संस्कार
स्वभाव जीवन में भले ही परिवर्तित नहीं किया जा सकता हो परंतु नए सात्विक कर्म करते हुए संस्कार बनाये जा सकते हैं। इन संस्कारों के आधार पर ही वर्णव्यवस्था कार्य करती है। शुद्र वर्ण में उत्पन्न हुआ मनुष्य कर्म तो अपने स्वभावानुसार ही करेगा फिर भी वह संतों का संग कर, स्वाध्याय करते हुए अपने कर्मों को निष्काम भाव से सम्पन्न करे तो अपने संस्कारों को उच्चत्तम स्तर पर ले जा सकता है। फिर ये अच्छे संस्कार नए जन्म में उच्च वर्ण और उसी अनुसार उसका स्वभाव निश्चित कर देंगे।
आज इस युग में कोई भी व्यक्ति अपने स्वभावानुसार कर्म करना नहीं चाहता। उसको अपने से उच्च वर्ण के कर्म आकर्षित करते हैं। वह उसी वर्ण के अनुसार आचरण करना तो चाहता है परंतु सटीक आचरण करने में उसका स्वभाव ही बाधा बन जाता है।वह चाहकर भी उस वर्ण जैसा आचरण नहीं कर सकता।
इसलिए जिस वर्ण में और जैसा स्वभाव मिला है, उसी अनुसार अपने धर्म का पालन करते हुए अपने संस्कारों को सुधारें जिससे अगले जन्म में वर्ण और स्वभाव दोनों ही सुधरे।
इसलिए न तो किसी अभाव में जिओ, न किसी के प्रभाव में जिओ बल्कि केवल अपने स्वभाव में जिओ।
प्रस्तुति
डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम्।।
No comments:
Post a Comment