Thursday, August 8, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२४|अहंकार-४|

क्रमश:
              जन्म के बाद प्रथम रूदन के साथ ही अहंकार का अपरा प्रकृति  स्वरुप स्पष्ट होने लगता है|जो दिन प्रतिदिन अपना रूप विशाल करता जाता है|शिशु के विकास के दौरान हमें एक साँस भूलने की बीमारी(Breath holding spells) से रूबरू होना पड़ता है|यह बीमारी अपरा अहंकार के कारण ही पैदा होती है|जब बच्चा कुछ खा पी सकने वाली उम्र में पहुँचता है तो वह खुद अपने हाथ से खाना चाहता है,और हम इस तरह स्वयं के द्वारा खाने की प्रवृति को प्रोत्साहित भी करते है|यह भी अपरा अहंकार का एक उदाहरण है|ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते है|विज्ञानं इसको बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास की एक साधारण प्रक्रिया मानते है|जबकि यह अपरा अहंकार के कारण संभव होता है|इस अहंकार के बढ़ने के क्या कारण हो सकते हैं और क्या इस अहंकार की प्रकृति को बदला जा सकता है ?जानने से पहले हमें योग पर विचार करना होगा,तभी हम इस विषय की गंभीरता को समझ पाएंगे| योग के माध्यम से ही हम शरीर को (अपरा) को आत्मा (परा) के साथ जोड़ सकते हैं|अन्य कोई भी माध्यम या साधन उपलब्ध नहीं है|
                       इस भौतिक शरीर का आत्मा के साथ तारतम्य बनाये रखने में भारतीय योग पद्धति का बड़ा ही महत्त्व है|वैसे योग को कई तरह से परिभाषित किया गया है|ऋषि पतंजली को योग विज्ञानं का प्रथम वैज्ञानिक माना जा सकता है|बाकी सभी  ने अपने अपने तरीके से इसकी व्याख्या  की है|वैज्ञानिक तरीके से इसको कैसे समझा जा सकता है,उसका एक प्रयास कर रहा हूँ|जो इस अहंकार की प्रकृति को बदलने में भी सहायक होगा|
योग के आयाम ---
(१)इस संसार में जो छोटे से छोटे कण में है,वही विशाल से विशाल पिण्ड में भी है|"यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे"|आप एक साधारण परमणु से लेकर पूरे ब्रह्माण्ड का अवलोकन कर लीजिए आपको सब समान नज़र आएगा|वही केन्द्र,वही भ्रमण करते पिण्ड|सब समान|कहीं कोई फर्क नहीं|वही गुरुत्वाकर्षण बल,अप और अभिकेंद्रित बल,वही विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र|
(२)यहाँ सब एक दूसरे के पूरक है|एक के बिना दूसरे का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है|जितना आवश्यक मनुष्य का जीवन है उतना ही जंगली जानवरों का,उतना ही वनस्पतियों और जंगल का |सब एक दूसरे के पूरक है|अमीर व्यक्ति का अस्तित्व गरीबों की मौजूदगी के कारण है|अगर सभी अमीर हो जाये तो फिर कौन किसको पूछेगा|डॉ. का अस्तित्व मरीज के कारण है|सब स्वस्थ हो जाये तो फिर डॉ. का अस्तित्व खतरे में|सब जगह ऐसे उदाहरण देखे जा सकते है|
(३)यहाँ न तो कोई किसी को ज्यादा देता है और न ही कोई किसी से ज्यादा ग्रहण ही करता है|जंगल आपको पद ,फल और खाना देते है,बदले में आप उसको खाद ,कार्बन डाई ओक्साइड देते है|एक दूसरे पर निर्भर|कहीं कुछ ज्यदा देना नहीं और ज्यादा लेना नहीं|जहाँ पर भी यह संतुलन बिगड़ा सब खतरे में|आप किसी को कुछ देते है तो बदले में वह भी आपको कुछ देता है यह बिलकुल निश्चित है|
(४)यहाँ पर कोई भी,न तो कुछ करता है और न ही करवाता है|सब अपनी एक निश्चित प्रक्रिया के अनुसार ही होता है|यह सब कर्म के सिद्धांत में समझे जा चुके हैं|व्यक्ति को यही मानकर कर्म करने चाहिए,सब कर्म ईश्वर के लिए कर रहा हूँ|जो भी इसका परिणाम होगा वह भी उसका होगा|यह सब मान लेने पर ही व्यक्ति को शांति प्राप्त होगी|
                      इस तरह से योग के कुल नौ आयाम बताये गए है,और कुल नौ विभिन्न तरीकों से इसकी व्याख्या की गयी है|इस तरह से कुल८१ आयाम बताये गए हैं|परन्तु सबका उद्देश्य एक ही है-शरीर का आत्मा के साथ योग| अहंकार को समझने के लिए उपरोक्त चार ही प्रयाप्त है|जो व्यक्ति इन योग के सिद्धांतों के अनुकूल आचरण करता है ,उसका आकर्षण आत्मा और परमात्मा  के प्रति ज्यादा होता है अतः उसका अहंकार परा प्रकृति का माना जायेगा|जो व्यक्ति इन सिद्धांतों के प्रतिकूल आचरण करता है ,उसका आकर्षण संसार और शरीर के प्रति ज्यादा होता है ,अतः उसका अहंकार अपरा प्रकृति का है|अब सम्बन्धित  व्यक्ति को ही तय करना होगा कि वह कौन से अहंकार के साथ जीवन जीना चाहता है,किसी एक को तो चुनना होगा क्योंकि बिना अहंकार के तो जीवन ही असंभव है|
                                अहंकार को जब चोट पहुंचती है ,तब व्यक्ति व्यथित हो जाता है|अहंकार के कारण ही सब ईच्छाएं ,कामनाएं ,वासनाएं और अभिमान आदि पैदा होते हैं|जब इनकी पूर्ति  में व्यवधान पैदा होता है तब व्यक्ति को दुःख पैदा होता है और मन में ईर्ष्या और क्रोध उत्पन्न होता है|क्रोध से मति भ्रम पैदा हो जाता है और बुद्धि का विनाश भी|यह सब अपरा अहंकार को और अधिक बढ़ाने का काम करते है|इस प्रकार यह चक्र जीवन पर्यंत चलता रहता है|गीता में भगवान कहते हैं-
                               क्रोधाद्भवति   सम्मोहः   सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
                               स्मरितिभ्रन्शाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||गीता२/६३||
   अर्थात्,क्रोध से अत्यंत मूढ़ भाव पैदा हो जाता है,मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है,स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है जिससे व्यक्ति अपनी स्थिति से गिर जाता है|(Demoralization)
                         इससे स्पष्ट है कि व्यक्ति को यह अहंकार कहाँ से कहाँ तक ले जा सकता है|अतः अहंकार सांसारिकता में न होकर परमात्मा में होना ही श्रेयस्कर है|सबको अपने ही समान समझें|किसी भी कार्य के कर्ता न बने|कुछ दान देकर भी अपने आप को दाता न समझे,देने में अपना सौभाग्य समझे कि आपको कोई लेने वाला तो मिला है|अपने शरीर को परमात्मा का आशीर्वाद समझते हुये लोक कल्याण कार्यों के लिए समर्पित कर दे|तभी आप आध्यात्मिकता के पथ पर आगे बढ़ पाएंगे|केवल पूजा पाठ करना,मंदिर जाना,कुछ दान  देकर अहसान करना ,प्रवचन सुनना आदि तो सिर्फ झूठे अहंकार के प्रतीक है,इनसे कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे|
                   अहंकार पर अभी भी काफी कुछ लिखा जा सकता है ,परन्तु ब्लॉग पर ज्यादा सम्भावना नहीं है|आधुनिक काल में अहंकार की प्रवृति इतनी ज्यादा बढ़ रही है कि कई बार आश्चर्य होता है कि पतंजली की इस पावन भूमि पर यह सब कैसे हो रहा है?अतः आज अहंकार को समझने की ज्यादा आवश्यकता महसूस हो रही है|दुर्भाग्य से इस विषय पर प्रवचन कर्ता भी ज्यादा मुखर नहीं है|
   कल से आत्मा के बारे में.....
क्रमश:
     ||हरि शरणम् || 

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