क्रमश:
किसी की भी जिंदगी में केवल एक कामना तो होती नहीं है,जो कि किसी भी एक जन्म में पूरी हो जाती हो|अतः यह पुनर्जन्म का चक्र निरंतर चलता रहता है|ध्यान रहे,मनुष्य को जन्म अपने उत्थान के लिए मिलता है और जब तक वह अपने उत्थान की पराकाष्ठा पर नहीं पहूंचता तब तक पुनर्जन्म का क्रम टूट नहीं पाता है| यह स्थिति उसे कब प्राप्त होगी,यह सब उसके ही हाथ में है|उसे यह जन्म मरण का चक्र तोड़ने का अधिकार है,परन्तु इसके लिए उसे स्वयं जागरूक होना पड़ता है|
संसार में जितने भी प्राणी है (धर्म शास्त्रों के अनुसार चौरासी लाख एक )उनमे केवल मनुष्य को छोड़कर किसी भी अन्य प्राणी को परमात्मा ने यह अधिकार नहीं दिया है|अन्य प्राणी केवल अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल ही भोगने के लिए अधिकृत है ,अतः उन्हें मात्र भोग योनियाँ कहा जाता है|जबकि मानव योनि में पूर्व जन्म के कर्मों के फलों को प्राप्त करने के अलावा अगले जन्म में अच्छे फल प्राप्त हो,ऐसे कर्मों को करने का अधिकार भी है|इसीलिए मानव योनि को भोग योनि के साथ साथ योग योनि भी कहा जाता है|
जितने भी इन्द्रियोंके विषय है,वे सभी जीवात्मा के द्वारा ही अनुभव किये जाते है|जो भी जीवात्मा को विषय अच्छा लगता है उसी अनुभव का आनंद वह बार बार लेना चाहती है|इन गतिविधियों का अंकन मन में अंकित होता रहता है |तभी भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं-
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः |
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||गीता ६/६||
अर्थात्,जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों द्वारा शरीर जीता हुआ है,उस जीवात्मा का तो वह स्वयं ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों-सहित शरीर नहीं जीता गया है ,अपने लिए वह स्वयं ही शत्रु की तरह व्यवहार करता है|
मन और इन्द्रियों को जीत लेने के उपरांत जीवात्मा को विषयों का आनंद लेने की कामनाएं उत्पन्न ही नहीं होगी तो शरीर द्वारा ऐसे कर्म होने स्वतः ही बंद हो जायेंगे जिनका अंकन मन के पटल पर हो और फल आगे नए जन्म में भुगतने के लिए विवश होना पड़े|अतः मन और इन्द्रियों को वश में करने वाली जीवात्मा स्वयं के लिए मित्र ही मानी जायेगी|
इस एक प्रमुख कारण के अंतर्गत ही पुनर्जन्म होने के सभी कारण समाहित है|अलग से उन्हें उल्लेखित करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है|फिर भी संक्षेप मेंकह सकते है कि जितनी भी इन्द्रियां है ,उनसे सम्बंधित विषय पुनर्जन्म के कारण हो सकते हैं ,अगर जीवात्मा उनके विषयों का संग करले|जीवात्मा का विषयों के संग होते ही जो कामनाएँ पैदा होती है उनका अन्त आना मुश्किल होता है|कोई विरला ही इस स्थिति से निकलने का यानि लौटने का साहस दिखा सकता है अन्यथा तो व्यक्ति इन विषयों और उनकी कामनाओं का दास ही बनकर रह जाता है|मन के पटल पर अंकित इन अधूरी कामनाओं को पूरी करने हेतु किये हुये सभी उचित और अनुचित कर्मों का विवरण जीवात्मा के साथ ही यह शरीर छोड़कर नए शरीर में प्रवेश कर जाता है,जहाँ पूर्व जन्म में किये गए कर्मों की फल प्राप्ति के लिए तथा शेष रही कामनाओं की पूर्ति करने हेतु नया शरीर फिर से कर्म करने को प्रेरित होता है|यह चक्र जन्म जन्मांतर तक चलता रहता है जब तक कि मनुष्य को अपने उत्थान का मार्ग पकड़ में नहीं आता|अपने उत्थान का मार्ग मिलते ही मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इस पुनर्जन्म से मुक्ति पा सकता है|इसी लिए गीता ने अर्जुन को यही ज्ञान दिया है कि यह जीवात्मा अपना स्वयं का मित्र है और शत्रु भी|यह तो जीवात्मा को तय करना है कि वह स्वयं के लिए क्या चाहता है-पुनर्जन्म या इससे मुक्ति|
|| हरि शरणम् ||
किसी की भी जिंदगी में केवल एक कामना तो होती नहीं है,जो कि किसी भी एक जन्म में पूरी हो जाती हो|अतः यह पुनर्जन्म का चक्र निरंतर चलता रहता है|ध्यान रहे,मनुष्य को जन्म अपने उत्थान के लिए मिलता है और जब तक वह अपने उत्थान की पराकाष्ठा पर नहीं पहूंचता तब तक पुनर्जन्म का क्रम टूट नहीं पाता है| यह स्थिति उसे कब प्राप्त होगी,यह सब उसके ही हाथ में है|उसे यह जन्म मरण का चक्र तोड़ने का अधिकार है,परन्तु इसके लिए उसे स्वयं जागरूक होना पड़ता है|
संसार में जितने भी प्राणी है (धर्म शास्त्रों के अनुसार चौरासी लाख एक )उनमे केवल मनुष्य को छोड़कर किसी भी अन्य प्राणी को परमात्मा ने यह अधिकार नहीं दिया है|अन्य प्राणी केवल अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल ही भोगने के लिए अधिकृत है ,अतः उन्हें मात्र भोग योनियाँ कहा जाता है|जबकि मानव योनि में पूर्व जन्म के कर्मों के फलों को प्राप्त करने के अलावा अगले जन्म में अच्छे फल प्राप्त हो,ऐसे कर्मों को करने का अधिकार भी है|इसीलिए मानव योनि को भोग योनि के साथ साथ योग योनि भी कहा जाता है|
जितने भी इन्द्रियोंके विषय है,वे सभी जीवात्मा के द्वारा ही अनुभव किये जाते है|जो भी जीवात्मा को विषय अच्छा लगता है उसी अनुभव का आनंद वह बार बार लेना चाहती है|इन गतिविधियों का अंकन मन में अंकित होता रहता है |तभी भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं-
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः |
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||गीता ६/६||
अर्थात्,जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों द्वारा शरीर जीता हुआ है,उस जीवात्मा का तो वह स्वयं ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों-सहित शरीर नहीं जीता गया है ,अपने लिए वह स्वयं ही शत्रु की तरह व्यवहार करता है|
मन और इन्द्रियों को जीत लेने के उपरांत जीवात्मा को विषयों का आनंद लेने की कामनाएं उत्पन्न ही नहीं होगी तो शरीर द्वारा ऐसे कर्म होने स्वतः ही बंद हो जायेंगे जिनका अंकन मन के पटल पर हो और फल आगे नए जन्म में भुगतने के लिए विवश होना पड़े|अतः मन और इन्द्रियों को वश में करने वाली जीवात्मा स्वयं के लिए मित्र ही मानी जायेगी|
इस एक प्रमुख कारण के अंतर्गत ही पुनर्जन्म होने के सभी कारण समाहित है|अलग से उन्हें उल्लेखित करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है|फिर भी संक्षेप मेंकह सकते है कि जितनी भी इन्द्रियां है ,उनसे सम्बंधित विषय पुनर्जन्म के कारण हो सकते हैं ,अगर जीवात्मा उनके विषयों का संग करले|जीवात्मा का विषयों के संग होते ही जो कामनाएँ पैदा होती है उनका अन्त आना मुश्किल होता है|कोई विरला ही इस स्थिति से निकलने का यानि लौटने का साहस दिखा सकता है अन्यथा तो व्यक्ति इन विषयों और उनकी कामनाओं का दास ही बनकर रह जाता है|मन के पटल पर अंकित इन अधूरी कामनाओं को पूरी करने हेतु किये हुये सभी उचित और अनुचित कर्मों का विवरण जीवात्मा के साथ ही यह शरीर छोड़कर नए शरीर में प्रवेश कर जाता है,जहाँ पूर्व जन्म में किये गए कर्मों की फल प्राप्ति के लिए तथा शेष रही कामनाओं की पूर्ति करने हेतु नया शरीर फिर से कर्म करने को प्रेरित होता है|यह चक्र जन्म जन्मांतर तक चलता रहता है जब तक कि मनुष्य को अपने उत्थान का मार्ग पकड़ में नहीं आता|अपने उत्थान का मार्ग मिलते ही मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इस पुनर्जन्म से मुक्ति पा सकता है|इसी लिए गीता ने अर्जुन को यही ज्ञान दिया है कि यह जीवात्मा अपना स्वयं का मित्र है और शत्रु भी|यह तो जीवात्मा को तय करना है कि वह स्वयं के लिए क्या चाहता है-पुनर्जन्म या इससे मुक्ति|
|| हरि शरणम् ||
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