क्रमश:
पदार्थों के गुणों का संग पुनर्जन्म का मुख्य आधार है|लेकिन ये पदार्थ कौन कौन से हैं जिनके गुणों का संग यह जीवात्मा करती है?यह जानना भी आवश्यक है|जो भी पदार्थ व्यक्ति जीवन में अपने उपयोग में लेता है,सब अपने अपने गुणों से युक्त होते है|उदाहरणार्थ अगर किसी को खाने में कोई मिष्ठान्न पसंद आता है तो स्वादेंद्रिय इसके मीठे होने के गुण को ग्रहण करती है|यह गुण जीवात्मा को सुख प्रदान करता है|तब जीवात्मा इसी सुख को दोबारा पाने के लिए मन के द्वार स्वादेंद्रिय को सन्देश पहुंचाती है|फिर कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय होकर उस मिष्ठान्न को प्राप्त करने का प्रयास करती है| पदार्थों के गुणों का संग जीवात्मा तभी कर पाती है जब इन पदार्थों का भोग उसके द्वारा किया जाता है|आत्मा के द्वारा यह भोग सीधा संभव नहीं है|यह भोग वह मन के माध्यम से इंद्रियों के द्वारा ही किया जा सकता है|इन्द्रियों की संरचना एक ही तरह की होती है|सभी का विकास गर्भावस्था के दौरान जो तीन परतें बनती है ,उनमे एक बाह्य पर्त जिसे ECTODERM कहा जाता है ,से होता है |ऐसा शरीर विज्ञानं का कहना है|
सनातन शास्त्रों के अनुसार पांचों ज्ञानेन्द्रियों में मुख्य कान या श्रोत इन्द्रिय है|इस अकेली इन्द्रिय से व्यक्ति समस्त इन्द्रियों का कार्य संपन्न कर सकता है,परन्तु बाकी चार इन्द्रियों में किसी भी एक इन्द्रिय के द्वारा ऐसा कर पाना संभव नहीं है|सभी इन्द्रियां एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुये कर्मेन्द्रियों के द्वारा कार्य करवाती है और जीवात्मा उस इन्द्रियों के विषय का भोग करती है|जिस विषय में उसे आनंद आता है ,उस विषय को बार बार भोगने की ईच्छा होने लगती है|यह सब जीवात्मा को विवश करता है कि वह बुद्धि और मन के द्वारा इन्द्रियों को उसी विषय को फिर से उपलब्ध करने को कहे|सम्बंधित ज्ञानेन्द्रियां,कर्मेन्द्रियों के माध्यम से कर्म करवाते हुये जीवात्मा को वह विषय उपलब्ध करवाती हैं|इस प्रकार जीवात्मा बार बार विषयों का सेवन करती है,जो धीरे धीरे उसकी आदत बन जाती है|यह चक्र बार बार दोहराया जाता है|इसी को जीवात्मा का पदार्थों के गुणों का संग करना कहते है|इसको एक लघु कथा के माध्यमसे और अच्छी तरह समझा जा सकता है|
एक राजा था|वह अपने महल में बड़े आनंदपूर्वक रहता था|राजधानी के बाहर जंगल में एक सन्त रहते थे|राजा का सन्त के यहाँ कभी कभी आना होता रहता था|राजा ,सन्त की कुटिया में अल्प साधनों के साथ सन्त को जीवन निर्वाह करते हुये देखता|वह राजा संत के साथ आध्यात्मिक चर्चा करता|सन्त हमेशा उसे इन्द्रियों के भोगों का आदी न बनने की सीख देता,और जो भी मिले उसमे संतुष्ट रहने की कहता |राजा हर बार हंस कर रह जाता और सोचता कि सन्त के पास कुछ भी नहीं है इसलिए वह ऐसा कहते है|
एक बार राजा ने सन्त की परीक्षा लेने की सोची|उसने सन्त को आध्यात्मिक चर्चा के लिए महल में आमंत्रित किया|साथ ही एक माह तक महल में रहने का आग्रह किया|सन्त सहर्ष तैयार हो गए|राजा उन्हें लेकर महल पहुंचा और उन्हें सबसे शानदार सुविधायुक्त कमरे में ठहरा दिया|सन्त की सेवा में महल की सुन्दरतम दासी को नियुक्त कर दिया|सन्त का सब कार्य वह दासी करती|सन्त उसे भी वही ज्ञान देते जो राजा को देते|राजा भी अपने दरबारियों के साथ सन्त से चर्चा करता |सन्त अच्छे पलंग पर सोते,दासी उनको पंखा झलती,पांव दबाती और जरूरत के सभी सामान उपलब्ध करवाती|सन्त को कुछ भी नहीं करना पड़ता|खाने को अति स्वादिष्ट भोजन मिलता|बातों ही बातों में एक माह बीत गया| आखिर राजा ने सन्त को महल सेसम्मान पूर्वक विदा करने का निर्णय लिया|राजा नेसोचा कि सन्त अब सुविधाभोगी हो गए हैं,अब उन्हें कुटिया रास नहीं आएगी|राजा सन्त को लेकर उनकी कुटिया पहुंचा और स्वयं को कुटिया में एक रात रूकने देने का आग्रह किया|सन्त ने कहा-"राजन!आप को यहाँ दिक्कत होगी"|राजा नहीं माना और रात को सन्त के पास ही रुक गया|राजा को रात भर कठोर बिस्तर पर नींद नहीं आयी,जब कि सन्त को सोते ही नींद आ गयी|सुबह सन्त अपनी दिनचर्या में पूर्ववत व्यस्त हो गए|महल में एक माह रूकने का उनपर कोई असर नहीं था|राजा ने सन्त से इसका कारण पूछा|सन्त ने कहा-"राजन!इन्द्रियों ने विषय उपलब्ध करवाए,जीवात्मा ने आनंद लिया लेकिन आत्मा ने यही माना कि ये सब गुणों में गुणों की तरह ही व्यवहार हो रहा है|इससे मेरी आत्मा ने उन पदार्थों को पुनः भोगने की कोई कामना नहीं की|"राजा निरुत्तर हो गया|
इस कथा से यही सीखा जा सकता है कि विषयों का आनंद लेना गलत नहीं है,परन्तु बार बार उन विषयों को पाने की कामना करना गलत है|जब इन भोगों की इच्छाएं मन में शेष रह जाती है ,तब पुनर्जन्म निश्चित है,यही समझा जाना चाहिए|और सबसे महत्वपूर्ण बात--इन भोगों से कभी भी कोई आज तक तृप्त नहीं हुआ है|हर जन्म में मृत्यु पहले आ जाती है,तृप्ति कभी भी नहीं|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
पदार्थों के गुणों का संग पुनर्जन्म का मुख्य आधार है|लेकिन ये पदार्थ कौन कौन से हैं जिनके गुणों का संग यह जीवात्मा करती है?यह जानना भी आवश्यक है|जो भी पदार्थ व्यक्ति जीवन में अपने उपयोग में लेता है,सब अपने अपने गुणों से युक्त होते है|उदाहरणार्थ अगर किसी को खाने में कोई मिष्ठान्न पसंद आता है तो स्वादेंद्रिय इसके मीठे होने के गुण को ग्रहण करती है|यह गुण जीवात्मा को सुख प्रदान करता है|तब जीवात्मा इसी सुख को दोबारा पाने के लिए मन के द्वार स्वादेंद्रिय को सन्देश पहुंचाती है|फिर कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय होकर उस मिष्ठान्न को प्राप्त करने का प्रयास करती है| पदार्थों के गुणों का संग जीवात्मा तभी कर पाती है जब इन पदार्थों का भोग उसके द्वारा किया जाता है|आत्मा के द्वारा यह भोग सीधा संभव नहीं है|यह भोग वह मन के माध्यम से इंद्रियों के द्वारा ही किया जा सकता है|इन्द्रियों की संरचना एक ही तरह की होती है|सभी का विकास गर्भावस्था के दौरान जो तीन परतें बनती है ,उनमे एक बाह्य पर्त जिसे ECTODERM कहा जाता है ,से होता है |ऐसा शरीर विज्ञानं का कहना है|
सनातन शास्त्रों के अनुसार पांचों ज्ञानेन्द्रियों में मुख्य कान या श्रोत इन्द्रिय है|इस अकेली इन्द्रिय से व्यक्ति समस्त इन्द्रियों का कार्य संपन्न कर सकता है,परन्तु बाकी चार इन्द्रियों में किसी भी एक इन्द्रिय के द्वारा ऐसा कर पाना संभव नहीं है|सभी इन्द्रियां एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुये कर्मेन्द्रियों के द्वारा कार्य करवाती है और जीवात्मा उस इन्द्रियों के विषय का भोग करती है|जिस विषय में उसे आनंद आता है ,उस विषय को बार बार भोगने की ईच्छा होने लगती है|यह सब जीवात्मा को विवश करता है कि वह बुद्धि और मन के द्वारा इन्द्रियों को उसी विषय को फिर से उपलब्ध करने को कहे|सम्बंधित ज्ञानेन्द्रियां,कर्मेन्द्रियों के माध्यम से कर्म करवाते हुये जीवात्मा को वह विषय उपलब्ध करवाती हैं|इस प्रकार जीवात्मा बार बार विषयों का सेवन करती है,जो धीरे धीरे उसकी आदत बन जाती है|यह चक्र बार बार दोहराया जाता है|इसी को जीवात्मा का पदार्थों के गुणों का संग करना कहते है|इसको एक लघु कथा के माध्यमसे और अच्छी तरह समझा जा सकता है|
एक राजा था|वह अपने महल में बड़े आनंदपूर्वक रहता था|राजधानी के बाहर जंगल में एक सन्त रहते थे|राजा का सन्त के यहाँ कभी कभी आना होता रहता था|राजा ,सन्त की कुटिया में अल्प साधनों के साथ सन्त को जीवन निर्वाह करते हुये देखता|वह राजा संत के साथ आध्यात्मिक चर्चा करता|सन्त हमेशा उसे इन्द्रियों के भोगों का आदी न बनने की सीख देता,और जो भी मिले उसमे संतुष्ट रहने की कहता |राजा हर बार हंस कर रह जाता और सोचता कि सन्त के पास कुछ भी नहीं है इसलिए वह ऐसा कहते है|
एक बार राजा ने सन्त की परीक्षा लेने की सोची|उसने सन्त को आध्यात्मिक चर्चा के लिए महल में आमंत्रित किया|साथ ही एक माह तक महल में रहने का आग्रह किया|सन्त सहर्ष तैयार हो गए|राजा उन्हें लेकर महल पहुंचा और उन्हें सबसे शानदार सुविधायुक्त कमरे में ठहरा दिया|सन्त की सेवा में महल की सुन्दरतम दासी को नियुक्त कर दिया|सन्त का सब कार्य वह दासी करती|सन्त उसे भी वही ज्ञान देते जो राजा को देते|राजा भी अपने दरबारियों के साथ सन्त से चर्चा करता |सन्त अच्छे पलंग पर सोते,दासी उनको पंखा झलती,पांव दबाती और जरूरत के सभी सामान उपलब्ध करवाती|सन्त को कुछ भी नहीं करना पड़ता|खाने को अति स्वादिष्ट भोजन मिलता|बातों ही बातों में एक माह बीत गया| आखिर राजा ने सन्त को महल सेसम्मान पूर्वक विदा करने का निर्णय लिया|राजा नेसोचा कि सन्त अब सुविधाभोगी हो गए हैं,अब उन्हें कुटिया रास नहीं आएगी|राजा सन्त को लेकर उनकी कुटिया पहुंचा और स्वयं को कुटिया में एक रात रूकने देने का आग्रह किया|सन्त ने कहा-"राजन!आप को यहाँ दिक्कत होगी"|राजा नहीं माना और रात को सन्त के पास ही रुक गया|राजा को रात भर कठोर बिस्तर पर नींद नहीं आयी,जब कि सन्त को सोते ही नींद आ गयी|सुबह सन्त अपनी दिनचर्या में पूर्ववत व्यस्त हो गए|महल में एक माह रूकने का उनपर कोई असर नहीं था|राजा ने सन्त से इसका कारण पूछा|सन्त ने कहा-"राजन!इन्द्रियों ने विषय उपलब्ध करवाए,जीवात्मा ने आनंद लिया लेकिन आत्मा ने यही माना कि ये सब गुणों में गुणों की तरह ही व्यवहार हो रहा है|इससे मेरी आत्मा ने उन पदार्थों को पुनः भोगने की कोई कामना नहीं की|"राजा निरुत्तर हो गया|
इस कथा से यही सीखा जा सकता है कि विषयों का आनंद लेना गलत नहीं है,परन्तु बार बार उन विषयों को पाने की कामना करना गलत है|जब इन भोगों की इच्छाएं मन में शेष रह जाती है ,तब पुनर्जन्म निश्चित है,यही समझा जाना चाहिए|और सबसे महत्वपूर्ण बात--इन भोगों से कभी भी कोई आज तक तृप्त नहीं हुआ है|हर जन्म में मृत्यु पहले आ जाती है,तृप्ति कभी भी नहीं|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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