अभी तक हमने संक्षेप में जाना कि पुनर्जन्म क्यों होता है?जब जीवात्मा की भोगों की ईच्छा अपूर्ण रह जाती है ,तब ऐसा होता है|यानि व्यक्ति पदार्थों के गुणों का संग कर लेता है|यह पुनर्जन्म का एक प्रमुख कारण है|हालाँकि भोग की ईच्छा कभी भी समाप्त नहीं होती है|पदार्थ के तीनों ही गुणों में से किसी एक का संग जब जीवात्मा कर लेता है,पुनर्जन्म की भूमिका बन जाती है|सतो गुण पदार्थ का संग भी पुनर्जन्म को रोक नहीं सकता,केवल पुनर्जन्म का स्थान और शरीर उच्च स्तर के प्राप्त किये जा सकते हैं|राजसिक में इसी जीवन की तरह और तामसिक गुणों के संग से निम्न स्तर के शरीर ही प्राप्त किये जा सकते है|गुणों का संग कैसे पुनर्जन्म को प्रभवित करता है और इसकी वैज्ञानिक प्रक्रिया क्या होती है,यह जानने का प्रयास करेंगे|गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
शरीरं यदवाप्नोति याच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: |
गृहीत्वैतानी संयाति वायुर्गंधानिवाशयात् ||गीता १५/८ ||
अर्थात्,वायु,गंध के स्थान से गंध को जैसे ले जाती है वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है,उनसे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमे जाता है|
यहाँ भगवान श्री कृष्ण पुनर्जन्म को निर्धारित करने की प्रक्रिया(Process) समझा रहे हैं|किसी अँधेरे कोने में भी अगर आप एक अगरबत्ती भी जलाते हैं तो वायु उसकी गंध(Smell) को अपने साथ लेकर कहीं भी जा सकती है|उसी प्रकार जीवात्मा भी अपनी अधूरी कामनाएं मन को साथ लेकर नए शरीर में चली जाती है|
प्रत्येक शरीर का अपना एक जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (Bio Electric magnetic field )होता है |पराचुम्बकीय क्षेत्र से एक अलग चुम्बकीय क्षेत्र आत्मा के रूप में शरीर में आता है|दोनों चुम्बकीय क्षेत्रों के प्रभाव से एक नया क्षेत्र बनता है उसी को मन कहते है|शरीर में मन ही सबसे सक्रिय होता है|जितने भी कर्म,इन्द्रियों के विषय,भोग आदि इसी के द्वारा संचालित होते हैं|मन में शरीर के द्वारा जो भी कार्य किये जाते है,वे सब मन में अंकित होते जाते है|जीवात्मा जिन जिन भोगों को भोगने का आग्रह अपनी बुद्धि और मन से करती है,वे सब भोग इन्द्रियों के माध्यम से ही उसे सुलभ होते है|ये सभी कामनाएं उसके मन में चुम्बकीय तरंगों के रूप में मन में अंकित होकर इक्कट्ठी होती रहती है|हम जानते हैं की कामनाएं कभी भी पूरी नहीं हो सकती,अतः इनका अंकन मन में होता जाता है|क्योंकि अंकन चुम्बकीय तरंगों के रूप में होता है,तो असीमित मात्रा में हो सकता है|
किसी भी चुम्बकीय क्षेत्र के बनने के लिए एक चुम्बक (Magnet)का होना जरूरी होता है| यह माना जाता है कि पृथ्वी की गहराई में एक विशाल चुम्बक है,जिसका दक्षिणी ध्रुव(South pole) पृथ्वी की उत्तर (North)दिशा में और उत्तरी ध्रुव(North pole) पृथ्वी की दक्षिणी(South) दिशा में अवस्थित है|जब हम दिशा ज्ञान के लिए कुतुबनुमा(Compass) का उपयोग करते है तो उसमें स्थित चुम्बकीय सुई(Magnetic Needle) का उत्तरी ध्रुव उत्तर दिशा को दर्शाता है| किन्ही भी दो चुम्बकों को अगर पास पास लाया जाता है तो हम देखते हैं कि उनके समान सिरे या ध्रुव एक दूसरे को दूर धकेलते(Repel) हैं अर्थात् प्रतिकर्षित करते हैं जबकि विपरीत ध्रुव एक दूसरे को अपनी और खींचते(Attract) हैं यानि आकर्षित करते हैं|पृथ्वी के चुम्बक का दक्षिणी ध्रुव उत्तर दिशा में होता है ,इसलिए कुतुबनुमा की सुई या चुमबक का उत्तरी ध्रुव पृथ्वी में स्थित चुम्बक के दक्षिणी ध्रुव की तरफ आकर्षित होगा|अतः कुतुबनुमा की सुई का उत्तरी ध्रुव हमेशा उत्तर दिशा की तरफ ही होगा|यह चुम्बक का प्रमुख गुण है|
चुम्बक का दूसरा महत्वपूर्णगुण यह है कि यह अपने एक प्रभाव क्षेत्र का निर्माण करता है|जो कि अपने गुणों से सम्बंधित दूसरे क्षेत्र को प्रभावित करता है |जब चुम्बक की शक्ति बढती है तो उसका प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ जाता है|इसी तरह जब कहीं पर भी विद्युत प्रवाह होता है तो उसके कारण भी चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण होता है|विद्युत धारा के बंद होने के बाद भी यह क्षेत्र लंबे समय तक बना रहता है|विद्युत प्रवाह के क्षेत्र में आने वाली लोहे की वस्तुए भी चुम्बकीय व्यवहार करने लगती है|
चुम्बकीय क्षेत्र का तेजी के साथ विस्तार होता है और इसकी तरंगे पलक झपकते ही अनंत दूरी तय कर सकती है|इसका प्रभाव क्षेत्र तेजी के साथ बढ़ कर स्थिर हो जाता है|यह चुम्बक का एक महत्वपूर्ण तीसरा गुण है|
उपरोक्त तीन चुम्बकीय गुणों की चर्चा इसलिए की गयी है,क्योंकि इन्ही के आधार पर पुनर्जन्म कैसे और कब होता है ,उसकी परिकल्पना की गयी है|किसी भी अज्ञात को जानने के लिए सबसे पहले कुछा ना कुछ को मानना पड़ता है|यही एक आधार होता है,अज्ञात को जानने का|गणित का यह एक सिद्धांत है|मेरा यही मानना है कि पुनर्जन्म की प्रक्रिया कुछ कुछ ऐसी ही होनी चाहिए-तभी हम जान पाएंगे कि वास्तव में पुनर्जन्म की क्या प्रक्रिया होती है?
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||
शरीरं यदवाप्नोति याच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: |
गृहीत्वैतानी संयाति वायुर्गंधानिवाशयात् ||गीता १५/८ ||
अर्थात्,वायु,गंध के स्थान से गंध को जैसे ले जाती है वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है,उनसे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमे जाता है|
यहाँ भगवान श्री कृष्ण पुनर्जन्म को निर्धारित करने की प्रक्रिया(Process) समझा रहे हैं|किसी अँधेरे कोने में भी अगर आप एक अगरबत्ती भी जलाते हैं तो वायु उसकी गंध(Smell) को अपने साथ लेकर कहीं भी जा सकती है|उसी प्रकार जीवात्मा भी अपनी अधूरी कामनाएं मन को साथ लेकर नए शरीर में चली जाती है|
प्रत्येक शरीर का अपना एक जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (Bio Electric magnetic field )होता है |पराचुम्बकीय क्षेत्र से एक अलग चुम्बकीय क्षेत्र आत्मा के रूप में शरीर में आता है|दोनों चुम्बकीय क्षेत्रों के प्रभाव से एक नया क्षेत्र बनता है उसी को मन कहते है|शरीर में मन ही सबसे सक्रिय होता है|जितने भी कर्म,इन्द्रियों के विषय,भोग आदि इसी के द्वारा संचालित होते हैं|मन में शरीर के द्वारा जो भी कार्य किये जाते है,वे सब मन में अंकित होते जाते है|जीवात्मा जिन जिन भोगों को भोगने का आग्रह अपनी बुद्धि और मन से करती है,वे सब भोग इन्द्रियों के माध्यम से ही उसे सुलभ होते है|ये सभी कामनाएं उसके मन में चुम्बकीय तरंगों के रूप में मन में अंकित होकर इक्कट्ठी होती रहती है|हम जानते हैं की कामनाएं कभी भी पूरी नहीं हो सकती,अतः इनका अंकन मन में होता जाता है|क्योंकि अंकन चुम्बकीय तरंगों के रूप में होता है,तो असीमित मात्रा में हो सकता है|
किसी भी चुम्बकीय क्षेत्र के बनने के लिए एक चुम्बक (Magnet)का होना जरूरी होता है| यह माना जाता है कि पृथ्वी की गहराई में एक विशाल चुम्बक है,जिसका दक्षिणी ध्रुव(South pole) पृथ्वी की उत्तर (North)दिशा में और उत्तरी ध्रुव(North pole) पृथ्वी की दक्षिणी(South) दिशा में अवस्थित है|जब हम दिशा ज्ञान के लिए कुतुबनुमा(Compass) का उपयोग करते है तो उसमें स्थित चुम्बकीय सुई(Magnetic Needle) का उत्तरी ध्रुव उत्तर दिशा को दर्शाता है| किन्ही भी दो चुम्बकों को अगर पास पास लाया जाता है तो हम देखते हैं कि उनके समान सिरे या ध्रुव एक दूसरे को दूर धकेलते(Repel) हैं अर्थात् प्रतिकर्षित करते हैं जबकि विपरीत ध्रुव एक दूसरे को अपनी और खींचते(Attract) हैं यानि आकर्षित करते हैं|पृथ्वी के चुम्बक का दक्षिणी ध्रुव उत्तर दिशा में होता है ,इसलिए कुतुबनुमा की सुई या चुमबक का उत्तरी ध्रुव पृथ्वी में स्थित चुम्बक के दक्षिणी ध्रुव की तरफ आकर्षित होगा|अतः कुतुबनुमा की सुई का उत्तरी ध्रुव हमेशा उत्तर दिशा की तरफ ही होगा|यह चुम्बक का प्रमुख गुण है|
चुम्बक का दूसरा महत्वपूर्णगुण यह है कि यह अपने एक प्रभाव क्षेत्र का निर्माण करता है|जो कि अपने गुणों से सम्बंधित दूसरे क्षेत्र को प्रभावित करता है |जब चुम्बक की शक्ति बढती है तो उसका प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ जाता है|इसी तरह जब कहीं पर भी विद्युत प्रवाह होता है तो उसके कारण भी चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण होता है|विद्युत धारा के बंद होने के बाद भी यह क्षेत्र लंबे समय तक बना रहता है|विद्युत प्रवाह के क्षेत्र में आने वाली लोहे की वस्तुए भी चुम्बकीय व्यवहार करने लगती है|
चुम्बकीय क्षेत्र का तेजी के साथ विस्तार होता है और इसकी तरंगे पलक झपकते ही अनंत दूरी तय कर सकती है|इसका प्रभाव क्षेत्र तेजी के साथ बढ़ कर स्थिर हो जाता है|यह चुम्बक का एक महत्वपूर्ण तीसरा गुण है|
उपरोक्त तीन चुम्बकीय गुणों की चर्चा इसलिए की गयी है,क्योंकि इन्ही के आधार पर पुनर्जन्म कैसे और कब होता है ,उसकी परिकल्पना की गयी है|किसी भी अज्ञात को जानने के लिए सबसे पहले कुछा ना कुछ को मानना पड़ता है|यही एक आधार होता है,अज्ञात को जानने का|गणित का यह एक सिद्धांत है|मेरा यही मानना है कि पुनर्जन्म की प्रक्रिया कुछ कुछ ऐसी ही होनी चाहिए-तभी हम जान पाएंगे कि वास्तव में पुनर्जन्म की क्या प्रक्रिया होती है?
क्रमश:
|| हरि शरणम् ||