क्रमश:
गीता में परमात्मा श्री कृष्ण कहते हैं-
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणी त्युपधाराय |
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ||गीता ७/६||
अर्थात्,ऐसा समझो कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों (परा और अपरा यानि सूक्ष्म और स्थूल ) प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं|और मैं इस सम्पूर्ण जगत का प्रभव(पैदा करने वाला )और प्रलय हूँ (समाप्त करने वाला ),अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण मैं ही हूँ|
मतः परतरं नान्यत्किन्चिदस्ति धनंजय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव ||गीता ७/७||
अर्थात्,हे धनंजय!मुझसे भिन्न या अलग कोई दूसरा कारण नहीं है|यह सम्पूर्ण जगत एक सूत्र में मणियों की तरह मुझमे गूंथा हुआ है|
परम ब्रह्म परमात्मा न तो सत् है और न ही असत्|किसी भी गुण से वह ऊपर है ,यानि गुणातीत है|हालाँकि वही ब्रह्माण्ड को उत्पन्न व विनाश करने वाला है|फिर भी वह न तो कोई कर्म करता है और न ही उसमे लिप्त होता है|गुणों को पैदा करने वाला वही है,फिर भी गुणातीत है|
यहाँ उल्लेखित दोनों श्लोकों को अगर हम गंभीरता के साथ अनुभव करें तो सोचना पड़ता है कि कृष्ण किसकी बात कर रहे है?अरे!यह तो सम्पूर्ण रूप सेएक वैज्ञानिक की तरह ही विज्ञानं की ही तरह बात कर रहे है|कृष्ण विवर यानि ब्लैक हॉल,के चारों और निहारिकायें इसी तरह से नजर आती है जैसे कि एक धागे में मणियों को पिरोकर माला बना दी गयी हो|७/७ श्लोक में कृष्ण इसी ब्रह्माण्ड की इस तरह बात कर रहे है,मानो बहुत दूर खड़े होकर इसे निहार रहे हो|यहाँ परमात्मा अपने ही एक अंश आत्मा से बात कर रहे हैं|
गीता में ही भगवान श्री कृष्ण कहते है-
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्त्मध्यानी भारत |
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना || गीता२/२८||
अर्थात्,हे भारत!हे अर्जुन!सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले है, केवल बीच में ही प्रकट होते है ,फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना?
यहाँ पर भगवान भौतिक शरीर के साथ साथ आत्मा के बारे में भी बात कर रहे है|जन्म से पहले जो अप्रकट थे,यानि आत्मा जो कि अव्यक्त है वह शरीर के रूप में इस संसार में प्रकट होती है |बिना शरीर के आत्मा के पास अपने आप को व्यक्त करने का कोई तरीका नहीं है|आगे वे कहते है कि मरने के बाद फिर अप्रकट होने वाले है,आत्मा तो शरीर के मरने के बाद व्यक्त से अव्यक्त हो ही जाती है, साथ ही साथ शरीर भी तो मरने के बाद अंतिम संस्कार द्वारा अप्रकट हो जाता है या प्रकृति उसे एक निश्चित प्रक्रिया के अनुसार समाप्त कर देती है|कहने का अर्थ यह है कि इस प्रकार शरीर भी मरने के बाद अप्रकट हो जाता है|अन्त में कृष्ण कहते है कि केवल बीच में ही प्रकट होते है| मरने के बाद भौतिक शरीर का पुनः सृजन होता है,और आत्मा को अपने आप को व्यक्त करने के लिए शरीर की जरूरत होती है|इस प्रकार शरीर और आत्मा फिर से प्रकट हो जाते है|जब यह प्रकट और अप्रकट का चक्र ही चलता रहता हैतो ऐसे में मरने का दुःख होना उचित नहीं है|
यहाँ भगवान बीच में प्रकट होने की बात करते है,जबकि बीच में अप्रकट होना भी कह सकते थे |मुख्य जोर यहाँ अप्रकट पर दिया गया है क्योंकि दोनों में अप्रकट या आयक्त रहना ही आत्मा का मुख्य गुणधर्म है|प्रकट होना आत्मा पर निर्भर ना होकर मन पर होता है,और मन ही पुनर्जन्म का जिम्मेवार है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
गीता में परमात्मा श्री कृष्ण कहते हैं-
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणी त्युपधाराय |
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ||गीता ७/६||
अर्थात्,ऐसा समझो कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों (परा और अपरा यानि सूक्ष्म और स्थूल ) प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं|और मैं इस सम्पूर्ण जगत का प्रभव(पैदा करने वाला )और प्रलय हूँ (समाप्त करने वाला ),अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण मैं ही हूँ|
मतः परतरं नान्यत्किन्चिदस्ति धनंजय |
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव ||गीता ७/७||
अर्थात्,हे धनंजय!मुझसे भिन्न या अलग कोई दूसरा कारण नहीं है|यह सम्पूर्ण जगत एक सूत्र में मणियों की तरह मुझमे गूंथा हुआ है|
परम ब्रह्म परमात्मा न तो सत् है और न ही असत्|किसी भी गुण से वह ऊपर है ,यानि गुणातीत है|हालाँकि वही ब्रह्माण्ड को उत्पन्न व विनाश करने वाला है|फिर भी वह न तो कोई कर्म करता है और न ही उसमे लिप्त होता है|गुणों को पैदा करने वाला वही है,फिर भी गुणातीत है|
यहाँ उल्लेखित दोनों श्लोकों को अगर हम गंभीरता के साथ अनुभव करें तो सोचना पड़ता है कि कृष्ण किसकी बात कर रहे है?अरे!यह तो सम्पूर्ण रूप सेएक वैज्ञानिक की तरह ही विज्ञानं की ही तरह बात कर रहे है|कृष्ण विवर यानि ब्लैक हॉल,के चारों और निहारिकायें इसी तरह से नजर आती है जैसे कि एक धागे में मणियों को पिरोकर माला बना दी गयी हो|७/७ श्लोक में कृष्ण इसी ब्रह्माण्ड की इस तरह बात कर रहे है,मानो बहुत दूर खड़े होकर इसे निहार रहे हो|यहाँ परमात्मा अपने ही एक अंश आत्मा से बात कर रहे हैं|
गीता में ही भगवान श्री कृष्ण कहते है-
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्त्मध्यानी भारत |
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना || गीता२/२८||
अर्थात्,हे भारत!हे अर्जुन!सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले है, केवल बीच में ही प्रकट होते है ,फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना?
यहाँ पर भगवान भौतिक शरीर के साथ साथ आत्मा के बारे में भी बात कर रहे है|जन्म से पहले जो अप्रकट थे,यानि आत्मा जो कि अव्यक्त है वह शरीर के रूप में इस संसार में प्रकट होती है |बिना शरीर के आत्मा के पास अपने आप को व्यक्त करने का कोई तरीका नहीं है|आगे वे कहते है कि मरने के बाद फिर अप्रकट होने वाले है,आत्मा तो शरीर के मरने के बाद व्यक्त से अव्यक्त हो ही जाती है, साथ ही साथ शरीर भी तो मरने के बाद अंतिम संस्कार द्वारा अप्रकट हो जाता है या प्रकृति उसे एक निश्चित प्रक्रिया के अनुसार समाप्त कर देती है|कहने का अर्थ यह है कि इस प्रकार शरीर भी मरने के बाद अप्रकट हो जाता है|अन्त में कृष्ण कहते है कि केवल बीच में ही प्रकट होते है| मरने के बाद भौतिक शरीर का पुनः सृजन होता है,और आत्मा को अपने आप को व्यक्त करने के लिए शरीर की जरूरत होती है|इस प्रकार शरीर और आत्मा फिर से प्रकट हो जाते है|जब यह प्रकट और अप्रकट का चक्र ही चलता रहता हैतो ऐसे में मरने का दुःख होना उचित नहीं है|
यहाँ भगवान बीच में प्रकट होने की बात करते है,जबकि बीच में अप्रकट होना भी कह सकते थे |मुख्य जोर यहाँ अप्रकट पर दिया गया है क्योंकि दोनों में अप्रकट या आयक्त रहना ही आत्मा का मुख्य गुणधर्म है|प्रकट होना आत्मा पर निर्भर ना होकर मन पर होता है,और मन ही पुनर्जन्म का जिम्मेवार है|
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
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