क्रमश:
आत्मा ,जिसके बिना कहीं भी और किसी भी जगह जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती|भौतिक शरीर को तैयार करने हेतु पांच भौतिक तत्व ,पांच ज्ञानेन्द्रिया,पांचों ज्ञानेन्द्रियों के पांच विषय,पांच कर्मेन्द्रियाँ,मन,बुद्धि ,चित्त तथा अहंकार ;कुल चौबीस अपरा प्रकृति की आवश्यकता होती है|शरीर बनने के बाद भी यह कुछ भी करने की स्थिति में नहीं होता है|श्री मद् भागवत महापुराण के ३/२६ के श्लोक संख्या ७० में लिखा है -
चित्तेन हृदयं चैत्यः क्षेत्रज्ञ: प्राविशद्यदा |
विराट् तदैव पुरुष: सलिलादुदतिष्ठत||
अर्थात्, जब चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ ने चित्त के सहित ह्रदय में प्रवेश किया , तो विराट पुरुष जल से उसी समय उठ खड़ा हुआ|
इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि चाहे अपरा प्रकृति के समस्त २४ तत्व मिलकर एक शरीर का निर्माण करदे ,उस में जीवन जीने की क्षमता पैदा करना उस परमात्मा की शक्ति या उस परमात्मा के अंश का उस शरीर में प्रवेश किये बिना असंभव है|इसी परमात्मा की शक्ति ,परमात्मा के अंश का नाम ही आत्मा है|गीता में भगवान कहते हैं -
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः |
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||गीता१०/२०||
अर्थात्, हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सब का आत्मा हूँ|तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि ,मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ|
इस श्लोक से स्पष्ट है कि आत्मा ,परमात्मा का ही अंश है|जब तक हम परमात्मा कोअपने से अलग मानते रहेंगे तब तक आत्मा को समझना मुश्किल होगा|परमात्मा का अंश होना एक तरह से परमात्मा होना ही होता है|फिर ऐसी कौन सा परिवर्तन इस आत्मा में होता है ,जो इसे परमात्मा से अलग कर देता है|गुणात्मक(Qualitative) रूप से दोनों में कोई भेद नहीं है और ना ही मात्रात्मक(Quantitative) भेद है|फिर भी विभिन्न जीवों में उपस्थित ये आत्माएं अलग अलग नज़र क्यों आती है?आत्मा, जो कि परमात्मा का ही अंश है,क्यों परमात्मा की तरह व्यवहार नहीं कर पाती है?
यह सब इस आत्मा के सफर का ही असर है|यह सब जो हमें भौतिक रूप से नजर आता है,वह आत्मा का स्वरुप नजर नहीं आता बल्कि आत्मा की यात्रा के कारण नज़र आता है यानि जिस शरीर में आत्मा उपस्थित है ,उसके कारण हमें एक तरह का भ्रम पैदा हो जाता है|एक छोटे से उदाहरण से आप समझ सकते हैं|आप जब ट्रेन में सफर करते है,तब भी आप वही होते है और वायुयान में सफर करते हैं तब भी वही|फिर भी जो दूसरे देखने वाले होते है,तब उनकी दृष्टि में आप अलग अलग होते है|एक बार मेरी नियुक्ति छापर नामक स्थान पर थी|मैं रोज अपने कार्य पर सुबह जाता था और शाम को वापिस सुजानगढ़ आ जाता था|एक बार छापर में मेरी कार खराब हो गयी|उस दिन रविवार था,कोई मैकेनिक भी नहीं मिला तो मैं दोपहर को बस से सुजानगढ़ के लिए छापर बस अड्डे से चढा|खाली सीट पाकर मैं बैठ गया|दो पंक्ति पीछे दो महिलाये आपस में बात कर रही थी|एक ने कहा-देखो डॉ.काछवाल जी जा रहे है|दूसरी महिला ने मेरे पर नज़र डालते हुये कहा-ये डॉ. साहब नहीं है,उनके पास तो कार है,भला वे इस बस में सफर क्यों करेंगे?व्यक्ति वही है,परन्तु अप्रत्याशित रूप से जब नज़र आता है तो एक भ्रम की स्थिति पैदा कर देता है|यही इस आत्मा के साथ होता है|जब अमीर के साथ सफर कर रही होती है तब और नज़र आती है और गरीब के शरीर में होती है तो कुछ और|भगवान गीता में कहते है,कोई भेद नहीं है-आप गलत समझ रहे है ,सब में वही है सब में एक समान है|
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योSर्जुन |
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मतः|| गीता६/३२||
अर्थात्, हे अर्जुन!जो योगी स्वयं की भांति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है,यानि आत्मा को ही देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सब में सम देखता है ,वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है|यहाँ कृष्ण के कहने का आशय यही है की सब में आत्मा एक समान है और सब को सुख और दुःख का अनुभव समान ही होता है ,यही समझना चाहिए|
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिनः ||गीता५/१८||
अर्थात्,ज्ञानीजन, विद्यायुक्त ब्राह्मण में,गौ में,हाथी,कुत्ते और चांडाल में भी समदर्शी होते हैं,यानि सभी में अपने को अर्थात् आत्मा को ही देखते है|
उपरोक्त दोनों श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि सब में चेतन स्वरुप आत्मा समान ही होती है|जो भेद नज़र आता है ,वह मात्र सांसारिक दृष्टि का ही भेद है;वास्तव में कोई भेद नहीं है|जब यह ज्ञान किसी को हो जाता है ,तब उसके लिए जीवन का अर्थ ही बदल जाता है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
आत्मा ,जिसके बिना कहीं भी और किसी भी जगह जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती|भौतिक शरीर को तैयार करने हेतु पांच भौतिक तत्व ,पांच ज्ञानेन्द्रिया,पांचों ज्ञानेन्द्रियों के पांच विषय,पांच कर्मेन्द्रियाँ,मन,बुद्धि ,चित्त तथा अहंकार ;कुल चौबीस अपरा प्रकृति की आवश्यकता होती है|शरीर बनने के बाद भी यह कुछ भी करने की स्थिति में नहीं होता है|श्री मद् भागवत महापुराण के ३/२६ के श्लोक संख्या ७० में लिखा है -
चित्तेन हृदयं चैत्यः क्षेत्रज्ञ: प्राविशद्यदा |
विराट् तदैव पुरुष: सलिलादुदतिष्ठत||
अर्थात्, जब चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ ने चित्त के सहित ह्रदय में प्रवेश किया , तो विराट पुरुष जल से उसी समय उठ खड़ा हुआ|
इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि चाहे अपरा प्रकृति के समस्त २४ तत्व मिलकर एक शरीर का निर्माण करदे ,उस में जीवन जीने की क्षमता पैदा करना उस परमात्मा की शक्ति या उस परमात्मा के अंश का उस शरीर में प्रवेश किये बिना असंभव है|इसी परमात्मा की शक्ति ,परमात्मा के अंश का नाम ही आत्मा है|गीता में भगवान कहते हैं -
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः |
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||गीता१०/२०||
अर्थात्, हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सब का आत्मा हूँ|तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि ,मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ|
इस श्लोक से स्पष्ट है कि आत्मा ,परमात्मा का ही अंश है|जब तक हम परमात्मा कोअपने से अलग मानते रहेंगे तब तक आत्मा को समझना मुश्किल होगा|परमात्मा का अंश होना एक तरह से परमात्मा होना ही होता है|फिर ऐसी कौन सा परिवर्तन इस आत्मा में होता है ,जो इसे परमात्मा से अलग कर देता है|गुणात्मक(Qualitative) रूप से दोनों में कोई भेद नहीं है और ना ही मात्रात्मक(Quantitative) भेद है|फिर भी विभिन्न जीवों में उपस्थित ये आत्माएं अलग अलग नज़र क्यों आती है?आत्मा, जो कि परमात्मा का ही अंश है,क्यों परमात्मा की तरह व्यवहार नहीं कर पाती है?
यह सब इस आत्मा के सफर का ही असर है|यह सब जो हमें भौतिक रूप से नजर आता है,वह आत्मा का स्वरुप नजर नहीं आता बल्कि आत्मा की यात्रा के कारण नज़र आता है यानि जिस शरीर में आत्मा उपस्थित है ,उसके कारण हमें एक तरह का भ्रम पैदा हो जाता है|एक छोटे से उदाहरण से आप समझ सकते हैं|आप जब ट्रेन में सफर करते है,तब भी आप वही होते है और वायुयान में सफर करते हैं तब भी वही|फिर भी जो दूसरे देखने वाले होते है,तब उनकी दृष्टि में आप अलग अलग होते है|एक बार मेरी नियुक्ति छापर नामक स्थान पर थी|मैं रोज अपने कार्य पर सुबह जाता था और शाम को वापिस सुजानगढ़ आ जाता था|एक बार छापर में मेरी कार खराब हो गयी|उस दिन रविवार था,कोई मैकेनिक भी नहीं मिला तो मैं दोपहर को बस से सुजानगढ़ के लिए छापर बस अड्डे से चढा|खाली सीट पाकर मैं बैठ गया|दो पंक्ति पीछे दो महिलाये आपस में बात कर रही थी|एक ने कहा-देखो डॉ.काछवाल जी जा रहे है|दूसरी महिला ने मेरे पर नज़र डालते हुये कहा-ये डॉ. साहब नहीं है,उनके पास तो कार है,भला वे इस बस में सफर क्यों करेंगे?व्यक्ति वही है,परन्तु अप्रत्याशित रूप से जब नज़र आता है तो एक भ्रम की स्थिति पैदा कर देता है|यही इस आत्मा के साथ होता है|जब अमीर के साथ सफर कर रही होती है तब और नज़र आती है और गरीब के शरीर में होती है तो कुछ और|भगवान गीता में कहते है,कोई भेद नहीं है-आप गलत समझ रहे है ,सब में वही है सब में एक समान है|
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योSर्जुन |
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मतः|| गीता६/३२||
अर्थात्, हे अर्जुन!जो योगी स्वयं की भांति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है,यानि आत्मा को ही देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सब में सम देखता है ,वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है|यहाँ कृष्ण के कहने का आशय यही है की सब में आत्मा एक समान है और सब को सुख और दुःख का अनुभव समान ही होता है ,यही समझना चाहिए|
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिनः ||गीता५/१८||
अर्थात्,ज्ञानीजन, विद्यायुक्त ब्राह्मण में,गौ में,हाथी,कुत्ते और चांडाल में भी समदर्शी होते हैं,यानि सभी में अपने को अर्थात् आत्मा को ही देखते है|
उपरोक्त दोनों श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि सब में चेतन स्वरुप आत्मा समान ही होती है|जो भेद नज़र आता है ,वह मात्र सांसारिक दृष्टि का ही भेद है;वास्तव में कोई भेद नहीं है|जब यह ज्ञान किसी को हो जाता है ,तब उसके लिए जीवन का अर्थ ही बदल जाता है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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