबसे बुरी होती है |आलोचना करके आप भी अपना भविष्य बिगाड लेंगे |स्वामी रामसुखदासजी महाराज भी आलोचना के विषय में एक दोहा सुनाया करते थे-
                                    तेरे भावे जो करे,भलो बुरो सरकार |
                                    नारायण तूँ बैठकर ,अपनों भवन बुहार ||
                    एक बार खलीफा जल्द सुबह सहर की नमाज़ अता करने मस्जिद जा रहा था |साथ में उसका बेटा भी था |सर्दियों के दिन थे |सर्दियों में सहर की नमाज़ के लिए अजान अँधेरे अँधेरे हो जाती है |खलीफा और उसका बेटा मस्जिद की तरफ बढ़ रहे थे |बेटे ने देखा कि रास्ते में पड़ने वाले सभी घरों के लोग सो रहे हैं |बेटा अपने पिता से कहता है कि अब्बुजान ये लोग कितने आलसी है ,सुबह उठकर खुदा को याद भी नहीं करते है |इनको जन्नत कैसे नसीब होगी?इनको अवश्य ही दोज़ख जाना होगा |खलीफा अपने बेटे को कहता है कि बेटे,इन्हें जन्नत नसीब होगी या नहीं ,कह नहीं सकता,परन्तु तुम्हे तो अवश्य ही नहीं होगी |इनकी आलोचना करने से बेहतर था कि तुम भी नमाज़ अता करने नहीं आते |इस कहानी का अर्थ यही है कि सदैव किसी भी प्रकार की आलोचना करने से दूर रहे|कबीर भी यही कहते हैं |आलोचना करे नहीं,सिर्फ उन लोगों को अपने पास रखे जो आपके आलोचक हों |वो आपकी मानसिकता में निरंतर सुधार अवश्य करते रहेंगे |
                                     निंदक नियरे राखिये,आँगन कुटी छुवाय |
                                     बिन पानी साबुन बिना ,निर्मल करे सुभाय ||
                      अपने निंदक को सदैव धन्यवाद ज्ञापित करें |वही एकमात्र वक्ति है जो आपको आत्मविश्लेषण के लिए विवश करता है,जिससे आपकी कमियां दूर हो जाती है |धन्य है कबीर |
                                        || हरिः शरणम् || 

Friday, January 24, 2014

अमृत-धारा |कबीर -३

                           कबीर ने प्रेम को जितना महत्त्व दिया उतना अन्य किसी को नहीं |प्रेम से आनंद की प्राप्ति होती है और मन की भटकन पर नियंत्रण पाया जा सकता है |मन के बारे में वे कहते हैं कि व्यक्ति का मन कभी भी किसी चीज से भरता नहीं है |यह संसार एक माया है और यह माया महाठगिनी है |इसने मन को ठग लिया है |"माया महाठगिनी हम जानि "|मन और माया का गठबंधन ही इस संसार में सभी समस्याओं के मूल में हैं |अतः कबीर मन-माया के सम्बन्ध में कहते हैं -
                                 माया मुई ना मन मुआ,मरि मरि गया शरीर |
                                  आशा,तृष्णा ना मरी,यूँ कह गया कबीर ||
              कबीर कहते हैं कि न तो माया मरती है और न ही मन मरता है |यह भौतिक शरीर ही बार बार मरता है |माया से मन कभी भी नहीं भरता है लेकिन एक निश्चित अवधि के बाद शरीर जीर्ण-शीर्ण होजाता है जिसके कारण मन की कई इच्छाओं का पूर्ण होना संभव नहीं हो पाता |इस कारण से मन मरता नहीं है परन्तु शरीर को मरना पड़ता है |मन में माया के प्रति जो तृष्णा और आकांक्षाएं होती है वे मन के साथ रहती ही है |शरीर के मरने पर मन आत्मा के साथ शरीर छोड़कर नए शरीर को तलाश करता है जिससे अधूरी कामनाये पूरी हो सके |
                                         मनवा तो पंछी भया,उड़कर चला आकाश |
                                         ऊपर से ही गिर पड़ा,मोह- माया के पाश ||
                          शरीर के मर जाने पर मन एक पक्षी की तरह आत्मा के साथ शून्य में चला जाता है और जब उसे अपनी कामनाये पूरी करने हेतु नया शरीर उपलब्ध होता है तब उस नए शरीर में आकर वह पुनः मोह-माया के पाश में बंध जाता है |यह प्रत्येक शरीर दर शरीर चक्र चलता रहता है |इस चक्र से छुटकारा पाने का उपाय बतलाते हुए कबीर कहते हैं-
                                    मन के मते ना चालिए,मन के मते अनेक |
                                     जो मन पर असवार हो,है साधू कोई एक ||
                         मन तो माया के पाश में बंधा होने के कारण नयी नयी आकंक्षों को पैदा करता रहता है |मन का मत आपको भटका सकता है |इसलिए मन पर आप सवार हो जाइये यानि मन पर अपना नियंत्रण रखें न कि मन आपको अपने नियंत्रण में रखे |परन्तु ऐसा करना बड़ा ही मुश्किल है |जो मन को अपने नियंत्रण में रखता है वही व्यक्ति साधू कहलाने का सच्चा अधिकारी होता है |
                           || हरिः शरणम् ||

Thursday, January 23, 2014

अमृत-धारा |-गोरख-४

                               गोरख की वाणी,क्या कहूँ?वास्तव में गूंगे की शक्कर ही है |आम आदमी की समझ में कितना आएगी,कह न सकूंगा |ऐसी गंभीरता से गोरख ने कहा है कि सतही तौर से पढने पर छाछ ही छाछ नज़र आती है |परन्तु मथने पर ही मक्खन निथर आता है |तभी आपको आश्चर्य होता है कि कितना गूढ़ रहस्य छुपा है-इस गोरख -वाणी में |मुझे अब जाकर पता चला है कि गोरख धंधा किसे कहते हैं |लोग इस "गोरख धंधा "शब्द को क्यों इस्तेमाल करते हैं ?वह कार्य जो करते हुए देखने पर समझ में कुछ  आये और करने का मंतव्य  कुछ और ही हो,उसे गोरख-धंधा कहते हैं|यही बात "गोरख-वाणी" में है |कहते साधारण तौर से है परन्तु मंतव्य बड़ा ही गूढ़ होता है |आज एक अन्य वाणी पर मंथन करते हैं-
                           "जल बिच कमल,कमल बिच कलियाँ भंवर वास न लेता है |
                             पांचू  चेला  फिरे  अकेला ,अलख  अलख  जोगी  करता है ||
                             सुन्न  हर शहर,शहर  घर बस्ती ,कुण  सोवै  कुण जागे है |
                             साध  हमारे , हम   साधन  के , तन   सोवै , ब्रह्म  जागे  है ||"
                  " जल बिच कमल,कमल बिच कलियाँ भंवर वास न लेता है" |आपने कमल का पुष्प देखा होगा,वह गंदे जल में यानि कीचड में पैदा होता है |कमल के पुष्प में कलियाँ होती है और इन कलियों पर भँवरा घूमता रहता है ,उनकी तरफ आकर्षित होकर |वह उनका रसपान करता है ,परन्तु उस पुष्प में वह कभी भी वास नहीं करता है,उस फूल को कभी भी अपना निवास स्थान नहीं बनाता है |यह वास्तविकता है |आप अगर गौर से देखेंगे तो ऐसा ही पाएंगे |गोरख यहाँ कहता है कि यह संसार एक गंदे जल के समान है जहाँ पर आपका यह भौतिक शरीर उस जल में कमल-पुष्प के समान है |इस पुष्प रूपी शरीर में पाँचों इन्द्रियां कलियाँ  है | इन कलियों यानि इन्द्रियों से रसपान भँवरा यानि आपकी आत्मा करती है |और इस भँवरे यानि आत्मा का स्थाई निवास यह पुष्प यानि भौतिक शरीर नहीं है |आत्मा बार बार नए नए शरीर में घूमती रहती है जैसे कि भँवरा नए नए फूलों पर घूमता रहता है |यह वास्तविकता है और सत्य भी |यह इन्द्रियां मन से नियंत्रित होती है |और मन ही आत्मा को रस प्रदान करता है |आत्मा इस रस के वशीभूत होकर मन के साथ योग कर शरीर दर शरीर भटकती है |परन्तु यह शरीर मूलतः उसका निवास स्थान नहीं है |
                        कई टीकाकार पांच चेले ,पांच तत्वों को बताते हैं ,जिनसे यह शरीर बना है |यथा-भूमि,जल,अग्नि,आकाश और वायु |शरीर में पांच इन्द्रियां भी इन पाँचों  तत्वों का ही प्रतिनिधित्व करती है |जैसे आकाश से श्रवनेंद्रिय ,वायु से त्वचा,अग्नि से नेत्र,जल से स्वादेंद्रिय तथा पृथ्वी से घ्रानेंद्रिय का विकास हुआ है |  अतः मेरे अनुसार ये पांच चेले अपनी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ ही है |    
                        "पांचू  चेला  फिरे  अकेला ,अलख  अलख  जोगी  करता है " ये पाँचों इन्द्रियां जिनका मन एक मात्र गुरु है ,वे सब अकेले घूमती है अर्थात कुछ भी नहीं कर पाती है |क्योंकि बिना आत्मा के ये पाँचों कुछ भी नहीं कर पाती है |अलख शब्द गोरख का बहुत ही प्रिय शब्द है |गोरख ने इस शब्द का अपनी रचनाओं में बड़ी उदारता के साथ प्रयोग किया है |अलख का अर्थ होता है अदृश्य यानि INVISIBLE अर्थात अव्यक्त |जो अपने आपमें व्यक्त नहीं है,अदृश्य है |"अलख अलख जोगी करता है "इसका भावार्थ यही है की सिद्ध पुरुष ने मक्खन निकाल कर जान लिया है कि वह जो है वह अदृश्य ही है ,अलख ही है |और जब आप ने उस अलख को जान लिया ,समझ लिया तो इस गुरु "मन"के ये पाँचों चेले यानि इन्द्रियाँ उस जोगी,उस सिद्ध पुरुष को भ्रमित नहीं कर पाएंगे और ऐसे पाँचों इन्द्रियां अलग थलग पड जायेगी और जोगी तो केवल अलख अलख ही करेगा क्योंकि वह सत्य जान चूका है |
                       "सुन्न हर शहर,शहर ,घर,बस्ती,कुण सोवै कुण जागे है"|इसका अर्थ यह है कि जब आप उस अदृश्य को जान लेते है,अपनी आत्मा को जान जाते है और परमात्मा को पहचान जाते हैं तब आपके लिए यह शहर,यह बस्ती और यह घर सब शून्य हो जाते है अर्थात उनका आपके जीवन में कोई महत्व नहीं रहता है |आप यह भी नहीं जानते कि यहाँ कौन सो रहा है और कौन जाग रहा है ?कौन परमात्मा के मार्ग पर चल रहा है और कौन संसार में खोया हुआ है ?जोगी तो केवल परमात्मा में ही खोया रहता है |उसको इन सब से कोई मतलब नहीं रहता है |
               और अंत में गोरख कहता है कि " साध  हमारे , हम   साधन  के , तन   सोवै , ब्रह्म  जागे  है"|गोरख के अनुसार जोगी को संसार में और संसार में रहने वालों से कोई मतलब नहीं रहता है |फिर भी गोरख चेतावनी देता है और  कहता है  कि साध्य हमारे है  और साध्य है-परमात्मा |साध्य यानि परमात्मा हमें अपना कहते है ,साध्य हमारे है जबकि हम अपने आपको साधन यानि शरीर के समझते हैं |शरीर एक साधन है-परमात्मा को पाने का |बिना मानव शरीर के परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता |यहाँ पर यह शरीर ही सोता है और यह शरीर संसार का है |इस शरीर में जो ब्रह्म है वह है परमात्मा यानि हमारी आत्मा ,वह सदैव जागती रहती है |
      अब एक बार फिर पढ़िए ,गोरख की इस वाणी को|कितनी भाव-प्रधान है यह वाणी |
                             "जल बिच कमल,कमल बिच कलियाँ भंवर वास न लेता है |
                             पांचू  चेला  फिरे  अकेला ,अलख  अलख  जोगी  करता है ||
                             सुन्न  हर शहर,शहर  घर बस्ती ,कुण  सोवै  कुण जागे है |
                             साध  हमारे , हम   साधन  के , तन   सोवै , ब्रह्म  जागे  है ||"
                                                || हरिः शरणम् ||

Wednesday, January 22, 2014

अमृत-धारा |गोरख-३

                                गोरख ने अपने जीवन में जो जो अनुभव किया उसे बड़े ही शालीन तरीके से अपनी ही भाषा में प्रस्तुत किया है |मानव जीवन में व्यक्ति अपना स्वभाव छोड़ कर ऐसा जीवन जी रहा है कि कई बार इतनी मुश्किल हो जाती है कि वह स्वयं भी अपनी वास्तविकता को भूल बैठता है |गोरख ऐसे लोगों को अपनी आवाज से आगाह करता है ,कहता है -
                          हबकि न बोलिबा,ठबकि न चालिबा,धीरे धरिबा पांव |
                          गरब न करिबा,सहजै रहिबा,भणत गोरष रावं ||
                          नाथ कहै तुम आप राखो,हठ करि बाद न करणा |
                          यहु जग है कांटे की बाड़ी,देखि देखि पग धरणा ||
                  "हबकि न बोलना "-जब भी कुछ कहना हो ,किसी को भी प्रत्युतर देना हो तो आप अचानक ही बोल उठते हो |आपका यह प्रत्युतर एक सोये हुए व्यक्ति का उत्तर है |जब भी आप अचानक बोल उठते हो ,इसका अर्थ मात्र यही है कि आप पहले से ही ऐसे उत्तरों को मन में जमाए बैठे हो |तुरंत जवाब न दो,इसका अर्थ कभी भी यह नहीं है कि आप प्रश्न पर विचार  करके उत्तर दो |विचार तो व्यक्ति की मानसिकता की एक चाल है |विचार करके उत्तर देना ,तत्काल उत्तर देने से भी निम्न स्तर का है |हबकि न बोलिबा मतलब निर्विचार होकर बोलना |जब आप निर्विचार की अवस्था को प्राप्त हो जाते हो ,तब आप कुछ गलत बोल ही नहीं सकते | आपके मन में कोई उत्तर न तो पहले से होता है ,न आप विचार करके बोलते हो बल्कि जो भी निर्विचार अवस्था में रहकर बोलते हो वह सदैव ही प्रिय और सत्य  होता है |"धीरे धरिबा पांव"-चलना आपका ऐसा होना चाहिए कि किसी को भी पता न चले|एक दम साधारण तरीके से |कभी आपने अपनी चाल पर गौर किया है ?जब आप अपने कार्यालय जाते हो तो आपकी चाल अलग तरह की होती है और जब घर लौटते हो तो बिलकुल अलग |गोरख कहता है ,आपकी चाल सामान्य होनी चाहिए |जब आप गुस्से में होते हो तब आप अपने  पाँव गुस्से में जमीन पर पटकते हुए चलते हो |आपकी मानसिक स्थिति का अनुमान आपके चलने के तरीके से लगाया जा सकता है |आपका पाँव रखने का तरीका शालीन और नियंत्रित होना चाहिए |
                               " गरब न करिबा,सहजै रहिबा,भणत गोरख राव "-गोरख कहता है कि अभिमान कभी भी न करें,अहंकार से सदैव दूर रहे|सहज रहना ही आपकी सही पहचान है |आज के समय में हम अपना रहने का तरीका बार बार बदलते हैं |एक के सामने हम सामान्य व्यव्हार करते हैं और तत्काल बाद किसी अन्य के साथ हमारा व्यवहार एक दम विपरीत हो जाता है|यह सहज अवस्था नहीं है |
                          नाथ कहै तुम आप राखो,हठ करि बाद न करणा |
                          यहु जग है कांटे की बाड़ी,देखि देखि पग धरणा ||
             गोरख कहते हैं कि कभी भी आप आपा न खोना अर्थात स्वयं पर नियंत्रण रखना |एक बात पर अडिग रहते हुए जिद्द मत करना |यह संसार एक ऐसी बाड़ी है जिसमे चारों और कांटे ही कांटे बिखरे पड़े हैं |यहाँ स्वयं को बचाते हुए चलना चाहिए ,अन्यथा काँटों में उलझने का खतरा है | इसलिए अपनी आँखे खोलकर पाँव धरें अर्थात ज्ञान का समुचित उपयोग करते हुए अपना जीवन जीयें |
                                   || हरिः शरणम् ||

Tuesday, January 21, 2014

अमृत-धारा |कबीर -२

                 कबीर ,भक्ति-काल के एक मात्र ऐसे संत है जो पूर्णतया किसी धर्म या सम्प्रदाय से सम्बंधित नहीं रहे |वे किस के घर पैदा हुए,किस व्यक्ति ने उनका पालन-पोषण किया ,कुछ भी स्पष्ट नहीं,केवल अनुमान है |जब उन्होंने होश सम्भाला तो अपने आप को एक जुलाहे के घर पाया,जो न तो सम्प्रदाय के बारे में कुछ जानता था और न ही किसी धर्म के बारे में |यही कारण है कि कबीर ने इतने उन्मुक्त भाव से प्रत्येक धर्म की कुरीतियों और अंधविश्वासों पर अपनी काव्य विधा के माध्यम से जमकर प्रहार किये |वे किसी देवी-देवता या पैगम्बर को मानने के स्थान पर सब लोगों से प्रेम करने की बात को ज्यादा महत्त्व देते हैं | वे पूजा-पाठ को आडम्बर की उपमा देते हैं |स्वयं के भीतर झांकने पर ही परमात्म-दर्शन होने का पक्का वादा करते हैं |कबीर ने ही प्रेम को परमात्मा के साथ जोड़ा और अंत तक इसी बात पर अडिग भी रहे |
                     कबीर कहते हैं कि-
                                     सुन्न मरे,अजपा मरे,अनहद ही मर जाय |
                                     राम स्नेही   ना मरे,कहत  कबीर  बुझाय ||
                          सुन्न मरे-अर्थात जिसने परमात्म तत्व को अदृश्य माना है,निराकार माना है ,शून्य माना है ,वह भी एक दिन मरता है |जो परमात्मा को "अजपा"मानता है ,वह भी एक दिन मरेगा और इसी प्रकार जो परमात्मा को "अनंत "कहता है ,परमात्मा को असीम मानता है ,उसका भी एक दिन मरना निश्चित है |लेकिन जो परमात्मा से प्रेम करता है वह कभी भी नहीं मरता है ,ऐसा कबीर का मानना है |आप चाहे परमात्मा को "शून्य"मानो,"अनहद" कहो और चाहे उसे "अजपा "कहो,प्रत्येक परिस्थिति में आप "द्वैत" को मानते हो |अर्थात आप और परमात्मा दो अलग अलग हैं |केवल परमात्मा ही एक ऐसी शक्ति है जो अजर और अमर है |शेष सभी मरण धर्मा है |अगर आप स्वयं को परमात्मा से अलग समझते हो तो फिर आपका ही मरना निश्चित है क्योंकि परमात्मा तो कभी भी मरते नहीं है |लेकिन जो परमात्मा को प्रेम करता है ,वह स्वयं को परमात्मा से अलग समझ ही नहीं सकता |जिससे आप प्रेम करते है ,फिर आप सवयं ही वही हो जाते हो |परमात्मा से प्रेम करने पर आप खुद को परमात्मा में विलीन कर देते हो |परमात्मा अजर-अमर है |परमात्मा कभी भी मरते नहीं है |ऐसे में परमात्मा को प्रेम करने वाला कैसे मर सकता है ?वह और परमात्मा तो एक हो गए है |इसीलिए कबीर सबको यही बात समझाते हैं कि "राम स्नेही ना मरे "|
                            कबीर का इतना कहना ही सभी धर्मों में फैलते जा रहे आडम्बरों पर करारी चोट करता है |प्रेम को सभी धर्म और सम्प्रदाय उच्च स्थान देते हैं ,परन्तु जब प्रेम का स्थान आडम्बर ले लेते है तब उन आडम्बरों के बारे में आमजन को आगाह करने के लिए कबीर का जन्म होता है |
                                            || हरिः शरणम् ||

Monday, January 20, 2014

प्रार्थना |

                                        कई बार ऐसी विपरीत परिस्थितियों का हमें सामना करना पड़ता है जो हमारे जीवन को इतना दुखी बना देती है कि हम अपने आपको निराश और असहाय पाते हैं |ऐसी परिस्थिति में केवल दो ही बातें सोचनी चाहिए |एक -आज जो भी परिस्थितियां बनी है उसके लिए हम स्वयं ही उत्तरदाई हैं क्योंकि व्यक्ति खुद ही अपना भाग्य विधाता है |गीता स्पष्ट करती है कि आप स्वयं ही अपने मित्र हो और स्वयं ही शत्रु |ऐसी परिस्थिति में किसी को दोष देना उचित नहीं है |दो-परमपिता परमात्मा सदैव आपके साथ है |चाहे कितने ही आपके रिश्तेदार और संगी-साथी आपसे दूर हो गए हों,परमात्मा तो आपके साथ सदैव रहेंगे|वही आपके सच्चे साथी और मार्गदर्शक हैं |
                                  परमात्मा हमारे अंतर्मन को सहस प्रदान करते है,जिसके कारण हम विपरीत परिस्थितियों का डटकर मुकाबला कर सकते हैं |परमात्मा हमें सच की राह पर चलना और झूठ का तिरस्कार करना सिखाता है |यह एक बड़ी विडंबना है कि हम गलत को गलत बताने से भी डरने लगे हैं |हम भीतर से जानते हैं कि गलत है फिर भी सब लोगों की हाँ में हाँ मिलाने की हमारी आदत बनती जा रही है |हम अपने मन को बार बार मारते है और स्वार्थ वश या किसी मजबूरी में गलत को स्वीकार करते हुए उस पर सहमत हो जाते हैं |
                                     इस दुष्चक्र से बाहर निकलने ने के लिए हमें प्रार्थना की आवश्यकता होती है |प्रार्थना में शक्ति होती है ,वह हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाती है |असफलता से सफलता की ओर अग्रसर करती है |ज्यों ही हम प्रभु से प्रार्थना करते हैं ,परमात्मा हमारी तरफ उन्मुख होते है |और उनकी सहायता का अदृश्य हाथ हमारी तरफ बढ़ता है |हमारे भीतर एक नए साहस का संचार होता है और निराशा का भाव जाने लगता है |हम प्रसन्न रहने लगते है और सुकार्य में हमारा मन लगने लगता है |हमारी सहायता के लिए परमात्मा किसी न किसी के ह्रदय में हमारे प्रति सद्भाव पैदा करता है |हमें उसकी सहायता भी उपलब्ध हो सकती है |अब हमारी विपरीत परिस्थितियों में परिवर्तन आने लगता है और हम सफलता की तरफ बढ़ने लगते है |हम हारी हुई बाजी जीतने लगते हैं |
                                     प्रार्थना के लिए आवश्यक है कि आपका कार्य सुकार्य हो और समाज के हित में हो |आपका मन प्रार्थना में इधर उधर न भटके,आप एकाग्रचित्त होकर प्रार्थना करें |अपने आप को परमात्मा को समर्पित करदे |प्रार्थना में बड़ी शक्ति है,मन से प्रभु को यही कहे कि यह कार्य मेरा नहीं है,तुम्हारा है ,मेरे हित में जो हो वह करने की कृपा करे और हे प्रभु!मैं जानता हूँ कि आप मेरा कभी भी अहित नहीं होने देंगे |गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस में स्पष्ट कहा है कि -
                            जेहि पर कृपा करिही जनु जानी |कबि उर अजिर नचावहिं बानी ||
                             मोरे हित हरि सम नहीं कोऊ |एहि अवसर सहाय सोही होऊ ||
                             मोरि सुधारिहीं सो सब भांती |जासु कृपा नहीं कृपा अघाती ||
       सचमुच परमात्मा से प्रार्थना ऐसी ही होनी चाहिए |
                              || हरिः शरणम् ||

Sunday, January 19, 2014

अमृत-धारा |कबीर -१

                                            कबीर ,एक ऐसा व्यक्तित्व जिसके बारे में कुछ भी बोलना सूर्य को दीपक दिखाने के समान ही होगा |उनका उस समय में आगमन हुआ जब मुग़ल काल में कट्टरता अपने चरम पर थी |इसके बावजूद भी कबीर ने कट्टरपंथ पर निर्ममतापूर्वक प्रहार किये|आज के समय में अगर कबीर होते और इस प्रकार से अंधविश्वासों और कट्टरता पर काव्य लिखते तो निश्चित तौर से या तो जेल में सलाखों के पीछे होते या उग्रवाद के शिकार हो गए होते |एक आदर्श कवि वही होता है जो उन्मुक्त होकर काव्य की रचना करे |कबीर एक ऐसी ही प्रतिभा के धनी थे |एक तरफ मुस्लिम कट्टरवाद पर प्रहार करते हुए वे कहते हैं-
                                      काकड पाथर जोड़ कर , मस्जिद लई चुनाय |
                                      ता चढ़ी मुल्ला बांग दे,क्या बहरा भया खुदाय ||
           और दूसरी तरफ हिंदुओं के अन्धविश्वास को आड़े हाथ लेते हैं और कहते हैं-
                                      मूंड मुंडाए हरि मिले,तो सब कोई लेय मुंडाय |
                                      बार  बार के  मुंडते , भेड़  ना  बैकुण्ठ  जाय ||
              अपने समकालीन कवियों में यह विधा केवल कबीर के पास ही थी ,जो एक आध्यात्मिक व्यक्ति होने के बावजूद इतनी गंभीरता से सामजिक विषयों के साथ साथ अंध विश्वासों और कट्टरपन पर भी अपने दोहों से बाण चलाते रहे |अन्य समकालीन संत महापुरुषों ने अपनी समस्त रचनाओं को अपने आराध्य तक ही सीमित रखा |रहीम खानखाना जरूर कुछ हद तक कबीर के समकक्ष कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं |सूर,तुलसी ,मीरा ,रसखान आदि ने भक्ति-रस में डूबकर अपनी रचनाओं में अपनी आत्मा की आवाज़ को पहचान दी है |
                 इस कारण से  कबीर को कई आलोचक संत का दर्जा देने से परहेज करते है|आलोचकों का कहना है कि कबीर हमेश एक द्वंद्व में घिरे नज़र आते हैं |कभी वे समाज सुधारक की भूमिका में नज़र आते हैं और कभी आध्यात्मिक पुरुष के रूप में |कभी वे एक धर्म के नज़र आते है,कभी दूसरे धर्म के |उनके काव्य से उनकी कोई एक पहचान बना पाना असंभव नहीं है तो आसान भी नहीं |
           मुझे इन सबसे कोई मतलब नहीं है |मैंने तो जब भी कबीर को पढ़ा है ,आम आदमी के दिल के करीब ही पाया है |उनकी रचनाएँ एक साधारण व्यक्ति की भावनाओं को ही अभिव्यक्त करती है-सभी छल-प्रपंच से दूर,बड़ी ही सरल भाषा में साधारण और मार्मिक बात |साधारण व्यक्ति को कबीर का कहना अपने अंतर्मन की बात कहना सा ही लगता है |उसे ऐसा महसूस होता है जैसे बात उसके मन की हो और शब्द कबीर के |कबीर की सभी रचनाएँ पढकर आत्मसात करने योग्य है |कबीर की रचनाओं ने जितना हर किसी को झकझोरा है,उतना अन्य किसी की रचनाओं ने नहीं |
                        इन सभी को अलग रखते हुए एक बात आलोचकों के मुंह से भी निकलती है-कबीर,कबीर हैं ,उनके समकक्ष कोई अन्य नहीं |उनको संत कहने पर विवाद हो सकता है,महापुरुष कहने में नहीं |उन्होंने दोहों और भजनों के माध्यम से अपने आपको एक संत,एक समाजसुधारक और एक महापुरुष तीनों का होना ही प्रमाणित किया है |मेरे ऐसा कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए |मैंने तो कबीर में इन तीनों के ही दर्शन किये हैं |मैं तो समय मिलने पर कबीर की रचनाओं में डूबने का प्रयास करता हूँ |और डूबने में जो आनन्द है ,वह तैर कर पार निकलने में कहाँ ?
                                     || हरिः शरणम् ||

Saturday, January 18, 2014

अमृत-धारा |गोरख-२

                               गोरख,एक ऐसा नाम जिसका स्मरण करते ही शरीर में एक लहर सी दौड जाती है |उनकी रचनाओं को आप हलके-फुलके तरीके से ले ही नहीं सकते |सरसरी तौर पर निगाह डालने से बड़ी ही बेतुकी नज़र आएगी ,परन्तु जब एकांत में बैठकर गंभीरता से विचार करेंगे तो समझ में आएगा कि गोरख क्या कहना चाहता है |
                                एक बार गोरख के पास एक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत समस्याओं से परेशान होकर आया और बोला-"मैं इन सांसारिक परेशानियों को सहते सहते तंग आ गया हूँ,और परेशान होकर आत्महत्या करना चाहता हूँ,मरना चाहता हूँ |"गोरख ने तत्क्षण कहा-"हाँ,मरो,बिलकुल मर जाना चाहिए|" वह व्यक्ति सन्न रह गया और बोला -"यह क्या कह रहे है आप ?मैं इतने संतों के पास गया,सबको अपना मंतव्य बताया|सबने मुझे एक ही बात कही कि आत्महत्या करना पाप है |यह किसी भी समस्या का समाधान नहीं है |और एक आप हैं जो कह रहे हैं कि हाँ मर जाओ |"गोरख बोले-"मैंने सही कहा है ,सब समस्याओं का समाधान मरना ही है |परन्तु तुम को ऐसे ही मरना होगा ,जैसे गोरख ने मर कर दिखाया है |"
             इस मरने के सम्बन्ध में गोरख ने कहा है-
                                मरौ वे जोगी मरौ ,मरौ मरन है मीठा |
                           तिस मरणी मरौ ,जिस मरणी गोरष मरि दीठा ||
             गोरख कहते हैं कि हे योगी पुरुष!तुम मर जाओ |तुम्हारा मरना ही उचित है |मरना संसार में बड़ा ही मधुर है |गोरख शरीर के मरने की बात यहाँ बिलकुल भी नहीं कहते हैं |यहाँ वे व्यक्ति के "मैं"के मरने की कहते हैं ,अहंकार को मारने की बात कहते हैं |इस संसार में जितने भी दुःख और परेशानियां है ,वे सब इस "मैं"की पैदा की हुई है |जिस दिन आपका यह "मैं"मर जायेगा ,समझ लो सब परेशानियां स्वतः ही समाप्त हो जायेगी |गोरख यहाँ स्वयं का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जैसे मैं मरा हूँ वैसे ही तुम मरो |तभी आपका मरना सार्थक होगा |शारीरिक तौर पर तो एक दिन सबको ही मरना होता है |जिस दिन अहंकार मर जायेगा ,उस दिन ही आपका वास्तविक रूप से मरण होगा |ऐसे मर जाने पर ही आपका पुनर्जन्म नहीं होगा |आप अपने वास्तविक स्वरूप को उपलब्ध हो जाओगे,परमात्मा को पा लेंगे |
                         || हरिः शरणम् ||

Friday, January 17, 2014

अमृत-धारा |-गोरख-१

               अगर कोई मुझे कहे कि आपको सबसे अधिक किस व्यक्ति का आध्यात्मिक काव्य पसंद है ,तो मैं उसमे किसी एक का नाम तो नहीं ले सकता |हाँ,इतना जरूर कहूँगा कि मेरे पसंद के चंद कवियों में एक नाम गोरख का भी है |गोरख की वाणी एक ग्रामीण परिवेश लिए हुए है और तत्कालीन आबादी के दिलों में उतरने के लिए कही गई है |उनका एक प्रसिद्ध दोहा है,जिसने मुझे काफी हद तक प्रभावित किया है ,आज उसी दोहे से एक नई शुरुआत करता हूँ |
                 गगन मंडल में गाय बियाई,कागद दही जमाया |
                  छाछ छाछ तो पंडिता पीवी,सिद्धां माखन खाया ||
         जब मनुष्य के ह्रदय में प्रेम का प्रादुर्भाव होता है ,तब आध्यात्मिकता का जन्म भी होता है |'स्व'को जानने का नाम ही आध्यात्मिकता है |इस संसार में कई महापुरुषों ने जन्म लिया और प्रेम व आध्यात्मिकता के बल पर परमात्मा को समझा व जाना |जो भी उन्हें इस बारे में अनुभव हुआ उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से उन्हें साहित्य के रूप में संजोया |यही साहित्य आज सहस्रों काव्यों के रूप में हमारे समक्ष है |इस साहित्य को पढकर हम कैसा व्यवहार करते हैं,उपरोक्त दोहा इसको स्पष्ट करता है |
                    परमात्मा के अवतरण की,परमात्मा को जानने और समझने की घटना आपके अंतर्मन में होती है |कहीं बाहर नहीं |इस अंतर्मन की कोई भी सीमा नहीं होती |यह अंतर्मन अनंत होता है |इसको किसी भी सीमा में नहीं बांधा जा सकता |जैसे आसमान अनंत होता है ,वैसे ही अंतर्मन भी अनंत विस्तारित होता है |इसी लिए यहाँ अंतर्मन को गगन कहा गया है |अंतर्मन में परमात्मा के अवतरण को गाय के बियाने अर्थात बछड़े को जन्म देना कहा गया है |यह घटना जब किसी के अंदर घटित होती है ,तब वह उसकी चर्चा सबसे करना चाहता है |लेकिन जो उसके भीतर घटित हुआ है उसको बताने के लिए ,उसे कहने के लिए ,उसे समझाने के लिए शब्द मुंह से निकल नहीं पाते |ऐसी स्थिति में वह अपने ज्ञान को ,अपने अनुभव को शब्दों के माध्यम से कागज पर लिखता है |इसी को कवि ने "कागद दही जमाया "कहा है |गाय के बछड़ा हो जाने के बाद दूध पीने का जो आनंद है उसको कवि ने दही के रूप में कागज पर लिखा है |यहाँ ध्यान देने की बात यही है कि आप दही को चखकर दूध का स्वाद कभी भी नहीं ले सकते |क्योंकि दही जमते ही दूध की अवस्था में परिवर्तन आ गया है|अब दूध और दही दोनों अलग अलग है |दही खाकर आप इतना ही कह सकते हैं कि दूध अच्छा था |लेकिन आपने दूध नहीं खाया बल्कि दही खाया है |अगर आपको दूध का आनंद लेना है तो आपको पहले गाय तक पहुंचना होगा |और गाय आपको गगन मंडल अर्थात अंतरिक्ष यानि शून्य में मिलेगी |इसका एक ही अर्थ है कि आपको अपने अंतर्मन को शून्य करना होगा,निर्मल करना होगा |मन में जो भी विकार है उन्हें बाहर निकाल फैकने होंगे |तभी मन शून्य होगा |मन के शून्य होते ही गाय बियाएगी और आपको दूध मिलेगा |यही परमात्म-प्राप्ति होगी |
                                   जब दूध का दही बन जाता है तब उसको चखने से काम नहीं बनेगा ,उसे मथना होगा |दही को मथने पर दो ही चीजें हमें प्राप्त होती है-छाछ और मक्खन |जो लोग अपने आप को ज्ञानी और पंडित समझते हैं ,वे छाछ से ही संतुष्ट हो जाते हैं और उस दही का सार छाछ को ही समझकर लोगों में छाछ ही बांटते फिरते हैं|लेकिन सिद्ध पुरुष छाछ को हाथ ही नहीं लगाते बल्कि केवल मक्खन का रसपान करते हैं |इसी प्रकार जब किसी भी शास्त्र को हम पढते है और उसका भाव जानने की कोशिश करते हैं ,कवि इसे दही का मथना कहते हैं | इसका शब्दार्थ तथाकथित पंडित छाछ के रूप में ग्रहण करते हैं जबकि शास्त्र में लिखे का भावार्थ सिद्ध पुरुष ही समझ सकते हैं |और यही भावार्थ मक्खन है |
                            उपरोक्त दोहे का भावार्थ यही है कि शून्य मन में ही परमात्मा का अवतरण होता है |शास्त्र तो मात्र उस अवतरण की अभिव्यक्ति मात्र है |शास्त्रों को पढकर सिद्ध पुरुष ही परमात्मा को जान,समझ और पा सकता है |केवल सतही स्तर पर शास्त्रों को पढकर आप अच्छा व्याख्यान दे सकते है ,परन्तु परमात्मा को जान तक नहीं पाएंगे,समझ पाना  और परमात्म -प्राप्ति तो बहुत दूर की बात है |
                          || हरिः शरणम् ||

Thursday, January 16, 2014

अमृत-धारा |-२

                    जितने भी संत भक्ति-काल में हुए उनमे सब ने एक से बढ़कर एक अपनी काव्य रचनाये दी है |जिनकी जितनी भी प्रशंसा की जाये कम है |उस युग में ऐसी अमृत-धारा बही थी जिसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती |आपके सामने अनगिनत रचनाएँ होगी,जिनको आप बार बार पढना चाहेंगे |प्रत्येक बार उसमे आपको आनंद द्विगुणित होता हुआ महसूस होगा |कुछ अच्छी अच्छी रचनाये एक एक कर लेंगे और उनको समझने का प्रयास करेंगे |आपसे अनुरोध है कि आप इनका आनंद उठाये,अगर आपको उसमे कुछ अनुचित लगे तो क्षमा करदें |मैंने जैसा उन रचनाओं के भाव को समझा है ,उन्हें उसी प्रकार से प्रस्तुत कर सकता हूँ |हो सकता है ,मैं उन रचनाओं को उनके भावों की तुलना में कुछ कम आंक लूँ |कबीर ने कहा है कि-
                               साधू ऐसा चाहिए,जैसा सूप सुभाय |
                               सार सार को गहि रहे,थोथा देई उडाय ||
                 आप भी ऐसा ही करें-जो आपको अच्छा लगे उसे आत्मसात करें और जो अनुचित लगे उसे हवा में उड़ा दे |अगर मेरा ध्यान उस अनुचित की तरफ आकर्षित करें तो आभारी होऊंगा |जब तक आप अपने अनुसार उस काव्य का रसास्वादन नहीं करेंगे तब तक आप उस कविता के भावों को पकड़ ही नहीं पाएंगे |इसलिए किसी भी काव्य रचना को समझने के लिए आवश्यक है कि आपको कविता में रुचि हो |आपकी रुचि आपको विवश करती है,उस काव्य रचना की गहराई में उतरने को |और जब आप उस रचना की गहराई में डूबते हो तभी आप उस रचना की आत्मा तक पहुँच पाओगे |
                  काव्य मनुष्य के अंतस से उठती हुई आवाज़ होती है |जो स्वयं से प्रेम करता है वही व्यक्ति प्रत्येक से प्रेम कर सकता है |जब चारों और प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा हो तो लहरे किनारों की और दौडेंगी ही |अंतर्मन से उठती ये लहरें जब सतह पर आकर किनारों से टकराती है तब कविता का जन्म होता है |इसीलिए कविता को आत्मा की आवाज़ कहा जाता है |उसी आवाज़ के भावों को समझने के लिए आपको उसी अंतर्मन की गहराई तक जाना होगा |अगर किनारे बैठ कर ही गहराई का अनुमान लगाएंगे तो भावप्रधान रचना में भी आपको छिछलापन ही नज़र आएगा |
                कबीर,सूर,तुलसी,मीरा,गोरख इत्यादि सब अपने प्रिय के प्रेम में गहराई तक डूबे हुए थे |इसी प्रेम के कारण हमें वह सब कुछ मिला जो आज के समय में मिलना असंभव नहीं है तो आसान भी नहीं है |भक्ति -रस रुपी इस अमृत का खज़ाना अनमोल है |जितनी बार भी इसको पढ़ा जायेगा,उतनी बार ही उनमे नए भावार्थ समझ में आयेंगे |आप बार बार ऐसे काव्यों को पढ़ें ,आप उनकी गहराइयों में उतरते चले जायेंगे |तभी आपको समझ में आएगा कि प्रेम क्या होता है और परमात्मा प्रेम से ही क्यों प्राप्त किया जा सकता है ?इस संसार में अगर कुछ सत्य है,तो वह प्रेम है,परमात्मा है |
                      || हरिः शरणम् ||
                     

Wednesday, January 15, 2014

अमृत-धारा |-१

                        वैसे तो इस संसार परमात्मा और आध्यात्मिकता को लेकर  कई पंथ है,जो अपने अपने तरीके से ईश्वर को पाने के लिए तरीके बताते हैं |इसी के लिए वे अपनी बात काव्य-विधा के माध्यम से आमजन  तक पहुंचाते है |आज से लगभग पांचसौ वर्ष पहले का समय भक्ति-काल कहलाता है |उस समय में कबीर,रहीम,रैदास,सूरदास,गोस्वामी तुलसीदास,मीराबाई अन्यान्य भक्त इस धरा पर अवतरित हुए |सबने अपनी अपनी सोच के अनुसार ईश्वर भक्ति की |आज उन्ही के कारण हमारे पास भक्ति काव्य का अनमोल खजाना है |काव्य के आधार पर किसी भी बात को कम शब्दों के माध्यम से भी अछे तरीके से समझा जा सकता है |काव्य ज्ञान की गहराई लिए हुए होता है,इसी लिए ज्यादातर कवितायेँ दिल को छू जाती है |बिहारी ने कहा भी है-
                          सतसैया के दोहरे,ज्यों नाविक के तीर |
                           देखन में छोटे लगे,  घाव  करे   गंभीर ||
           काव्य को समझने और समझाने के लिए केवल शब्द-ज्ञान का होना ही प्रयाप्त नहीं है | सभी काव्य विशेष रूप से जो आध्यात्मिकता और परमात्मा से सम्बंधित है एक तरह की गहराई लिए हुए होते है |उनमे शब्द जरूर होते हैं लेकिन उन शब्दों का भाव शब्दों के अर्थ से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है |इस संसार में जितने भी संत महापुरुष हुए हैं उनके द्वारा रचित काव्य जिन्होंने भी पढ़े हैं ,सभी ने अपने विवेकानुसार उनकी व्याख्या की है |उनके लिए यह व्याख्या करना और उस व्याख्या के साथ सहमत होना दोनों अलग अलग हैं |एक के द्वारा की गयी व्याख्या उनके अनुसार सही है ,यही मानना चाहिए |आपको उसमे जो भी उचित लगे उसे ग्रहण कीजिये ,जो अनुचित लगे उसे छोड़ दीजिए |आपको जो भी अनुचित लगे ,आप उस प्रसंग को अन्यत्र किसी अन्य लेखक  की रचना में पढ़ लें |फिर निर्णय करे |असहमत होना कोई गलत नहीं है ,गलत है आलोचना |आपके निरंतर बढ़ते ज्ञान से हो सकता है कि एक दिन आपको पूर्व लेखक की व्याख्या सही लगने लगे |श्रीकृष्ण द्वारा कहा गया ज्ञान श्रीमद्भागवतगीता में संग्रहित है |इसकी टीका कई प्रभुद्जनों द्वारा  की गयी है जिसमे अध्यात्मिक संत स्वामी रामसुख दास जी से लेकर तिलक एवं रजनीश जैसे दार्शनिक भी शामिल है |सबने गीता की व्याख्या अपने अपने विवेकानुसार की है |और इन सबको उसी सन्दर्भ में पढ़ना चाहिए |                                         साहित्यकार स्वर्गीय श्री डा. हरिवंशराय बच्चन के जीवनकाल की इसी से सम्बंधित एक घटना है |बच्चन लेखनकार्य प्रारम्भ से ही करते थे और हिंदी में पी.एच.डी.उन्होंने बाद में की |तब तक उनकी रचनाएँ स्नातकोत्तर हिंदी के पाठ्यक्रम में स्थान बना चुकी थी|पी.एच.डी.की परीक्षा के दौरान परीक्षक ने उनसे उन्ही की रचना का भावार्थ पूछ लिया |तब तक उस परीक्षक को यह ज्ञात नहीं था कि जो व्यक्ति "बच्चन"नाम से लिख रहा है,वह यह हरिवंश राय नाम का विद्यार्थी ही है |हरिवंश राय जी ने अपनी ही रचना का भावार्थ परीक्षक को समझाया परन्तु परीक्षक उस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ और उसने बच्चनजी को पी.एच.डी.के अयोग्य घोषित कर दिया |बाद में परीक्षक को पता चला कि यह रचना उसी विद्यार्थी की है और उसका भावार्थ वह सही बता रहा था |यह घटना स्पष्ट करती है कि रचना का भावार्थ प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अपनी सोच के अनुसार अलग अलग हो सकता है |उसे उसी संदर्भ में पढना और समझना चाहिए|
                         एक विषय की अलग अलग टीकाएं पढने का सबसे बड़ा फायदा यह होता है की आपकी सोच को एक नयी दिशा मिलती है ,जिससे आप किसी नए विषय को पढते हुए उस के भावों को ज्ञात करने का प्रयास करने लगते हैं |जब आप ऐसा करने में सफल हो जाते हैं ,तो प्रत्येक काव्य को पढने और समझने में आपको आनंद आने लगता है |यही काव्य-विधा की सफलता का राज है |गद्य में जो बात बड़े लंबे चौड़े रूप में कही जाती है,कविता उसे मात्र दो चार पंक्तियों में ही कह देती है |इसीलिए जितने भी संत और महापुरुष हुए है उन्होंने इस विधा का जनहित में अच्छा उपयोग किया है |यह काव्य-विधा एक अमृत के समान है ,और यह अमृत-धारा प्रत्येक मुमुक्षु के लिए संजीवनी का कार्य करती है |
क्रमशः
                         || हरिः शरणम् ||

Tuesday, January 14, 2014

मकर-सक्रांति |

                                   जब मानव सभ्यता का विकास हुआ तब उसे समय के बारे में कुछ ऐसी पद्धति विकसित करने की सूझी जिससे संसार में सभी कार्य एक निश्चित अवधि में संपन्न हो सकें |पहले उसने चंद्रमा के आधार पर समय बनाया |चन्द्रमा ,पृथ्वी की परिक्रमा लगभग एक मास में सम्पूर्ण करता है |इस प्रकार एक चन्द्र मास लगभग३० दिनों की अवधि का होता है |ऐसे १२ चन्द्र -मास मिलकर एक चन्द्र-वर्ष बनाते हैं|इस प्रकार एक चन्द्र वर्ष में लगभग ३६० दिवस होते हैं | परन्तु चंद्रमा को पृथ्वी की एक परिक्रमा को पूरा करने में ३० दिन से कुछ कम समय लगता है ,इस कारण से हिंदी-पंचाग में एक चन्द्र-वर्ष लगभग ३५५ दिवस का ही होता है |
                          चंद्रमा ,पृथ्वी की परिक्रमा करने के साथ साथ सूर्य की भी परिक्रमा करता  है |चूंकि पृथ्वी का उपग्रह चंद्रमा है और पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है ,इस प्रकार चंद्रमा भी उसके साथ साथ सूर्य की परिक्रमा करता रहता है |सूर्य की एक परिक्रमा करने में पृथ्वी को ३६५ दिवस से कुछ अधिक का समय लगता है | इस कारण से लगभग चार वर्षों  में एक वर्ष में ३६६ दिवस करने पड़ते हैं ,जिसे हम लीप वर्ष कहते हैं |इस समय को एक सौर-वर्ष कहा गया है |इस सौर-वर्ष को बारह राशियों के अनुसार १२ महीनों में बाँटा गया है |इनके नाम जनवरी से दिसंबर तक हैं | रशिया हैं-मेष,वृषभ,मिथुन ,कर्क सिन्ह,कन्या ,तुला ,वृश्चिक ,धन,मकर, कुम्भ और मीन|जब सूर्य प्रत्येक एक माह बाद एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है उस समय को संक्रमण काल अर्थात सक्रांति कहते हैं |१४ जनवरी को यह संक्रमण काल है-सूर्य का धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने का |अतः इस संक्रमण काल यानि संक्रांति को मकर संक्रांति कहा जाता है |
                             प्रश्न यह उठता है कि जब ऐसा संक्रमण-काल हर माह आता है तो फिर इस मकर सक्रांति का ही विशेष महत्त्व क्यों है ?२१ जून से पृथ्वी के दक्षिणी ध्रुव का झुकाव सूर्य की ओर होने लगता है जो १३ जनवरी को अपने चरम पर होता है |इसे सूर्य का दक्षिणायन होना कहते है|१४ जनवरी के दिन से पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव का झुकाव सूर्य की ओर होना शुरू होजाता है और दक्षिणी ध्रुव सूर्य से धीरे धीरे दूर होता चला जाता है |इसको सूर्य का उत्तरायण होना कहते हैं |सनातन धर्म में मान्यता है कि उत्तरायण में देह त्यागनेवाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती है |भीष्म पितामह को ईच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था |महाभारत युद्ध ग्रीष्म-काल में हुआ था |अर्जुन के बाणों से घायल होकर भीष्म शर-शैया पर सूर्य के उत्तरायण होने तक इंतज़ार करते रहे और उसके बाद ही उन्होंने अपनी देह छोड़ी |इस काल में दान-पुण्य का विशेष महत्त्व है |इस कारण से सभी धर्म-प्रेमी इस दिन दान कर पुण्य कमाने का प्रयास भी करते है |इस दिन अर्थात मकर-सक्रांति को एक उत्सव का वातावरण होता है-सूर्य के उत्तरायण होने की खुशी में.तेज सर्दी के लौट जाने की आहट से,पुण्य कमाने की सोच से,रबी की अच्छी फसल होने की सम्भावना से |आइये हम सभी इस उत्सव की खुशी में खो जाएँ ,आनंद मनाएं |आप सभी को मकर-सक्रांति की बहुत बहुत बधाई और शुभ कामनाएं|
                                    || हरिः शरणम् ||

Wednesday, January 8, 2014

अकथ कहानी प्रेम की.....

                                प्रेम की  गाथा भी अजब है |आप इसके बारे में चाहे जितना कह सकते हैं ,चाहे जितना लिख सकते हैं परन्तु कभी भी आप इसकी गाथा कहने से पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं हो सकते |प्रेम का आदि हो सकता है ,प्रेम की कहीं से शुरुआत जरूर हो सकती है परन्तु प्रेम का कहीं पर भी समापन नहीं होता है | जैसे गोस्वामीजी ने कहा है "हरि अनंत हरि कथा अनंता "वैसे हम भी कह सकते हैं "प्रेम अनंत प्रेम-कथा अनंता ",और इसमे कोई अतिश्योक्ति भी नहीं है |  प्रेम अनंत है |प्रेम किसी एक वस्तु या व्यक्ति विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता |अगर कोई इसको एक व्यक्ति तक ही सीमित करना चाहता है तो इसका अर्थ मात्र लगाव ,केवल आकर्षण ही हो सकता है,प्रेम नहीं | प्रेम तो अपने आप में विशालता लिए होता है |इसे न तो समय के बंधन में बाँधा जा सकता है,न स्थान सेऔर न ही किसी वस्तु या  व्यक्ति विशेष से | क्या कभी कोई कह सकता है कि वह किसी व्यक्ति से ,किसी विशेष स्थान पर एक निश्चित समय तक के लिए ही प्रेम करेगा ?नहीं,बिलकुल नहीं |प्रेम को कभी भी किसी ऐसे बंधन में नहीं बांधा जा सकता |प्रेम तो सदैव मुक्त होता है |
                                 प्रेम के बारे में क्या कहा जाय ?शब्द ही कम पड जाते है,जबान तालू से जाकर चिपक जाती है |अगर प्रेम की अभिव्यक्ति हो सकती है तो सिर्फ आपकी आँखों से ,आपकी मुस्कान से |कोई और माध्यम ही नहीं है ,जिससे प्रेम को व्यक्त किया जा सके |आज लोगों ने पश्चिमी सभ्यता की देखा देखी प्रेम को व्यक्त करने का दिन (१४ फरवरी) और माध्यम (गुलाब का फूल) भी निश्चित कर लिया है |आश्चर्य होता है ,यह सब देखकर |प्रेम तो सदा के लिए होता है ,और उसे व्यक्त करने के लिए आपकी आँखे और आपकी मुस्कान ही पर्याप्त है |  आपका चेहरा ही आपके प्रेम को अभिव्यक्त कर देता है |
           कबीर ने कितना सत्य कहा है-
                                      अकथ कहानी प्रेम की,कछु कही न जाय |
                                      गूंगा   केरी  सरकरा , खाय बैठ  मुसकाय ||
          गूंगे व्यक्ति के पास अपनी कोई भाषा नहीं होती |परन्तु जब वह मीठे का स्वाद ले रहा होता है, तब उस स्वाद की अभिव्यक्ति उसकी मुस्कान से ही प्राप्त की जा सकती है |ठीक यही स्थिति प्रेम की होती है |प्रेम में आपकी जुबान मौन हो जाती है सिर्फ आपकी आँखे ही उस समय बोलती है |गुलाब का फूल आपकी प्रेम-अभिव्यक्ति का एक घिसा-पीटा माध्यम है |आप फूल की मुस्कान देखकर संतुष्ट हो सकते हैं परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि सामने वाले के ह्रदय में भी इस गुलाब के फूल की तरह ही मुस्कान है,प्रेम है |यह सब तो प्रेम का भ्रम ही पैदा कर सकते हैं,प्रेम नहीं| प्रेम का दिन,प्रेम का स्थान और प्रेम प्रकट करने के सभी भौतिक माध्यम मात्र औपचारिकता हो सकते है और प्रेम को किसी  औपचारिकता की आवश्यकता नहीं होती |प्रेम तो स्वयं अनौपचारिक है |
                              आप तो कबीर की प्रेम शर्करा का स्वाद लेते हुए गूंगे बन जाईये ,और मुझे आज्ञा दीजिए |मैं भी अपने आपको प्रेम अभिव्यक्त करने में असक्षम मानता हूँ,तभी तो इतने वर्षों  तक अपने प्रेम को व्यक्त करने में असफल रहा हूँ |मेरे पास न तो प्रेम व्यक्त करने के लिए गुलाब-पुष्प है और न ही किसी प्रकार की भावुकता |सिर्फ भीतर एक खुला ह्रदय है और बाहर होठों पर मुस्कान है |आप स्वयं ही समझ जाईये,मैं तो एक गूंगा मात्र हूँ क्योंकि अकथ कहानी प्रेम की..............|
                                  || हरिः शरणम् ||
फिर मिलेंगे,चार-पांच दिन के बाद |संभवतः १४ जनवरी को |नहीं तो १५ जनवरी को तो निश्चित ही-एक नए विषय के साथ |आप इतने दिनों तक प्रेम के साथ मेरे संग रहे-आभार |
                        

Tuesday, January 7, 2014

प्रेम की पराकाष्ठा |(Height of the love)

                     प्रेम का प्रारम्भ मन की सुंदरता निखरने के साथ होता है |उसके बाद भावनात्मकता का प्रवेश होता है |भावुकता के दौर में अपने प्रेम और प्रेमी के खोने का डर,एक दूसरे से दूर होने का डर और बिछोह का संदेह बना रहता है |हालाँकि इस अवस्था में समर्पण की भावना जरूर रहती है परन्तु प्रेम के लिए दो का खो जाना आवश्यक होता है ,वह भावुकता की सीढ़ी पर खड़े रहने से संभव नहीं होगा |उससे आगे बढ़ने पर भावुकता खो जाती है और प्रेम प्रकट हो जाता है |जब प्रेम में दो प्रेमी की जगह मात्र एक ही रह जाता है तब यह भावुकता वास्तविक प्रेम में परिवर्तित हो जाती है |
                       यहाँ से प्रेम की प्रगाढता का आरम्भ हो जाता है |धीरे धीरे प्रेम अपने रंग में इन्हें पूर्णतया रंग लेता है |   जब यह रंग और गहराता है तब एक अवसर आता है जब प्रेम ही अदृश्य हो जाता है |अदृश्य होने से अर्थ यह नहीं है कि प्रेम खो जाता है बल्कि आशय यह है कि प्रेम का पता नहीं चलता,प्रेम को मापने का कोई पैमाना नहीं रहता |इसी को प्रेम का अदृश्य हो जाना कहते है |कितना सच है यह कहना --
                                   प्रेम नहीं प्रेमी नहीं,किसका कौन प्रमेय |
                                 स्मरण भूल कैसी कहाँ,ज्ञाता ज्ञान न ज्ञेय ||
                  प्रेम की प्रगाढता को जानने के लिए इससे अधिक सुन्दर पंक्तियाँ हो ही नहीं सकती |जब प्रेम अपनी उच्चत्तम अवस्था में होता है तब न तो कही प्रेम नजर आता है ,न ही कोई प्रेमी और यहाँ तक कि प्रेम मापने का पैमाना (प्रमेय)भी अदृश्य हो जाता है |ऐसी अवस्था में किस को याद करना और किसको भूल जाना ?न तो किसी का ज्ञान रहता है ,न कोई ज्ञानवाला ,जानने वाला और न ही वह जिसे जाना जा सके (ज्ञेय)|सब कुछ अदृश्यमान हो जाना ही प्रेम की पराकाष्ठा है|इसको अधिक समझने के लिए एक कहानी याद आ रही है |
                    एक प्रेमिका अपने प्रेमी से मिलने के लिए बड़ी तेजी से जा रही थी|रास्ते में एक व्यक्ति मगरिब की नमाज अता कर रहा था |उसके सामने बिछे वस्त्र पर से वह लड़की  पाँव रखती हुई तेजी से अपने रास्ते पर निकल गयी ,जहाँ आगे उसका प्रेमी इंतज़ार कर रहा था | अपने प्रेमी से मिलकर जब वह वापिस लौटी तो वही नमाज़ पढ़ रहा व्यक्ति वहीँ बैठा उसका इंतज़ार कर रहा था |उसने लड़की को कहा-"मैं खुदा की इबादत कर रहा था,और तू कितनी पागल थी,किसके लिए अंधी हो गयी थी  कि मेरे वस्त्र पर से पांव धरकर चली गयी |उसे  अपवित्र कर दिया |कहाँ खोई थी इतनी कि तुम्हे इस बात का ख्याल ही नहीं रहा कि मैं खुदा की इबादत कर रहा था?"उस लड़की ने बड़ा ही अच्छा जवाब दिया |वह बोली-"मैं तो अपने प्रेम में सब कुछ भूल बैठी थी,मेरे लिए सब अदृश्य हो गया था |मुझे कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था |परन्तु आप तो खुदा से प्रेम करते हो,उसकी  बंदगी करते हो फिर आपको खुदा के सिवाय यह सब कैसे नज़र आ रहा था ?यह आपका खुदा के प्रति कैसा प्रेम है जो आपको अपना वस्त्र मेरे पैरों से अपवित्र होता नज़र आ गया ?"  यह सुनकर वह नमाज़ी निरुत्तर हो गया |
                            इसको कहते हैं -प्रेम की प्रगाढ़ता|ऐसी प्रगाढता अगर परमात्मा के प्रति हो जाये तो फिर कहना ही क्या ?तभी कहते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है |
                             लाली तेरे लाल  की,जित देखूं तित लाल |
                             लाली मैं देखन चली,हो गई लालम लाल ||
       जहाँ आपस में प्रेम इतना बढ़ जाये कि प्रेम करने वाला स्वयं को खो बैठे ,जब प्रेम करने वाला और प्रेम पाने वाला दोनों खो जाएँ ,दोनों एक दूसरे के रंग में रंग जाये,दो के स्थान पर एक रह ही जाये ,तब होती है प्रेम की उच्चत्तम अवस्था |इसी को कहते हैं -प्रेम की पराकाष्ठा |
                                        || हरिः शरणम् ||

Monday, January 6, 2014

प्रेम और भक्ति |

                                        प्रेम ही परमात्मा है|जिसका ह्रदय प्रेमपूर्ण होता है वही सब जगह,सभी में परमात्मा के दर्शन करता है |हम जानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति जिसने इस संसार में जन्म लिया है ,परमात्मा को प्राप्त करने की कोशिश करता है |परमात्मा को प्राप्त करने के मार्ग अलग अलग हो सकते हैं,परमात्मा के बारे में अलग अलग धारणाएं हो सकती है |परन्तु सबका लक्ष्य एक ही होता है-परमात्म-दर्शन |परमात्मा को पाने के लिए जिन रास्तों की चर्चा सबसे ज्यादा होती है ,उनमे सबसे अधिक लोकप्रिय भक्ति-मार्ग है |भक्त का शाब्दिक अर्थ ही एकाकार होना है-परमात्मा के साथ |भक्त वही जिसे विभक्त नहीं किया जा सके |और जहाँ दो नहीं हो,एक ही रह जाये- वह प्रेम कहलाता है,वही भक्ति कहलाती है |भक्ति में भक्त परमात्मा के साथ योग करके परमात्मा ही हो जाता है |यह सब भक्ति के कारण ही संभव है |भक्ति और प्रेम शब्द भले ही दो नज़र आते हों परन्तु दोनों समानार्थी कहे जा सकते हैं |
                      गीता के बारहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण से अर्जुन पूछते हैं कि जो भक्त आपको सगुण और साकार रूप में भजते हैं और अन्य भक्त जो निराकार ब्रह्म को अतिश्रेष्ठ भाव से भजते हैं उन दोनों में अतिउत्तम कौन है ?यहाँ अर्जुन ने दोनों को उत्तम ही बताया है,फिर भी उसकी शंका है कि दोनों में अतिउत्तम कौन है?श्रीकृष्ण ने उत्तर में सगुण-साकार की भक्ति करने वाले को दोनों में श्रेष्ठ बताया और कहा कि सगुणरूप परमेश्वर को भजने वाले योगियों में अतिउत्तम योगी कहे जाते हैं |निराकार की भक्ति करने वालों के बारे में वे कहते हैं -
                        क्लेशोSधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् |
                       अव्यक्ता      हि    गतिर्दु:खं  देहवद्भिरवाप्यते || गीता १२/५||
अर्थात्,उस निराकार ब्रह्म में आसक्ति चित्त वाले पुरुषों के साधन में अधिक परिश्रम है क्योंकि देहाभिमानियों द्वारा अव्यक्त अर्थात निराकार को दुःख पूर्वक ही प्राप्त किया जा सकता है |
        यहाँ भगवान स्पष्ट रूप से कहते हैं कि निराकार रूप में भजने वाले अपनी देह का अभिमान रखते हैं |इसका अर्थ यह है कि परमात्मा निराकार है और इसे मानव देह से ही साधना करके पाया जा सकता है |यही द्वैतवाद है |परमात्मा और हम दोनों को अलग अलग माना जाता है |जहाँ दों है ,वहाँ प्रेम हो ही नहीं सकता |इसीकारण से ऐसे व्यक्तियों में अपनी मानव देह के बारे में अभिमान होता है |ऐसे व्यक्ति निराकार की प्राप्ति के लिए जो भी साधन करते है , सभी कष्ट देने वाले होते हैं |इस प्रकार स्पष्ट है कि इस मानव देह अतिशय दुःख देकर ही निराकार को प्राप्त किया जा सकता है |द्वैतवाद में दो होते हैं इसलिए एक को कष्ट देकर ही दूसरे को पाना ही लक्ष्य होता है |जब दो के स्थान पर एक हो तो फिर किसको कष्ट देना और किसके लिए देना ?
                            ऐसा क्यों होता है कि साकार रूप की उपासना ,सगुण की आराधना का मार्ग तो आसान है और निराकार की साधना का मार्ग अति कठिन ?इसका एक मात्र उत्तर है-प्रेम|आप आश्चर्य कर रहे होंगे कि साकार और निराकार की भक्ति के बीच यह प्रेम कहाँ से आ गया ?परन्तु यह शत-प्रतिशत सत्य है |प्रेम के लिए सौंदर्य आवश्यक है |और सौंदर्य व्यक्त में ही होता है साकार में ही होता है,अव्यक्त या निराकार में नहीं |आपको प्रकृति में सुंदरता नज़र आती है,आपको वृक्षों में सुंदरता नज़र आती है,आप समंदर को देखकर उसकी सुंदरता की गहराई में डूब जाते हो,आप सूर्योदय की लालिमा देखकर अभिभूत हो जाते हो ,आप किसी कलाकार की कलाकृति देखकर वाह वाह करते हो-क्यों?क्या आप बिना किसी दृश्य के किसी भी प्रकार की सुंदरता की कल्पना कर सकते हो ?नहीं,बिलकुल नहीं|और बिना सौंदर्य के प्रेम की भी कल्पना नहीं की जा सकती |सचमुच में बिना सौंदर्य के प्रेम होता भी कहाँ है ?यह साकार के सौंदर्य से अभिभूत होकर ही आपमें प्रेम का झरना फूट पड़ता है और यही प्रेम आपको परमात्मा तक ले जाता है |
                         निराकार की भक्ति करना रेगिस्तानी क्षेत्र में यात्रा करने के समान है |बिलकुल रूखा,सूखा मार्ग |किसी से भी निराकार के बारे में चर्चा करो तो बहुत कम लोगों को रूचिकर लगेगी |परमात्म-दर्शन में मैंने लिखा था कि भगवान कभी भी आपको अपनी कल्पना के आधार पर चतुर्भुज रूप में दर्शन नहीं देने वाले |इस प्रकार कहने का तात्पर्य यह कदापि नहीं था कि साकार भक्ति गलत है |अगर मेरे उन शब्दों से किसी की भावना को ठेस पहुंची हो तो मैं क्षमा चाहता हूँ|मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाना कदापि नहीं था |साकार भक्ति प्रेम पैदा करती है और प्रेम ही परमात्मा है |परमात्मा साकार है या निराकार,यह एक बहस का विषय हो सकता है |परन्तु प्रेम ही परमात्मा है ,यह बहस का विषय हो ही नहीं सकता |
                               हम सब भलीभांति जानते हैं कि परमात्मा वास्तव में निराकार ही है और समय समय पर वह साकार रूप में प्रकट होता रहता है |अंतिम सत्य तो निराकार ही है परन्तु उसको प्राप्त करने  के लिए आपको साकार की भक्ति के मार्ग से ही गुजरना होगा |क्योंकि आप साकार में ही सौंदर्य देख सकते हैं ,साकार से ही प्रेम कर सकते हैं ,निराकार से नहीं |जब आप साकार भक्ति से परमात्मा के साथ एकता स्थापित कर लेते हैं तो निराकार की अनुभूति अपने आप ही हो जाती है |यह ध्रुव सत्य है कि बिना प्रेम के परमात्मा है ही कहाँ ?निराकार परमात्मा को भी प्रेम पाने के लिए साकार यानि व्यक्त होना ही होता है |साकार रूप में वह प्रेम कर भी सकता है और प्रेम पा भी सकता है |
                           || हरिः शरणम् ||
                    

Sunday, January 5, 2014

प्रेम की परीक्षा |

                                          देखा जाये तो प्रेम शब्द इतनी विशालता लिए हुए होता है कि इसकी सीमा को जानना और पहचानना लगभग असंभव है |प्रेम ,इस संसार में प्रत्येक से किया जा सकता है ,चाहे वो आपका शत्रु ही क्यों न है |प्रेम करने वाले का कोई शत्रु नहीं होता परन्तु कोई अन्य व्यक्ति प्रेम करनेवाले से तो वैमनस्य रख ही सकता है ,इससे इन्कार नहीं किया जा सकता |ऐसी स्थिति में गीता स्पष्ट रूप से सन्देश देती है कि प्रत्येक से प्रेम करो,अपने शत्रु से भी परन्तु जो आपका मित्र हो उससे अतिशय प्रेम करो |भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि मुझे भक्त अपनी कामनाओं को पूरा करने के लिए भी भजते हैं ,दुःख पाने वाले और जिज्ञासु भी मुझे भजते है ,वे सभी मुझे प्रिय है |परन्तु सबसे प्रिय मुझे ज्ञानी भक्त है,जो जानते हैं कि प्रेम ही परमात्मा है और वो मुझे बिना किसी आकांक्षा के प्रेमपूर्वक भजते हैं |श्रीकृष्ण प्रेम के बारे में एकदम स्पष्ट है-संसार में सबसे प्रेम करो और अपने प्रेमी से अतिशय प्रेम करो |यह आपका भेदभाव बिलकुल भी नहीं है |
                                       जब आपको कोई प्रेम करता है तो वह आपको वास्तव में पूरी समग्रता के साथ प्रेम करता है |जीवन में ऐसे प्रेमी की कभी भी परीक्षा लेने की मत सोचना |अपने प्रिय की कही हुई प्रत्येक बात को आँख मूँद कर सही मान लेना,उस पर कभी भी अविश्वास नहीं करना |नहीं तो परिणाम भयावह होते हैं |एक बार एक पति ने अपनी पत्नी की इसी प्रकार प्रेम की परीक्षा लेनी चाही |उसने अपने कार्यालय से किसी अन्य व्यक्ति से फोन करवाया कि उसके पति की कार रास्ते में दुर्घटनाग्रस्त हो गई है और उस दुर्घटना में उनके पति की मृत्यु हो गयी है |फोन करवाने के बाद पति अपनी पत्नी की प्रतिक्रिया जानने के लिए घर गया तो देखा कि पत्नी फाँसी के फंदे पर झूल रही है और टेबिल पर नोट लिखा पड़ा था "मैं  अपने पति का वियोग सहन नहीं कर सकती ,अतः उनके पास ही जा रही हूँ | "कितना दुखद था -पति का अपनी पत्नी के प्रेम की परीक्षा लेना |
                                       इसी प्रकार का एक प्रसंग रामचरितमानस में शिव-सती से सम्बंधित आता है | एक बार शिव और सती संसार में भ्रमण को निकले |यह त्रेता युग की बात है |आकाश मार्ग से जब वे एक जंगल के ऊपर से जा रहे थे तो दोनों देखते हैं कि राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ सीते सीते नाम का विलाप करते हुए जा रहे थे |उस वक्त रावण ने सीता -हरण कर लिया था |शिव-सती विलाप सुनकर जंगल में उतरे|और राम-लक्ष्मण की तरफ बढे |राम ने शिव को देखकर प्रणाम किया |शंकर ने भी प्रत्युतर में प्रणाम किया |सती ने पूछा कि ये कौन हैं ?शंकर ने कहा कि ये साक्षात् परमात्मा है |सती ने शंका की कि परमात्मा होकर भी अपनी पत्नी के वियोग में इतना विलाप कैसे कर रहे हैं ?इसके लिए इनकी परीक्षा लेनी चाहिए |शंकर ने उन्हें समझाया कि परमात्मा की यह सब लीला है |परीक्षा लेने की सोचना भी मत |सती उनके साथ आगे चल पड़ी |परन्तु उनके मन में अभी भी शंका थी |आगे जाकर सती बोली-"भगवन!आप आगे चले,मैं भी परमात्मा को प्रणाम करके वापिस आपके पास आती हूँ |"शिव उनके मन की बात जान चुके थे |वे सती से बोले-"दैवी!सिर्फ प्रणाम करके लौट आना |परीक्षा लेने की कोशिश मत करना |वे परमात्मा है और परमात्मा की और प्रेम की कभी भी परीक्षा नहीं ली जाती है |"सती ने उनको "हाँ "कह दिया और तुरंत ही वहाँ से निकल पड़ी|रास्ते में शंका ने फिर अपना सर उठा लिया |अंततः सती ने उनकी परीक्षा लेने की ठान ही ली |उसने सीता का वेश बनाया और राम-लक्ष्मण की तरफ चली |राम उन्हें देखकर समझ गए कि यह सीता के वेश में माता सती ही है |उन्होंने उन्हें देखकर प्रणाम किया और बोले-"माते!मेरे ईश्वर कहाँ रह गए?आप अकेले इस वन में कैसे घूम रही है ?"अब सती को काटो तो खून नहीं|उसने तुरंत ही राम को प्रणाम किया और शिव के पास लौट आयी |शिव ने उसे पूछा कि उनकी परीक्षा तो नहीं ली थी ?सती ने झूठ बोलदिया |कहा -"नहीं|मैं तो उनको सिर्फ प्रणाम कर लौट आयी |"शंकर तो सर्वज्ञ हैं |वे सब जान गए |वे तत्काल कैलाश लौट आये |आते ही उन्होंने सती को कहा कि जो अपने प्रिय का कहना नहीं मानता और परमात्मा की परीक्षा लेता है ,उसे मैं बिल्कुल भी पसंद नहीं करता |अतः मैं आज तुम्हारा त्याग करता हूँ |"और इतना कहकर वे समाधिस्थ हो गए |
                                    समाधि से जागने के बाद भी शिव ने सती के साथ प्रिय जैसा व्यवहार कभी भी नहीं किया |एक लंबे समय उपरांत सती अपनी देह अपने पिता दक्ष के घर में त्यागती है औरपार्वती के रूप में  पुनर्जन्म लेकर एक लंबी साधना के बाद शिव को पुनः प्राप्त करती है |
                              ऐसी कहनियाँ हमें सावधान करने के लिए होती है |जिंदगी में कभी भी अपने प्रिय,प्रेम और परमात्मा की परीक्षा लेने का विचार भी नहीं करना चाहिए |
                                    || हरिः शरणम् ||
 

Saturday, January 4, 2014

प्रेम और परमात्मा |

                               कितने आश्चर्य की बात है कि संसार का प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा को पाना तो चाहता है,परन्तु उसको जानना बिलकुल भी नहीं चाहता |परमात्मा एक व्यक्ति के रूप में आपके पास आये और आपके गले लग जाये या आपको गले लगा ले,क्या ऐसा होना संभव है ?इस संसार में असंभव कुछ भी नहीं है |जो इस संसार का सूत्रधार है वह कहीं न कहीं तो होगा ही |और अगर ऐसा है तो फिर उसको प्राप्त करना हो भी सकता है |गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मेरे भक्त के लिए इस संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है |आवश्यकता है,एक प्रेमी भक्त बनने की,ज्ञानी भक्त बनने की |
                                                    संसार  की प्रत्येक भौतिक वस्तु आपको प्राप्त हो सकती है-अपनी मेहनत से,अपनी चालबाजी से,चोरी से ,छीनाझपटी से ,असत्य बोलकर,लालच देकर,किसी को धोखा देकर आदि आदि विभिन्न प्रकार के प्रयासों से |परन्तु आप परमात्मा को इनमे से किसी भी तरीके से प्राप्त नहीं कर सकते |अगर इन तरीकों से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता तो ऐसे सभी प्रयास तो कुरुक्षेत्र युद्ध से पहले दुर्योधन ने आजमाए ही थे |फिर भी कृष्ण को अपने वश में नहीं कर सका था |
                       फिर  परमात्मा में ऐसा क्या है कि उनको उपरोक्त वर्णित सब प्रयासों से भी जाल में फंसाया नहीं जा सकता ?इसके लिए परमात्मा की प्रकृति को जानना आवश्यक है |जब शिशु इस संसार में आता है तब वह परमात्म स्वरुप ही होता है |उसकी प्रकृति और परमात्मा की प्रकृति में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं होता है |इसी कारण से हमें शिशु की हरकतें मोहक लगती है |उसका मन इतना निर्मल होता है कि हमें उसी में परमात्म-दर्शन होते हैं |ज्यों ज्यों शिशु बड़ा होता है ,सांसारिक गतिविधियां उस पर हावी होती जाती है,और वह अपने बाल-सुलभ स्वभाव से दूर होता चला जाता है |यही विकृति उसे परमात्मा से दूर करती चली जाती है |
                       निर्मल मन प्रेम का अथाह भंडार होता है |इसी कारण से शिशु सबको प्रिय होता है और शिशु को भी सभी प्रिय लगते हैं |तभी तो शिशु का संसार से अपना पहला संबंध मुस्कान के साथ ही स्थापित करता है |हमारी भाषा में इसे सामाजिक मुस्कान (Social smile)कहा जाता है |शिशु इस अवस्था में न तो यह जानता है कि दिल से उसको कौन प्रेम करता है और कौन उसके पास वैमनस्य भाव से आया है |वह तो सबका स्वागत अपनी प्यारी सी मुस्कान से करता है |इससे अधिक प्रेम परिपूर्णता का दूसरा उदहारण इस भौतिक संसार में हो ही नहीं सकता |एकदम यही स्वभाव ,यही प्रकृति परमात्मा की होती है |परमात्मा भी सबको समान दृष्टि से देखता है |हाँ,यह बात जरूर है कि उसे प्रेम से पूर्ण व्यक्ति सबसे प्रिय होते हैं|और प्रेम से परिपूर्ण होने वाले व्यक्ति ही परमात्मा के मित्र हो सकते हैं |अर्जुन इसी कारण से कृष्ण को मित्र रूप में पा सके थे |
                                प्रेम से परिपूर्ण होने के लिए आपको सिर्फ इतना ही करना होगा कि बालसुलभ स्वभाव बनाये रखें ,मन में किसीभी प्रकार की सांसारिक विकृति को प्रवेश न करने दें|जब आपका मन निर्मल हो जायेगा ,संसार में सभी समान नज़र आने लगेंगे तब आप सबमे परमात्मा के ही दर्शन करेंगे |आपमें उपस्थित प्रेम ही परमात्मा है ,इसके लिए आपको कहीं भी प्रेम पाने के लिए भटकना नहीं पड़ेगा,कही भी परमात्मा को ढूँढने नहीं जाना होगा |स्वामी रामसुख दास जी कहा करते थे-
                         बात बड़ी है अटपटी,झटपट लखे न कोय |
                        ज्यों मन की खटपट मिटे,तो चटपट दर्शन होय ||
        मन कि खटपट यह ईर्ष्या,वैमनस्य,लालच,आकांक्षाये,कामनाये आदि विकार ही है |ज्यों ही ये सब मन से बाहर कर दिए जायेंगे फिर जो शेष बचेगा वह है-प्रेम |और प्रेम ही परमात्मा है |गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में लिखते हैं-
              " हरि व्यापक सर्वत्र समाना |प्रेम से प्रकट होइ मैं जाना ||"
                                                  || हरिः शरणम् ||

Friday, January 3, 2014

ये तो प्रेम की बात है......


स्वर्ग में विचरण करते हुए
अचानक एक दूसरे के सामने आ गए

विचलित से कृष्ण ,प्रसन्नचित सी राधा...

कृष्ण सकपकाए, राधा मुस्काई
इससे पहले कि कृष्ण कुछ कहते राधा बोल उठी

कैसे हो द्वारकाधीश ?

जो राधा उन्हें कान्हा कान्हा कह के बुलाती थी
उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन
कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया
फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया

और बोले राधा से .........
मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ
तुम तो द्वारकाधीश मत कहो!

आओ बैठते है ....
कुछ मै अपनी कहता हूँ कुछ तुम अपनी कहो

सच कहूँ राधा जब जब भी तुम्हारी याद आती थी
इन आँखों से आँसुओं की बूंदे निकल आती थी

बोली राधा ,मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ
ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा
क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे
जो तुम याद आते

इन आँखों में सदा तुम रहते थे
कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ
इसलिए रोते भी नहीं थे

प्रेम के अलग होने पर तुमने क्या खोया
इसका इक आइना दिखाऊं आपको ?

कुछ कडवे सच ,प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ?

कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए
यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की
और समन्दर के खारे पानी तक पहुच गए ?

एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्रपर
भरोसा कर लिया और
दसों उँगलियों पर चलने वाळी
बांसुरी को भूल गए ?

कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ....
जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी
प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली
क्या क्या रंग दिखाने लगी
सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी

कान्हा और द्वारकाधीश में
क्या फर्क होता है बताऊँ
कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते
सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता

युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है
युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं
और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं
कान्हा प्रेम में डूबा हुआ आदमी
दुखी तो रह सकता है
पर किसी को दुःख नहीं देता

आप तो कई कलाओं के स्वामी हो
स्वप्न दूर द्रष्टा हो
गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो

पर आपने क्या निर्णय किया
अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी?
और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया
सेना तो आपकी प्रजा थी
राजा तो पालक होता है
उसका रक्षक होता है

आप जैसा महा ज्ञानी
उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन
आपकी प्रजा को ही मार रहा था
अपनी प्रजा को मरते देख
आपमें करूणा नहीं जगी

क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे

आज भी धरती पर जाकर देखो
अपनी द्वारकाधीश वाळी छवि को
ढूंढते रह जाओगे हर घर हर मंदिर में
मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे

आज भी मै मानती हूँ
लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं
उनके महत्व की बात करते है

मगर धरती के लोग
युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं
प्रेम वाले कान्हा पर ही भरोसा करते हैं
गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है
पर आज भी लोग उसके समापन पर

" राधे राधे" करते है......

---------------------------------------- यही है प्रेम की पहचान |
                           || हरिः शरणम् ||
                                                                                                             - भूपेंद्र मंगल्यारा के फेसबुक पेज से साभार 

Thursday, January 2, 2014

प्रेम और अवतार |

                                  प्रेम की चर्चा अधूरी रहेगी अगर हम परमात्मा के अवतारों की चर्चा न करें|जितने भी ईश्वरीय अवतार इस संसार में आये है,वे सभी प्रेम से परिपूर्ण थे |उन्होंने इस धरा पर प्रेम के पदचिन्ह छोड़े हैं जिनका अनुगमन कर मनुष्य प्रेम को प्राप्त कर सकता है |
                                 सबसे पहले मैं उदहारण देना चहुँगा ईसाई धर्म के प्रवर्तक प्रभु ईशु का |जिनका सम्पूर्ण जीवन प्रेम करने में ही व्यतीत हुआ |उनमे क्षमा भाव उनकी रग रग में समाया हुआ था |वे असहायों की सेवा करने में सदैव तत्पर रहा करते थे |कभी भी अपने से विरोधी व्यक्ति से उन्होंने ईर्ष्या नहीं की,वैमनस्य की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती |जब जीवन के अंतिम समय पर उन्हें सलीब पर लटकाया जा रहा था ,तब भी उन्होंने अपना क्षमाभाव नहीं त्यागा |उस वक्त उनके मुंह से निकले शब्द थे-"हे ईश्वर!इन्हें क्षमा करना,क्योंकि ये लोग यह नहीं जानते कि ये कर क्या रहे हैं?" अंत समय में भी ऐसा क्षमा भाव किसी फ़रिश्ते में ही हो सकता है |आज इस धर्म के अनुयाइयों में मदर टेरेसा को साक्षात् प्रेम की मूर्ति माना जा सकता है |
                               इस्लाम धर्म के संस्थापक मोहम्मद साहब इसी तरह ही प्रेम के एक सटीक उदहारण हैं|एक साधारण घर में पैदा हुए मोहम्मद साहब ने अपनी सम्पूर्ण जिन्दगी एक साधारण मनुष्य की तरह ही गुजारी|दीन-दुखियों की सेवा के लिए वे सदैव ही तत्पर रहते थे |उनकी किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी |उनके साथ कोई अगर दुर्व्यवहार करता था तो वे सहजभाव से उसे क्षमा कर दिया करते थे |इस बारे में एक घटना उनके जीवन से सम्बन्धित है जो बहुत प्रसिद्द है |मोहम्मद साहब जब घर से बाहर जाने के लिए वस्त्रादि पहन कर निकलते थे तो रास्ते में पड़ने वाले घर से एक महिला उनपर रोजाना कचरा फैक दिया करती थी |मोहम्मद साहब अपने कपड़ों से कचरा झाडकर मुस्कुराते हुए आगे निकल जाया करते थे |यह रोजाना का एक क्रम बन गया था |एक बार ३-४ दिनों तक लगातार महिला ने  उनपर कचरा नहीं फैंका |मोहम्मद साहब को बड़ा अचरज हुआ |पांचवें दिन भी जब ऐसा हुआ तो मोहम्मद साहब उसके घर गए और देखा कि महिला बुखार में तप रही है |उन्होंने उसकी लगातार कई दिनों तक तीमारदारी की |वे उसके घर तब तक जाते रहे जब तक कि वह महिला पूर्ण रूप से स्वस्थ नहीं हो गयी|महिला अब अपने किये पर शर्मिंदा थी |उसने मोहम्मद साहब से माफ़ी मांगी |ऐसा था मोहम्मद साहब में क्षमाभाव |
                              सनातन धर्म में श्रीकृष्ण पूर्णावतार कहे जाते हैं |उनको पूर्णावतार कहा ही इसीलिए जाता है क्यंकि वे प्रेम से परिपूर्ण थे | उनके द्वारा की गयी रास-लीला ,प्रेम के प्रकटीकरण का सबसे उत्तम उदाहरण है |रास-लीला में वे गोपियों के साथ नृत्य किया करते थे |प्रत्येक गोपिका को ऐसा आभास होता था मानो श्रीकृष्ण उसी  के साथ नृत्य कर रहे हों|इससे अच्छा सबके साथ एक जैसे प्रेम का उदाहरण संसार में अन्य मिलना मुश्किल है |जब श्रीकृष्ण बाल्यावस्था में थे तब उन्होंने जो लीलाएं अपनी माँ यशोदा के साथ की ,गोपियों का माखन चुरा कर खाना,उनकी दूध से भरी मटकियां फोड देना,अपने बाल सखाओं के साथ क्रीडा करना आदि सब प्रेम के उदाहरण ही तो है|एक ईश्वरीय अवतार होते हुए अर्जुन के सारथी बन जाना क्या बिना प्रेम के संभव था ?बरसाने की रहने वाली राधा के साथ उनका प्रेम तो इतनी उच्च कोटि का था कि आज मंदिर में कृष्ण के साथ राधा की मूर्ति होती है,और मंदिर भी राधाकृष्ण मंदिर कहलाता है |कहते हैं कि राधा और कृष्ण में इतना प्रेम था कि दोनों दो न होकर एक ही हो गए थे |जब लोग राधा को उसका नाम पूछते थे तो वह अपना नाम कृष्ण बताया करती थी |इसी प्रकार जब कृष्ण को उनका नाम पूछा जाता था तो वे अपना नाम राधा बताया करते थे |आज भी सनातन धर्म में यह किवदंती है कि श्री कृष्ण को पाना हो तो राधे-राधे बोलना चाहिए |कृष्ण इस नाम को सुनकर खींचे चले आयेंगे|
                              ये अवतार थे इस कारण से उनका व्यवहार प्रेमपूर्ण था या ये प्रेम से परिपूर्ण थे इसलिए अवतार कहलाये | इस विषय में वाद-विवाद हो सकता है |परन्तु मैं दोनों बातों को ही सही ठहराता हूँ |मेरे मत में प्रेमपूर्ण व्यवहार किसी को भी अवतार होने की योग्यता दिला सकता है |और ऐसा समग्रता के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार किसी अवतार का ही हो सकता है |आप चाहे इसे किसी भी प्रकार लें,दोनों ही परिस्थितियों में प्रेम का होना ही महत्वपूर्ण है |
                                 || हरिः शरणम् ||

Wednesday, January 1, 2014

प्रेम-एक आराधना|

Bye bye 2013
Thanks to those,who hated me,they made me a stronger person.
Thanks to those who loved me,they made my heart bigger.
Thanks to those who were worried about me,they let me know that they actually cared.
Thanks to those who left me,they made me realize that nothing lasts forever.
Thanks to those who entered my life,they made me who I am today .
Just want to THANKS all for being there in my life.
                HAPPY NEW YEAR 2014
             
                                                   प्रेम-देखने में,पढने में एक छोटा सा शब्द |परन्तु कितनी गहराई लिए हुए है यह शब्द |इस शब्द की जितनी भी व्याख्या की जाये ,वह कम ही है |कबीर ने कह तो दिया कि "ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय|"परन्तु क्या इस शब्द को ,इस प्रेम को पढना इतना आसान है,जैसा कि यह प्रतीत होता है |नहीं,बिलकुल नहीं |प्रेम को पढ़ा नहीं जाता ,प्रेम किया नहीं जाता बल्कि प्रेम को तो जीया जाता है |इस प्रेम को जीने को ही कबीर ने पढना कहा है |कबीर के अनुसार जो व्यक्ति प्रेम को ही, प्रेम में ही और प्रेम के लिए ही जीता है वास्तव में वही प्रेम को पढ पाता है |वही प्रेम का असली अर्थ जानकर पंडित हो जाता है |
                                                प्रेम कोई करने या होने का कार्य नहीं है |प्रेम तो एक साधना है |प्रेम को जानने और समझने के लिए वर्षों लग जाते हैं ,जब तक आप इस शब्द को साहित्य या शब्दकोष में ढूँढते हो,हो सकता है आप इसको फिर भी समझ न पायें |आप तत्काल भी प्रेम को उपलब्ध हो सकते हैं |आवश्यकता है आपकी लगन की,आपकी साधना के प्रति लगन की |
                                  कबीर कहते हैं-
                                          मन ऐसा निर्मल भया , जैसे गंगा नीर |
                                          पाछे पाछे हरि फिरे , कहत कबीर कबीर ||
             अपना मन इतना पवित्र कर लीजिए कि उसमे प्रेम के सिवाय कुछ भी नहीं रहे |ईर्ष्या,वैमनस्य ,वासना,अधिकार की भावना,अहंकार,कामनाएं, इच्छाएं आदि सब बाहर निकल जाये और सम्पूर्ण मन प्रेम से भीग जाये यह स्थिति एक निर्मल मन की स्थिति होती है |ऐसे मन को फिर परमात्मा को ढूँढने की आवश्यकता नहीं रहती,स्वयं परमात्मा ऐसे मन ,ऐसे सुन्दर मन वाले को ढूंढ ही लेते हैं |
                         परन्तु क्या मन को इतना निर्मल,इतना पवित्र और इतना खूबसूरत कर लेना इतना ही आसान है ?इस भौतिक संसार में सभी व्यक्ति पवित्र मन लेकर ही आते हैं |ज्यों ज्यों संसार सागर की गहराई में  उतरते जाते हैं ,मन इन सब विकारों को ग्रहण करता चला जाता है |प्रेम पाने के लिए वह दर दर भटकता है परन्तु ऐसे मन में प्रेम का अंकुर भी कैसे फूटेगा?यह वह नहीं समझ पाता है |इसके लिए उसे आराधना की आवश्यकता होती है |आराधना,जिसमे सब कुछ भूलकर ,इन सब विकारों से मन को साफ कर केवल अपने साध्य की ,अपने प्रेमी की पूजा ,बंदगी करनी होती है |तभी प्रेम को पाया जा सकता है |
                                   || हरिः शरणम् ||