Friday, August 30, 2013

पुनर्जन्म-कैसे?-प्रक्रिया-१.

                                   अभी तक हमने संक्षेप में जाना कि पुनर्जन्म क्यों होता है?जब जीवात्मा की भोगों की ईच्छा अपूर्ण रह जाती है ,तब ऐसा होता है|यानि व्यक्ति पदार्थों के गुणों का संग कर लेता है|यह पुनर्जन्म का एक प्रमुख कारण है|हालाँकि भोग की ईच्छा कभी भी समाप्त नहीं होती है|पदार्थ के तीनों ही गुणों में से किसी एक का संग जब जीवात्मा कर लेता है,पुनर्जन्म की भूमिका बन जाती है|सतो गुण पदार्थ का संग भी पुनर्जन्म को रोक नहीं सकता,केवल पुनर्जन्म का स्थान और शरीर उच्च स्तर के प्राप्त किये जा सकते हैं|राजसिक में इसी जीवन की तरह और तामसिक गुणों के संग से निम्न स्तर के शरीर ही प्राप्त किये जा सकते है|गुणों का संग कैसे पुनर्जन्म को प्रभवित करता है और इसकी वैज्ञानिक प्रक्रिया क्या होती है,यह जानने का प्रयास करेंगे|गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                 शरीरं यदवाप्नोति याच्चाप्युत्क्रामतीश्वर: |
                                 गृहीत्वैतानी संयाति वायुर्गंधानिवाशयात् ||गीता १५/८ ||
अर्थात्,वायु,गंध के स्थान से गंध को जैसे ले जाती है वैसे ही देहादि का स्वामी जीवात्मा भी जिस शरीर का त्याग करता है,उनसे इन मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है उसमे जाता है|
                              यहाँ भगवान श्री कृष्ण पुनर्जन्म को निर्धारित करने की प्रक्रिया(Process) समझा रहे हैं|किसी अँधेरे कोने में भी अगर आप एक अगरबत्ती भी जलाते हैं तो वायु उसकी गंध(Smell) को अपने साथ लेकर कहीं भी जा सकती है|उसी प्रकार जीवात्मा भी अपनी अधूरी कामनाएं मन को साथ लेकर नए शरीर में चली जाती है|
                         प्रत्येक शरीर का अपना एक जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (Bio Electric magnetic field )होता है |पराचुम्बकीय क्षेत्र से एक अलग चुम्बकीय क्षेत्र आत्मा के रूप में शरीर में आता है|दोनों चुम्बकीय क्षेत्रों के प्रभाव से एक नया क्षेत्र बनता है उसी को मन कहते है|शरीर में मन ही सबसे सक्रिय होता है|जितने भी कर्म,इन्द्रियों के विषय,भोग आदि इसी के द्वारा संचालित होते हैं|मन में शरीर के द्वारा जो भी कार्य किये जाते है,वे सब मन में अंकित होते जाते है|जीवात्मा जिन जिन भोगों को भोगने का आग्रह अपनी बुद्धि और मन से करती है,वे सब भोग इन्द्रियों के माध्यम से ही उसे सुलभ होते है|ये सभी कामनाएं उसके मन में चुम्बकीय तरंगों के रूप में मन में अंकित होकर इक्कट्ठी होती रहती है|हम जानते हैं की कामनाएं कभी भी पूरी नहीं हो सकती,अतः इनका अंकन मन में होता जाता है|क्योंकि अंकन चुम्बकीय तरंगों के रूप में होता है,तो असीमित मात्रा में हो सकता है|
                                    किसी भी चुम्बकीय क्षेत्र के बनने के लिए एक चुम्बक (Magnet)का होना जरूरी होता है| यह माना जाता है कि पृथ्वी की गहराई में एक विशाल चुम्बक है,जिसका दक्षिणी ध्रुव(South pole) पृथ्वी की उत्तर (North)दिशा में और उत्तरी ध्रुव(North pole) पृथ्वी की दक्षिणी(South) दिशा में अवस्थित है|जब हम दिशा ज्ञान के लिए कुतुबनुमा(Compass) का उपयोग करते है तो उसमें स्थित चुम्बकीय सुई(Magnetic Needle) का उत्तरी ध्रुव उत्तर दिशा को दर्शाता है| किन्ही भी दो चुम्बकों को अगर पास पास लाया जाता है तो हम देखते हैं कि उनके समान सिरे या ध्रुव एक दूसरे को दूर धकेलते(Repel) हैं अर्थात् प्रतिकर्षित करते हैं जबकि विपरीत ध्रुव एक दूसरे को अपनी और खींचते(Attract) हैं यानि आकर्षित करते हैं|पृथ्वी के चुम्बक का दक्षिणी ध्रुव उत्तर दिशा में होता है ,इसलिए कुतुबनुमा की सुई या चुमबक का उत्तरी ध्रुव पृथ्वी में स्थित चुम्बक के दक्षिणी ध्रुव की तरफ आकर्षित होगा|अतः कुतुबनुमा की सुई का उत्तरी ध्रुव हमेशा उत्तर दिशा की तरफ ही होगा|यह चुम्बक का प्रमुख गुण है|
               चुम्बक का दूसरा महत्वपूर्णगुण यह है कि यह अपने एक प्रभाव क्षेत्र का निर्माण करता है|जो कि अपने गुणों से सम्बंधित दूसरे क्षेत्र को प्रभावित करता है |जब चुम्बक की शक्ति बढती है तो उसका प्रभाव क्षेत्र भी बढ़ जाता है|इसी तरह जब कहीं पर भी विद्युत प्रवाह होता है तो उसके कारण भी चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण होता है|विद्युत धारा के बंद होने के बाद भी यह क्षेत्र लंबे समय तक बना रहता है|विद्युत प्रवाह के क्षेत्र में आने वाली लोहे की वस्तुए भी चुम्बकीय व्यवहार करने लगती है|
                    चुम्बकीय क्षेत्र का तेजी के साथ विस्तार होता है और इसकी तरंगे पलक झपकते ही अनंत दूरी तय कर सकती है|इसका प्रभाव क्षेत्र तेजी के साथ बढ़ कर स्थिर हो जाता है|यह चुम्बक का एक महत्वपूर्ण तीसरा गुण है|
              उपरोक्त तीन चुम्बकीय गुणों की चर्चा इसलिए की गयी है,क्योंकि इन्ही के आधार पर पुनर्जन्म कैसे और कब होता है ,उसकी परिकल्पना की गयी है|किसी भी अज्ञात को जानने के लिए सबसे पहले कुछा ना कुछ को मानना पड़ता है|यही एक आधार होता है,अज्ञात को जानने का|गणित का यह एक सिद्धांत है|मेरा यही मानना है कि पुनर्जन्म की प्रक्रिया कुछ कुछ ऐसी ही होनी चाहिए-तभी हम जान पाएंगे कि वास्तव में पुनर्जन्म की क्या प्रक्रिया होती है?
क्रमश:
              || हरि शरणम् ||
                                         

Monday, August 26, 2013

पुनर्जन्म-क्यों?कारण-५|

क्रमश:
       गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                              यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |
                              तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः || गीता ८/६ ||
अर्थात्,हे कुन्तीपुत्र अर्जुन!यह मनुष्य अंतकाल में जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर त्यागता है ,वह उस उसको ही प्राप्त होता है;क्योंकि वह सदा उस भाव से भावित रहा है|
                      इस श्लोक पर पहले भी चर्चा की जा चुकी है,आज इससे जुडा प्रसंग आज यहाँ हरि शरणम् आश्रम में प्रवचन में सुनने को मिला|  जिसे आप के साथ बांटने से अपने आप को रोक नहीं पाया|यह प्रसंग श्री राम कृष्ण परमहंस के अंतिम समय का है|जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस इस भौतिक संसार से विदा होने लगे ,तब शिष्यों ने पूछा कि जब आप स्वर्ग पहुंचेंगे तो इसका पता हमें कैसे चलेगा?परम हंस ने कहा-'स्वर्ग के द्वार पर एक बड़ा सा घंटा लगा है|मै उसमे प्रवेश से पहले उसे बजाऊंगा|जब वह बजेगा तभी यहाँ के इस मंदिर का घंटा अपने आप बज उठेगा,तब समझ लेना कि मुझे स्वर्ग में प्रवेश मिल चूका है |' थोड़ी देर बाद ही स्वामीजी ने अपने प्राण त्याग दिए|३-४ घंटे बीत गए|मंदिर का घंटा नहीं बजा |शिष्यों में व्याकुलता बढ़ने लगी|उन्होंने सोचा-हो सकता है उन्हें प्रवेश मिला न हो,या यह स्वर्ग की केवल कल्पना ही हो|जब शिष्यों में व्याकुलता ज्यादा ही बढ़ गयी तब सभी स्वामी विवेकानंद के पास पहुंचे और उन्हें अपनी व्याकुलता बताई|विवेकानंद ने थोड़ी देर के लिए आँखें मूंदी|फिर एक शिष्य को पास ही खड़े आम के पेड़ पर पीले पके हुये आम की तरफ इशारा कर उसे तोड़ कर लाने को कहा|आम के आते ही उसका छिलका उतरा गया|अंदर एक कीडा(लट) आम का रसास्वादन कर रही थी|विवेकानंद ने कहा-ये रहे अपने गुरूजी|स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आम खाने का बड़ा शौक था|मरते वक्त उनकी निगाहें पके आम पर टिकी थी|उसी समय उनका शरीर छूट गया|चूंकि अंतकाल में वे आम का स्मरण कर रहे थे,अतः उन्होंने पुनर्जन्म पाकर एक कीड़े  के रूप में आकर आम का रसास्वादन किया| कहते हैं कि जब उस लट को आम से निकाल दिया गया  तब  वो मर गयी|उसके मरते ही मंदिर का घंटा अपने आप बज उठा यानि स्वामी रामकृष्ण परमहंस की आत्मा को स्वर्ग में प्रवेश मिल गया|
                                    यह घटना कहाँ तक सत्य है, मैं कह नहीं सकता|परन्तु इससे यही सन्देश मिलता है कि अंतकाल में व्यक्ति जिस भाव का स्मरण करते हुये यह देह त्यागता है,वह उसी को प्राप्त हो जाता है|अगर इसी प्रकार अन्त काल में भगवान का स्मरण किया जाये तो फिर उसे प्राप्त होंना भी संभव है|गीता में भगवान ने कहा भी है-
              अन्तकाले च मामेव स्मर्न्मुक्त्वा कलेवरम् |
              यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||गीता ८/५||
अर्थात्, जो पुरुष अंतकाल में मुझको स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है,वह मेरे साक्षात् स्वरुप को प्राप्त होता है-इसमे कुछ भी संशय नहीं है|
                             ||   हरि शरणम् || 

Sunday, August 25, 2013

Karma and Reincarnation

                                     Reincarnation is the mechanism by which the karma works..Karma is the force ,which leads to reincarnation. Karma is the cause and reincarnation is effect.This is the cycle ,continue from last many centuries.So it depends on you.,to break this cycle.so I can say ,reincarnation or can say your next life is not by chance but by your choice.

Friday, August 23, 2013

पुनर्जन्म-क्यों?-कारण|क्रमश:४|

क्रमश:
                       किसी की भी जिंदगी में केवल एक कामना तो होती नहीं है,जो कि किसी भी एक जन्म में पूरी हो जाती हो|अतः यह पुनर्जन्म का चक्र निरंतर चलता रहता है|ध्यान रहे,मनुष्य को जन्म अपने उत्थान के लिए मिलता है और जब तक वह अपने उत्थान की पराकाष्ठा पर नहीं पहूंचता तब तक पुनर्जन्म का क्रम टूट नहीं पाता है| यह स्थिति उसे कब प्राप्त होगी,यह सब उसके ही हाथ में है|उसे यह जन्म मरण का चक्र तोड़ने का अधिकार है,परन्तु इसके लिए उसे स्वयं जागरूक होना पड़ता है|
                        संसार में जितने भी प्राणी है (धर्म शास्त्रों के अनुसार चौरासी लाख एक )उनमे केवल मनुष्य को छोड़कर किसी भी अन्य प्राणी को परमात्मा ने यह अधिकार नहीं दिया है|अन्य प्राणी केवल अपने पूर्वजन्म के कर्मों का फल ही भोगने के लिए अधिकृत है ,अतः उन्हें मात्र भोग योनियाँ कहा जाता है|जबकि मानव योनि में पूर्व जन्म के कर्मों के फलों को प्राप्त करने के अलावा अगले जन्म में अच्छे फल प्राप्त हो,ऐसे कर्मों को करने का अधिकार भी है|इसीलिए मानव योनि को भोग योनि के साथ साथ योग योनि भी कहा जाता है|
                           जितने भी इन्द्रियोंके विषय है,वे सभी जीवात्मा के द्वारा ही अनुभव किये जाते है|जो भी जीवात्मा को विषय अच्छा लगता है उसी अनुभव का आनंद वह बार बार लेना चाहती है|इन गतिविधियों का अंकन मन में अंकित होता रहता है |तभी भगवान श्री कृष्ण गीता में अर्जुन को कहते हैं-
                                   बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः |
                                  अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ||गीता ६/६||
अर्थात्,जिस जीवात्मा द्वारा मन और इन्द्रियों द्वारा शरीर जीता हुआ है,उस जीवात्मा का तो वह स्वयं ही मित्र है और जिसके द्वारा मन तथा इन्द्रियों-सहित शरीर नहीं जीता गया है ,अपने लिए वह स्वयं ही शत्रु की तरह व्यवहार करता है|
                     मन और इन्द्रियों को जीत लेने के उपरांत जीवात्मा को विषयों का आनंद लेने की कामनाएं उत्पन्न ही नहीं होगी तो शरीर द्वारा ऐसे कर्म होने स्वतः ही बंद हो जायेंगे जिनका अंकन मन के पटल पर हो और फल आगे नए जन्म में भुगतने के लिए विवश होना पड़े|अतः मन और इन्द्रियों को वश में करने वाली जीवात्मा स्वयं के लिए मित्र ही मानी जायेगी|
                         इस एक प्रमुख कारण के अंतर्गत ही पुनर्जन्म होने के सभी कारण समाहित है|अलग से उन्हें उल्लेखित करने की आवश्यकता नहीं रह जाती है|फिर भी  संक्षेप मेंकह सकते है कि जितनी भी इन्द्रियां है ,उनसे सम्बंधित विषय पुनर्जन्म के कारण हो सकते हैं ,अगर जीवात्मा उनके विषयों का संग करले|जीवात्मा का विषयों के संग होते ही जो कामनाएँ पैदा होती है उनका अन्त आना मुश्किल होता है|कोई विरला ही इस स्थिति से निकलने का यानि लौटने का साहस दिखा सकता है अन्यथा तो व्यक्ति इन विषयों और उनकी कामनाओं का दास ही बनकर रह जाता है|मन के पटल पर अंकित इन अधूरी कामनाओं को पूरी करने हेतु किये हुये सभी उचित और अनुचित कर्मों का विवरण जीवात्मा के साथ ही यह शरीर छोड़कर नए शरीर में प्रवेश कर जाता है,जहाँ पूर्व जन्म में किये गए कर्मों की  फल प्राप्ति के लिए तथा शेष रही कामनाओं की पूर्ति करने हेतु नया शरीर फिर से कर्म करने को प्रेरित होता है|यह चक्र जन्म जन्मांतर तक चलता रहता है जब तक कि मनुष्य को अपने उत्थान का मार्ग पकड़ में नहीं आता|अपने उत्थान का  मार्ग मिलते ही मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इस पुनर्जन्म से मुक्ति पा सकता है|इसी लिए गीता ने अर्जुन को यही ज्ञान दिया है कि यह जीवात्मा अपना स्वयं का मित्र है और शत्रु भी|यह तो जीवात्मा को तय करना है कि वह स्वयं के लिए क्या चाहता है-पुनर्जन्म या इससे मुक्ति|
                    || हरि शरणम् ||
                                

Thursday, August 22, 2013

पुनर्जन्म -क्यों?- कारण|क्रमश:३|

क्रमश:
         पदार्थों के गुणों का संग पुनर्जन्म का मुख्य आधार है|लेकिन ये पदार्थ कौन कौन से हैं जिनके गुणों का संग यह जीवात्मा करती है?यह जानना भी आवश्यक है|जो भी पदार्थ व्यक्ति जीवन में अपने उपयोग में लेता है,सब  अपने अपने गुणों से युक्त होते है|उदाहरणार्थ अगर किसी को खाने में कोई मिष्ठान्न पसंद आता है तो स्वादेंद्रिय इसके मीठे होने के गुण को ग्रहण करती है|यह गुण जीवात्मा को सुख प्रदान करता है|तब जीवात्मा इसी सुख को दोबारा पाने के लिए मन के द्वार स्वादेंद्रिय को सन्देश पहुंचाती है|फिर कर्मेन्द्रियाँ सक्रिय होकर उस मिष्ठान्न को प्राप्त करने का प्रयास करती है| पदार्थों के गुणों का संग जीवात्मा तभी कर पाती है जब इन पदार्थों का भोग उसके द्वारा किया जाता है|आत्मा के द्वारा यह भोग सीधा संभव नहीं है|यह भोग वह मन के माध्यम से इंद्रियों के द्वारा ही किया जा सकता है|इन्द्रियों की संरचना एक ही तरह की होती है|सभी का विकास गर्भावस्था के दौरान जो तीन परतें बनती है ,उनमे एक बाह्य पर्त जिसे ECTODERM कहा जाता है ,से होता है |ऐसा शरीर विज्ञानं का कहना है|
                           सनातन शास्त्रों के अनुसार पांचों ज्ञानेन्द्रियों में मुख्य कान या श्रोत इन्द्रिय है|इस अकेली इन्द्रिय से व्यक्ति समस्त इन्द्रियों का कार्य संपन्न कर सकता है,परन्तु बाकी चार इन्द्रियों में किसी भी एक इन्द्रिय के द्वारा ऐसा कर पाना संभव नहीं है|सभी इन्द्रियां एक दूसरे के साथ सहयोग करते हुये कर्मेन्द्रियों के द्वारा कार्य करवाती है और जीवात्मा उस इन्द्रियों के विषय का भोग करती है|जिस विषय में उसे आनंद आता है ,उस विषय को बार बार भोगने की ईच्छा होने लगती है|यह सब जीवात्मा को विवश करता है कि वह बुद्धि और मन के द्वारा इन्द्रियों को उसी विषय को फिर से उपलब्ध करने को कहे|सम्बंधित ज्ञानेन्द्रियां,कर्मेन्द्रियों के माध्यम से कर्म करवाते हुये जीवात्मा को वह विषय  उपलब्ध करवाती हैं|इस प्रकार जीवात्मा बार बार विषयों का सेवन करती है,जो धीरे धीरे उसकी आदत बन जाती है|यह चक्र बार बार दोहराया जाता है|इसी को जीवात्मा का पदार्थों के गुणों का संग करना कहते है|इसको एक लघु कथा के माध्यमसे और अच्छी तरह समझा जा सकता है|
                           एक राजा था|वह अपने महल में बड़े आनंदपूर्वक रहता था|राजधानी के बाहर जंगल में एक सन्त रहते थे|राजा का सन्त के यहाँ कभी कभी आना होता रहता था|राजा ,सन्त की कुटिया में अल्प साधनों के  साथ सन्त को जीवन निर्वाह करते हुये देखता|वह राजा संत के साथ आध्यात्मिक चर्चा करता|सन्त हमेशा उसे इन्द्रियों के भोगों का आदी न बनने की सीख देता,और जो भी मिले उसमे संतुष्ट रहने की कहता |राजा हर बार हंस कर रह जाता और सोचता कि सन्त के पास कुछ भी नहीं है इसलिए वह ऐसा कहते है|
                              एक बार राजा ने सन्त की परीक्षा लेने की सोची|उसने सन्त को  आध्यात्मिक चर्चा के लिए महल में आमंत्रित किया|साथ ही एक माह तक महल में रहने का आग्रह किया|सन्त सहर्ष तैयार हो गए|राजा उन्हें लेकर महल पहुंचा और उन्हें सबसे शानदार सुविधायुक्त कमरे में ठहरा दिया|सन्त की सेवा में महल की सुन्दरतम दासी को नियुक्त कर दिया|सन्त का सब कार्य वह दासी करती|सन्त उसे भी वही ज्ञान देते जो राजा को देते|राजा भी अपने दरबारियों के साथ सन्त से चर्चा करता |सन्त अच्छे पलंग पर सोते,दासी उनको पंखा झलती,पांव दबाती और जरूरत के सभी सामान उपलब्ध करवाती|सन्त को कुछ भी नहीं करना पड़ता|खाने को अति स्वादिष्ट भोजन मिलता|बातों ही बातों में एक माह बीत गया|  आखिर राजा ने सन्त को महल सेसम्मान पूर्वक विदा करने का निर्णय लिया|राजा नेसोचा कि  सन्त अब सुविधाभोगी हो गए हैं,अब उन्हें कुटिया रास नहीं आएगी|राजा सन्त को लेकर उनकी कुटिया पहुंचा और स्वयं को कुटिया में एक रात रूकने देने का आग्रह किया|सन्त ने कहा-"राजन!आप को यहाँ दिक्कत होगी"|राजा नहीं माना और रात को सन्त के पास ही रुक गया|राजा को रात भर कठोर बिस्तर पर नींद नहीं आयी,जब कि सन्त को सोते ही नींद आ गयी|सुबह सन्त अपनी दिनचर्या में पूर्ववत व्यस्त हो गए|महल में एक माह रूकने का उनपर कोई असर नहीं था|राजा ने सन्त से  इसका कारण पूछा|सन्त ने कहा-"राजन!इन्द्रियों ने विषय उपलब्ध करवाए,जीवात्मा ने आनंद लिया लेकिन आत्मा ने यही माना कि ये सब गुणों में गुणों की तरह ही व्यवहार हो रहा है|इससे मेरी आत्मा ने उन पदार्थों को पुनः भोगने की कोई कामना नहीं की|"राजा निरुत्तर हो गया|
                                             इस कथा से यही सीखा जा सकता है कि विषयों का आनंद लेना गलत नहीं है,परन्तु बार बार उन विषयों को पाने की कामना करना गलत है|जब इन भोगों की इच्छाएं मन में शेष रह जाती है ,तब पुनर्जन्म निश्चित है,यही समझा जाना चाहिए|और सबसे महत्वपूर्ण बात--इन भोगों से कभी भी कोई आज तक तृप्त नहीं हुआ है|हर जन्म में मृत्यु पहले आ जाती है,तृप्ति कभी भी नहीं|
क्रमश:
                           || हरि शरणम् ||
  

Tuesday, August 20, 2013

पुनर्जन्म क्यों?-कारण|क्रमश:२|

क्रमश:
                     गीता में भगवान ने पुनर्जन्म के कारण बहुत ही अच्छी तरह से समझाएं है|मुख्य कारण तीनों गुणों से युक्त पदार्थों को भोगना नहीं है बल्कि उन गुणों का संग  करना ही है|पुनर्जन्म तो किसी भी गुण के पदार्थों को भोगने से हो सकता है,अगर उन गुणों के बारे में ही जीवन पर्यंत चिंतन चलता रहे|भोग के साथ बंध जाना ही गलत है|ऐसी स्थिति में पुनर्जन्म अवश्यम्भावी है|
                     गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-
                                     ज्ञानं   कर्म  च  कर्ता  च  त्रिधैव   गुणभेदतः |
                                     प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावाच्छ्रिणु तान्यपि ||गीता १८/१९ ||
अर्थात्,गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणों के भेद से तीन तीन प्रकार के कहे गए है|उनको भी हे अर्जुन तू भली भांति सुन|
                       इस श्लोक के आधार पर ज्ञान,कर्म और कर्ता तीनो ही सात्विक,राजसिक और तामसिक तरह के ही होते हैं|जो व्यक्ति ज्ञान के द्वारा सब भूतों में एक ही परमात्मा को देखता है वह ज्ञान सत्विक ज्ञान कहलाता है|और जो ज्ञान सब भूतों में अलग अलग जानता है वह राजस ज्ञान कहलाता है,जबकि जो ज्ञान सम्पूर्ण रूप से इस कार्य स्वरुप शरीर में ही आसक्त है वह तामसिक ज्ञान कहलाता है|
               जो कर्म शास्त्रोक्त और बिना कर्ता भाव के किया हुआ होता है ,बिना राग द्वेष के किया हुआ हो तथा बिना फल की कामना के किया हुआ हो वह कर्म सात्विक कहलाता है |परन्तु जो कर्म बहुत ही परिश्रम से युक्त हो तथा भोगों की चाहना से किये हुये हों तथा अहंकारयुक्त पुरुष द्वारा किया जाता है वह कर्म राजस कहलाता है| जो कर्म परिणाम,हानि,हिंसा और सामर्थ्य का विचार किये बिना केवल अज्ञान से शुरू किया जाता है,वह कर्म तामस प्रकृति का कहा जाता है|
                 जो कर्ता संग रहित,अहंकार के वचन न बोलने वाला,धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य सिद्ध होने या न होने पर हर्ष-शोकादि विकारों से रहित है ,वह सात्विक कहा जाता है|जब कर्ता आसक्ति से युक्त हो,कर्मों का फल चाहने वाला  और लोभी हो तथा दूसरों को कष्ट देने वाला ,अशुद्धाचारी और हर्ष-शोकादि से लिप्त हो , वैसे कर्ता को राजस कहा जाता है|जो कर्ता अयुक्त शिक्षा से रहित ,घमंडी,धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करनेवाला,आलसी हो -उस कर्ता को तामसिक  कर्ता कहा जाता है|
                                   इस प्रकार गीता के १८ वे अध्याय में भगवान ने बुद्धि,धृति,सुख आदि को भी इन तीनो गुणों से युक्त बताया है|इन सभी गुणों का प्रभाव जब जीवात्मा के साथ हो जाता है ,तब पुनर्जन्म होना निश्चित है|अगर पुनर्जन्म से बचना है,इस भौतिक संसार में आने और जाने के इस चक्र से मुक्ति पानी है तो पहले इन गुणों का संग छोडना होगा |गुणों का उलंघन कर जाने से जीवात्मा पर इनका प्रभाव समाप्त हो जाता है|इसी अवस्था को प्राप्त करने का नाम ही गुणातीत हो जाना है| जब आत्मा गुणातीत अवस्था को प्राप्त कर लेती है तब उसका परमात्मा में विलीन होना कहा जा सकता है|परमात्मा भी तो गुणातीत है|
                                           गीता में कहीं भी नहीं कहा गया है कि पदार्थो का भोग जो कि इन्द्रियों के माध्यम से किया जाता है ,गलत है|परन्तु इन भोगों के विषयों का सदैव चिंतन करते रहना,इनको पाने का प्रयास करना आदि गलत है |ये सब व्यक्ति की बुद्धि का नाश करने वाले है जिनसे व्यक्ति के संस्कार परिवर्तित हो जाते है और जीवात्मा पुनर्जन्म के लिए बाध्य हो जाती है|
क्रमश:
                        || हरि शरणम् || 

Monday, August 19, 2013

पुनर्जन्म - क्यों?-कारण-१

                अभी तक हमने "पुनर्जन्म एक वास्तविकता है या अवधारणा" ,इस विषय पर चर्चा की, जिसका निष्कर्ष यह सामने आया  कि पुनर्जन्म एक वास्तविकता है ,मात्र अवधारणा नहीं|तत्पश्चात" पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार"में हमने जाना कि मन,बुद्धि ,अहंकार और आत्मा मात्र कोरी कल्पना नहीं है|विज्ञानं के आधार पर शरीर तो लगभग सम्पूर्ण रूप से समझा जा चूका है|परन्तु मन,बुद्धि के बारे में विज्ञान  की शोध अभी शुरूआती दौर में ही है|आत्मा के बारे में विज्ञानं को अभी कुछ भी हासिल नहीं हुआ है|कुछ पुनर्जन्म के मामले जरूर विज्ञानं के सामने हैं परन्तु विज्ञानं अभी भी उसे मानसिक समस्या ज्यादा मान रहा है,और मनोचिकित्सा विभाग इस पर कार्यरत है|अमेरिका के मनोचिकित्सक डॉ.ब्रायन विज ने पुनर्जन्म पर काफी शोध किया है और वे मानते भी हैं कि पुनर्जन्म एक वास्तविकता है|
                  पुनर्जन्म जब एक वास्तविकता है तो हमें अब यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि इसके क्या  कारण है और यह होता किस प्रकार से है|इसे जानने के पूर्व शरीर,मन,बुद्धि ,अहंकार और आत्मा को जानना जरुरी है|इसी कारण से अल्प रूप से इनके बारे में हम पूर्व में चर्चा कर चुके हैं तथा जान और समझ चुके है|
    गीता में भगवान क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग नामक १३ वें  अध्याय में अर्जुन को पुनर्जन्म का कारण बताते हैं-
                                        पुरुषः प्रकृतिस्थो भुक्त्ते प्रकृतिजान्गुणान्  |
                                        कारणं  गुणसंगोSस्य   सदसद्योनिजन्मसु || गीता १३/२१ ||
अर्थात् ,प्रकृति में स्थित ही पुरूष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और इन गुणों का संग ही इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है|
                            इस भौतिक संसार में जितने भी पदार्थ है वे तीन गुणों से युक्त है-सत,राजस और तामस|गीता के गुणत्रय विभाग योग नामक १४ वें अध्याय में इन पदार्थों का विस्तृत विवरण दिया गया है|श्री कृष्ण कहते है कि यहाँ प्रत्येक व्यक्ति यानि जीवात्मा  इन त्रिगुणों से युक्त पदार्थों को भोगता है,क्योंकि यहाँ पर यही पदार्थ उपलब्ध है|भोगना कोई गलत नहीं है,बल्कि इन पदार्थों के गुणों को आत्मसात कर लेना ही गलत है | इसी के कारण व्यक्ति की आसक्ति इन गुणों में हो जाती है,और वह इन पदार्थों को पाने को सदैव लालायित रहता है|इन पदार्थों को भोगते रहने से जो आसक्ति उत्पन्न होती है,उसके कारण से जीवात्मा हमेशा उनको पाने के प्रयास में रहती है और भोग से कभी भी तृप्त नहीं होती है|यह अतृप्ति ही शरीर के मरणोपरांत जीवात्मा को नए शरीर को पाने के लिए विवश कर देती है|
                                जब जीवात्मा इन गुणों को भोगते भोगते इनका संग कर लेती है,तब दिन रात उन्हीं का चिंतन करती रहती है|जिसके कारण न तो अपने मूल स्वरूप को समझ पाती है और न ही सही और गलत का निर्णय कर पाती है|इन त्रिगुणों से युक्त पदार्थों को ही जीवन का वास्तविक सत्य समझने लगाती है और उनके भोग में ही आनंद का अनुभव करने लगती है |इस संसार में परमात्मा को सत्य जानने के स्थान पर भोगों को ही सत्य मानने लगती है|उसका यह मानना मृत्यु पर्यंत चलता रहता है|जिसके कारण ही जीवात्मा को इस भौतिक शरीर की मृत्यु उपरांत भी नए शरीर को पाने और उन्ही पदार्थों को फिर से भोगने की लालसा बनी रहती है|  गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                    यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् |
                                    तं  तमेवैति   कौन्तेय   सदा   तद्भावभावितः || गीता८/६ ||
अर्थात् , हे कुन्तीपुत्र अर्जुन,यह मनुष्य अन्त काल में जिस जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है,उस उस को ही वह प्राप्त होता है क्योंकि इसी भाव से भावित रहा है ,यानि इन्हीं की सोच में सदैव डूबा रहा है|
                              इस प्रकार हम समझ सकते है कि एक बुद्धिमान व्यक्ति के अपने जीवन में विचारों और कार्यों की शुद्धता किस प्रकार की होनी चाहिए|एक बात तो निश्चित तौर पर समझ लेनी चाहिए कि पुनर्जन्म तो किसी भी परिस्थिति में होना ही  है ,उससे आप एक दो प्रयास में बच नहीं सकते|कई जन्म लग जाते हैं ,परमात्मा की स्थिति प्राप्त करने में|व्यक्ति के नियंत्रण में जन्म दर जन्म अपनी स्थिति में सुधार करना ही है|यह सुधार अपने भावों और भोगों पर नियंत्रण से ही संभव है|जिससे शारीरिक मृत्यु के समय किसी भी भोग की कामना मन में शेष न रहे|
क्रमश:
                                  || हरि शरणम् || 

Sunday, August 18, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:३२|आत्मा-८|

क्रमश:
           जब आत्मा इस भौतिक शरीर में आ जाती है,तभी उस शरीर में सारी क्रियाएँ सुचारू रूप से संचालित हो पाती है,अन्यथा आत्मा के बिना कुछ ही समय में सभी क्रियायें एक एक करके बंद हो जाती है|जीवन में  जो भी शरीर कार्य शील होकर कर्मो में सक्रिय भूमिका निभाता है ,वह बिना आत्मा के किसी भी प्रकार संभव नहीं है|गीता में परमात्मा श्री कृष्ण कहते है--
                       ममैवांशो  जीवलोके   जीवभूतः  सनातनः |
                       मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||गीता१५/७||
अर्थात्,इस देह में सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही अंश यानि आत्मा इन प्रकृति  में स्थित मन और पांचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है|
                   परमात्मा स्वयं किसी भी और कहीं भी लिप्त नहीं होता है,परन्तु उसी का अंश आत्मा  मन और समस्त इन्द्रियों को अपनी और  आकर्षित कर उसे अपने से सम्बन्धित कर लेता है|यह सम्बन्ध बनाकर ही आत्मा सभी विषयों का आनंद लेती है,बिना सम्बन्धित हुए आत्मा के द्वारा आनंद उठाना किसी भी तरीके से संभव नहीं है|आगे गीता में भगवान कहते है-
                         श्रोत्रं चक्षु:स्पर्शनंच रसनं घ्राणमेव च |
                         अधिष्ठाय  मनश्चायं  विश्यानुपसेवते || गीता १५/९ ||
अर्थात्,यह जीवात्मा श्रोत्र (कान),चक्षु (नेत्र ),और त्वचा को तथा रसना (जीभ),घ्राण (नाक ) और मन को आश्रय करके अर्थात् इन सबके सहारे से ही विषयों का सेवन करता है|
                   यही आत्मा का एक प्रमुख लक्षण है जिसमे वह एक भोक्ता भी प्रतीत होता है|शरीर में  अवस्थित आत्मा ,परमात्मा का अंश होते हुये भी विषयों के सेवन में लिप्त होता है |जबकि परमात्मा का यह लक्षण नहीं है| परमात्मा और आत्मा में यही प्रमुख अंतर है| यहाँ भगवान कहते है कि विषयों का सेवन आत्मा करती है परन्तु अन्य स्थान पर वे कहते है-
                            प्रक्रित्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश: |
                            यः पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति ||गीता१३/२९||
अर्थात्,जो पुरुष सम्पूर्ण कर्मों को सब प्रकार से प्रकृति के द्वारा ही किये जाते हुये देखता है और आत्मा को अकर्ता देखता है वही यथार्थ देखता है|
                अब यह स्पष्ट है कि आत्मा कुछ भी नहीं करती है|जो कार्य मन और बुद्धि आत्मा से सम्बंधित होकर कर रहे है,उन कार्यों को होते हुये देखने से यही प्रतीत होता है मानो ये सभी कार्य आत्मा द्वारा ही किये जा रहे हों|जबकि वास्तविकता में आत्मा अकर्ता ही है|आत्मा तो केवल कर्ता और भोक्ता प्रतीत होती है| ऐसा जो व्यक्ति जान और मान लेता है तथा यही देखता है ,वही यथार्थ देखता है|
                    आत्मा का शरीर में रहते हुये उत्थान किस प्रकार हो सकता है और वह अपने वास्तविक स्वरुप परमात्मा तक कैसे पहुँच पायेगी इसका वर्णन भगवान श्री कृष्ण बहुत ही शानदार तरीके से गीता में कर रहे   हैं |वे अर्जुन को कहते हैं-
                             उपदृष्टानुमंता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः |
                             परमात्मेति चाप्युक्तो देहेस्मिन्पुरूष: परः ||गीता१३/२२ ||
अर्थात्,इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है|साक्षी होने से उपदृष्टा,और यथार्थ सम्मति देने वाला होनेसे अनुमन्ता,सबका भरण पोषण करनेवाला होने से भर्ता,जीव रूप से भोक्ता ,ब्रह्मा आदि सबका स्वामी होने से महेश्वर और शुद्ध सच्चिदानंदघन होने से परमात्मा -ऐसा कहा गया है|    
                      हम सभी जानते है कि आत्मा ,परमात्मा का एक अंश है|शरीर प्राप्ति के बाद प्रारंभिक अवस्था में आत्मा उपदृष्टा स्थिति में रहती है|जो भी कर्म मन के अनुसार शरीर द्वारा किये जा रहे होते हैं ,वह उनको एक उपदृष्टा यानि साक्षी के तौर पर केवल देखती है|वह मन और शरीर को बुद्धि के माध्यम से नियंत्रित नहीं करती है| जब सभी कार्यों का वह अवलोकन भली भांति कर लेती है ,तब कुछ कार्यों को करने की वह अनुमति दे देती है|इस अवस्था में आत्मा की स्थिति एक अनुमंता की होती है यानि अनुमति प्रदान करने वाला|इसके बाद जो स्थिति आती है ,वह है एक भर्ता की|जीवन यापन के लिए जो भी आवश्यक कर्म हो वह करने की|इस अवस्था में आत्मा शरीर का भरण पोषण करने वाली-भर्ता होती है|जब जीवन यापन सुगमता से होने लगता है तब शरीर उस स्थिति में सब कुछ भोगने लगता है|आत्मा की इस स्थिति को भोक्ता कहते है|पांचवी स्थिति में महेश्वर बनने की स्थिति होती है,जिस स्थिति को प्राप्त करना आत्मा के लिए कठिन होता है|क्योंकि मन और शरीर को अब संसार के इन सब गतिविधियों में आनंद आने लगता है|चूँकि आत्मा ने अपने आप को इनसे सम्बन्धित कर लिया है,तो महेश्वर बनना उसके लिए कठिन हो जाता है|यहाँ संसार के कार्यों से निवृति और परमात्मा को पाने की प्रवृति का उद्भव होना आवश्यक है,तभी महेश्वर की स्थिति में आत्मा पहुँच सकती है|महेश्वर की स्थिति में आने के बाद ,सब से मुक्त होना ही शेष रहता है|सबसे मुक्त हो जाना ही आत्मा का परमात्मा बन जाना है यानि आत्मा खो जाती है और परमात्मा रह जाते है यही आत्मा का परमात्मा में विलीन होना है|
क्रमश:
                               || हरि शरणम् || 

Saturday, August 17, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार -एक परिकल्पना|क्रमश:-३१|आत्मा-७|

क्रमश:                
           गीता में परमात्मा श्री कृष्ण कहते हैं-
                           एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणी  त्युपधाराय |
                          अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ||गीता ७/६||
अर्थात्,ऐसा समझो कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों (परा और अपरा यानि सूक्ष्म और स्थूल ) प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं|और मैं इस सम्पूर्ण जगत का प्रभव(पैदा करने वाला )और प्रलय हूँ (समाप्त करने वाला ),अर्थात सम्पूर्ण जगत का मूल कारण मैं ही हूँ|
                          मतः परतरं नान्यत्किन्चिदस्ति धनंजय |
                          मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणि गणा इव ||गीता ७/७||
अर्थात्,हे धनंजय!मुझसे भिन्न या अलग कोई दूसरा कारण नहीं है|यह सम्पूर्ण जगत एक सूत्र में मणियों की तरह मुझमे गूंथा हुआ है|
                  परम ब्रह्म परमात्मा न तो सत् है और न ही असत्|किसी भी गुण से वह ऊपर है ,यानि गुणातीत  है|हालाँकि वही ब्रह्माण्ड को उत्पन्न व विनाश करने वाला है|फिर भी वह न तो कोई कर्म करता है और न ही उसमे लिप्त होता है|गुणों को पैदा करने वाला वही है,फिर भी गुणातीत है|
                                       यहाँ उल्लेखित दोनों श्लोकों  को अगर हम गंभीरता के साथ अनुभव करें तो सोचना पड़ता है कि कृष्ण किसकी बात कर रहे है?अरे!यह तो सम्पूर्ण रूप सेएक वैज्ञानिक की तरह ही विज्ञानं की ही तरह बात कर रहे है|कृष्ण विवर यानि ब्लैक हॉल,के चारों और निहारिकायें इसी तरह से नजर आती है जैसे कि एक धागे में मणियों को पिरोकर माला बना दी गयी हो|७/७ श्लोक में कृष्ण इसी ब्रह्माण्ड की इस तरह  बात कर रहे है,मानो बहुत दूर खड़े होकर इसे निहार रहे हो|यहाँ परमात्मा अपने ही एक अंश आत्मा से बात कर रहे हैं|
                 गीता में ही भगवान श्री कृष्ण कहते है-
                          अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्त्मध्यानी भारत |
                         अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना || गीता२/२८||
अर्थात्,हे भारत!हे अर्जुन!सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले है, केवल बीच में ही प्रकट होते है ,फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना?
                 यहाँ पर भगवान भौतिक शरीर के साथ साथ आत्मा के बारे में भी बात कर रहे है|जन्म से पहले जो अप्रकट थे,यानि आत्मा जो कि अव्यक्त है वह शरीर के रूप में इस संसार में प्रकट होती है |बिना शरीर के आत्मा के पास अपने आप को व्यक्त करने का कोई तरीका नहीं है|आगे वे कहते है कि मरने के बाद फिर अप्रकट होने वाले है,आत्मा तो शरीर  के मरने  के बाद व्यक्त से अव्यक्त हो ही जाती है, साथ ही साथ शरीर भी तो मरने के बाद अंतिम संस्कार द्वारा अप्रकट हो जाता है या प्रकृति उसे एक निश्चित प्रक्रिया के अनुसार समाप्त कर देती है|कहने का अर्थ यह है कि इस प्रकार शरीर भी मरने के बाद अप्रकट हो जाता है|अन्त में कृष्ण कहते है कि केवल बीच में ही प्रकट होते है| मरने के बाद भौतिक शरीर का पुनः सृजन होता है,और आत्मा को अपने आप को व्यक्त करने के लिए शरीर की जरूरत होती है|इस प्रकार शरीर और आत्मा फिर से प्रकट हो जाते है|जब यह प्रकट और अप्रकट का चक्र ही चलता रहता हैतो ऐसे में मरने का दुःख होना उचित नहीं है|
यहाँ भगवान बीच में प्रकट होने की बात करते है,जबकि बीच में अप्रकट होना भी कह सकते थे |मुख्य जोर यहाँ अप्रकट पर दिया गया है क्योंकि दोनों  में अप्रकट या आयक्त रहना ही आत्मा का मुख्य गुणधर्म है|प्रकट होना आत्मा पर निर्भर ना होकर मन पर होता है,और मन ही पुनर्जन्म का जिम्मेवार है|
क्रमश:
                    || हरि शरणम् ||


               

Thursday, August 15, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:३०|आत्मा-६|

क्रमश:
                        गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते है -
                                अच्छेद्योSयमदाह्योSयमक्लेद्योSशोष्य एव च |
                                 नित्यः  सर्वगतः  स्थानुरचलोSयं सनातनः ||
                                 अव्यक्तोSयमचिन्त्योSयमविकार्योSयमुच्यते |
                                 तस्मादेवं  विदित्वैनं   नानुशोचितुमर्हसि ||गीता २/२४-२५ ||
अर्थात्,यह आत्मा अछेद्य है,अदाह्य है,अक्लेद्य है और अशोष्य है|यह आत्मा नित्य ,सर्वव्यापी,अचल,स्थिर रहने वाला और सनातन है|यह आत्मा अव्यक्त है,अचिन्त्य है और विकार रहित है|इसलिए हे अर्जुन!इस आत्मा को इस प्रकार जान लेने के बाद  इसके लिए किसी भी प्रकार का शोक करना उचित नहीं है|
          भगवान श्रीकृष्ण ने यह सब आत्मा के गुणधर्म (Characteristics ) बताये हैं|
आत्मा के गुणधर्म ---
(१)यह सनातन है|--- Forever.
(२)यह सर्व व्यापी है|--At every place.
(३)यह अव्यक्त है|-- Invisible.
(४)यह विकार रहित है|--No differentiation/knit and clean.
(५)यह अचिन्त्य है|--Not a subject for discussion.
(६) यह अछेद्य है | Unbreakable.
(७) यह अदाह्य है | Heat resistant.
(८) यह अशोष्य है | Not to dry.
                        उपरोक्त सभी गुणधर्म परम ब्रह्म परमात्मा के भी है जिसे वैज्ञानिक भाषा में परा चुम्बकीय क्षेत्र कहा जाता है|इस संसार में सभी जगह समानता नज़र आती है-अणु से लेकर विराट तक|चाहे आप इसे स्थूल में देख ले या सूक्ष्म में|एक छोटे से परमाणु से लेकर पूरी सृष्टि में एक समान|आत्मा से लेकर परम ब्रह्म परमात्मा में भी समानता|
                          जो भी गुण परमात्मा के हैं ,वे ही सभी गुण एक आत्मा में भी होते हैं|कही कोई विषमता नहीं है|गीता में श्रीकृष्ण आत्मा के गुनातीत होने के सम्बन्ध में कहते है-
                                     यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्येते |
                                     सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्येते || गीता १३/३२ ||
अर्थात्,जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त आकाश सूक्ष्म होने के कारण लिप्त नहीं होता,वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा निर्गुण होने के कारण देह के गुणों में लिप्त नहीं होता|
                                         आत्मा इस नश्वर शरीर में रहते हुये भी इस शरीर के गुणों को आत्मसात नहीं करती है|इसी तरह गुणातीत परमब्रह्म परमात्मा भी है,जिसके बारे में कहते है-
                                    अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परमात्मायमव्ययः   |
                                     शरीरोस्थो  पि  कौन्तेय न् करोति न लिप्येते || गीता १३/३१ ||
 अर्थात्, हे अर्जुन!अनादि और निर्गुण होने से यह अविनाशी परमात्मा शरीर में स्थित होने पर भी वास्तव में न तो कुछ करता  है और न ही लिप्त होता है|
                            उपरोक्त दोनों श्लोकों का गंभीरता से चिंतन करने से दो बातें एक दम स्पष्ट हो जाती है|पहली तो यह कि आत्मा और परमात्मा के गुणधर्म समान है|और दूसरी अत्यंत ही महत्वपूर्ण बात कि शरीर में स्थित आत्मा ही वास्तव में परमात्मा ही है|बहुत ही कम लोग इसको मानते हैं ,जबकि जानते सभी है| अगर मानते तो फिर परमात्मा को ढूंढने के लिए कहीं भी भटकने की आवश्यकता नहीं है|कबीर  ने कहा भी है-
                                ज्यों तिल मांही तेल है,ज्यूँ चकमक में आग |
                                तेरा  सांई   तुझी  में  है,  जाग सके तो जाग ||
                                  कस्तूरी कुन्डली बसे,मृग ढूंढें बन माहीं |
                                   ऐसे घटि घटि राम है,दुनियां देखे नाहीं ||
                          इसी को विज्ञानं के तहत देखें तो पराचुम्बकीय क्षेत्र ही परमब्रह्म परमात्मा है ,और उसी के द्वारा बनाया गया चुम्बकीय क्षेत्र ही आत्मा है|दोनों के भी गुणधर्म समान है |
                           भूमिरापोSनलो     वायु: खं  मनो बुद्धिरेव च |
                           अहंकार  इतीयं  में   भिन्ना     प्रकृतिरष्टधा ||
                           अपरेयमितस्त्वन्याँ मे प्रकृतिं विद्धि में पराम् |
                          जीवभूतां   महाबाहो    ययेदं    धार्यते     जगत् ||गीता ७/४-५||
अर्थात्,पृथ्वी,जल, अग्नि ,वायु, आकाश,मन बुद्धि और अहंकार ये आठ मेरी अपरा ,जड़ यानि स्थूल प्रकृति है और दूसरी प्रकृति जिससे यह सम्पूर्ण जगत धारण किया जाता है,मेरी जीवरूपा परा अर्थात सूक्ष्म प्रकृति चेतन  या आत्मा जान|
यह श्लोक स्पष्ट करता है कि जो भी इस संसार में है,सब उसके कारण ही है|उसके बिना कुछ भी संभव नहीं है|
क्रमश:
                              || हरि शरणम् ||
                                           

Wednesday, August 14, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२९|आत्मा-५|

क्रमश:
                पराचुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र इस ब्लैक हॉल के चारों और असीमित(Unlimited) विस्तार लिए हुये उपस्थित होता है|इसे हम वैज्ञानिक भाषा में तो MICRO MAGNETIC FIELD कहते है और आध्यात्मिकता के अनुसार इसे परमब्रह्म परमात्मा(Supreme Brain / Cosmic Consciousness)  कहते है|चूँकि हम अपने शास्त्रों में उल्लेखित  को विज्ञानं के आधार पर सत्य साबित कर रहे है ,अतः ज्यादा शब्दावली विज्ञानं की भाषा की काम में लेंगे|इस ब्रह्माण्ड या सृष्टि के निर्माण में निम्न तीन का महत्वपूर्ण योगदान रहता है|उनका उत्पादन सृष्टि के प्रारंभ में किस प्रकार हुआ,यह जानना आवश्यक है|
पदार्थ का निर्माण ----(MATERIAL)
                    इस क्षेत्र के कारण जब अंतरिक्ष(SPACE) में स्पंदन (VIBRATIONS) पैदा होंना शुरू हुये तब उर्जा (ENERGY) पैदा हुई|यह उर्जा उत्पादित और संग्रहित(Production and collection) होती रही|यह उर्जा अम्बा या शक्ति(POWER) नाम से शास्त्रों में वर्णित है,जो इस GOD की माँ है|इसी उर्जा से ईश्वर पैदा हुआ जिसे लेटिन भाषा में ईथर कहा जाता है|यह ईश्वर परम पुरुष है| इस परम पुरुष ने प्रकृति के प्रभाव से तीन गुण धारण किये ,जो इलेक्ट्रौन,प्रोटोन और न्यूट्रोन कहलाते है|इन तीनो के मिलने से परमाणु पैदा हुये|इन्ही से फिर अणु,तत्व यौगिक की यात्रा करते हुये पदार्थ का निर्माण हुआ|जब पदार्थ पैदा हुआ ,तो स्वाभाविक है उसमे भार या मात्रा (Mass)भी होगी|उसके कारण उसमे गुरुत्व (Gravity)पैदा होना ही था|तब इनमे कर्षण (कृष्ण) बल पैदा हुआ|कर्षण का अर्थ होता है बांधना |आकर्षण और विकर्षण बालों के कारण ये पदार्थ पिंडों(Planets) के रूप में परिवर्तित हो गए|और एक दूसरे से दूर होते गए|तब स्थायित्व के लिए अप और अभि केंद्रित(Centripetal and Centrifugal force) बलों का प्रादुर्भाव हुआ और ये पिण्ड एक बड़े पिण्ड(Sun) के चारों और चक्कर लगाने लगे|इस प्रकार पदार्थ से सौर मंडल(Solar system),सौर मंडलों से निहारिकाये(Milky ways) और निहारिकाओं से समस्त ब्रह्माण्ड(Universe) यानि सृष्टि का निर्माण हुआ|
प्रकृति से शरीर निर्माण ----(NATURE & BODY)
                      इसके बाद ईश्वर का रूप बदलता है|अब वह रासायनिक ईथर बनकर कार्बनिक पदार्थों(Organic compounds) की रचना करता है|रासायनिक ईथर को महेश्वर कहते है और कार्बनिक पदार्थ को महतत्व|महेश्वर,महतत्व के माध्यम से इस भौतिक शरीर का निर्माण करते है|ये शरीर फिर दो तरह से विभक्त (Divide)किये जा सकते है-१.कर्म निष्ठ (Faith in Act)२. सांख्य निष्ठ(Faith in principles)|कर्म निष्ठ पशु(Animal) शरीर है और सांख्य निष्ठ मानव(Human) शरीर|फिर मानव भी ऐसे ही दो भागों में बांटे जा सकते है-एक कर्म निष्ठ मादा(फेमाले) रूप है और नर(मेल) रूप सांख्य निष्ठ|कर्म निष्ठ का अर्थ है कर्म में आस्था और सांख्य निष्ठ का अर्थ है सिद्धांतवादी|
आत्मा या चेतना का प्रादुर्भाव ----(SOUL)
                           अब इस स्तर पर आकर यह ईश्वर एक चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र पैदा करता है|यह परा चुम्बकीय क्षेत्र के प्रभाव के कारण होता है|जैसे एक चुम्बक से दूर स्थित किसी लोहे की वस्तु में चुम्बकीय गुण पैदा हो जाते है,लगभग वैसा ही यहाँ मान सकते है|इसी को चेतना या आत्मा कहा जाता है|यह आत्मा की उपस्थिति का वर्णन तब का है जब सृष्टि का प्रादुर्भाव हो रहा होता है|बाद में इसकी गुणात्मकता (Characteristics) जन्मों (Births)और कर्मो(Acts) के अनुसार बदलती रहती है|इस आत्मा और शरीर के चुम्बकीय बलों के कारण एक तीसरा चक्र पैदा होता है ,जो एक तीसरी शक्ति की तरह कार्य करता है|इसे मन (Mind)कह सकते है|यही मन आत्मा के साथ भाव चक्र का निर्माण करता है जिसमे जीवन की अवधि में किये गए सभी क्रिया कलाप अंकित होते रहते है|इसको आप अपने जीवन में किये जा रहे सभी कार्यों के विवरण की सी.डी. कह सकते है|
                                इस तरह संक्षेप में हमने जाना कि कैसे ब्लैक हॉल के चारों और असीमित क्षेत्र में व्याप्त परा चुम्बकीय क्षेत्र से सृष्टि का निर्माण होता है|आत्मा उसकी एक ईकाई है,जिससे ही जीवन संभव होता है|इस आत्मा रुपी उर्जा के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है |श्वेताश्वतर उपनिषद् में (५.९)में कहा गया है--
                                          बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पित्स्य च |
                                         भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ||
अर्थात्,यदि बाल के अग्र भाग को एक सौ भागों में विभाजित किया जाये और फिर उनमे से प्रत्येक भाग को फिर एक सौ भागों में विभाजित किया जाये तो इसमे प्रत्येक भाग का माप ही आत्मा का परिमाप है|
                               इसी तरह निम्न श्लोक भी उपरोक्त श्लोक की बात की पुष्टि करता  है--
                                           केशाग्रशतभागस्य शतान्शः सादृशात्मक: |
                                          जीवः सूक्ष्मस्वरूपोंSयं संख्यातीतो हि चित्कण: ||
   अर्थात्,आत्मा के परमाणुओं के अनंत कण है जो माप में बाल की नोक के दस हजारवें भाग के बराबर है|
                    भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-
                                           अजोSपि सन्नव्ययात्मा भूतानामिश्वरोSपि सन् |
                                           प्रकृतिं      स्वामधिष्ठाय   सम्भवाम्यात्ममायया || गीत४/६ ||
अर्थात्,मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरुप होते हुये भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुये भी  अपनी प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ|
      इस श्लोक के आधार पर सृष्टि के निर्माण का विवरण प्रस्तुत किया गया है|पूरा विवरण श्रीमद्भागवत महापुराण में उपलब्ध है|श्रीमद्भागवत गीता तो समस्त ग्रंथों का सर ( EXTRACT) है|गंभीरता से चिंतन करने पर ही इसमे उल्लेखित बातों की गहराई को समझा जा सकता है|अन्यथा यही सुनने को मिलता है कि बड़ा ही कठिन और न समझने में आने वाला ग्रन्थ है यह|
क्रमश:
                         || हरि शरणम् ||

Tuesday, August 13, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२८|आत्मा-४|

क्रमश:
           गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                        अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् |
                        भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं  ग्रसिष्णु  प्रभविष्णु च ||गीता १३/१६ ||
अर्थात्,अविभाज्य यानि अविभक्त होकर भी वह (परमात्मा) सम्पूर्ण चराचर भूतों में अलग अलग दिखाई देता है|वह जानने योग्य परमात्मा ,समस्त भूतों को उत्पन्न करने वाला,भरण-पोषण करने वाला और अन्त में संहार करने वाला है|अणुओं को ग्रसने वाला (ग्रसिष्णु)और अणुओं को पैदा करने वाला (प्रभविष्णु) भी वही परमात्मा है|
                      एक मात्र ३२ अक्षरों में के श्लोक में कितनी महान बात छुपी हुई है,यह सब वही जान और समझ सकते है जिन्होंने गंभीरता के साथ गीता का अध्ययन और चिंतन किया हो| यहाँ भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को   उस परम ब्रह्म परमात्मा के बारे में ज्ञान दे रहे  है जो अविभक्त होकर भी सब भूतों यानि जीवो में उपस्थिति दर्शा  रहा है|यही सब के जन्म,भरण-पोषण और संहार के लिए उत्तरदाई है|
    इसी तरह भगवान श्री कृष्ण गीता के प्रारंभ में ही अर्जुन को इस अविनाशी के बारे में अर्जुन को समझा रहे हैं|फिर पुनः इसी बात को गीता के १३ वें अध्याय में विस्तार से समझाया है|जो कि ऊपर वर्णित किया गया है|
       गीता के प्रारंभ में श्री कृष्ण कहते हैं-
                           अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् |
                           विनाशामव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ||गीता||२/१७||
अर्थात्, जिसका  यहाँ,वहां ,सब जगह विस्तार है,जो व्यय यानि खर्च नहीं होता,जिसका यहाँ कोई भी विनाश करने में सक्षम नहीं है |वह जो सर्वत्र फैला हुआ है ,उसका कोई विनाश नहीं होता है|उसको ही तू अच्छी तरह समझ |
                   परम ब्रह्म परमात्मा जो कि एक परा चुम्बकीय प्रभाव क्षेत्र है ,वह चारों और फैला हुआ है| यह कहाँ से आया,कौन उसका कारण क्या है,यह प्रभाव कहाँ से पैदा होता है इसे आज तक कोई नहीं जान पाया है|यह अपरिमेय है अर्थात इसको मापा नहीं जा सकता है|इसी क्षेत्र के एक विशेष क्षेत्र में हमारी यह सृष्टि फैली हुई है|एक कृष्ण विवर यानि काला छेद (Black Hole) है|यही ब्लैक हॉल ही इस सम्पूर्ण सृष्टि जो इस परा चुम्बकीय क्षेत्र के प्रभाव क्षेत्र में स्थित है , उसकी चेतना,प्रकृति और पदार्थ का मूल केन्द्र है|ये तीनों यथा पदार्थ,प्रकृति और चेतना इस परमब्रह्म परमात्मा का ही विकार (Differentiation) है|
                                    इस भौतिक शरीर में जो चेतना है,वही आत्मा कहलाती है जो कि परमब्रह्म परमात्मा का ही एक अंश है|इसीलिए इसकी प्रकृति भी परा यानि सूक्ष्म(Micro) कही गयी है|पदार्थ के कारण प्रकृति इस अपरा यानि स्थूल शरीर का निर्माण करती है|प्रकृति भी इस परमब्रह्म परमात्मा की ही एक उत्पत्ति मात्र है और पदार्थ भी|इससे पता चलता है कि सारा खेल इस सृष्टि में इस परमब्रह्म परमात्मा का ही रचा हुआ है,परन्तु उसमे विकार (Differentiation) हो जाने के कारण अलग अलग नज़र आता है |शरीर को असत्(False) कहा गया है क्योंकि यह एक दिन समाप्त हो जाने वाला है|आत्मा या चेतना को सत् (True) कहा गया है क्योंकि यह शाश्वत है(Forever)|इस शरीर को बांध कर रखने वाली यह आत्मा ही है,अन्यथा इस शरीर के होने या न होने का कोई अर्थ नहीं है|अतः यह शरीर बंधने वाला और आत्मा बांधे जाने वाली मानी गयी है|दूसरे शब्दों में कहें तो असत् वह है जो बंधता है,और सत् वह है जो बांधता है|दोनों ही इस परमब्रह्म परमात्मा के ही उत्पादन(Product) है|
                              समस्त सृष्टि इस ब्लैक हॉल से ही तो जन्म लेती है और एक निश्चित समय उपरांत इसी ब्लैक हॉल में जाकर समाहित हो जाती है|इस सृष्टि की शुरुआत से लेकर अन्त तक का कालचक्र शास्त्रों में समाहित है,परन्तु इस विषय से उसकी कोई संबंधता नहीं होने के कारण यहाँ उल्लेखित नहीं किया जा रहा है |
क्रमश:
                       || हरि शरणम् || 

Sunday, August 11, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२७|आत्मा-३|

क्रमश:
          आत्मा क्या है?यह जानने के लिए हमें अब स्थूल या अपरा को छोड़ कर परा यानि सूक्ष्म की तरफ ही देखना होगा| परमाणु व कौशिका से सूक्ष्म तरंगें व तरंगों से उत्पन्न उनका क्षेत्र है| इसलिए ,आइये,सबसे पहले तरंगों के बारे में जान लेते हैं|तरंगे तीन तरह की होती है--
(१)ध्वनि तरंगें-(SOUND WAVES)---
                           ये तरंगें पदार्थ तरंगे कहलाती है|एक स्थान से दूसरे स्थान को गमन के लिए इन्हें किसी माध्यम की आवश्यकता होती है|जहाँ वायु मंडल भी नहीं होता , वहां ये तरंगे जा नहीं पाती है|यह सर्पाकार चलती है|इनकी गति लगभग ३३२ मीटर प्रति सैकिंड होती है|इन तरंगों में पदार्थ का चरित्र(Characteristics of Material)  होता है|
(२)प्रकाश तरंगें (LIGHT WAVES)---
                          ये तरंगें पदार्थ तरगें नहीं होती है|एक स्थान से दूसरे स्थान को गमन के लिए इन्हें किसी तरह के माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है|ये तरंगे सीधी रेखा में चलती है|इनकी गति ३ लाख किलोमीटर प्रति सैकिंड होती है अर्थात् ध्वनि से लगभग साढ़े आठ लाख गुणा अधिक|प्रकाश के अपने छोटे छोटे कण होते हैं,जिन्हें फोटोन कहते है|प्रकाश के साथ अगर ऊष्मा यानि गर्मी या अग्नि होती है तब वह ऊष्मा फोटोन पर सवार होकर फैलती है|फोटोन जब चलते हैं तब उनमे मात्र या भर महसूस होता है,लेकिन वास्तव में उनमे भर होता नहीं है,क्योंकि ये पदार्थ नहीं होते है|इन तरंगों में प्रकृति का चरित्र (Characteristics of Nature) होता है|
(३)चुम्बकीय तरंगें(MAGNETIC WAVES)---
                       ये तरंगें चुम्बकीय बल तरंगें होती है|इनको गमन के लिए किसी कण या पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती है|इनकी गति को मापा भी नहीं जा सकता यानि इनकी गति असीमित होती है|जहाँ ये तरंगे पैदा होती है वहां अपना एक क्षेत्र बना लेती हैऔर स्थिर हो जाती है|इस तरह का परम चुम्बकीय क्षेत्र पूरे अंतरिक्ष के असीमित क्षेत्र  में फैला हुआ है|इन तरंगों का आकार (- - - - - - - - - - )सत् और असत् में विभाजित होता है,यानि दो" है" के बीच एक" नहीं" है,अर्थात् एक रिक्तता है|ये गोलाकार(Circular) रूप में बढती है|गोलाकार में बढ़ने के कारण इन तरंगों का आकार बढता जरूर है परन्तु टूटता नहीं है,साथ में  रिक्तता वाली जगह भी बढती जाती है|
                      यह चुम्बकीय क्षेत्र भी दो प्रकार का होता है|प्रथम वह जो इस विशाल अंतरिक्ष(Space) के असीमित क्षेत्र में फैला हुआ है,जो न सत् है और न ही असत्|यह परा चुम्बकीय क्षेत्र (Micro magnetic field) शास्त्रों में परम ब्रह्म(Supreme Brain) नाम से कहा गया है|दूसरा चुम्बकीय क्षेत्र ,विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (Electra magnetic field)होता है ,जो प्रत्येक सजीव कौशिका(Living Cells) में होता है,शास्त्रों में इसे ब्रह्मा नाम से कहा गया है|आप इसे एक कौशिका का अपना ब्रह्म(Brain) कह सकते हैं|इसी तरह प्रत्येक उत्तक (Tissue)और अंग (Organ)का भी अपना एक ब्रह्म होता है|और इसी तरह शरीर का भी एक अपना स्वतन्त्र ब्रह्म होता है|जो ब्रह्मा कहलाता है|यह ब्रह्मा ही शरीर में चेतना(Consciousness) है|
                       इस प्रकार हमने तरंगों से जाना---पदार्थ(Material) को,प्रकृति(Nature) को और चेतना(Consciousness) को|पदार्थ यानि शिव,प्रकृति यानि विष्णु और चेतना यानि ब्रह्मा|ये सब इस परा चुम्बकीय क्षेत्र के कारण ही होता है|दूसरे शब्दों में कहूँ तो यह परम ब्रह्म(Supreme Brain)या परमात्मा  (Cosmic Consciousness) ही इस मिथ्या जगत का कारण स्वरुप (Cause and Effect)है|
              परम ब्रह्म (Supreme Brain) परमात्मा (Cosmic consciousness)
                                          परम ब्रह्म परमात्मा जो कि अव्यक्त (Invisible) है,अपने आप को व्यक्त (Visible) करने के लिए अपने आप को तीन भागों में विभक्त (Devide) किया|जो कि इसका स्वभाव है|ये तीन भाग निम्न प्रकार है---
                (१)पदार्थ /पुरूष     --          महेश(शिव)   --            तत्व          --Element/Material
                (२)प्रकृति            --           विष्णु            --           भाव           --Fact/nature
                (३)चेतना             --           ब्रह्मा              --           प्रभाव        --Effect/consciousness
         जब ये तीनो विभाग  आपस में भक्त/संयुक्त (joint)हुये तब ये एक व्यक्ति के रूप में व्यक्त किया अर्थात् मानव के रूप में व्यक्त किया|इस अव्यक्त जो कि परम ब्रह्म परमात्मा है,उसके विभक्त होने और पुनः भक्त या संयुक्त होने की प्रकिया बहुत ही जटिल है|जिसे विज्ञानं अब समझने की कोशिश कर रहा है,जबकि हमारे ऋषि मुनियों ने सहस्राब्दियों पहले ही खोज करके शास्त्रों में वर्णित कर दिया था|
                                 पुनर्जन्म को समझने के लिए आवश्यक है कि परम ब्रह्म परमात्मा से शुरू होकर मानव बनने तक की पूरी जटिल प्रक्रिया को समझा जाये ,तभी यह पुनर्जन्म की पहेली हल हो सकती है ,अन्यथा नहीं|
क्रमश:
                   || हरि शरणम् ||


                    

Saturday, August 10, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२६|आत्मा-२|

क्रमश:
                आत्मा के बारे में दो बातें स्पष्ट हो चुकी है-पहली तो यह कि आत्मा ,परमात्मा का अंश है और दूसरी यह कि आत्मा सब में समान होती है|आत्मा परमात्मा का ही अंश है ,और यह शरीर में उपस्थित रहने वाली एक मात्र परा यानि सूक्ष्म(Micro) प्रकृति की है|शरीर में बाकी बचे २३ तत्व सब अपरा यानि स्थूल(Macro) प्रकृति के होते है|गीता में भगवान कहते हैं कि "अहमात्मा गुडाकेश ..."अर्थात् हे गुडाकेश (नींद को जीतनेवाला) ,हे अर्जुन ,मैं ही आत्मा हूँ जो सभी जीवों में समान रूप(Equal) से स्थित हूँ|यह आत्मा ,परमात्मा का अंश(Part) अलग होकर शरीर में प्रवेश करता है,तब तो अकेली इस धरा पर ही असंख्य जीव जन्तु रहते है|सब में वही एक समान परमात्मा का अंश आत्मा ही रहती है|अब प्रश्न यह उठता है कि फिर परमात्मा को  ऐसे कितने अंशो में विभक्त (Divide)किया जा सकता है?फिर कभी ना कभी तो परमात्मा ऐसी स्थिति में आ जायेगा कि उसके और अंश नहीं किये जा सके|
                        वृहदारण्यक उपनिषद् में कहा गया है-
                                             पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते |
                                             पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
                        अर्थात्,वह भी पूर्ण है|यह भी पूर्ण है|पूर्ण में पूर्ण जोड़ने पर जो योग बनता है वह भी पूर्ण है|अगर पूर्ण में से पूर्ण निकालने पर निकाला गया भी पूर्ण है और जो भी शेष बचता है ,वह भी पूर्ण है|
                 उपनिषद् के इस श्लोक से स्पष्ट है कि परमात्मा के कितने भी अंश कर लिए जाये,तो वह अंश भी पूर्ण होगा और परमात्मा की पूर्णता में भी कोई कमी नहीं होगी|चाहे कितनी ही पूर्ण आत्माएं परमात्मा में विलीन हो जाये फिर भी परमात्मा पूर्ण ही रहेगा|
                      यह तो हो गयी गीता और उपनिषद् जैसे सनातन धर्मशास्त्रों की बात|जिनसे स्पष्ट होता है कि आत्मा ,परमात्मा की छोटी से छोटी ईकाई(Unit) का नाम है|अब हम इसी सन्दर्भ में विज्ञानं की बात करते हैं|इस संसार में जो भी हमें नज़र आता है या यहाँ जो भी अस्तित्व में है उनको स्पष्टतः दो भागों में बांटा जा सकता है-चेतन (Conscious) और अचेतन (Unconscious)| इनको और स्पष्ट करते हुये कहा जा सकता है कि पहला भाग जिसे चेतन कहते है वह है शरीर(Living Body) और दूसरे भाग को जिन्हें हम अचेतन  कहते है ,वह है पदार्थ(Material)|तीसरी किसी भी वस्तु का इस ब्रह्माण्ड(Universe) में अस्तित्व नहीं है| चेतन को फिर दो भागों में बांटा जा सकता है-स्व - चेतन ( Self Conscious) और स्व - अचेतन  (Self Unconscious)| मनुष्य स्व-चेतन है क्योंकि उसे पता है कि मैं चेतन हूँ| क्योंकि वह जानता है कि वह इस संसार में क्यों है,कहाँ से आया है ,किस लिए आया है आदि आदि| वह स्वयं के बारे में जानता है|पशु,पक्षी व अन्य सभी स्व-अवचेतन में आते हैं क्योंकि उन्हें स्वयं क्या है इसका कुछ भी पता नहीं होता है|बस मात्र यही फर्क है,पशु और मानव होने में|अगर मानव यह सब नहीं जानता और समझता तो हम बेहिचक उस मानव को पशु की श्रेणी में रख सकते है|
                                           शरीर ,विभिन्न अंगों(Organs) से मिलकर बना है|अंग अपने आप में पूर्ण है|अंग (Organ)उत्तकों(Tissues) से बने है|उत्तक भी अपने आप में पूर्ण है|उत्तक कोशिकाओं(Cells) से बनते है ,कौशिका भी अपने आप में पूर्ण है|इससे आगे अब कोशिका को विभक्त नहीं किया जा सकता|इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि शरीर की ईकाई कोशिका है|ठीक उसी तरह जैसे परमात्मा की ईकाई आत्मा है|
                        पदार्थ,अपने आप में पूर्ण है|पदार्थ कई यौगिकों(Compounds) का मिश्रण है|यौगिक अपने आप में पूर्ण है|यौगिक,विभिन्न तत्वों (Elements)के मिलाने से बनता है;तत्व भी अपने आप में पूर्ण है|तत्व,कई अणुओं(Molecules) के मिलाने से बनता है;अणु भी पूर्ण है|एक अणु भी परमाणुओं(Atoms) से मिलकर बनता है,परमाणु भी पूर्ण है|परमाणु को अब आगे और विभक्त नहीं किया जा सकता|अतः पदार्थ की ईकाई परमाणु हुई|जैसे परमात्मा की ईकाई आत्मा होती है|कहा जा सकता है कि परमाणु को भी आगे विभक्त किया जा चूका है,परन्तु ऐसा प्राकृतिक (Natural)तौर पर होंना असंभव है|अगर प्रयोगशाला(Laboratory) या परमाणु संयंत्रों(Atomic power station) में इसे तोडा भी जाता है तो उससे अत्यधिक उर्जा(Energy) उत्पन्न होती है और खतरनाक रेडियोधर्मिता(Radioactivity) पैदा हो जाती है,जो जीवन के लिए महान संकट पैदा करने वाली परिस्थिति होती है|
                   शरीर या पदार्थ ,दोनों की ही प्रकृति अपरा मानी गयी है,अतः इनकी भी इकाइयां अर्थात् कोशिका और परमाणु की प्रकृति भी अपर यानि स्थूल हुई|जबकि आत्मा को इनसे पर यानि सूक्ष्म कहा गया है|अतः यह स्पष्ट है कि आत्मा न तो एक कौशिक हो सकती है और न ही एक परमाणु|इन दोनों से आत्मा सूक्ष्म ही होगी,क्योंकि इसकी प्रकृति भी परा यानि सूक्ष्म है|कोशिका व परमाणु से सूक्ष्म क्य हो सकता है,जिसको आत्मा माना जा सकता है ,यही अब चिंतन का विषय है|तभी आत्मा के बारे में जाना जा सकता है|और जब आत्मा को जान सकेंगे तो फिर परमात्मा को जानने की कोई आवश्यकता भी नहीं है|क्योंकि जो आत्मा में है वही परमात्मा में होगा|आत्मा में और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है|
    क्रमश:
                            || हरि शरणम् ||

Friday, August 9, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२५|आत्मा -१ |

क्रमश:
          आत्मा ,जिसके बिना कहीं भी और किसी भी जगह जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती|भौतिक शरीर को तैयार करने हेतु पांच भौतिक तत्व ,पांच ज्ञानेन्द्रिया,पांचों ज्ञानेन्द्रियों के पांच विषय,पांच कर्मेन्द्रियाँ,मन,बुद्धि ,चित्त तथा अहंकार ;कुल चौबीस अपरा प्रकृति की आवश्यकता होती है|शरीर बनने के बाद भी यह कुछ भी करने की स्थिति में नहीं होता है|श्री मद् भागवत महापुराण के ३/२६ के श्लोक संख्या ७० में लिखा है -
                            चित्तेन हृदयं चैत्यः क्षेत्रज्ञ: प्राविशद्यदा |
                            विराट्  तदैव  पुरुष:  सलिलादुदतिष्ठत||
अर्थात्, जब चित्त के अधिष्ठाता क्षेत्रज्ञ ने चित्त के सहित ह्रदय में प्रवेश किया , तो विराट पुरुष जल से उसी समय उठ खड़ा हुआ|
                इस श्लोक से यह स्पष्ट होता है कि चाहे अपरा प्रकृति के समस्त २४ तत्व मिलकर एक शरीर का निर्माण करदे ,उस में जीवन जीने की क्षमता पैदा करना उस परमात्मा की शक्ति या उस परमात्मा के अंश का उस शरीर में प्रवेश किये बिना असंभव है|इसी परमात्मा की शक्ति ,परमात्मा के अंश का नाम ही आत्मा है|गीता में भगवान कहते हैं -
                अहमात्मा  गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः |
                अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ||गीता१०/२०||
अर्थात्, हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित सब का आत्मा हूँ|तथा सम्पूर्ण भूतों का आदि ,मध्य और अन्त भी मैं ही हूँ|
       इस श्लोक से स्पष्ट है कि आत्मा ,परमात्मा का  ही अंश है|जब तक हम परमात्मा कोअपने से अलग मानते रहेंगे तब तक आत्मा को समझना मुश्किल होगा|परमात्मा का अंश होना एक तरह से परमात्मा होना ही होता है|फिर ऐसी कौन सा परिवर्तन इस आत्मा में होता है ,जो इसे परमात्मा से अलग कर देता है|गुणात्मक(Qualitative) रूप से दोनों में कोई भेद नहीं है और ना ही मात्रात्मक(Quantitative) भेद है|फिर भी विभिन्न जीवों में उपस्थित ये आत्माएं अलग अलग नज़र क्यों आती है?आत्मा, जो कि परमात्मा का ही अंश है,क्यों परमात्मा की तरह व्यवहार नहीं कर पाती है?
                                 यह सब इस आत्मा के सफर का ही असर है|यह सब जो हमें भौतिक रूप से नजर आता है,वह आत्मा का स्वरुप नजर नहीं आता बल्कि आत्मा की यात्रा के कारण नज़र आता है  यानि जिस शरीर में आत्मा उपस्थित है ,उसके कारण हमें एक तरह का भ्रम पैदा हो जाता है|एक छोटे से उदाहरण से आप समझ सकते हैं|आप जब ट्रेन में सफर करते है,तब भी आप  वही होते है और वायुयान में सफर करते हैं तब भी वही|फिर भी जो दूसरे देखने वाले होते है,तब उनकी दृष्टि में आप अलग अलग होते है|एक बार मेरी नियुक्ति छापर नामक स्थान पर थी|मैं रोज अपने कार्य पर सुबह जाता था और शाम को वापिस सुजानगढ़ आ जाता था|एक बार छापर में मेरी कार खराब हो गयी|उस दिन रविवार था,कोई मैकेनिक भी नहीं मिला तो मैं दोपहर को बस से सुजानगढ़ के लिए छापर बस अड्डे से चढा|खाली सीट पाकर मैं बैठ गया|दो पंक्ति पीछे दो महिलाये आपस में बात कर रही थी|एक ने कहा-देखो डॉ.काछवाल जी जा रहे है|दूसरी महिला ने मेरे पर नज़र डालते हुये कहा-ये डॉ. साहब नहीं है,उनके पास तो कार है,भला वे इस बस में सफर क्यों करेंगे?व्यक्ति वही है,परन्तु अप्रत्याशित रूप से जब नज़र आता है तो एक भ्रम की स्थिति पैदा कर देता है|यही इस आत्मा के साथ होता है|जब अमीर के साथ सफर कर रही होती है तब और नज़र आती है और गरीब के शरीर में होती है तो कुछ और|भगवान गीता में कहते है,कोई भेद नहीं है-आप गलत समझ रहे है ,सब में वही है सब में एक समान है|
                                   आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योSर्जुन |
                                   सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मतः|| गीता६/३२||
अर्थात्, हे अर्जुन!जो योगी स्वयं की भांति सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है,यानि आत्मा को ही देखता है और सुख अथवा दुःख को भी सब में सम देखता है ,वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है|यहाँ कृष्ण के कहने का आशय यही है की सब में आत्मा एक समान है और सब को सुख और दुःख का अनुभव  समान ही होता है ,यही समझना चाहिए|
                                    विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
                                    शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिनः ||गीता५/१८||
  अर्थात्,ज्ञानीजन, विद्यायुक्त ब्राह्मण में,गौ में,हाथी,कुत्ते और चांडाल में भी समदर्शी होते हैं,यानि सभी में अपने को अर्थात् आत्मा को ही देखते है|
       उपरोक्त दोनों श्लोकों से स्पष्ट हो जाता है कि सब में चेतन स्वरुप आत्मा समान ही होती है|जो भेद नज़र आता है ,वह मात्र सांसारिक दृष्टि का ही भेद है;वास्तव में कोई भेद नहीं है|जब यह ज्ञान किसी को हो जाता है ,तब उसके लिए जीवन का अर्थ ही बदल जाता है|
  क्रमश:

                       || हरि शरणम् || 

Thursday, August 8, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२४|अहंकार-४|

क्रमश:
              जन्म के बाद प्रथम रूदन के साथ ही अहंकार का अपरा प्रकृति  स्वरुप स्पष्ट होने लगता है|जो दिन प्रतिदिन अपना रूप विशाल करता जाता है|शिशु के विकास के दौरान हमें एक साँस भूलने की बीमारी(Breath holding spells) से रूबरू होना पड़ता है|यह बीमारी अपरा अहंकार के कारण ही पैदा होती है|जब बच्चा कुछ खा पी सकने वाली उम्र में पहुँचता है तो वह खुद अपने हाथ से खाना चाहता है,और हम इस तरह स्वयं के द्वारा खाने की प्रवृति को प्रोत्साहित भी करते है|यह भी अपरा अहंकार का एक उदाहरण है|ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते है|विज्ञानं इसको बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास की एक साधारण प्रक्रिया मानते है|जबकि यह अपरा अहंकार के कारण संभव होता है|इस अहंकार के बढ़ने के क्या कारण हो सकते हैं और क्या इस अहंकार की प्रकृति को बदला जा सकता है ?जानने से पहले हमें योग पर विचार करना होगा,तभी हम इस विषय की गंभीरता को समझ पाएंगे| योग के माध्यम से ही हम शरीर को (अपरा) को आत्मा (परा) के साथ जोड़ सकते हैं|अन्य कोई भी माध्यम या साधन उपलब्ध नहीं है|
                       इस भौतिक शरीर का आत्मा के साथ तारतम्य बनाये रखने में भारतीय योग पद्धति का बड़ा ही महत्त्व है|वैसे योग को कई तरह से परिभाषित किया गया है|ऋषि पतंजली को योग विज्ञानं का प्रथम वैज्ञानिक माना जा सकता है|बाकी सभी  ने अपने अपने तरीके से इसकी व्याख्या  की है|वैज्ञानिक तरीके से इसको कैसे समझा जा सकता है,उसका एक प्रयास कर रहा हूँ|जो इस अहंकार की प्रकृति को बदलने में भी सहायक होगा|
योग के आयाम ---
(१)इस संसार में जो छोटे से छोटे कण में है,वही विशाल से विशाल पिण्ड में भी है|"यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे"|आप एक साधारण परमणु से लेकर पूरे ब्रह्माण्ड का अवलोकन कर लीजिए आपको सब समान नज़र आएगा|वही केन्द्र,वही भ्रमण करते पिण्ड|सब समान|कहीं कोई फर्क नहीं|वही गुरुत्वाकर्षण बल,अप और अभिकेंद्रित बल,वही विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र|
(२)यहाँ सब एक दूसरे के पूरक है|एक के बिना दूसरे का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है|जितना आवश्यक मनुष्य का जीवन है उतना ही जंगली जानवरों का,उतना ही वनस्पतियों और जंगल का |सब एक दूसरे के पूरक है|अमीर व्यक्ति का अस्तित्व गरीबों की मौजूदगी के कारण है|अगर सभी अमीर हो जाये तो फिर कौन किसको पूछेगा|डॉ. का अस्तित्व मरीज के कारण है|सब स्वस्थ हो जाये तो फिर डॉ. का अस्तित्व खतरे में|सब जगह ऐसे उदाहरण देखे जा सकते है|
(३)यहाँ न तो कोई किसी को ज्यादा देता है और न ही कोई किसी से ज्यादा ग्रहण ही करता है|जंगल आपको पद ,फल और खाना देते है,बदले में आप उसको खाद ,कार्बन डाई ओक्साइड देते है|एक दूसरे पर निर्भर|कहीं कुछ ज्यदा देना नहीं और ज्यादा लेना नहीं|जहाँ पर भी यह संतुलन बिगड़ा सब खतरे में|आप किसी को कुछ देते है तो बदले में वह भी आपको कुछ देता है यह बिलकुल निश्चित है|
(४)यहाँ पर कोई भी,न तो कुछ करता है और न ही करवाता है|सब अपनी एक निश्चित प्रक्रिया के अनुसार ही होता है|यह सब कर्म के सिद्धांत में समझे जा चुके हैं|व्यक्ति को यही मानकर कर्म करने चाहिए,सब कर्म ईश्वर के लिए कर रहा हूँ|जो भी इसका परिणाम होगा वह भी उसका होगा|यह सब मान लेने पर ही व्यक्ति को शांति प्राप्त होगी|
                      इस तरह से योग के कुल नौ आयाम बताये गए है,और कुल नौ विभिन्न तरीकों से इसकी व्याख्या की गयी है|इस तरह से कुल८१ आयाम बताये गए हैं|परन्तु सबका उद्देश्य एक ही है-शरीर का आत्मा के साथ योग| अहंकार को समझने के लिए उपरोक्त चार ही प्रयाप्त है|जो व्यक्ति इन योग के सिद्धांतों के अनुकूल आचरण करता है ,उसका आकर्षण आत्मा और परमात्मा  के प्रति ज्यादा होता है अतः उसका अहंकार परा प्रकृति का माना जायेगा|जो व्यक्ति इन सिद्धांतों के प्रतिकूल आचरण करता है ,उसका आकर्षण संसार और शरीर के प्रति ज्यादा होता है ,अतः उसका अहंकार अपरा प्रकृति का है|अब सम्बन्धित  व्यक्ति को ही तय करना होगा कि वह कौन से अहंकार के साथ जीवन जीना चाहता है,किसी एक को तो चुनना होगा क्योंकि बिना अहंकार के तो जीवन ही असंभव है|
                                अहंकार को जब चोट पहुंचती है ,तब व्यक्ति व्यथित हो जाता है|अहंकार के कारण ही सब ईच्छाएं ,कामनाएं ,वासनाएं और अभिमान आदि पैदा होते हैं|जब इनकी पूर्ति  में व्यवधान पैदा होता है तब व्यक्ति को दुःख पैदा होता है और मन में ईर्ष्या और क्रोध उत्पन्न होता है|क्रोध से मति भ्रम पैदा हो जाता है और बुद्धि का विनाश भी|यह सब अपरा अहंकार को और अधिक बढ़ाने का काम करते है|इस प्रकार यह चक्र जीवन पर्यंत चलता रहता है|गीता में भगवान कहते हैं-
                               क्रोधाद्भवति   सम्मोहः   सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
                               स्मरितिभ्रन्शाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||गीता२/६३||
   अर्थात्,क्रोध से अत्यंत मूढ़ भाव पैदा हो जाता है,मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है,स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है जिससे व्यक्ति अपनी स्थिति से गिर जाता है|(Demoralization)
                         इससे स्पष्ट है कि व्यक्ति को यह अहंकार कहाँ से कहाँ तक ले जा सकता है|अतः अहंकार सांसारिकता में न होकर परमात्मा में होना ही श्रेयस्कर है|सबको अपने ही समान समझें|किसी भी कार्य के कर्ता न बने|कुछ दान देकर भी अपने आप को दाता न समझे,देने में अपना सौभाग्य समझे कि आपको कोई लेने वाला तो मिला है|अपने शरीर को परमात्मा का आशीर्वाद समझते हुये लोक कल्याण कार्यों के लिए समर्पित कर दे|तभी आप आध्यात्मिकता के पथ पर आगे बढ़ पाएंगे|केवल पूजा पाठ करना,मंदिर जाना,कुछ दान  देकर अहसान करना ,प्रवचन सुनना आदि तो सिर्फ झूठे अहंकार के प्रतीक है,इनसे कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकेंगे|
                   अहंकार पर अभी भी काफी कुछ लिखा जा सकता है ,परन्तु ब्लॉग पर ज्यादा सम्भावना नहीं है|आधुनिक काल में अहंकार की प्रवृति इतनी ज्यादा बढ़ रही है कि कई बार आश्चर्य होता है कि पतंजली की इस पावन भूमि पर यह सब कैसे हो रहा है?अतः आज अहंकार को समझने की ज्यादा आवश्यकता महसूस हो रही है|दुर्भाग्य से इस विषय पर प्रवचन कर्ता भी ज्यादा मुखर नहीं है|
   कल से आत्मा के बारे में.....
क्रमश:
     ||हरि शरणम् || 

Wednesday, August 7, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२३|अहंकार-३|

क्रमश:
                                 अहंकार का विकास गर्भावस्था के दौरान ही होता है|कुल २४ तत्व इस जीवन के लिए आवश्यक होते हैं|उनमे से बीस तत्वों से इस भौतिक शरीर का निर्माण गर्भवस्था के प्रथम तीन माह में ही सम्पूर्ण हो जाता है|तीन माह के पश्चात केवल शरीर का आकार और वजन बढ़ने का क्रम चलता है|जो २० तत्व इस दौरान शरीर निर्माण में में योगदान देते हैं ,वे सभी स्थूल प्रकृति के माने जाते है|ये २० तत्व है-पांच भौतिक तत्व या आधार तत्व यथा-पृथ्वी,आकाश,जल,अग्नि और वायु,पांच ज्ञानेन्द्रियाँ,पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच ज्ञानेन्द्रियों के विषय|तीन माह के पश्चात स्थूल प्रकृति में भी सूक्ष्मता का  प्रादुर्भाव प्रारंभ होता है|यहाँ पर सबसे पहले  मन और बुद्धि के विकास की शुरुआत होती है|जिससे शिशु को धीरे धीरे कुछ ज्ञान होना शुरू होता है|हालाँकि मन का विकास साथ में शुरू हो चूका होता है ,परन्तु जन्म तक यह सुषुप्त अवस्था में बना रहता है|मान और बुद्धि के विकास की शुरुआत होने के बाद अहम् अपना आकार(अहंकार) प्राप्त करना शुरू कर देता है| यहाँ ध्यान देने योग्य बात यही है कि बिना मन और बुद्धि के विकास की शुरुआत के अहंकार का विकास असंभव है|मन,बुद्धि और अहंकार तीनो ही ऐसे स्थूल प्रकृति में वे सूक्ष्म तत्व है जिनका विकास गर्भावस्था के तीन माह पश्चात शुरू होता है और जन्म के बाद भी लगातार यह विकास का क्रम जारी रहता है|
                                          भ्रूण विज्ञानं (Embryology)के अनुसार केवल स्थूल  भौतिक शरीर की निर्माण प्रकिया जानी और समझी जा सकती है,मन ,बुद्धि और अहंकार जैसे सूक्ष्म तत्वों की नहीं|जब अहंकार के विकास की शुरुआत होती है ,इसकी उपस्थिति का पहला संकेत माँ को १६-१८ सप्ताह के आस पास मिलने लगता है,जब बच्चे द्वारा की गयी पहली हरकत का आभास (Quickening)होता है|अगर इसमे देरी होती है तो मानसिक और शरीरिक विकास के कमजोर रहने का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है|इस सबकी एक निश्चित प्रक्रिया होती है|ज्योंही अहंकार के विकास का पहला चरण पूरा होता है,सुषुप्त पड़े मन पर उसका अंकन हो जाता है|जिसके फलस्वरूप बुद्धि का सक्रिय होना भी शुरू हो जाता है|मन,बुद्धि और अहंकार के तालमेल से गर्भस्थ शिशु में शरीरिक हलचल शुरू हो जाती है|धीरे धीरे वह हलकी मुस्कराहट के साथ दर्द आदि का अनुभव करने  लगता है|उसके शरीर का जैविक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र(Bio electro magnetic field) माँ के क्षेत्र से तालमेल बैठा लेता है|ऐसी स्थिति में अब दोनों में से किसी के भी इस क्षेत्र में आये परिवर्तन को दोनों महसूस कर सकते है|उसी के अनुरूप गर्भस्थ शिशु व्यवहार करता है|
                                       यहविकासशील  अहंकार स्थूल प्रकृति का होते हुये भी शुरुआत में उदासीन होता है |पूर्ण अपरा प्रकृति का अहंकार गर्भावस्था में पैदा नहीं हो सकता है|अपरा प्रकृति का अहंकार जन्म लेने के बाद जब बालक सांसारिक गतिविधियों में रमने लगता है ,तब पैदा होना शुरू होता है और र्धीरे धीरे यह उदासीन अहंकार अदृश्य होने लगता है|गर्भावस्था में शरीर में अहम् भाव पैदा हुये बिना आगे जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती |अतः अहंकार शारीरिक विकास के लिए एक महत्व पूर्ण तत्व है|
                                                 जन्म के समय इस अहंकार का विकास अपने चरम पर होता है| बच्चे के जन्म लेते ही रोना इस अहंकार का प्रथम जीवित प्रदर्शन है|सामान्य प्रसव में बच्चे को परेशनियों का सामना करना पड़ता है,जिससे उसके अहंकार को चोट पहुंचती है,जिसकी परिणिति रोने के रूप में सामने  आती है|मैं जनता हूँ कि आप इससे सहमत नहीं है और न ही हो सकते है|परन्तु वास्तविकता यही है|विज्ञानं इस प्रथम रूदन के कई कारण गिनाता है,जिसमे एक अति महत्वपूर्ण कारण बाहर के वातावरण की वायु के स्पर्श से उत्पन्न शारीरिक प्रतिक्रिया (Reflex)माना जाता है|परन्तु आंकड़े गवाह है कि सिजेरियन प्रसव जिसमे कोई बेहोशी की दवा माँ को सुंघाई नहीं गयी हो और ना ही सीधे खून में कोई दवा  दी गयी हो,फिर भी शिशु सामान्य प्रसव की तुलना में औसत १/२ से १ मिनट देरी से रोता है,और इसके लिए भी शिशु रोग विशेषज्ञ को कुछ प्रक्रिया अपनानी पड़ती है|जबकि सामान्य प्रसव में किसी प्रक्रिया की जरूरत नहीं पड़ती|यह मैं उन शिशुओं की बात कर रहा हूँ जो गर्भ में किसी भी तरह की Foetal distress से पीड़ित नहीं होते ,और न ही किसी जन्मजात विकृति से पीड़ित होते है|बिलकुल सामान्य शिशु और सामान्य प्रसव और सिजेरियन प्रसव(बिना किसी दवा के उपयोग के जो बच्चे की श्वास प्रक्रिया पर असर डालती हो) ही इसके लिए आधार लिया गया है|यह अंतर स्पष्ट करता है कि कोई अन्य कारण भी हो सकता है जिससे प्रथम रूदन प्रभावित होता हो|और भारतीय मनीषियों ने इसका एक मात्र कारण अहंकार को ही बताया है|यह अहंकार आगे जन्म के बाद कैसे कैसे रूप परिवर्तित करता है,यह देखना और जानना महत्वपूर्ण होगा|कल.......
     क्रमश:
                || हरि शरणम् || 

Tuesday, August 6, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२२|अहंकार-२|

क्रमश:
           अहंकार,एक ऐसा शब्द है जिसके बारे में बहुत सारी भ्रान्तियां है|अहंकारी व्यक्ति को लोग अलग ही दृष्टि  से देखते हैं|लेकिन यह सब वास्तविकता से परे है|अहंकार संसार में जीवित रहने के लिए आवश्यक तत्व है गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं-
                                  महाभूतान्यहंकारो   बुद्धिरव्यक्त  मेव  च |
                                  इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचरा ||गीता१३/५||
अर्थात्,पांच महाभूत,दस इन्द्रियां,पांच इन्द्रियों के विषय,एक मन,बुद्धि,अहंकार और मूल प्रकृति आत्मा(अव्यक्त)यह सब इस शरीर में स्थित है|
        यहाँ भगवान क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ योग नामक १३ वें अध्याय में अर्जुन को यही समझा रहे हैं कि इस शरीर में उपरोक्त २४ तत्वों की उपस्थिति ही व्यक्ति को इस संसार में बने रहने के लिए आवश्यक है|इनमे किसी भी एक तत्व की  अनुपस्थिति व्यक्ति की जीवन शैली को प्रभावित कर सकती है|एक इन्द्रिय के सही कार्य न कर पाने से ही जब व्यक्ति विचलित हो जाता है ,तो उनसे भी सूक्ष्म मन और बुद्धि में विकार आने से उपस्थित होने वाली समस्याओं की सहज ही कल्पना की जा सकती है|मन बुद्धि से भी कोई अति सूक्ष्म है तो वह है अहंकार|अहंकार स्थूल प्रकृति का २३वां तत्व है|इससे सूक्ष्म आत्मा ही है ,जिसकी प्रकृति सूक्ष्म यानि परा प्रकृति कही गयी है|
                                       अहंकार की प्रकृति भी स्थूल और सूक्ष्म यानि अपरा और परा दोनों प्रकार की बताई गयी है|जब आपका अहंकार इस शरीर के कारण ,इन्द्रियों के कारण या इन्द्रियों के विषयों के कारण होता है तब यह अहंकार अपरा प्रकृति का हुआ|और यही अहंकार जब आत्मा और परमात्मा के कारण होता है ,तब यह परा यानि सूक्ष्म प्रकृति का माना जाता है|
                               किसी को अपनी सुंदरता पर ,किसी को अपने शारीरिक सौष्ठव पर,किसी को अपनी इन्द्रियों पर या इन्द्रियों के विषयों पर अभिमान होता है,तब जो अहंकार पैदा होता है वह निम्नतम प्रकृति का होता है|किसी का धन के कारण और किसी को अपनी बुद्धि पर गर्व होता है ,तो यह भी निम्न प्रकृति का माना जाता है|लेकिन यह अहंकार उसे जीवन जीने के लिए इस संसार में बने रहने के लिए आवश्यक है|यह अहंकार बिलकुल झूठा है(False Ego) क्योंकि जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं हो और उसका अभिमान हो तो फिर यह अहंकार झूठ ही तो हुआ|इस अहंकार के वशीभूत होकर व्यक्ति संसार में इतना रच बस जाता है कि इस चक्र से उसका निकलना मुश्किल हो जाता है|
                                  अगर यही अहंकार इस संसार में रहते हुये आत्मा और परमात्मा के लिए हो तो यह अहंकार सच्चा होगा(True Ego Or Self Ego)|यहाँ व्यक्ति यही मान लेता है कि परमात्मा ने जो यह शरीर दिया है वह इस संसार की सेवा के लिए दिया है,और मुझे यह शरीर संसार में जरूरतमंदों की सेवा के लिए समर्पित कर देना चाहिए|तब व्यक्ति के दिमाग में कभी भी यह नहीं आता कि यह कार्य केवल मैं ही कर सकता हूँ|बल्कि यह होगा कि इस कार्य के लिए परमात्मा ने मेरे को इस संसार में भेजा है तो जिस किसी की भी मेरे इस कार्य से सेवा हो सकती है,मुझे करनी चाहिए|यह अहंकार परमात्मा के प्रति होता है ,इसमे व्यक्ति को अपनी बुद्धि,धन इन्द्रियों अथवा शरीर पर अभिमान नहीं होता है|अतः यह अहंकार इस जीवन के लिए उपयोगी है और आवश्यक भी|कई बार इस संसार की सेवा करना या स्वयं को परमात्मा का मानने का भी अभिमान हो जाता है ,यह फिर अपरा पर्कृति के अहंकार की श्रेणी में आ जायेगा|अतः परमात्मा का स्वयं को मान लेना और संसार की सेवा में लग जाना और इतना करके कुछ भी नहीं किया या नहीं करता हूँ यह मान लेना ही सच्चा अहंकार है| यह अहंकार ही व्यक्ति के लिए आवश्यक है|
                                           ज्यादातर सांसारिक जीव झूठे अहंकार से ही जीवन जी रहे है,और जब इस अहंकार को चोट पहुंचती है तब एक प्रकार की छटपटाहट पैदा होती है जो व्यक्ति को आंतरिक रूप से  परिवर्तित कर सकती है|अगर यहाँ व्यक्ति, बुद्धि से कार्य लेते हुये अपने आप को परमात्मा का मान लेता है तो अपना भावी जीवन तत्काल बदल लेता है|अगर ऐसा करने में वह असफल रहता है तो उसमे फिर आत्महत्या कर लेने जैसी प्रवृति पैदा होने लगती है|मानसिक संताप की यह स्थिति व्यक्ति को कहीं भी और किधर भी ले जा सकती है|यह सब उसकी बुद्धि और विवेक पर निर्भर करता है| यहाँ उसे अर्जुन की तरह किसी कृष्ण की जरूरत होती है|परन्तु दुर्भाग्य,इस संसार में हर कोई अर्जुन नहीं है जिसे कृष्ण मिल सके|
   क्रमश:
                        || हरि शरणम् || 

Saturday, August 3, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२१|अहंकार

क्रमश:
                            गर्भावस्था के दौरान जब सभी शारीरिक अंग विकसित हो जाते है,उसके बाद उसमे सूक्ष्मता का विकास शुरू हो जाता है|जब सब इन्द्रियों का निर्माण सम्पूर्ण हो जाता है तब इन्द्रियों के विषय विकसित होते है,जो कि मूल रूप से रासायनिक उर्जा (Chemical energy) के कारण होता है|इसके बाद मन,बुद्धि और चित्त का विकास होता है|मन और बुद्धि का विकास होने पर गर्भस्थ शिशु गर्भ में अपनी हलचल शुरू कर देता है,इसमे उसका मुस्कुराना भी शामिल है|अंतिम विकास अहंकार का होता है|अहंकार का अर्थ है अपने "मैं"स्वरुप का आकार लेना|इस स्थिति में जब अहंकार विकसित होता है,गर्भस्थ शिशु में स्वयं  को एक स्वतन्त्र इकाई मानने का भाव पैदा होने लगता है|इसी को अहंकार कहते है|अहंकार=अहं+आकार|इसे अंग्रेजी में Self Recognition or Self Identity कहते है|अहंकार का विकास गर्भावस्था के दौरान ही हो जाता है,अतः इसकी प्रकृति अपरा यानि स्थूल (Macro) ही मानी गयी है|
         मन,चित्त और बुद्धि के बाद अगर सूक्ष्म रूप किसी का है तो वह है अहंकार|सूक्ष्म रूप होने के बाद भी इसकी प्रकृति अपरा ही मानी गयी है|अहंकार मानव मनोविज्ञान(Human Psychology) का विषय है|मानव शरीर विज्ञानं इसके बारे में अभी भी कुछ भी नहीं जान पाया है|वह इसे एक व्यक्ति की अपनी मानसिकता समझता है|
    आध्यात्मिकता की दृष्टि से  अगर देखा जाये तो अहंकार का अर्थ है अपने आप को कर्ता मानना|अहंकार को दोनों अपरा और परा प्रकृति माना जा सकता है|'अहं' अपरा प्रकृति है,जिसमे' मैं' पना है|अगर यही अहं भाव परमात्मा की तरफ हो जाये जैसे मैं परमात्मा का हूँ,परमात्मा मेरे हैं;तब यह अहंकार की परा प्रकृति हो जाती है|यहाँ यह अहंकार मानव जन्म की सफलता प्रदर्शित करता है|
                     अपरा प्रकृति के अहंकार के होने से मनुष्य संसार की तरफ उन्मुख रहता है,जिसके कारण वह परमात्मा को भूलकर सब जगह अपने को ही कुछ होना समझने लगता है|वास्तविकता यह है कि यहाँ पर उसकी कोई औकात भी नही है|आज आप घर से कह कर निकलते हो कि दोपहर का खाना घर पर खाऊंगा|किस आधार पर कहते हो?इसी अहंकार के कारण,जैसे सब कुछ आपके हाथ है|लोग एक दूसरे को देख लेने की धमकी देते है,पता नहीं है उनको कि देखने और दिखाने वाला कोई और है|यह तभी है जब व्यक्ति  संसार और शरीर की क्षमता को देखता है |जब व्यक्ति  को परमात्मा की सत्ता का पता चलता है तब वह अगर अपने आप को परमात्मा को समर्पित कर देता है तो यही अहंकार उसे मुक्ति के मार्ग तक भी ले जा सकता है|गीता में भगवान कहते हैं-
                                   यदहंकारमाश्रित्य न योत्स इति मन्यसे |
                                   मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ||गीता१८/५९||
अर्थात्, जो तू अहंकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि "मैं युद्ध नहीं करूँगा"तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है;क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे जबर्दस्ती युद्ध में लगा देगा|
                 अर्जुन एक कुशल योद्धा था ,उसको तो अहंकार युद्ध करने का होना चाहिए था परन्तु यहाँ भगवान कहते है कि वह अहंकार का आश्रय ले रहा था|उसको अहंकार इस बात का नहीं था कि वह एक कुशल योद्धा था बल्कि उसे अपने आप को ज्ञानवान समझने का था|गीता के प्रथम अध्याय में अर्जुन ने युद्ध से होने वाले नुकसान गिनाये थे|तब वह कृष्ण के सामने ज्ञानियों जैसी बातें कर रहा था|भगवान ने यहाँ यह माना है कि उसे अपने ज्ञान का अहंकार हो गया है| इसी अहंकार की आड में अर्जुन युद्ध से कतरा रहा था|यह अहंकार परमात्मा से विमुख और स्वयं के कारण होने से स्थूल यानि अपरा प्रकृति का है|
                                           अहंकार की दोनों प्रकृतियों को समझ लेने के बाद प्रश्न यह उपस्थित होता है कि यह अहंकार मनुष्य के लिए क्यों आवश्यक है?अहंकार के बिना भी जीवन चल सकता है|नहीं,ऐसा नहीं है|अगर अहंकार मनुष्य में नहीं हो तो वह कर्म से विमुख हो सकता है|अहंकार का आश्रय लेकर ही व्यक्ति कर्म करता है|
अहंकार की अति होने पर विकर्म होने लगते है,तब व्यक्ति अधोगति की तरफ अग्रसर हो जाता है|यही अहंकार अगर परमात्मा की तरफ हो तो भक्ति में लग कर अपना जीवन सफल बना सकता है|
क्रमश:
                       ||हरि शरणम् ||

Friday, August 2, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:२० |बुद्धि-२|

क्रमश:
                       बुद्धि ही शरीर में एक मात्र ऐसी प्रकृति है जो अपने साथ उपस्थित मन,चित्त और अहंकार को नियंत्रित करती है|अगर बुद्धि के चुम्बकीय क्षेत्र में कोई व्यवधान आता है तो फिर समस्त शरीर की क्रियाओं पर उसका प्रभाव पड़ता है|बुद्धि का सम्बन्ध आत्मा और शरीर दोनों से होता है|आत्मा अपनेआप कुछ भी नहीं कर सकती|कुछ करवाने के लिए उसे मन की ही आवश्यकता होती है और मन पर नियत्रण हमेशा ही बुद्धि का रहा है|मन को नियंत्रित ना तो शरीर कर सकता है और ना ही आत्मा ही|जबकि दोनों के  उर्जा क्षेत्र  के सामंजस्य बिंदु पर  मन अवस्थित होता है|मन में जो भी अंकित होता है ,उसे केवल बुद्धि ही परिवर्तित कर सकती है|बुद्धि का चुम्बकीय क्षेत्रत् मन को प्रभावित  करता  है|मन फिर इन्द्रियों के माध्यम से वही कर्म करवाता है जो बुद्धि उसे करवाने का आदेश देती है||
                                           आत्मा का अपना एक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र होता है और शरीर का अपना|बुद्धि का अपना चुम्बकीय क्षेत्र होता है ,परन्तु बुद्धि; शरीर  की तरह ही स्थूल प्रकृति की है अतः उसका यह क्षेत्र शरीर के क्षेत्र के  ज्यादा प्रभाव में रहता है बजाय आत्मा के प्रभाव के|इसीलिए भगवान श्री कृष्ण को गीता में अर्जुन को समझाना पड़ा कि तुम अपनी बुद्धि और मन को मुझमे लगा|(गीता १२/८)|अगर बुद्धि शरीर की बजाय आत्मा के प्रभाव में होती तो श्री कृष्ण को यह कहने की कोई जरूरत ही नहीं होती|आत्मा को भी अगर शरीर से कोई कार्य लेना होता है तो उसे भी पहले बुद्धि के प्रभाव क्षेत्र को ही प्रभावित करना होगा|उसके बाद बुद्धि उसको कितना महत्त्वपूर्ण मानती है यह उसके प्रभाव क्षेत्र और मन पर निर्भर करता है|  अगर मन इंकार कर देता है,तो फिर आत्मा को बार बार बुद्धि को निर्देशित करना पड़ता है|फिर भी अगर मन वैसा नहीं करता जैसा आत्मा चाहती है तो फिर सारा दोष बुद्धि का ही माना जाता है|आम बोलचाल की भाषा में तब हम गलत कामकरने वाले व्यक्ति के बारे में कह ही देते हैं कि उसकी मति(बुद्धि)मारी गयी है,जो ऐसा गलत कार्य कर रहा है| क्योंकि  अब यह स्पष्ट हो चूका है कि   मन पर आत्मा की बजाय बुद्धि का नियंत्रण रहता है|
     गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते है-
                                   व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन |
                                  बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्ध्योSव्यवसायिनाम् ||गीता-२/४१ ||
अर्थात्, हे कुरुनन्दन अर्जुन!इस कर्मयोग में निश्चय वाली बुद्धि एक ही होती है|जिनका एक निश्चय नहीं है,ऐसे मनुष्यों की बुद्धियाँ अनंत बहु शाखा वाली होती है|
        इस श्लोक का यह वह अनुवाद है जो गीता प्रेस से प्रकाशित विभिन्न पुस्तकों में दिया गया है इस श्लोक की पहली पंक्ति का संधि विच्छेद करते है तो यह निमं प्रकार से व्यक्त होता है-
  व्ययसाय+आत्मा+इक=व्ययासत्मिका |   बुद्धिर+एक=बुद्धिरेकेह |
अर्थात्,व्यवसाय(कर्म) और आत्मा एक हो,बुद्धि भी एक हो और फिर ये दोनों साथ साथ हों,तभी सही कर्म संभव है|अन्यथा जिनका (मन का) और आत्मा का एक निश्चित व्यवसाय (कर्म) नहीं हो ,उनकी बुद्धियाँ भी बहुत शाखाओं वाली  और अनंत होती है|अतः बुद्धि का मन पर नियंत्रण आवश्यक है |
                           बुद्धि अपने प्रभाव से मन को नियंत्रित कर सकती है |हम जानते है कि शरीर,इन्द्रियों,मन और बुद्धि की प्रकृति एक ही है , अतः बुद्धि पर नियंत्रण कर पाना मुश्किल जरूर है ,परन्तु असंभव नहीं|आत्मा के द्वारा चित्त(अंतःकरण )के माध्यम से यह नियंत्रण पाया जा सकता है|एक बार व्यक्ति अपनी बुद्धि के माध्यम से मन पर नियंत्रण पा  लेता है ,तो फिर उसके सामने कोई भी समस्या आ ही नहीं सकती| इस अवस्था को प्राप्त कर लेना ही आध्यत्मिकता को प्राप्त कर लेना है|यहाँ पहुंचकर ईश्वर से परोक्ष सम्बन्ध बन पाता है|गीता में आगे भगवान कहते हैं-
                           दूरेण   ह्यवरं   कर्म    बुद्धियोगाद्धनंजय |
                           बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतव :||गीता२/४९||
अर्थात्, बुद्धि योग से सकाम कर्म अत्यंत निम्न श्रेणी का है,इसलिए हे धनंजय ! तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूंढ,अर्थात् बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर;क्योंकि फल प्राप्ति के कारण बनने वाले अत्यंत ही दीन होते हैं|सारांश यह है कि मन के द्वारा होने वाले सकाम कर्म के साथ बुद्धि को मत लगा|बल्कि बुद्धि को सम(Balance) अवस्था में रखने का कोई उपाय ढूंढ|जिससे निष्काम कर्म कर सके और बुद्धि को आत्मा और परमात्मा की तरफ लगा सके|आगे फिर भगवान कहते है कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की आसक्ति उन विषयों में हो जाती है,आसक्ति से कामनाएं उत्पन्न होती है और जब कामनाओं के पूरी होने में बाधा उत्पन्न होती है तो क्रोध पैदा होता है|(गीता२/६२)फिर क्रोध से मूढ़ भाव पीड़ा होता है,मूढ़ भाव से स्मृतिभ्रम हो जाता है और स्मृतिभ्रं से बुद्धि का नाश हो जाता है अर्थात् ज्ञान शक्ति का नाश हो जाता है|बुद्धि का नाश हो जाने से पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है|(गीता२/६३)|
                                        उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि बुद्धि पर नियंत्रण के लिए अपनी कामनाओं पर नियंत्रण रखना जरुरी है|कामनाओं पर नियंत्रण होने से कम से कम बुद्धि  का विनाश तो नहीं होगा|यहाँ कामनाओं का अर्थ सकाम कर्म और उनमे पैदा हुई आसक्ति से है,प्रत्येक कर्म से नहीं|यही ध्यान देने योग्य बात है|
     क्रमश:
                                                     || हरि शरणम् ||

Thursday, August 1, 2013

पुनर्जन्म का वैज्ञानिक आधार-एक परिकल्पना|क्रमश:१९|बुद्धि |

                 क्रमश:
                         प्रकृति से उत्पन्न बुद्धि(Intelligence) का सूक्ष्म(Micro) रूप होते हुये भी अपरा (Macro) कही गयी है|बुद्धि से ही मन (Mind)  का संचालन किया जा सकता है|बुद्धि के बिना शरीर मात्र एक मल मूत्र पैदा करने वाली मशीन बनकर ही रह जायेगा | शरीर विज्ञानं(Anatomy) के अनुसार भ्रूण विकास में ECTODERM से NEURAL TUBE बनती है,जिससे मस्तिष्क(Brain) और सुषुम्ना नाडी(Spinal cord) का विकास होता है|विज्ञानं के अनुसार शरीर में होने वाली सभी गतिविधियां यहीं से नियंत्रित होती है|इन्द्रियों(Senses) का विकास भी उसी पर्त (Layer)  से होता है,जिससे मस्तिष्क का होता है|इसी कारण बुद्धि की प्रकृति भी अपरा यानि स्थूल कही गयी है|
                           शरीर के अन्य सब अंगों की तरह मस्तिष्क में भी विद्युत उर्जा प्रवाहित होती रहती है|जिससे एक विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र का निर्माण होता है|आप इसे ही बुद्धि कह सकते है|क्योंकि जब यह क्षेत्र पूर्णतया समाप्त हो जाता है,तब मस्तिष्क नाम का अंग जरूर होता है,परन्तु कार्य करने लायक नहीं|इसमे अब विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र का अभाव है,यानि बुद्धि का अभाव है|
 विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र ----
-विद्युतीय क्षेत्र(Electric Field) तो विद्युत प्रवाह बंद हो जाने के बाद भी कुछ समय के लिए बना रहता है,जब कि चुम्बकीय क्षेत्र(Magnetic field) समाप्त हो जाता है|विद्युतीय क्षेत्र की एक सीमा होती है,जबकि चुम्बकीय क्षेत्र अनंत होता है|विद्युतीय उर्जा से चुम्बकीय क्षेत्र बन सकता है और चुम्बकीय क्षेत्र से गतिज उर्जा को विद्युतीय उर्जा में बदला जा सकता है|जल विद्युत परियोजनाएं(Hydro power project) इसका उदहारण है|
                                       चुम्बकीय क्षेत्र गोलाकार(Circle) आकृति लिए होता है|इसकी विशेषता है कि यह पलक झपकने के साथ ही अनंत(Infinity) तक विस्तार पाकर स्थिर हो जाता है|इसकी गति का अनुमान लगाना असंभव  है|प्रत्येक कोशिका से लेकर पूरे शरीर तक ,सबका अपना अपना जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (Bio- Electro magnetic field)होता है|जो एक दूसरे को प्रभावित करते है|ब्रह्माण्ड(Universe) में जितने भी पिण्ड है उन सबका अपना ऐसा ही एक क्षेत्र होता है|
                                 मानव मस्तिष्क(Brain) में उपस्थित यही जैव विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र ही बुद्धि (Intelligence)  है|जब इसका विकास होता है तब वह कहीं पर भी तुरंत पहुँच सकती है|बुद्धि और मन का आपस में गहरा संबंध होता है,और इन्हें अलग अलग समझना असंभव है|मन का लगाव जब किसी विशेष के साथ होता है ,तब यह चुम्बकीय क्षेत्र अपना फैलाव कर विशेष के चुम्बकीय क्षेत्र को प्रभावित करने लगता है|आपको ऐसे कई उदहारण मिल जायेंगे जहाँ दूर बैठा कोई व्यक्ति अचानक अपने विशेष व्यक्ति से संपर्क हुआ पाता है|आप अगर गौर  करेंगे तो इस बात को सत्य पाएंगे|खेतों में काम करने वाली महिलाएं,घर में सो रहे बच्चे के बारे में पता लगा लेती है कि वह घर पर रो रहा है,खेल रहा है या उसको कोई चोट लग गयी है|बच्चे के रोते ही वह तुरंत काम छोड़ जब घर पहुँचती है,तो उसे सब वही देखने को मिलता है ,जैसा उसने खेत में काम करते हुये महसूस किया|यहाँ पर,महिला ने अपने  मस्तिष्क के  चुम्बकीय क्षेत्र  को फैला कर बच्चे के चुम्बकीय क्षेत्र के साथ स्थिर कर लिया था|अब बच्चे के इस क्षेत्र में जो भी परिवर्तन आते है वे महिला यानि उसकी माँ के चुम्बकीय क्षेत्र को प्रभावित करते हुये महिला के मस्तिष्क तक पलक झपकते ही पहुँच जाते है,और माँ को बच्चे के बारे में तुरंत महसूस हो जाता है कि बच्चे के साथ क्या घटित हो रहा है?यह सब माँ की ममता के कारण होता है|जब कि माँ को यह आभास ही नहीं होता कि ऐसा वह सब कर रही है|
                                अब इसे भौतिक संसार के साथ जोड़ कर देखें|आप रास्ते से जा रहे है|आपके कानो ने कोई आवाज नहीं सुनी|अचानक आप को लगता है कि आपके पीछे पीछे कोई परिचित आ रहा है|आप पीछे मुड़कर देखते है,और उसी को आपके पीछे आता हुआ पाते है|यह सब दो क्षेत्रों के आपस में तालमेल के बिना असंभव है|किसी एक के क्षेत्र का फैलाव होकर दूसरे के क्षेत्र तक पहुँचना जरुरी है|यह सब आपके मन पर निर्भर करता है|गीता में भगवान कहते हैं---
                        मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय|
                        निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशय :||गीता १२/८||
अर्थात्, मुझ में मन को लगा और मुझमे ही बुद्धि को लगा;इसके उपरांत तू मुझमें ही निवास करेगा,इसमें कुछ भी संशय नहीं है|
                            मन और बुद्धि को जब परमात्मा की तरफ लगा दें तो फिर वह व्यक्ति परमात्मा को प्राप्त हो जाता है अर्थात् उसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है|अगले श्लोक में भगवान मन के स्थान पर चित्त शब्द का उपयोग करते हुये कहते हैं-
                        अथ चित्तं समाधातुं न शक्नोषि मई स्थिरम् |
                        अभ्यासयोगेन  ततो  मामिच्छाप्तुं  धनञ्जय||गीता१२/९||
अर्थात्,यदि तू चित्त को मुझ में लगाने में असमर्थ है तो हे अर्जुन!अभ्यास योग के द्वारा मुझको प्राप्त होने के लिए इच्छा कर|
            यहाँ पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ज्यों ही मन,बुद्धि के साथ आकर परमात्मा की तरफ उन्मुख होता है,मन का रूपांतरण हो जाता है|इस रूपांतरित मन को ही चित्त कहते हैं|
                        यही क्षेत्र(बुद्धि) जब अपना फैलाव कर परमात्मा के क्षेत्र के साथ योग कर लेता है,फिर उनके बीच भी एक सम्बन्ध बन जाता है|फिर परमात्मा के सन्देश भी आपको प्राप्त होने लगते है,जिसे अन्तःकरण की आवाज कहते हैं|जब इस बुद्धि का जुडाव मन के साथ होकर  शरीर की तरफ हो जाता है तो इन्द्रियां मन को प्रभावित करते हुये बुद्धि को भी अपने नियंत्रण में ले लेती है|ऐसी स्थिति में व्यक्ति काम,वासना ,छल,कपट,मोह,माया आदि के चक्कर में पड़ा रहता है और जन्म-मरण के चक्र-व्यूह को भेद नहीं पाता है|
क्रमश:
                   || हरि शरणम् ||