क्रमश:
जब आत्मा इस भौतिक शरीर में आ जाती है,तभी उस शरीर में सारी क्रियाएँ सुचारू रूप से संचालित हो पाती है,अन्यथा आत्मा के बिना कुछ ही समय में सभी क्रियायें एक एक करके बंद हो जाती है|जीवन में जो भी शरीर कार्य शील होकर कर्मो में सक्रिय भूमिका निभाता है ,वह बिना आत्मा के किसी भी प्रकार संभव नहीं है|गीता में परमात्मा श्री कृष्ण कहते है--
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||गीता१५/७||
अर्थात्,इस देह में सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही अंश यानि आत्मा इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है|
परमात्मा स्वयं किसी भी और कहीं भी लिप्त नहीं होता है,परन्तु उसी का अंश आत्मा मन और समस्त इन्द्रियों को अपनी और आकर्षित कर उसे अपने से सम्बन्धित कर लेता है|यह सम्बन्ध बनाकर ही आत्मा सभी विषयों का आनंद लेती है,बिना सम्बन्धित हुए आत्मा के द्वारा आनंद उठाना किसी भी तरीके से संभव नहीं है|आगे गीता में भगवान कहते है-
श्रोत्रं चक्षु:स्पर्शनंच रसनं घ्राणमेव च |
अधिष्ठाय मनश्चायं विश्यानुपसेवते || गीता १५/९ ||
अर्थात्,यह जीवात्मा श्रोत्र (कान),चक्षु (नेत्र ),और त्वचा को तथा रसना (जीभ),घ्राण (नाक ) और मन को आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है|
यही आत्मा का एक प्रमुख लक्षण है जिसमे वह एक भोक्ता भी प्रतीत होता है|शरीर में अवस्थित आत्मा ,परमात्मा का अंश होते हुये भी विषयों के सेवन में लिप्त होता है |जबकि परमात्मा का यह लक्षण नहीं है| परमात्मा और आत्मा में यही प्रमुख अंतर है| यहाँ भगवान कहते है कि विषयों का सेवन आत्मा करती है परन्तु अन्य स्थान पर वे कहते है-
प्रक्रित्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश: |
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ||गीता१३/२९||
अर्थात्,जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुये देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है|
अब यह स्पष्ट है कि आत्मा कुछ भी नहीं करती है|जो कार्य मन और बुद्धि आत्मा से सम्बंधित होकर कर रहे है,उन कार्यों को होते हुये देखने से यही प्रतीत होता है मानो ये सभी कार्य आत्मा द्वारा ही किये जा रहे हों|जबकि वास्तविकता में आत्मा अकर्ता ही है|आत्मा तो केवल कर्ता और भोक्ता प्रतीत होती है| ऐसा जो व्यक्ति जान और मान लेता है तथा यही देखता है ,वही यथार्थ देखता है|
आत्मा का शरीर में रहते हुये उत्थान किस प्रकार हो सकता है और वह अपने वास्तविक स्वरुप परमात्मा तक कैसे पहुँच पायेगी इसका वर्णन भगवान श्री कृष्ण बहुत ही शानदार तरीके से गीता में कर रहे हैं |वे अर्जुन को कहते हैं-
उपदृष्टानुमंता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः |
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेस्मिन्पुरूष: परः ||गीता१३/२२ ||
अर्थात्,इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है|साक्षी होने से उपदृष्टा,और यथार्थ सम्मति देने वाला होनेसे अनुमन्ता,सबका भरण पोषण करनेवाला होने से भर्ता,जीव रूप से भोक्ता ,ब्रह्मा आदि सबका स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा -ऐसा कहा गया है|
हम सभी जानते है कि आत्मा ,परमात्मा का एक अंश है|शरीर प्राप्ति के बाद प्रारंभिक अवस्था में आत्मा उपदृष्टा स्थिति में रहती है|जो भी कर्म मन के अनुसार शरीर द्वारा किये जा रहे होते हैं ,वह उनको एक उपदृष्टा यानि साक्षी के तौर पर केवल देखती है|वह मन और शरीर को बुद्धि के माध्यम से नियंत्रित नहीं करती है| जब सभी कार्यों का वह अवलोकन भली भांति कर लेती है ,तब कुछ कार्यों को करने की वह अनुमति दे देती है|इस अवस्था में आत्मा की स्थिति एक अनुमंता की होती है यानि अनुमति प्रदान करने वाला|इसके बाद जो स्थिति आती है ,वह है एक भर्ता की|जीवन यापन के लिए जो भी आवश्यक कर्म हो वह करने की|इस अवस्था में आत्मा शरीर का भरण पोषण करने वाली-भर्ता होती है|जब जीवन यापन सुगमता से होने लगता है तब शरीर उस स्थिति में सब कुछ भोगने लगता है|आत्मा की इस स्थिति को भोक्ता कहते है|पांचवी स्थिति में महेश्वर बनने की स्थिति होती है,जिस स्थिति को प्राप्त करना आत्मा के लिए कठिन होता है|क्योंकि मन और शरीर को अब संसार के इन सब गतिविधियों में आनंद आने लगता है|चूँकि आत्मा ने अपने आप को इनसे सम्बन्धित कर लिया है,तो महेश्वर बनना उसके लिए कठिन हो जाता है|यहाँ संसार के कार्यों से निवृति और परमात्मा को पाने की प्रवृति का उद्भव होना आवश्यक है,तभी महेश्वर की स्थिति में आत्मा पहुँच सकती है|महेश्वर की स्थिति में आने के बाद ,सब से मुक्त होना ही शेष रहता है|सबसे मुक्त हो जाना ही आत्मा का परमात्मा बन जाना है यानि आत्मा खो जाती है और परमात्मा रह जाते है यही आत्मा का परमात्मा में विलीन होना है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
जब आत्मा इस भौतिक शरीर में आ जाती है,तभी उस शरीर में सारी क्रियाएँ सुचारू रूप से संचालित हो पाती है,अन्यथा आत्मा के बिना कुछ ही समय में सभी क्रियायें एक एक करके बंद हो जाती है|जीवन में जो भी शरीर कार्य शील होकर कर्मो में सक्रिय भूमिका निभाता है ,वह बिना आत्मा के किसी भी प्रकार संभव नहीं है|गीता में परमात्मा श्री कृष्ण कहते है--
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः |
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||गीता१५/७||
अर्थात्,इस देह में सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही अंश यानि आत्मा इन प्रकृति में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है|
परमात्मा स्वयं किसी भी और कहीं भी लिप्त नहीं होता है,परन्तु उसी का अंश आत्मा मन और समस्त इन्द्रियों को अपनी और आकर्षित कर उसे अपने से सम्बन्धित कर लेता है|यह सम्बन्ध बनाकर ही आत्मा सभी विषयों का आनंद लेती है,बिना सम्बन्धित हुए आत्मा के द्वारा आनंद उठाना किसी भी तरीके से संभव नहीं है|आगे गीता में भगवान कहते है-
श्रोत्रं चक्षु:स्पर्शनंच रसनं घ्राणमेव च |
अधिष्ठाय मनश्चायं विश्यानुपसेवते || गीता १५/९ ||
अर्थात्,यह जीवात्मा श्रोत्र (कान),चक्षु (नेत्र ),और त्वचा को तथा रसना (जीभ),घ्राण (नाक ) और मन को आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है|
यही आत्मा का एक प्रमुख लक्षण है जिसमे वह एक भोक्ता भी प्रतीत होता है|शरीर में अवस्थित आत्मा ,परमात्मा का अंश होते हुये भी विषयों के सेवन में लिप्त होता है |जबकि परमात्मा का यह लक्षण नहीं है| परमात्मा और आत्मा में यही प्रमुख अंतर है| यहाँ भगवान कहते है कि विषयों का सेवन आत्मा करती है परन्तु अन्य स्थान पर वे कहते है-
प्रक्रित्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश: |
यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ||गीता१३/२९||
अर्थात्,जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुये देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है|
अब यह स्पष्ट है कि आत्मा कुछ भी नहीं करती है|जो कार्य मन और बुद्धि आत्मा से सम्बंधित होकर कर रहे है,उन कार्यों को होते हुये देखने से यही प्रतीत होता है मानो ये सभी कार्य आत्मा द्वारा ही किये जा रहे हों|जबकि वास्तविकता में आत्मा अकर्ता ही है|आत्मा तो केवल कर्ता और भोक्ता प्रतीत होती है| ऐसा जो व्यक्ति जान और मान लेता है तथा यही देखता है ,वही यथार्थ देखता है|
आत्मा का शरीर में रहते हुये उत्थान किस प्रकार हो सकता है और वह अपने वास्तविक स्वरुप परमात्मा तक कैसे पहुँच पायेगी इसका वर्णन भगवान श्री कृष्ण बहुत ही शानदार तरीके से गीता में कर रहे हैं |वे अर्जुन को कहते हैं-
उपदृष्टानुमंता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः |
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेस्मिन्पुरूष: परः ||गीता१३/२२ ||
अर्थात्,इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है|साक्षी होने से उपदृष्टा,और यथार्थ सम्मति देने वाला होनेसे अनुमन्ता,सबका भरण पोषण करनेवाला होने से भर्ता,जीव रूप से भोक्ता ,ब्रह्मा आदि सबका स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा -ऐसा कहा गया है|
हम सभी जानते है कि आत्मा ,परमात्मा का एक अंश है|शरीर प्राप्ति के बाद प्रारंभिक अवस्था में आत्मा उपदृष्टा स्थिति में रहती है|जो भी कर्म मन के अनुसार शरीर द्वारा किये जा रहे होते हैं ,वह उनको एक उपदृष्टा यानि साक्षी के तौर पर केवल देखती है|वह मन और शरीर को बुद्धि के माध्यम से नियंत्रित नहीं करती है| जब सभी कार्यों का वह अवलोकन भली भांति कर लेती है ,तब कुछ कार्यों को करने की वह अनुमति दे देती है|इस अवस्था में आत्मा की स्थिति एक अनुमंता की होती है यानि अनुमति प्रदान करने वाला|इसके बाद जो स्थिति आती है ,वह है एक भर्ता की|जीवन यापन के लिए जो भी आवश्यक कर्म हो वह करने की|इस अवस्था में आत्मा शरीर का भरण पोषण करने वाली-भर्ता होती है|जब जीवन यापन सुगमता से होने लगता है तब शरीर उस स्थिति में सब कुछ भोगने लगता है|आत्मा की इस स्थिति को भोक्ता कहते है|पांचवी स्थिति में महेश्वर बनने की स्थिति होती है,जिस स्थिति को प्राप्त करना आत्मा के लिए कठिन होता है|क्योंकि मन और शरीर को अब संसार के इन सब गतिविधियों में आनंद आने लगता है|चूँकि आत्मा ने अपने आप को इनसे सम्बन्धित कर लिया है,तो महेश्वर बनना उसके लिए कठिन हो जाता है|यहाँ संसार के कार्यों से निवृति और परमात्मा को पाने की प्रवृति का उद्भव होना आवश्यक है,तभी महेश्वर की स्थिति में आत्मा पहुँच सकती है|महेश्वर की स्थिति में आने के बाद ,सब से मुक्त होना ही शेष रहता है|सबसे मुक्त हो जाना ही आत्मा का परमात्मा बन जाना है यानि आत्मा खो जाती है और परमात्मा रह जाते है यही आत्मा का परमात्मा में विलीन होना है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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