Saturday, August 3, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२१|अहंकार

क्रमश:
                            गर्भावस्था के दौरान जब सभी शारीरिक अंग विकसित हो जाते है,उसके बाद उसमे सूक्ष्मता का विकास शुरू हो जाता है|जब सब इन्द्रियों का निर्माण सम्पूर्ण हो जाता है तब इन्द्रियों के विषय विकसित होते है,जो कि मूल रूप से रासायनिक उर्जा (Chemical energy) के कारण होता है|इसके बाद मन,बुद्धि और चित्त का विकास होता है|मन और बुद्धि का विकास होने पर गर्भस्थ शिशु गर्भ में अपनी हलचल शुरू कर देता है,इसमे उसका मुस्कुराना भी शामिल है|अंतिम विकास अहंकार का होता है|अहंकार का अर्थ है अपने "मैं"स्वरुप का आकार लेना|इस स्थिति में जब अहंकार विकसित होता है,गर्भस्थ शिशु में स्वयं  को एक स्वतन्त्र इकाई मानने का भाव पैदा होने लगता है|इसी को अहंकार कहते है|अहंकार=अहं+आकार|इसे अंग्रेजी में Self Recognition or Self Identity कहते है|अहंकार का विकास गर्भावस्था के दौरान ही हो जाता है,अतः इसकी प्रकृति अपरा यानि स्थूल (Macro) ही मानी गयी है|
         मन,चित्त और बुद्धि के बाद अगर सूक्ष्म रूप किसी का है तो वह है अहंकार|सूक्ष्म रूप होने के बाद भी इसकी प्रकृति अपरा ही मानी गयी है|अहंकार मानव मनोविज्ञान(Human Psychology) का विषय है|मानव शरीर विज्ञानं इसके बारे में अभी भी कुछ भी नहीं जान पाया है|वह इसे एक व्यक्ति की अपनी मानसिकता समझता है|
    आध्यात्मिकता की दृष्टि से  अगर देखा जाये तो अहंकार का अर्थ है अपने आप को कर्ता मानना|अहंकार को दोनों अपरा और परा प्रकृति माना जा सकता है|'अहं' अपरा प्रकृति है,जिसमे' मैं' पना है|अगर यही अहं भाव परमात्मा की तरफ हो जाये जैसे मैं परमात्मा का हूँ,परमात्मा मेरे हैं;तब यह अहंकार की परा प्रकृति हो जाती है|यहाँ यह अहंकार मानव जन्म की सफलता प्रदर्शित करता है|
                     अपरा प्रकृति के अहंकार के होने से मनुष्य संसार की तरफ उन्मुख रहता है,जिसके कारण वह परमात्मा को भूलकर सब जगह अपने को ही कुछ होना समझने लगता है|वास्तविकता यह है कि यहाँ पर उसकी कोई औकात भी नही है|आज आप घर से कह कर निकलते हो कि दोपहर का खाना घर पर खाऊंगा|किस आधार पर कहते हो?इसी अहंकार के कारण,जैसे सब कुछ आपके हाथ है|लोग एक दूसरे को देख लेने की धमकी देते है,पता नहीं है उनको कि देखने और दिखाने वाला कोई और है|यह तभी है जब व्यक्ति  संसार और शरीर की क्षमता को देखता है |जब व्यक्ति  को परमात्मा की सत्ता का पता चलता है तब वह अगर अपने आप को परमात्मा को समर्पित कर देता है तो यही अहंकार उसे मुक्ति के मार्ग तक भी ले जा सकता है|गीता में भगवान कहते हैं-
                                   यदहंकारमाश्रित्य न योत्स इति मन्यसे |
                                   मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ||गीता१८/५९||
अर्थात्, जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि "मैं युद्ध नहीं करूँगा"तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है;क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा|
                 अर्जुन एक कुशल योद्धा था ,उसको तो अहंकार युद्ध करने का होना चाहिए था परन्तु यहाँ भगवान कहते है कि वह अहंकार का आश्रय ले रहा था|उसको अहंकार इस बात का नहीं था कि वह एक कुशल योद्धा था बल्कि उसे अपने आप को ज्ञानवान समझने का था|गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन ने युद्ध से होने वाले नुकसान गिनाये थे|तब वह कृष्ण के सामने ज्ञानियों जैसी बातें कर रहा था|भगवान ने यहाँ यह माना है कि उसे अपने ज्ञान का अहंकार हो गया है| इसी अहंकार की आड में अर्जुन युद्ध से कतरा रहा था|यह अहंकार परमात्मा से विमुख और स्वयं के कारण होने से स्थूल यानि अपरा प्रकृति का है|
                                           अहंकार की दोनों प्रकृतियों को समझ लेने के बाद प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह अहंकार मनुष्य के लिए क्यों आवश्यक है?अहंकार के बिना भी जीवन चल सकता है|नहीं,ऐसा नहीं है|अगर अहंकार मनुष्य में नहीं हो तो वह कर्म से विमुख हो सकता है|अहंकार का आश्रय लेकर ही व्यक्ति कर्म करता है|
अहंकार की अति होने पर विकर्म होने लगते है,तब व्यक्ति अधोगति की तरफ अग्रसर हो जाता है|यही अहंकार अगर परमात्मा की तरफ हो तो भक्ति में लग कर अपना जीवन सफल बना सकता है|
क्रमश:
                       ||हरि शरणम् ||

No comments:

Post a Comment