वर्ण और जीवनमुक्ति
मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य जीवन मुक्त होना है अर्थात इसी जीवन के रहते सभी सांसारिक बंधनों से मुक्ति। इसके लिए वर्ण व्यवस्था की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण है। स्वभाव के अनुसार स्वकर्म करते हुए भी मुक्ति की सिद्धि को मनुष्य प्राप्त कर सकता है।
भगवान कहते हैं -
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।(गीता-18/45) अर्थात अपने अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य सम्यक सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ।
किसी एक वर्ण को पहले और सुगमता से सिद्धि प्राप्त होती है, ऐसा भी नहीं है। प्रत्येक वर्ण के मनुष्य को परमात्मा प्राप्ति का पूरा पूरा अधिकार है।
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु पापयोनय: |
स्त्रियो वैश्यस्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् || गीता -9/32।।
हे पृथा पुत्र, जो लोग मेरी शरण लेते हैं,वे चाहे पाप योनि के प्राणी हों, वैश्य हो, शूद्र हों अथवा स्त्री-निःसंदेह सभी परम पद को प्राप्त को प्राप्त कर लेते हैं।
उपरोक्त श्लोक को शूद्रों के लिए सबसे अधिक हानिकारक माना जाता है, परंतु वह है नहीं। यह शूद्र, वैश्य, स्त्री और पाप योनि के में जन्म लिए व्यक्तियों का समान रूप से सम्मान करता है । भगवान कहते हैं कि ये भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सकते हैं।
इसीलिए सनातन धर्म शास्त्र वर्ण धर्म पालन पर जोर देते हैं। जहां वर्ण व्यवस्था टूटी नहीं कि मनुष्य का पतन निश्चित है। स्वाभाविक कर्म करते हुए ज्ञान और भक्ति मार्ग पर चलें, तो आत्मबोध को शीघ्र ही उपलब्ध हुआ जा सकता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम्।।
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