क्रमश:
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् |
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ||गीता १३/१६ ||
अर्थात्,अविभाज्य यानि अविभक्त होकर भी वह (परमात्मा) सम्पूर्ण चराचर भूतों में अलग अलग दिखाई देता है|वह जानने योग्य परमात्मा ,समस्त भूतों को उत्पन्न करने वाला,भरण-पोषण करने वाला और अन्त में संहार करने वाला है|अणुओं को ग्रसने वाला (ग्रसिष्णु)और अणुओं को पैदा करने वाला (प्रभविष्णु) भी वही परमात्मा है|
एक मात्र ३२ अक्षरों में के श्लोक में कितनी महान बात छुपी हुई है,यह सब वही जान और समझ सकते है जिन्होंने गंभीरता के साथ गीता का अध्ययन और चिंतन किया हो| यहाँ भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को उस परम ब्रह्म परमात्मा के बारे में ज्ञान दे रहे है जो अविभक्त होकर भी सब भूतों यानि जीवो में उपस्थिति दर्शा रहा है|यही सब के जन्म,भरण-पोषण और संहार के लिए उत्तरदाई है|
इसी तरह भगवान श्री कृष्ण गीता के प्रारंभ में ही अर्जुन को इस अविनाशी के बारे में अर्जुन को समझा रहे हैं|फिर पुनः इसी बात को गीता के १३ वें अध्याय में विस्तार से समझाया है|जो कि ऊपर वर्णित किया गया है|
गीता के प्रारंभ में श्री कृष्ण कहते हैं-
अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् |
विनाशामव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||गीता||२/१७||
अर्थात्, जिसका यहाँ,वहां ,सब जगह विस्तार है,जो व्यय यानि खर्च नहीं होता,जिसका यहाँ कोई भी विनाश करने में सक्षम नहीं है |वह जो सर्वत्र फैला हुआ है ,उसका कोई विनाश नहीं होता है|उसको ही तू अच्छी तरह समझ |
परम ब्रह्म परमात्मा जो कि एक परा चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र है ,वह चारों और फैला हुआ है| यह कहाँ से आया,कौन उसका कारण क्या है,यह प्रभाव कहाँ से पैदा होता है इसे आज तक कोई नहीं जान पाया है|यह अपरिमेय है अर्थात इसको मापा नहीं जा सकता है|इसी क्षेत्र के एक विशेष क्षेत्र में हमारी यह सृष्टि फैली हुई है|एक कृष्ण विवर यानि काला छेद (Black Hole) है|यही ब्लैक हॉल ही इस सम्पूर्ण सृष्टि जो इस परा चुम्बकीय क्षेत्र के प्रभाव क्षेत्र में स्थित है , उसकी चेतना,प्रकृति और पदार्थ का मूल केन्द्र है|ये तीनों यथा पदार्थ,प्रकृति और चेतना इस परमब्रह्म परमात्मा का ही विकार (Differentiation) है|
इस भौतिक शरीर में जो चेतना है,वही आत्मा कहलाती है जो कि परमब्रह्म परमात्मा का ही एक अंश है|इसीलिए इसकी प्रकृति भी परा यानि सूक्ष्म(Micro) कही गयी है|पदार्थ के कारण प्रकृति इस अपरा यानि स्थूल शरीर का निर्माण करती है|प्रकृति भी इस परमब्रह्म परमात्मा की ही एक उत्पत्ति मात्र है और पदार्थ भी|इससे पता चलता है कि सारा खेल इस सृष्टि में इस परमब्रह्म परमात्मा का ही रचा हुआ है,परन्तु उसमे विकार (Differentiation) हो जाने के कारण अलग अलग नज़र आता है |शरीर को असत्(False) कहा गया है क्योंकि यह एक दिन समाप्त हो जाने वाला है|आत्मा या चेतना को सत् (True) कहा गया है क्योंकि यह शाश्वत है(Forever)|इस शरीर को बांध कर रखने वाली यह आत्मा ही है,अन्यथा इस शरीर के होने या न होने का कोई अर्थ नहीं है|अतः यह शरीर बंधने वाला और आत्मा बांधे जाने वाली मानी गयी है|दूसरे शब्दों में कहें तो असत् वह है जो बंधता है,और सत् वह है जो बांधता है|दोनों ही इस परमब्रह्म परमात्मा के ही उत्पादन(Product) है|
समस्त सृष्टि इस ब्लैक हॉल से ही तो जन्म लेती है और एक निश्चित समय उपरांत इसी ब्लैक हॉल में जाकर समाहित हो जाती है|इस सृष्टि की शुरुआत से लेकर अन्त तक का कालचक्र शास्त्रों में समाहित है,परन्तु इस विषय से उसकी कोई संबंधता नहीं होने के कारण यहाँ उल्लेखित नहीं किया जा रहा है |
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् |
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ||गीता १३/१६ ||
अर्थात्,अविभाज्य यानि अविभक्त होकर भी वह (परमात्मा) सम्पूर्ण चराचर भूतों में अलग अलग दिखाई देता है|वह जानने योग्य परमात्मा ,समस्त भूतों को उत्पन्न करने वाला,भरण-पोषण करने वाला और अन्त में संहार करने वाला है|अणुओं को ग्रसने वाला (ग्रसिष्णु)और अणुओं को पैदा करने वाला (प्रभविष्णु) भी वही परमात्मा है|
एक मात्र ३२ अक्षरों में के श्लोक में कितनी महान बात छुपी हुई है,यह सब वही जान और समझ सकते है जिन्होंने गंभीरता के साथ गीता का अध्ययन और चिंतन किया हो| यहाँ भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को उस परम ब्रह्म परमात्मा के बारे में ज्ञान दे रहे है जो अविभक्त होकर भी सब भूतों यानि जीवो में उपस्थिति दर्शा रहा है|यही सब के जन्म,भरण-पोषण और संहार के लिए उत्तरदाई है|
इसी तरह भगवान श्री कृष्ण गीता के प्रारंभ में ही अर्जुन को इस अविनाशी के बारे में अर्जुन को समझा रहे हैं|फिर पुनः इसी बात को गीता के १३ वें अध्याय में विस्तार से समझाया है|जो कि ऊपर वर्णित किया गया है|
गीता के प्रारंभ में श्री कृष्ण कहते हैं-
अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् |
विनाशामव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||गीता||२/१७||
अर्थात्, जिसका यहाँ,वहां ,सब जगह विस्तार है,जो व्यय यानि खर्च नहीं होता,जिसका यहाँ कोई भी विनाश करने में सक्षम नहीं है |वह जो सर्वत्र फैला हुआ है ,उसका कोई विनाश नहीं होता है|उसको ही तू अच्छी तरह समझ |
परम ब्रह्म परमात्मा जो कि एक परा चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र है ,वह चारों और फैला हुआ है| यह कहाँ से आया,कौन उसका कारण क्या है,यह प्रभाव कहाँ से पैदा होता है इसे आज तक कोई नहीं जान पाया है|यह अपरिमेय है अर्थात इसको मापा नहीं जा सकता है|इसी क्षेत्र के एक विशेष क्षेत्र में हमारी यह सृष्टि फैली हुई है|एक कृष्ण विवर यानि काला छेद (Black Hole) है|यही ब्लैक हॉल ही इस सम्पूर्ण सृष्टि जो इस परा चुम्बकीय क्षेत्र के प्रभाव क्षेत्र में स्थित है , उसकी चेतना,प्रकृति और पदार्थ का मूल केन्द्र है|ये तीनों यथा पदार्थ,प्रकृति और चेतना इस परमब्रह्म परमात्मा का ही विकार (Differentiation) है|
इस भौतिक शरीर में जो चेतना है,वही आत्मा कहलाती है जो कि परमब्रह्म परमात्मा का ही एक अंश है|इसीलिए इसकी प्रकृति भी परा यानि सूक्ष्म(Micro) कही गयी है|पदार्थ के कारण प्रकृति इस अपरा यानि स्थूल शरीर का निर्माण करती है|प्रकृति भी इस परमब्रह्म परमात्मा की ही एक उत्पत्ति मात्र है और पदार्थ भी|इससे पता चलता है कि सारा खेल इस सृष्टि में इस परमब्रह्म परमात्मा का ही रचा हुआ है,परन्तु उसमे विकार (Differentiation) हो जाने के कारण अलग अलग नज़र आता है |शरीर को असत्(False) कहा गया है क्योंकि यह एक दिन समाप्त हो जाने वाला है|आत्मा या चेतना को सत् (True) कहा गया है क्योंकि यह शाश्वत है(Forever)|इस शरीर को बांध कर रखने वाली यह आत्मा ही है,अन्यथा इस शरीर के होने या न होने का कोई अर्थ नहीं है|अतः यह शरीर बंधने वाला और आत्मा बांधे जाने वाली मानी गयी है|दूसरे शब्दों में कहें तो असत् वह है जो बंधता है,और सत् वह है जो बांधता है|दोनों ही इस परमब्रह्म परमात्मा के ही उत्पादन(Product) है|
समस्त सृष्टि इस ब्लैक हॉल से ही तो जन्म लेती है और एक निश्चित समय उपरांत इसी ब्लैक हॉल में जाकर समाहित हो जाती है|इस सृष्टि की शुरुआत से लेकर अन्त तक का कालचक्र शास्त्रों में समाहित है,परन्तु इस विषय से उसकी कोई संबंधता नहीं होने के कारण यहाँ उल्लेखित नहीं किया जा रहा है |
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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