Friday, March 31, 2017

गहना कर्मणो गतिः -16

गहना कर्मणो गतिः -16
कर्म में गति -
              जब स्वभाव के कारण कर्म स्वतः ही होते हैं, फिर ऐसे में कर्म में गति होना कैसे संभव  है और वह गति भी इतनी गहरी कि उसको समझना बड़ा मुश्किल है ? हाँ, यह सत्य है कि कर्म स्वभाव के वश में है परन्तु स्वभाव को परिवर्तित करना तो मनुष्य के वश में है न | जब स्वभाव बदला जा सकता है तो अप्रत्यक्ष रूप से कर्म भी बदले जा सकते हैं | मनुष्य की यही तो विडम्बना है कि वह अपना स्वभाव बदलने के स्थान पर कर्म करने अथवा नहीं करने की ही सोचता रहता है | ऐसा विचार करने के स्थान पर कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन करने का विचार करना चाहिए जिससे हमारा स्वभाव परिवर्तित हो सके | भविष्य में हमारा स्वभाव ही हमारे कर्म निश्चित करेगा |
         जैसे एक भौतिक पिंड की गति के लिए बल आवश्यक है, ठीक उसी प्रकार कर्मों में गति पैदा करने के लिए भी बल आवश्यक है | यदि हम अपने कर्मों में गति नहीं लायेंगे तो हम भी जड़ता में जकड लिए जायेंगे | जड़ता का अर्थ है, जो जैसे चल रहा है, उसको वैसे ही चलते देना, उसी में संतुष्ट रहना | कर्मों में जड़ता तभी आती है, जब हम उन कर्मों के प्रति आसक्त हो जाते हैं | कर्मासक्ति ही कर्म-बंधन पैदा करती है और इस कर्म-बंधन को ही कर्म-जड़त्व कहते हैं अर्थात एक ही प्रकार के कर्म में उलझे रहना | केवल पूर्वजन्म से मिले स्वभाव के अनुसार ही कर्म करते रहना कर्म-जड़त्व है और कर्मों के स्वरूप को परिवर्तित कर स्वभाव को परिवर्तित कर देना कर्म में गति है | अभी विज्ञान के अनुसार हमने चार आधारभूत बलों का वर्णन किया था और कहा था कि विज्ञान अब कह रहा है कि इन बलों के अतिरिक्त एक पांचवां बल भी ओर हो सकता है जो इन चार बलों का कारण बल है | विज्ञान अभी तक इस पांचवें कारण बल को ज्ञात नहीं कर पाया है परन्तु शास्त्रों में इस बल का वर्णन आता है | हमारा सनातन-ज्ञान कहता हैं कि सब आधारभूत बलों का कारण है, “आत्म-बल” | जब तक आत्म-बल नहीं होगा, सभी बल अप्रभावी रहेंगे | आत्म-बल के कारण ही सभी कर्म गतिमान होते हैं अन्यथा सब बल व्यर्थ हैं | इस आत्म-बल के कारण व्यक्ति की सोच ही बदल जाती है | आत्म-बल अर्थात परमात्मा का बल, जिसके कारण ही सभी आधारभूत बलों का अस्तित्व लेना संभव हुआ है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, March 30, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 15

गहना कर्मणो गतिः -15
            कर्म की गति दो प्रकार की होती है - प्रथम- कर्म में गति और दूसरी कर्म से गति | कर्म में गति कर्मों के स्वरुप में होने वाले परिवर्तन को कहते हैं जबकि कर्म से गति, कर्म से मिलने वाले परिणाम को कहते हैं | गति कार्य है, बल उसका करण है और हमारी इच्छा, हमारे विचार कारण हैं | जैसा कि हम जानते है कि प्रत्येक कार्य का परिणाम भी निश्चित होता है | जो परिणाम कर्मों का मिलना निश्चित है, उसे ही कर्मों से गति होना कहते हैं क्योंकि इन परिणामों को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को एक योनि से दूसरी योनि में गति करनी पड़ती है | स्वामी शिवानन्द कहते हैं कि ‘प्रत्येक कर्म की एक पूर्वावस्था होती है | उस कर्म का एक भविष्य होता है, जो उस कर्म से ही उत्पन्न होता है | कर्म को बनाने में एक इच्छा होती है जो उसे प्रेरित करती है और एक विचार होता है जो उस को आकार देता है | कार्य और कारण के बीच प्रत्येक कर्म एक कड़ी होता है | प्रत्येक कार्य स्वयं ही कारण बन जाता है और प्रत्येक कारण पहले कार्य बन चूका है | इस अनंत श्रृंखला की प्रत्येक कड़ी इच्छा, विचार और क्रिया रूपी तीन अवयवों से बनी हुयी होती है | इच्छा विचार को चलाती है और विचार क्रिया के रूप में परिणित हो जाता है |’
        स्वामी शिवानन्द ने जिस प्रकार कर्म की व्याख्या की है, उसके अनुसार प्रत्येक कर्म का भी पूर्व का कोई कर्म कारण होता है और उस नए कर्म का जो भी परिणाम होता है, वह फिर से भविष्य में नए जन्म में जाकर किये जाने वाले कर्म का कारण बन जाता है | इस प्रकार कर्म इस जीवन-चक्र का प्रमुख आधार है, जो मनुष्य को इसी संसार में ही घुमाता रहता है | संसार-चक्र में ही विचरण करते रहना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य नहीं है | इस विचरण को विराम देना आवश्यक है और इसके लिए कर्मों की गति को प्रगति में बदलना होगा | कर्मों के नियमित चक्र को तोड़ते हुए अपने आत्म-बल से सद्गति की ओर प्रस्थान करना होगा | इसके लिए कर्मों में गति लाना आवश्यक है जिससे इस जीवन के बाद कर्मों से गति प्राप्त की जा सके |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, March 29, 2017

गहना कर्मणो गतिः -14

गहना कर्मणो गतिः -14
             यहाँ तक हमने विज्ञान और शास्त्रों में उल्लेखित गति और प्रगति के नियमों का अल्प रूप से तुलनात्मक विश्लेषण किया है | कर्म की गति कैसे होती है ? आइये ! इसको जानने के लिए विज्ञान को यहीं पर अकेले छोड़ शास्त्रों के ज्ञान की ओर अग्रसर होते हैं |
कर्म की गति –
          कर्म की गति को जानने से पहले हमें जड़ता का ज्ञान होना आवश्यक हैं | जड़ता कहते हैं, जो जिस प्रकार भी गतिमान अथवा स्थिर है, उसी स्थिति में सदैव बने रहना | स्थान अथवा स्थिति परिवर्तन का प्रतिरोध करना | गति में भी जड़ता है और स्थिर हो जाना अथवा रूक जाना भी जड़ता है | मनुष्य जीवन में पूर्वजन्म के कारण मिले संस्कार तथा इस जन्म के कर्मों के मिश्रण से बना स्वभाव हमें कर्म करने को बाध्य करता है | पूर्वजन्म के कर्मों से बने स्वभाव के अनुसार हम कर्म करें और फिर उन कर्मों में आसक्त हो जाएँ, तो यह भी एक प्रकार की जड़ता ही है | इस जड़ता को त्यागने के लिए आवश्यक है कि हम अपने कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन करते हुए अपना स्वभाव भी बदलें | स्वभाव कर्मों से बनता है और कर्म स्वभाव के अनुसार होते हैं | दोनों एक दूसरे से गहरे रूप से सम्बंधित हैं | कर्म से स्वभाव और स्वभाव से कर्म, यह एक सतत चलते रहने वाला चक्र है | अगर हम पूर्वजन्म से विरासत में मिले स्वभाव के अनुसार ही कर्म करते रहे तो यह जड़ता है क्योंकि स्वभाव के अनुसार कर्म करने को हम विवश है | इस जड़ता को गति प्रदान करने के लिए कर्म को गति देना आवश्यक है |
                   हमें अपना स्वभाव बदलने के लिए पूर्व के स्वभाव को परिवर्तित करना होगा | स्वभाव केवल नए कर्म कर ही बदला जा सकता है और नए कर्म करने की योग्यता केवल मनुष्य में ही है | विहित्त कर्म करते हुए हम अपना स्वभाव बदल सकते हैं | धीरे-धीरे कर्मों का स्वरुप बदलते हुए अकर्म की ओर अग्रसर होना ही वास्तव में कर्मों को गति देना है | कर्मों को गति संगति से भी दी जा सकती है | कुसंग हमें दुर्गति की ओर ले जाता है जबकि सुसंग हमें सद्गति की ओर | इसीलिए हमारे पूर्वजों ने सत्संग की विशेष महिमा बताई गयी है | गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने मानस में कहा है –
      गगन चढहि रज पवन प्रसंगा | कीचहिं मिलहि नीच जल संगा || मानस-1/7/9 ||
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, March 28, 2017

गहना कर्मणो गतिः 13

गहना कर्मणो गतिः -13
                  भगवान श्री कृष्ण ‘कर्म से पलायन (Escape) के लिए गीता में इन्हीं दो को महत्वपूर्ण कारण बताते हैं उसी प्रकार मनुष्य में जडता पैदा होने के मुख्य कारण भी यही दो हैं | न्यूटन कहते हैं कि पिंड के स्थान परिवर्तन के लिए बाह्य बल की आवश्यकता होती है, ठीक उसी प्रकार शास्त्र कहते हैं कि जड़ता का त्याग करने के लिए भी बल आवश्यक हैं | एक बार आपका अपना बल सक्रिय होकर जब कर्मों के स्वरुप को परिवर्तित कर देता है तब वह बल मनुष्य को प्रगति की राह पर डाल देता है, तब उसकी प्रगति सतत होती रहती है |
       गति का दूसरा नियम कहता है कि संवेग (Acceleration) लगाये गए बल के समानुपाती और पिंड  के भार या मात्रा के विलोमानुपाती होता है | सनातन-ज्ञान (Eternal knowledge) भी कहता है कि प्रगति का संवेग भी हमारे द्वारा लगाये गए बल के समानुपाती और कर्म-बंधन (कर्म-भार), मोह, अहंकार आदि विकारों के विलोमानुपाती होता है | सकाम कर्म बंधन पैदा करता है, जो कि प्रगति के लिए एक अवरोधक (Barrier) का कार्य करता है जिससे व्यक्ति की प्रगति का संवेग मद्धम (Slow) पड़कर प्रगति को रोक भी सकता है |
          न्यूटन की गति का तीसरा नियम कहता है कि प्रत्येक क्रिया (Action) की समान रूप से और उसी अनुपात में प्रतिक्रिया (Reaction) होती है | हमारे शास्त्र कहते हैं कि जैसे आप कर्म करेंगे, उसी अनुरूप आपको फल भी मिलेंगे | यह कर्म की गति है, जिसके अनुसार नया जन्म पाकर उसी की प्रतिक्रिया स्वरुप उसी तीव्रता के साथ आपको नए कर्म करने को बाध्य होना पड़ता है | भौतिक संसार में जैसे क्रिया की प्रतिक्रिया होती है उसी प्रकार कर्म संसार में भी प्रत्येक कर्म का प्रतिकर्म होता है, जो इस जन्म में अपना प्रभाव न दिखाकर नए जन्म में अपना प्रभाव दिखता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, March 27, 2017

गहना कर्मणो गतिः -12

गहना कर्मणो गतिः – 12
          अभी पिछली शताब्दी के अंत से वैज्ञानिक लगातार कह रहे हैं कि आधारभूत इन चार बलों का भी पांचवां कोई एक कारण बल (Causal force) भी है, जिसका रहस्य अभी तक प्रकट नहीं हो सका है | मनुष्य की जिज्ञाषा का कोई अंत नहीं है | मनुष्य विभिन्न प्रकार की जितनी भी खोज करता जा रहा है, उतने ही नित नए प्रश्न उसके मन में उठते जा रहे हैं  | एक प्रश्न का उत्तर ढूंढ निकालता है, फिर दस नए प्रश्न सम्मुख आ खड़े होते हैं | इन नए प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए वह फिर से हमारे सनातन ज्ञान की तरफ रूख करता है  | तो आइये ! अब हम भी अपने सनातन-ज्ञान की ओर चलते हैं, जो केवल एक भौतिक पिंड की गति को ही स्पष्ट नहीं करता है बल्कि कर्मों की गति को भी स्पष्ट करता है |
 गति का सनातन-ज्ञान –
          न्यूटन ने गति का प्रथम नियम दिया, जिसे जड़त्व का नियम (Law of inertia) भी कहा जाता है | हमारे शास्त्र कहते हैं कि जडत्व (Inertia)  को त्यागना आवश्यक है, नहीं तो व्यक्ति की प्रगति नहीं हो सकती | विज्ञान गति (Motion) की बात करता है, शास्त्र प्रगति (Progress) की बात करते हैं | जड़ता (Inertness) अथवा जडत्व (Inertia) है क्या ? स्थिति अथवा स्थान परिवर्तन के लिए लगाये जाने वाले बल का प्रयेक पिंड अथवा प्राणी जो प्रतिरोध करता है, उस प्रतिरोध (Resistance) को ही जड़ता अथवा जडत्व कहा जाता है | स्थान अथवा स्थिति परिवर्तन के लिए प्रतिरोध को त्यागना (Give up) आवश्यक है | यह प्रतिरोध इच्छा (Will) से अथवा जबरदस्ती (Forcefully) दूर किया जा सकता है | मनुष्य में जड़ता का त्याग उसकी स्वयं की इच्छा से ही हो सकता है जबकि पिंड की जड़ता जबरदस्ती दूर की जाती है | आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि ‘मनुष्य की जड़ता का त्याग बड़ा ही मुश्किल है | बिना जड़ता को त्यागे आप भक्ति को उपलब्ध नहीं हो सकते | इस जडता को त्यागने में प्रमुख बाधा है - मोह (Fascination) और अहंकार (Egotism) | बिना अपना अहंकार त्यागे और परिवार अथवा व्यापार से मोह हटाये इस जड़ता से बाहर निकलना संभव नहीं है | ऐसा वह व्यक्ति स्वयं ही कर सकता है |’
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, March 26, 2017

गहना कर्मणो गतिः -11

गहना कर्मणो गतिः -11
           न्यूटन के गति के नियमों के बारे में थोड़ा और अधिक स्पष्ट करना आवश्यक है | इन नियमों में दो शब्द स्पष्ट रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं- एक पिंड (Object) अथवा वस्तु और दूसरा बल (Force) | पिंड या वस्तु पदार्थ (Matter) की श्रेणी में आता है और बल अनुभव (Experience) करने में | मुख्य रूप से बल जिन्हें आधारभूत बल (Fundamental forces) कहा जाता है, चार प्रकार के हैं – गुरुत्वाकर्षण बल (Gravitational force), विद्युत-चुम्बकीय बल (Electro-magnetic force), तीव्र नाभिकीय बल (Strong nuclear force) और क्षीण नाभिकीय बल (Weak nuclear force) | गुरुत्वाकर्षण बल के वाहक (Carrier) को ग्रेविटोन (Graviton), विद्युत्-चुम्बकीय बल के वाहक को फोटोन (Photon), तीव्र नाभिकीय बल के वाहक को ग्लुओन (Gluon) और क्षीण नाभिकीय बल के वाहक (Carrier)  को बोसोन (Intermediate vector boson) कहा जाता है | इन वाहकों (Carriers) पर ये बल सवार होकर किसी पिंड तक पहुँच कर सक्रिय होते हैं |  पहले के दो बल हमें स्पष्ट रूप से अनुभव होते हैं जबकि अंतिम दो बल हमें अनुभव में नहीं आते हैं | इन बलों का हमारी दिनचर्या में महत्वपूर्ण योगदान होता है क्योंकि हमारा शरीर भी तो एक पिंड ही है | ये चारों बल एक दूसरे को प्रभावित भी करते हैं |
                  इन चार बलों के कारण ही यह ब्रह्माण्ड गतिमान है, इन चारों में प्रमुख है, गुरुत्वाकर्षण बल | न्यूटन ने ही गुरुत्वाकर्षण को सबसे पहले प्रतिपादित किया था | संसार की प्रत्येक वस्तु एक दूसरे को आकर्षित और प्रतिकर्षित करती है | इस आकर्षण और प्रतिकर्षण बल के कारण सभी पिंडों में गति होती रहती है, और वे एक दूसरे से टकराते नहीं है |
 क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, March 25, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 10

गहना कर्मणो गतिः – 10
भौतिक गति का विज्ञान -  
              आदिमानव से आज के सुसभ्य मानव तक की यात्रा में गति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है | एक प्रश्न बार-बार उठता है कि ऐसा कौन सा आविष्कार हुआ जिसने विज्ञान की गति को पंख लगा दिए | प्रारम्भ से आज तक की विज्ञान की यात्रा पर दृष्टि डालें तो केवल एक ही आविष्कार नज़र आता है और वह आविष्कार हुआ था - पहिये का | पहिया ही एक मात्र वह आविष्कार था, जो प्रकृति के द्वारा दिए गए उपहारों से थोड़ा भिन्न था | पहिया ही वह मानवकृत प्रथम उपकरण था, जिसने मनुष्य की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी | पहिया प्रथम और अतिप्राचीन उपकरण होने के बाद भी आज भी हमारे जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बना हुआ है | पहिये ने ही भौतिक अस्तित्व को गति प्रदान की |
                          आधुनिक युग के महान वैज्ञानिक न्यूटन ने इस गति के तीन नियम प्रस्तुत किये | जो इस प्रकार हैं –
  गति का प्रथम नियम – अगर कोई वस्तु स्थिर है तो स्थिर ही रहेगी और अगर गतिमान है तो गतिमान ही बनी रहेगी जब तक कि उस पर कोई बाह्य बल नहीं लगाया जाये | इसे जडत्व का नियम (Law of inertia) भी कहते हैं |
  गति का दूसरा नियम – किसी भी पिंड की संवेग (Acceleration) परिवर्तन की दर उस पिंड/वस्तु पर लगाये गए बल के समानुपाती (Directly proportional) और वस्तु की मात्रा अर्थात भार के विलोमानुपाती (Inversely proportional) होती है | संवेग परिवर्तन की दिशा भी वही होती है, जिस दिशा में बल लगाया गया है |
गति का तीसरा नियम – प्रत्येक क्रिया के विरुद्ध उसी अनुपात में उसकी प्रतिक्रिया अवश्य होती है |
           यहाँ पर न्यूटन के नाम को गति के नियम के साथ जोड़ने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि मैं यह कहना चाहता हूँ कि उन्होंने ही ये नियम बनाये हैं | न तो उन्होंने यह नियम बनाये हैं और न ही ऐसा है कि उनसे पहले गति बिना नियम के होती थी | आधुनिक विज्ञान में न्यूटन ही पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने प्रकृति के इस नियम को जान और समझकर संसार के समक्ष प्रतिपादित किया है | गति के नियम तो शाश्वत हैं | संसार में जितनी भी व्यवस्था परमात्मा ने सृष्टि के उद्भव काल में की है, वह एक नियमबद्ध व्यवस्था हैं | सृष्टि में कएक भी कार्य बिना नियम के नहीं होता है | आदिकाल में भारतीय ऋषियों ने भी गति के नियम का पता लगाकर शास्त्रों में वर्णित किया है | ऋषियों के गति के नियम और न्यूटन के गति के नियम में केवल मात्र अंतर इतना ही है कि न्यूटन ने इनको व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर, इसका एक निश्चित सूत्र दिया है | यहाँ गति के नियमों का वर्णन करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि जो बात मैं कर्मों की गति के बारे में कहने जा रहा हूँ, वह इन नियमों को पुष्ट करेगी |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, March 24, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 9

गहना कर्मणो गतिः – 9
गति की परिभाषा –
             स्थिति या स्थान परिवर्तन चाहे किसी पिंड का हो अथवा जीव का, सभी गति कहलाती हैं | स्थिति अथवा स्थान परिवर्तन के माप को गति कहा जाता है | स्थिति परिवर्तन में धरातल का अभाव है जबकि स्थान परिवर्तन धरातल पर ही होता है | कर्म की गति में धरातल का अभाव है अतः इस गति को स्थिति परिवर्तन कहा जा सकता है जबकि प्राणी अथवा वस्तु की गति में धरातल का होना आवश्यक है अतः ऐसी गति को स्थान परिवर्तन कहा जाता है | धरातल का अभाव होने के कारण कर्म में अथवा कर्म से हो रही गति का अर्थात कर्म की गति में जो स्थिति परिवर्तन होता है, उसको हम स्पष्टतः देख नहीं सकते | जैसे सभी नक्षत्रों में गति तो होती है परन्तु उस गति में धरातल का अभाव है क्योंकि नक्षत्रों में गति अंतरिक्ष में हो रही है | जिस कारण से नक्षत्रों में हो रहा प्रतिदिन स्थिति परिवर्तन हम पृथ्वी पर बैठकर देख नहीं सकते | हमें वह नक्षत्र एक ही स्थान पर दृष्टिगत होता है और उसकी स्थिति परिवर्तन का अनुमान लगाने में ही हमें कई वर्ष लग जाते हैं | गति भौतिकता का प्रमुख गुण है | ‘भौतिकता के गुण’ का अर्थ यह है कि जिस किसी का भी इस संसार में अस्तित्व है वह या तो स्वयं गतिमान है अथवा उस के भीतर गति हो रही है | किसी कार्य का होना क्रिया कहलाता है | यह क्रिया या तो स्वतः हो सकती है अथवा किसी इच्छा से हो सकती है | स्वतः होने वाली क्रिया भी गति है और प्रत्येक अस्तित्व वाली वस्तुओं और पिंडों में यह सतत होती रहती है | इच्छा से होने वाली क्रिया भी गति ही है और उसको कर्म कहा जाता है | स्वेच्छा से क्रिया करने का अधिकार केवल मनुष्य के पास है | क्रिया और कर्म में एक मूलभूत अंतर है कि क्रिया सदैव अपने निर्धारित नियम के अनुसार स्वतः ही होती है, जब कि कर्म को परिवर्तित किया जा सकता है | कर्म में परिवर्तन को कर्म के स्वरुप में परिवर्तन होना कहा जाता है | क्रियाओं में भी परिवर्तन किया जा सकता है परन्तु किसी भी क्रिया को परिवर्तित करने में वस्तु अथवा प्राणी का कोई योगदान न होकर प्रायः मनुष्य का योगदान ही होता है |
            कर्म की गति इसी स्थिति परिवर्तन के अंतर्गत आती है | गति भौतिकता का प्रमुख गुण है और कर्म भी भौतिक शरीर में इन्द्रियों द्वारा ही संपन्न होते है | परन्तु कर्म के स्वरुप में परिवर्तन आध्यात्मिक स्तर पर होता है, भौतिक स्तर पर नहीं, जबकि पिंड की गति का स्तर भौतिक है | इसीलिए हमारे ऋषि-मुनि भौतिकता के स्तर से ऊपर उठकर आध्यात्मिकता पर अधिक जोर देते है | अतः आध्यात्मिकता के अनुसार कर्म की गति की व्याख्या विभिन्न पुरानों और उपनिषदों में की गयी है | गति के आध्यात्मिक स्तर को जानने से पहले भौतिकता के स्तर पर ही गति को समझना आवश्यक है | फिर इससे अगले स्तर अर्थात आध्यात्मिकता के स्तर पर जाकर ही कर्मों की गति को समझा जा सकता है | तो आइये | सबसे पहले भौतिक गति को विज्ञान के आधार पर समझें |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, March 23, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 8

गहना कर्मणो गतिः – 8
                कर्म ही व्यक्ति को जीवन भर भ्रम में डालकर उलझाये रखते हैं | इस कर्म-जाल से निकलना इसलिए भी संभव नहीं है क्योंकि हम सभी कर्म करने को विवश है | ऐसे में मात्र एक ही रास्ता हमारे पास शेष रह जाता है कि हम कर्मों को भली भांति समझें, कर्मों की गति को समझें और फिर उसी अनुसार अपने कर्मों के स्वरुप में परिवर्तन करते हुए अपना उत्थान करें | इसीलिए भगवान श्री कृष्ण ने कहा है –‘गहना कर्मणो गतिः |’ (गीता-4/17) अर्थात कर्म की गति गहन है | कर्म की गति जानने से पहले हमें यह जानना आवश्यक है कि गति क्या है ? गति कैसे उत्पन्न होती है ? गति को बढ़ाने अथवा रोकने का क्या साधन है ? गति का क्या परिणाम है ? जैसा कि आप जानते हैं कि विज्ञान विषय से मेरा सम्बन्ध प्रारम्भ से ही है, इस कारण से ज्ञान को भी मैं विज्ञान की कसौटी पर परखता हूँ | इस कसौटी पर हमारे शास्त्र सदैव खरे उतरे हैं | अतः मेरा मानना है कि ज्ञान (Knowledge) जब साध्य (Executable) हो जाता है, वह विज्ञान (Science) कहलाने लगता है | दोनों में रत्तीभर का भी अंतर नहीं है | कथित प्रगतिवादी (Progressive) चाहे कितना भी दिग्भ्रमित करे, हमें उनके जाल में नहीं फंसना है | विज्ञान का आधार हमारे शास्त्रों में समाहित सनातन ज्ञान (Eternal knowledge) ही है, हमारे शास्त्र गुरु हैं और विज्ञान उनका आज्ञाकारी शिष्य | भला ! गुरु और शिष्य में कभी कोई मतभेद हो सकता है ?
        आइये ! सबसे पहले गति के बारे में विज्ञान क्या कहता है, यह जान लेते हैं | तत्पश्चात उस विज्ञान को हमारे ज्ञान से जोड़ते हुए कर्मों की गति की गहनता से परिचित होते हैं | जब हम विज्ञान से ज्ञान की तरफ बढ़ेंगे, तब हमें पता चलेगा कि आधुनिक विज्ञान से हमारे शास्त्र अभी भी बहुत आगे हैं | ज्ञान को कुछ सीमा तक साध्य बनाने के लिए अभी भी हमें कई शताब्दियाँ लग सकती है | सम्पूर्ण रूप से ज्ञान को विज्ञान बनाना लगभग असंभव है क्योंकि ज्ञान अनंत है और उसको पूर्ण रूप से जान लेना (Exploration) कठिन है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, March 22, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 7

गहना कर्मणो गतिः – 7
           इस प्रकार हम देखते हैं कि गीता के प्रारम्भ में ही भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को ‘कर्म’ विषय को पूर्ण रूप से स्पष्ट कर दिया था, इसके बावजूद भी वे अंतिम अध्याय में उसी कर्म विषय पर पुनः लौट आते हैं | इसका कारण क्या है ? वास्तव में देखा जाये तो अर्जुन भी कुछ जानने अथवा मानने के स्थान पर करने को अधिक महत्त्व दे रहा है क्योंकि उसे ज्ञान से अधिक विश्वास अपने द्वारा करने पर अर्थात स्वयं के कर्ता होने पर है | इससे स्पष्ट है कि हम सभी लोग जानने और मानने से भी अधिक महत्त्व करने को देते हैं और जब करने से भी उसके अनुरूप फल प्राप्त कर संतुष्ट नहीं होते तो दो ही विकल्प बचते हैं, या तो पुनः जन्म लें अथवा सब कुछ त्यागकर परमात्मा के शरणागत हो जाएँ | पहले विकल्प में जन्म-मरण के चक्र से कभी मुक्त नहीं हो सकते जबकि दूसरा विकल्प हमें इसी जीवन में मुक्त कर सकता है | शरणागति के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है, जो हमें शांति प्रदान कर सके | परन्तु हम बार बार मनुष्य जीवन पाकर भी दूसरे के स्थान पर पहला विकल्प ही चुनते रहते हैं |
       यही कारण है कि गीता ज्ञान के समापन में श्री कृष्ण को आखिर अर्जुन को कहना ही पड़ा कि –“सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |” (गीता-18/66) अर्थात सभी धर्मों को अर्थात कर्तव्य कर्मों का त्यागकर मेरी शरण में आ जा | कर्तव्य कर्मों के त्याग से आशय कर्तव्य कर्मों के न करने से नहीं है, कर्मों के पलायन से नहीं है बल्कि कर्मफल को त्यागने से है | उनके कहने का मंतव्य है कि कर्तव्य कर्म करते हुए उनका त्याग मुझमें कर दे | ऐसे कर्मों के त्याग का अर्थ है कि जो भी कर्मों का फल मिलेगा, वह चाहे वह आपके पक्ष में हो अथवा विपक्ष में, सभी के लिए परमात्मा ही उत्तरदायी होंगे क्योंकि आपने सभी कर्म परमात्मा को त्याग कर दिए हैं | इस कर्म-त्याग का सबसे बड़ा लाभ यह है कि फिर आप बिलकुल भी विचलित नहीं होंगे और आपके भीतर किसी प्रकार का अहंकार भाव अथवा अपराध बोध पैदा नहीं हो सकता | साथ ही साथ कर्मों के प्रति आसक्ति और कर्तापन भी पैदा नहीं होगा | स्वयं में कर्तापन का न होना आपको कभी मोहग्रस्त भी नहीं होने देगा |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Tuesday, March 21, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 6

गहना कर्मणो गतिः – 6
           व्यक्ति का स्वभाव, जो कि पूर्वजन्म के संस्कारों और वर्तमान जीवन के कर्मों के मिश्रण से बनता है, व्यक्ति को वह स्वभाव ही अपने अनुसार कर्म करने को विवश कर देता है | वह चाहकर भी कर्मों से पलायन नहीं कर सकता | कर्म न करने का संकल्प भी आपको कर्म करने से नहीं रोक सकता क्योंकि आपके स्वभाव के सामने आपका संकल्प एक दिन यूँ ही धरा रह जायेगा | भगवान श्री कृष्ण कहते हैं –
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति || गीता-3/33 || 
अर्थात सभी प्राणी प्रकृति और स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं | ज्ञानी व्यक्ति भी अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करने का प्रयास करता है. फिर इसमें कर्म न करने का हठ क्या करेगा ? कर्म करना तो स्वभाव के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत है |
         इस प्रकार गीता में भगवान श्री कृष्ण कर्म को स्पष्ट करते हुए कह देते हैं कि कोई व्यक्ति यह कहता है कि ‘मैं यह कर्म तो करूँगा और वह कर्म नहीं करूँगा’ तो उसका इस प्रकार कहना मिथ्या है | कर्म तो स्वभाव के कारण होते हैं और अगर कर्मों का स्वरुप बदलना है तो सर्वप्रथम स्वभाव बदलना होगा | स्वभाव परिवर्तन के लिए अहंकार और मोह आदि विकारों का त्याग करना पड़ता है | स्वभाव को परिवर्तित करना मनुष्य के हाथ में है, कर्म करना अथवा न करना नहीं, कर्म तो पत्येक परिस्थिति में करने ही होंगे | अतः यह स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर है कि कर्म से पलायन करना भी अनुचित है और कर्म में आसक्त होना भी अनुचित है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Monday, March 20, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 5

गहना कर्मणो गतिः -5
          इसी अंतिम अध्याय में कर्मों को करने की विवशता का अहंकार के बाद दूसरा महत्वपूर्ण कारण मोह को स्पष्ट करते हुए भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा |
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोSपि तत् || गीता-18/60 ||
अर्थात हे कुन्तीपुत्र ! जिस कर्म को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्म से बंधा हुआ परवश होकर करेगा |
              इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण कर्मों को करने से बचने का दूसरा बड़ा कारण मोह को बताया है | अर्जुन की दृष्टि में परिवारजनों और सगे सम्बन्धियों को मारना अनुचित था | उसके पीछे पारिवारिक मोह ही कारण था | आमजन भी कई कर्मों को ऐसे ही किसी के मोह में फंसकर करना नहीं चाहता और कर्मों से पलायन करने का प्रयास करता है | ऐसे किसी भी पलायन करने का प्रयास उसके अपने स्वभाव के कारण एक दिन निरर्थक हो जाता है और व्यक्ति उसी कर्म को करने के लिए विवश हो जाता है | कर्म करने से भागना असंभव है | इसीलिए हमारे बुजुर्ग कहा करते थे कि कर्मों से भागें नहीं, उनको तो भोगें क्योंकि प्रत्येक कर्म का फल भोगना ही पड़ता है | पूर्वजन्म के कर्मों को भोगने के लिए ही तो स्वभावानुसार कर्म करने पड़ते हैं, तभी तो भगवान श्री कृष्ण कह रहे हैं कि सभी लोग कर्म करने को विवश हैं |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Sunday, March 19, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 4

गहना कर्मणो गतिः -4
             इस श्लोक (गीता-3/5) से स्पष्ट है कि मनुष्य सदैव ही कर्म करने को विवश है और उसकी विवशता का कारण भी उसके पूर्वजन्म के कर्म हैं जो प्रकृति के गुणों के कारण ही नए जीवन में संस्कार बनकर आते हैं | उन संस्कारों के कारण ही मनुष्य जीवन के प्रारम्भ काल से कर्म करने को प्रवृत होता है | यही कारण है कि भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अवसादग्रस्त अर्जुन को ज्ञान का प्रारम्भ कर्म के विश्लेषण करने से किया है | कर्म करने की विवशता को भगवान श्री कृष्ण अंतिम अद्ध्याय में भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं –
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे |
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति || गीता-18/59||
जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ तो तेरा यह निश्चय भी मिथ्या है; क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे युद्ध करने को विवश कर देगा |
              इस श्लोक के माध्यम से कर्म न करने का प्रथम कारण भगवान ने स्पष्ट किया है और वह है व्यक्ति का अहंकार | अहंकार कई कारणों से मनुष्य में उत्पन्न हो सकता है | सबसे बड़ा अहंकार है, अपने को प्रत्येक अथवा किसी विशेष क्षेत्र में सर्वोच्च मानना | पद, धन-सम्पति, उच्चकुल और ज्ञान, मान-सम्मान आदि का अहंकार व्यक्ति को कई प्रकार के कर्म न करने को प्रेरित करता है | परन्तु पूर्वजन्म के कर्मों से बना संस्कार और वर्तमान जीवन के कर्मों से बना स्वभाव मनुष्य को उन कर्मों से विमुख नहीं होने देता बल्कि उन्हीं कर्मों को करने को विवश कर ही देता है | अर्जुन को अपने ज्ञानी होने का दंभ था | प्रथम अध्याय में वह युद्ध न करने के पक्ष में अपने ज्ञान को भगवान के सामने विविध प्रकार से व्यक्त करता भी है | वह युद्ध के बाद परिवार, स्त्रियों और पितरों पर पड़ने वाले प्रभावों का वर्णन तक करते हैं | इस वर्णन का आधार वह स्वयं के ज्ञान को मानता है, जो उसके अहंकार का एक कारण है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Saturday, March 18, 2017

गहना कर्मणो गतिः - 3

गहना कर्मणो गतिः -3
              जानना, मानना और परमात्मा का आश्रय लेना, इन तीनों के बारे में हम आगे कभी विस्तृत रूप से विचार करेंगे | अभी का मूल विषय है-“गहना कर्मणो गतिः” अर्थात कर्म की गति बड़ी गहन है | कर्म इस संसार-चक्र के केंद्र में है | कर्मों के कारण ही हमारा यह संसार है, चल रहा है और चलता रहेगा | जब तक हम कर्म करते रहेंगे, संसार को चलते रहने से कोई नहीं रोक सकता | कर्म को हमने पहले ही ‘गुण-कर्म विज्ञान’ में विस्तृत रूप से स्पष्ट कर दिया है | कर्म की गति ही संसार की गति है, बिना कर्म के संसार गतिहीन है | कभी कर्म के बिना इस जीवन की कल्पना करके देखिये, आपको अपना जीवन कितना नीरस नज़र आता है | अतः यह स्पष्ट है कि हमारे संसार के साथ साथ हमारे इस जीवन का आधार भी कर्म ही हैं | नहीं, केवल इस जीवन का ही आधार क्यों, कर्म तो हमारे प्रत्येक जन्म का आधार है, चाहे पूर्व के जन्म हों, यह जीवन हों अथवा मिलने वाले भावी जन्म हों |
            जन्म भी कर्म के प्रभाव से होता है और कर्म से ही हमारा जीवन आगे बढ़ता है | कर्म से ही एक जीवन समाप्त होता है और कर्म से ही फिर एक नया जीवन प्रारम्भ होता है | जानना, मानना, और शरणागत होना बाद की बातें है परन्तु करना अदि से अंत तक चलता रहता है | गीता में इसी सतत कुछ न कुछ करते रहने को भगवान् श्री कृष्ण स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै: || गीता-3/5 ||
अर्थात निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने को बाध्य किया जाता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Friday, March 17, 2017

गहना कर्मणो गतिः -2

गहना कर्मणो गतिः -2
            ब्रह्मलीन स्वामी रामसुखदासजी महाराज कहा करते थे कि आपने अपने जीवन के प्रारम्भ से अब तक जो कुछ भी करना था, कर के देख लिया, जानना चाहते थे उसको जानने का प्रयास भी कर लिया, फिर भी परमात्मा के पास तक पहुँच नहीं पाए, उसको जान नहीं पाए | जब उसको जान नहीं पाए और उसके अस्तित्व से भी इंकार नहीं है तो फिर मान लेने में ही भलाई है | मैं उनकी इस बात से शत प्रतिशत सहमत हूँ | अज्ञात को जानने के लिए सर्वप्रथम उसको मानना ही पड़ता है | बिना कुछ माने सत्य को जाना नहीं जा सकता | गणित और विज्ञान का मूलभूत सिद्धांत भी यही कहता है कि सत्य को जानने से पहले उसकी एक परिकल्पना (Hypothesis) करनी पड़ती है, तभी हम वास्तविक सत्य तक पहुँच पाते हैं | प्रारम्भिक शिक्षा में गणित के अध्ययन में हमने भी कई बार प्रश्न के सही हल तक पहुँचने के लिए एक संख्या की कल्पना तक की है जैसे माना कि राम के पास 100 रु. हैं अथवा सीता के पास कुल X रु. हैं | इस प्रकार कुछ न कुछ मानकर ही वास्तविक उत्तर तक पहुँचते थे | अतः यह स्पष्ट है कि अगर सत्य को जानना है तो सर्वप्रथम हमें कुछ न कुछ उस सत्य के बारे में मानना ही होगा |
           श्री मद्भगवद्गीता में करना. जानना, मानना और आश्रय लेना, ये चार प्रमुख बातें हैं | ‘करना’, कर्म-योग है, ‘जानना’, ज्ञान-योग है, ‘मानना’, भक्ति-योग है और ‘परमात्मा का आश्रय लेना’, शरणागति है | इसी प्रकार हमारे जीवन काल में भी चार अवस्थाएं होती है | जिनका क्रम है- बाल्यावस्था, युवावस्था, प्रोढ़ावस्था ओर वृद्धावस्था | पूर्वकाल में इसे आश्रम व्यवस्था कहा जाता था जिसके अंतर्गत प्रत्येक आश्रम के निश्चित कर्म, सिद्धांत, दायित्व और नियम हुआ करते थे जिन्हें आश्रम-धर्म कहा जाता था | ये चार आश्रम क्रमवार इस प्रकार थे – ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम | यह आश्रम व्यवस्था चाहे प्रारम्भ में किसी भी कारण से बनाई गयी हो, आज वह व्यवस्था लगभग अपना दम तोड़ चुकी है | आज इस कलियुग में समस्त आश्रम एक दूसरे में गडमड हो चुके हैं | इसलिए आज के सन्दर्भ में इसकी व्याख्या भी अलग रूप से करनी आवश्यक हो गयी है | अतः इन आश्रमों के स्थान पर मैंने इन्हें अवस्थाओं का नाम दिया है | इसीलिए प्रारम्भ में ही मैंने स्पष्ट कर दिया था कि गीता में वर्णित चारों बातें मनुष्य के जीवनकाल की अवस्थाओं के अनुसार ही स्पष्ट की गयी है | मेरा यह कहना अतिश्योक्ति भी नहीं होगा क्योंकि गीता जिस समय कही गयी थी, उसके तुरंत बाद ही कलियुग का प्रारम्भ हो गया था, जबकि आश्रम व्यवस्था सतयुग की बात थी |  
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Thursday, March 16, 2017

गहना कर्मणो गतिः -1

गहना कर्मणो गति: -1
     अभी कुछ दिनों पहले ही हमने गुण-कर्म विज्ञान का विश्लेषण किया था | श्री मद्भगवद्गीता में भगवान् श्री कृष्ण ने कर्म पर सबसे अधिक जोर दिया है | कर्म का वर्णन करते करते वे ज्ञान विषय पर आते हैं और फिर भक्ति को स्पष्ट करते हुए अंत में शरणागति के साथ इस गीता ज्ञान का समापन करते हैं | अगर देखा जाये तो मनुष्य के जीवन की चारों अवस्थाओं की तरह ही यह विश्लेषण किया गया होगा, ऐसा समझा जा सकता है | बाल्यकाल से युवावस्था और फिर पूर्वार्ध तक की स्थिति को प्राप्त होते होते व्यक्ति कर्म और ज्ञान को लेकर ही संशयग्रस्त रहता है | वह यह नहीं समझ पाता है कि जीवन में ज्ञान अधिक महत्वपूर्ण है अथवा कर्म | जब वह अपने जीवन के उतरार्ध के प्रवेश द्वार पर दस्तक दे रहा होता है, तब उसे परमात्मा याद आते हैं और वह कर्म व ज्ञान से आगे बढ़ते हुए भक्ति-मार्ग को प्राथमिकता दे रहा लगता है | जीवन और संसार की कामनाओं के कारण वह सदैव ही मोहग्रस्त रहता है और भक्ति-मार्ग भी उसे कठिनाइयों भरा नज़र आने लगता है | वास्तव में इसे जीवन की एक विडंबना ही कहा जा सकता है कि मनुष्य अपने जीवन को कोडियों के मोल पर गँवा रहा है |
                  सांसारिक मोह और अपूरणीय कामनाएं उसे जीवन के वास्तविक पथ से भटका ही देती है | हजारों में कोई एक व्यक्ति तो इस पथ पर आगे बढ़ने की सोचता है परन्तु बहुधा व्यक्ति तो कर्म के नाम पर सकाम कर्मों और और ज्ञान के नाम पर अज्ञान का कूड़ा-करकट एकत्रित करते रहते हैं | न उसे कर्म का पता है और न ज्ञान का | आचार्य श्री गोविन्द राम शर्मा कहते हैं कि भक्ति मार्ग पर चलने के लिए न तो कुछ जानने की आवश्यकता है और न ही कुछ करने की | आवश्यकता है केवल मानने की | परन्तु मानना इतना सरल होता तो मनुष्य कभी का संसार सागर से पार होकर मुक्त हो गया होता | ‘करना, जानना और मानना’, ये तीन बातें ही गीता में प्रमुखता से स्पष्ट की गयी है | जब व्यक्ति तीनों ही बातों को स्पष्ट रूप से नहीं समझ सकता तो अंत में चौथी बात अर्थात शरणागति ही बचती है, जिसे अंगीकार कर वह शांति को प्राप्त हो सकता है | यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि अगर व्यक्ति इन चारों में से किसी भी एक मार्ग का ह्रदय से अनुसरण कर ले तो इन चारों को प्राप्त करते हुए वह शांति को प्राप्त होकर मुक्त हो सकता है |
क्रमशः
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||

Wednesday, March 15, 2017

चुम्बक बनाम गुरु-समापन कड़ी

हम सभी लोहे के समान है और गुरु चुम्बक के समान है | उनका प्रभाव क्षेत्र हमें अपनी ओर खींचता (Attract) है और हम उनके प्रभाव क्षेत्र में खींचे चले भी जाते हैं | उसी समय हमारे सांसारिक मोह (Worldly attachments) का बंधन हमें वापिस अपने प्रभाव क्षेत्र में खींच लाता है | इस प्रकार यह मोह-बंधन हमें गुरु के संपर्क (Contact) में आने से वंचित कर देता है | गुरु और मोह, दोनों के ही क्षेत्र अपना-अपना प्रभाव दिखाते हैं और हम अपने शारीरिक सुख के वशीभूत होकर इस मोह-बंधन को तोड़ नहीं पाते हैं | अंततः हम गुरु से आत्म-ज्ञान पाने के स्थान पर सांसारिक मोह को अधिक महत्त्व दे देते हैं | इस प्रकार हम सांसारिक बंधनों से जीवन भर मुक्त नहीं हो पाते हैं |
             विचारणीय है कि यह सांसारिक बंधन हमें क्या देता है, जो हम इसमें बंधे रहना ही पसंद करते हैं ? यह बंधन सिवाय दुःख के कुछ भी नहीं दे सकता, यह बात जब हमारी समझ में आती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | जीवन समाप्ति की तरफ और हम हाथ मलते हुए विवश से नज़र आते हैं | मनुष्य नाम की प्रजाति की ऐसी कई पीढ़ियां गुजर चुकी है परन्तु आज तक हम सम्हलने के स्थान पर और अधिक फिसलते जा रहे हैं | हमें यह स्वीकार करना होगा कि सांसारिक बंधन सदैव ही अस्थाई (Temporary) होते हैं और इस बंधन हम स्वयं ही बंधे है, किसी और ने हमें बांधा नहीं है | अतः हमें ही इन बंधनों को तोड़ना होगा | वास्तव में हम परमात्मा से जुड़े हैं, संसार से नहीं | परमात्मा से हमारा सम्बन्ध सहज (Natural) और नित्य (Eternal) है जबकि संसार से सम्बन्ध काल्पनिक (Imaginary) और अनित्य (Transient) है | इस बात का ज्ञान हमें गुरु ही करवा सकता है | अतः इस संसार के काल्पनिक बंधन से मुक्त होकर गुरु के पास जाइये, उनका सानिध्य आपको परमात्मा के द्वार तक अवश्य ही पहुंचा देगा |
        गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय |
        बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय ||
प्रस्तुति- डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||