मदारी
अभी गत 19 से 23 जनवरी की अवधि में जयपुर के होटल क्लार्क्स आमेर में “जयपुर साहित्य उत्सव” (Jaipur Literature Festival) सम्पन्न हुआ था, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नामचीन साहित्यकारों ने भाग लिया था | मुझे भी कुछ भारतीय साहित्यकारों को सुनने का अवसर मिला जिनमें जावेद अख्तर और गुलज़ार मुख्य थे | गुलज़ार की छोटी सी कविता का एक अंश आपके साथ बांटना चाहता हूँ |
“बचपन में मदारी का खेल देखकर सोचा करता था,
कि मदारी भगवान् है |
उम्र के इस मोड़ पर आकर पता चला
कि भगवान् मदारी है ||”
देखा जाए तो भगवान् ही मदारी है और यह संसार उसका खेल दिखाने का रंगमंच | हम सब उसके जम्बूरे हैं | वे ही इस खेल की पट्टकथा लिखने वाले हैं और वे ही निर्देशक | हम सब को रंगमंच पर उनके निर्देशानुसार अभिनय करना है | अपनी भूमिका समाप्त होते ही नयी भूमिका के लिए तैयार होना है | पुनः इस रंगमंच पर कब उतरना है अथवा उतरना है या नहीं, यह सब उस निर्देशक पर निर्भर करता है | हमें तो अपना अभिनय पूरी ईमानदारी के साथ निभाना है | न तो अभिनय के प्रति आसक्त होना है और न ही रंगमंच से बंधना है | केवल इसी बात का ध्यान रखना है | शेष परमात्मा जाने |
प्रस्तुति –डॉ. प्रकाश काछवाल
|| हरिः शरणम् ||
No comments:
Post a Comment