क्रमश:
बुद्धि ही शरीर में एक मात्र ऐसी प्रकृति है जो अपने साथ उपस्थित मन,चित्त और अहंकार को नियंत्रित करती है|अगर बुद्धि के चुम्बकीय क्षेत्र में कोई व्यवधान आता है तो फिर समस्त शरीर की क्रियाओं पर उसका प्रभाव पड़ता है|बुद्धि का सम्बन्ध आत्मा और शरीर दोनों से होता है|आत्मा अपनेआप कुछ भी नहीं कर सकती|कुछ करवाने के लिए उसे मन की ही आवश्यकता होती है और मन पर नियत्रण हमेशा ही बुद्धि का रहा है|मन को नियंत्रित ना तो शरीर कर सकता है और ना ही आत्मा ही|जबकि दोनों के उर्जा क्षेत्र के सामंजस्य बिंदु पर मन अवस्थित होता है|मन में जो भी अंकित होता है ,उसे केवल बुद्धि ही परिवर्तित कर सकती है|बुद्धि का चुम्बकीय क्षेत्रत् मन को प्रभावित करता है|मन फिर इन्द्रियों के माध्यम से वही कर्म करवाता है जो बुद्धि उसे करवाने का आदेश देती है||
आत्मा का अपना एक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र होता है और शरीर का अपना|बुद्धि का अपना चुम्बकीय क्षेत्र होता है ,परन्तु बुद्धि; शरीर की तरह ही स्थूल प्रकृति की है अतः उसका यह क्षेत्र शरीर के क्षेत्र के ज्यादा प्रभाव में रहता है बजाय आत्मा के प्रभाव के|इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को गीता में अर्जुन को समझाना पड़ा कि तुम अपनी बुद्धि और मन को मुझमे लगा|(गीता १२/८)|अगर बुद्धि शरीर की बजाय आत्मा के प्रभाव में होती तो श्री कृष्ण को यह कहने की कोई जरूरत ही नहीं होती|आत्मा को भी अगर शरीर से कोई कार्य लेना होता है तो उसे भी पहले बुद्धि के प्रभाव क्षेत्र को ही प्रभावित करना होगा|उसके बाद बुद्धि उसको कितना महत्त्वपूर्ण मानती है यह उसके प्रभाव क्षेत्र और मन पर निर्भर करता है| अगर मन इंकार कर देता है,तो फिर आत्मा को बार बार बुद्धि को निर्देशित करना पड़ता है|फिर भी अगर मन वैसा नहीं करता जैसा आत्मा चाहती है तो फिर सारा दोष बुद्धि का ही माना जाता है|आम बोलचाल की भाषा में तब हम गलत कामकरने वाले व्यक्ति के बारे में कह ही देते हैं कि उसकी मति(बुद्धि)मारी गयी है,जो ऐसा गलत कार्य कर रहा है| क्योंकि अब यह स्पष्ट हो चूका है कि मन पर आत्मा की बजाय बुद्धि का नियंत्रण रहता है|
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्ध्योSव्यवसायिनाम् ||गीता-२/४१ ||
अर्थात्, हे कुरुनन्दन अर्जुन!इस कर्मयोग में निश्चय वाली बुद्धि एक ही होती है|जिनका एक निश्चय नहीं है,ऐसे मनुष्यों की बुद्धियाँ अनंत बहु शाखा वाली होती है|
इस श्लोक का यह वह अनुवाद है जो गीता प्रेस से प्रकाशित विभिन्न पुस्तकों में दिया गया है इस श्लोक की पहली पंक्ति का संधि विच्छेद करते है तो यह निमं प्रकार से व्यक्त होता है-
व्ययसाय+आत्मा+इक=व्ययासत्मिका | बुद्धिर+एक=बुद्धिरेकेह |
अर्थात्,व्यवसाय(कर्म) और आत्मा एक हो,बुद्धि भी एक हो और फिर ये दोनों साथ साथ हों,तभी सही कर्म संभव है|अन्यथा जिनका (मन का) और आत्मा का एक निश्चित व्यवसाय (कर्म) नहीं हो ,उनकी बुद्धियाँ भी बहुत शाखाओं वाली और अनंत होती है|अतः बुद्धि का मन पर नियंत्रण आवश्यक है |
बुद्धि अपने प्रभाव से मन को नियंत्रित कर सकती है |हम जानते है कि शरीर,इन्द्रियों,मन और बुद्धि की प्रकृति एक ही है , अतः बुद्धि पर नियंत्रण कर पाना मुश्किल जरूर है ,परन्तु असंभव नहीं|आत्मा के द्वारा चित्त(अंतःकरण )के माध्यम से यह नियंत्रण पाया जा सकता है|एक बार व्यक्ति अपनी बुद्धि के माध्यम से मन पर नियंत्रण पा लेता है ,तो फिर उसके सामने कोई भी समस्या आ ही नहीं सकती| इस अवस्था को प्राप्त कर लेना ही आध्यत्मिकता को प्राप्त कर लेना है|यहाँ पहुंचकर ईश्वर से परोक्ष सम्बन्ध बन पाता है|गीता में आगे भगवान कहते हैं-
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय |
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतव :||गीता२/४९||
अर्थात्, बुद्धि योग से सकाम कर्म अत्यंत निम्न श्रेणी का है,इसलिए हे धनंजय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ,अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर;क्योंकि फल प्राप्ति के कारण बनने वाले अत्यंत ही दीन होते हैं|सारांश यह है कि मन के द्वारा होने वाले सकाम कर्म के साथ बुद्धि को मत लगा|बल्कि बुद्धि को सम(Balance) अवस्था में रखने का कोई उपाय ढूंढ|जिससे निष्काम कर्म कर सके और बुद्धि को आत्मा और परमात्मा की तरफ लगा सके|आगे फिर भगवान कहते है कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की आसक्ति उन विषयों में हो जाती है,आसक्ति से कामनाएं उत्पन्न होती है और जब कामनाओं के पूरी होने में बाधा उत्पन्न होती है तो क्रोध पैदा होता है|(गीता२/६२)फिर क्रोध से मूढ़ भाव पीड़ा होता है,मूढ़ भाव से स्मृतिभ्रम हो जाता है और स्मृतिभ्रं से बुद्धि का नाश हो जाता है अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है|बुद्धि का नाश हो जाने से पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है|(गीता२/६३)|
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि बुद्धि पर नियंत्रण के लिए अपनी कामनाओं पर नियंत्रण रखना जरुरी है|कामनाओं पर नियंत्रण होने से कम से कम बुद्धि का विनाश तो नहीं होगा|यहाँ कामनाओं का अर्थ सकाम कर्म और उनमे पैदा हुई आसक्ति से है,प्रत्येक कर्म से नहीं|यही ध्यान देने योग्य बात है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
बुद्धि ही शरीर में एक मात्र ऐसी प्रकृति है जो अपने साथ उपस्थित मन,चित्त और अहंकार को नियंत्रित करती है|अगर बुद्धि के चुम्बकीय क्षेत्र में कोई व्यवधान आता है तो फिर समस्त शरीर की क्रियाओं पर उसका प्रभाव पड़ता है|बुद्धि का सम्बन्ध आत्मा और शरीर दोनों से होता है|आत्मा अपनेआप कुछ भी नहीं कर सकती|कुछ करवाने के लिए उसे मन की ही आवश्यकता होती है और मन पर नियत्रण हमेशा ही बुद्धि का रहा है|मन को नियंत्रित ना तो शरीर कर सकता है और ना ही आत्मा ही|जबकि दोनों के उर्जा क्षेत्र के सामंजस्य बिंदु पर मन अवस्थित होता है|मन में जो भी अंकित होता है ,उसे केवल बुद्धि ही परिवर्तित कर सकती है|बुद्धि का चुम्बकीय क्षेत्रत् मन को प्रभावित करता है|मन फिर इन्द्रियों के माध्यम से वही कर्म करवाता है जो बुद्धि उसे करवाने का आदेश देती है||
आत्मा का अपना एक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र होता है और शरीर का अपना|बुद्धि का अपना चुम्बकीय क्षेत्र होता है ,परन्तु बुद्धि; शरीर की तरह ही स्थूल प्रकृति की है अतः उसका यह क्षेत्र शरीर के क्षेत्र के ज्यादा प्रभाव में रहता है बजाय आत्मा के प्रभाव के|इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को गीता में अर्जुन को समझाना पड़ा कि तुम अपनी बुद्धि और मन को मुझमे लगा|(गीता १२/८)|अगर बुद्धि शरीर की बजाय आत्मा के प्रभाव में होती तो श्री कृष्ण को यह कहने की कोई जरूरत ही नहीं होती|आत्मा को भी अगर शरीर से कोई कार्य लेना होता है तो उसे भी पहले बुद्धि के प्रभाव क्षेत्र को ही प्रभावित करना होगा|उसके बाद बुद्धि उसको कितना महत्त्वपूर्ण मानती है यह उसके प्रभाव क्षेत्र और मन पर निर्भर करता है| अगर मन इंकार कर देता है,तो फिर आत्मा को बार बार बुद्धि को निर्देशित करना पड़ता है|फिर भी अगर मन वैसा नहीं करता जैसा आत्मा चाहती है तो फिर सारा दोष बुद्धि का ही माना जाता है|आम बोलचाल की भाषा में तब हम गलत कामकरने वाले व्यक्ति के बारे में कह ही देते हैं कि उसकी मति(बुद्धि)मारी गयी है,जो ऐसा गलत कार्य कर रहा है| क्योंकि अब यह स्पष्ट हो चूका है कि मन पर आत्मा की बजाय बुद्धि का नियंत्रण रहता है|
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्ध्योSव्यवसायिनाम् ||गीता-२/४१ ||
अर्थात्, हे कुरुनन्दन अर्जुन!इस कर्मयोग में निश्चय वाली बुद्धि एक ही होती है|जिनका एक निश्चय नहीं है,ऐसे मनुष्यों की बुद्धियाँ अनंत बहु शाखा वाली होती है|
इस श्लोक का यह वह अनुवाद है जो गीता प्रेस से प्रकाशित विभिन्न पुस्तकों में दिया गया है इस श्लोक की पहली पंक्ति का संधि विच्छेद करते है तो यह निमं प्रकार से व्यक्त होता है-
व्ययसाय+आत्मा+इक=व्ययासत्मिका | बुद्धिर+एक=बुद्धिरेकेह |
अर्थात्,व्यवसाय(कर्म) और आत्मा एक हो,बुद्धि भी एक हो और फिर ये दोनों साथ साथ हों,तभी सही कर्म संभव है|अन्यथा जिनका (मन का) और आत्मा का एक निश्चित व्यवसाय (कर्म) नहीं हो ,उनकी बुद्धियाँ भी बहुत शाखाओं वाली और अनंत होती है|अतः बुद्धि का मन पर नियंत्रण आवश्यक है |
बुद्धि अपने प्रभाव से मन को नियंत्रित कर सकती है |हम जानते है कि शरीर,इन्द्रियों,मन और बुद्धि की प्रकृति एक ही है , अतः बुद्धि पर नियंत्रण कर पाना मुश्किल जरूर है ,परन्तु असंभव नहीं|आत्मा के द्वारा चित्त(अंतःकरण )के माध्यम से यह नियंत्रण पाया जा सकता है|एक बार व्यक्ति अपनी बुद्धि के माध्यम से मन पर नियंत्रण पा लेता है ,तो फिर उसके सामने कोई भी समस्या आ ही नहीं सकती| इस अवस्था को प्राप्त कर लेना ही आध्यत्मिकता को प्राप्त कर लेना है|यहाँ पहुंचकर ईश्वर से परोक्ष सम्बन्ध बन पाता है|गीता में आगे भगवान कहते हैं-
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय |
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतव :||गीता२/४९||
अर्थात्, बुद्धि योग से सकाम कर्म अत्यंत निम्न श्रेणी का है,इसलिए हे धनंजय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ,अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर;क्योंकि फल प्राप्ति के कारण बनने वाले अत्यंत ही दीन होते हैं|सारांश यह है कि मन के द्वारा होने वाले सकाम कर्म के साथ बुद्धि को मत लगा|बल्कि बुद्धि को सम(Balance) अवस्था में रखने का कोई उपाय ढूंढ|जिससे निष्काम कर्म कर सके और बुद्धि को आत्मा और परमात्मा की तरफ लगा सके|आगे फिर भगवान कहते है कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की आसक्ति उन विषयों में हो जाती है,आसक्ति से कामनाएं उत्पन्न होती है और जब कामनाओं के पूरी होने में बाधा उत्पन्न होती है तो क्रोध पैदा होता है|(गीता२/६२)फिर क्रोध से मूढ़ भाव पीड़ा होता है,मूढ़ भाव से स्मृतिभ्रम हो जाता है और स्मृतिभ्रं से बुद्धि का नाश हो जाता है अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है|बुद्धि का नाश हो जाने से पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है|(गीता२/६३)|
उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि बुद्धि पर नियंत्रण के लिए अपनी कामनाओं पर नियंत्रण रखना जरुरी है|कामनाओं पर नियंत्रण होने से कम से कम बुद्धि का विनाश तो नहीं होगा|यहाँ कामनाओं का अर्थ सकाम कर्म और उनमे पैदा हुई आसक्ति से है,प्रत्येक कर्म से नहीं|यही ध्यान देने योग्य बात है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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