Friday, February 10, 2023

समः सर्वेषु भूतेषु

 समः सर्वेषु भूतेषु 

        मनुष्य जीवन एक बुद्धियुक्त जीव का जीवन है | अन्य प्राणियों में बुद्धि का विकसित न हो पाना एक अर्थ में उनके लिए उचित ही है क्योंकि उनका जन्म केवल भोग के लिए ही हुआ है | बुद्धि के विकसित न होने के कारण उनके भीतर कोई विचार ही नहीं उठता | ऐसे अल्पबुद्धि प्राणी के जीवन में कभी ज्ञान का पदार्पण भी होगा, ऐसा सोच ही नहीं सकते | इनसे विपरीत मनुष्य एक विचारशील प्राणी है | विचार ही मनुष्य को सभी प्राणियों में विशिष्ट बनाता है | विचार मनुष्य की बुद्धि में विवेक जाग्रत हो उठने का परिचायक है | विवेक और विचार के माध्यम से ही मनुष्य ज्ञान को उपलब्ध होता है और यही ज्ञान एक दिन तत्व-ज्ञान में परिवर्तित हो जाता है |

            तत्व-ज्ञान को उपलब्ध मनुष्य फिर पतन की ओर नहीं जा सकता | इसीलिए कहा जाता है कि तत्व-ज्ञान मनुष्य को जीवन में एक बार ही मिलता है | तत्व-ज्ञान के उपलब्ध हो जाने पर उस मनुष्य की जीवन-धारा एक दम से और स्थाई रूप से परिवर्तित हो जाती है, फिर लौटकर वह सांसारिक धारा में नहीं गिरता है | संसार की धारा का प्रवाह इतना तीव्र है कि मनुष्य के पाँव उखड़ते देर नहीं लगती | संसार की धारा में अगर अध्यात्म का आधार मिल जाए तो फिर संसार हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पायेगा | अध्यात्म के आधार से तात्पर्य है - संसार और स्वयं के स्वरुप को पहिचानना | अध्यात्म के मार्ग पर चलते हुए अगर हम बार-बार संसार में लौट आते हैं तो इसका एक ही अर्थ है कि हम अभी भी तत्व-ज्ञान से कोसों दूर खड़े है |

              सभी प्राणी अपने वर्तमान जीवन में पूर्व मानव जीवन के कर्मों के भोग भोगने के लिए विवश होकर आए है | कदाचित् इस मामले में मनुष्य भी उनसे कमोबेश भिन्न नहीं है | जीवन में उपलब्ध होने वाले विषय-भोग ही प्राणियों को आहार, निद्रा, भय और मैथुन जैसे कर्मों को करने के लिए प्रेरित करते हैं | सभी प्राणी जीवन भर केवल इन चार प्रकार के कर्मों को करने में ही व्यस्त रहते हैं |

          मनुष्य कहने को तो अन्य सभी प्राणियों से भिन्न है परन्तु सांसारिक भोगों में रत मनुष्य में और अन्य प्राणियों में रूप और नाम के आधार पर भले ही भिन्नता दिखलाई पड़ती हो, आंतरिक रूप से उनमें कोई भिन्नता नहीं होती | मनुष्य भी जीवन भर इन्हीं चार कर्मों – आहार, निद्रा, भय और मैथुन में रत रहता है |

             भौतिक शरीर के सफल सञ्चालन के लिए नि:संदेह आहार की आवश्यकता पड़ती है परन्तु मुख्य रूप से यह जानना आवश्यक है कि एक मनुष्य के द्वारा लिया जाने वाला आहार कैसा होना चाहिए ? आहार तो एक पशु भी ग्रहण करता है परन्तु उसको इस बात का अल्प ज्ञान ही होता है कि उसके लिए क्या तो खाद्य है और क्या अखाद्य ? भगवान ने सभी प्राणियों को पांच ज्ञानेन्द्रिया दी है और उन ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से वह बहुत ही सरलता से खाई जा सकने वाली और न खाने योग्य वस्तुओं में अंतर कर सकता है | परन्तु जितना विवेक मनुष्य को मिला है उसके माध्यम से अगर वह चाहे तो कम से कम सात्विक, राजसिक और तामसिक भोजन में से किसी एक का चयन तो अवश्य ही कर सकता है ।

          पशु को केवल इस बात का ज्ञान ही रहता है कि कौन सा आहार उसके लिए विष के समान है और कौन सा उसके लिए पोष्टिक है ? जो प्राणी की देह के लिए घातक आहार होता है, वह उसको मुंह तक नहीं लगाता | पशु स्वाद से भ्रमित नहीं होता परन्तु मनुष्य स्वाद के चक्कर में आहार की गुणवत्ता को भूल जाता है | भोजन का स्वाद ही मनुष्य को उस स्वाद-विषय के प्रति आसक्त कर देता है, जिसके कारण वह अज्ञानवश खाद्य और अखाद्य आहार में अंतर करना छोड़ अपने स्वाद के लिए अखाद्य आहार तक ग्रहण कर लेता है |

            दूसरा कर्म जो प्रत्येक प्राणी करता है वह है – निद्रा | नींद शरीर के प्रतिदिन होने वाले क्षय (टूट-फूट) को कुछ सीमा तक सुधारने का एक साधन है | पर्याप्त नींद लेना, शरीर के सुचारू सञ्चालन के लिए आवश्यक होता है | निद्रावस्था में मनुष्य को एक प्रकार के सुख की अनुभूति होती है | नींद में मिलने वाले इसी सुख के कारण मनुष्य आलसी हो जाता है और प्रमादवश आज का कार्य कल पर टालता रहता है | मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी भी नींद की आगोश में रहते हैं परन्तु उनकी नींद भी एक सीमा तक ही सीमित रहती है | नींद की सीमा समाप्त होते ही वह पुनः सक्रिय हो उठता है | परन्तु मनुष्य के जीवन में नींद की भी कोई सीमा नहीं है | वह भरपूर नींद लेकर भी अपने आप को थका महसूस कर सकता है और पुनः निद्रा देवी की गोद में जा सकता है |

         जिस प्राणी को जिस भी रूप का जीवन मिला है अर्थात जिस प्राणी को जैसा भी शरीर मिला है, उस शरीर को ही वह अपने लिए उपयुक्त मानने लगता है | एक सूअर जब गन्दगी में मुंह मारकर अपना आहार खोज रहा होता है, वह हमें भले ही घृणास्पद प्रतीत होता हो परन्तु जरा उस सूअर को तो जाकर पूछिए ! वह तो इसे ही अपने जीवन का परम सुख मानता है | कहने का अर्थ है कि सभी अपने अपने शरीर को पाकर संतुष्ट है | यही कारण है कि प्रत्येक प्राणी अपने उस शरीर को बचाने के लिए सदैव भय से ग्रस्त रहता है |

          जीव ही जीव का भोजन है,साथ ही साथ जीव ही जीव का जीवन भी है | एक जीव का जीवन दूसरे जीव के जीवन पर निर्भर रहता है | इसी को प्राकृतिक संतुलन कहते हैं | जब यह संतुलन बिगड़ जाता है तब प्रकृति उसे वापिस सही करने का अपने स्तर पर प्रयास करती है | उदाहरण के तौर पर - जब तक मृग इस धरा पर हैं, तब तक सिंहों का जीवन भी यहाँ बना रहेगा | दोनों में से किसी एक की नस्ल यहाँ समाप्त हो गयी तो समझ लें कि धीरे-धीरे दूसरे की नस्ल भी समाप्त हो जाएगी | मनुष्य भी इस भय के मामले में अन्य प्राणियों से भिन्न नहीं है | कहा जाता है कि जिस दिन कीटों का अस्तित्व इस धरती पर समाप्त हो जायेगा तब यहाँ अन्न उपजना भी बंद हो जायेगा और मनुष्य को भूखों मरने की स्थिति पैदा हो जाएगी | कहने को तो यह अतिश्योक्ति प्रतीत होती है परन्तु गंभीरता से देखें तो यह बात शतप्रतिशत सत्य भी है ।

        आहार, निद्रा और भय के बाद आता है - मैथुन कर्म | जीवन बचाने की जद्दोजहद ही प्राणियों को मैथुन कर्म करने के लिए प्रेरित करती है | मनुष्य के मामले में भी यही बात सत्य है | प्रत्येक मनुष्य यह सोचता है कि मैं रहूँ अथवा न रहूँ परन्तु मेरा वंश चलना चाहिए | मैथुन कर्म से मिलने वाले छद्म सुख में कोई भी पशु-पक्षी आसक्त नहीं होता | सभी प्राणियों के लिए परमात्मा ने मैथुन कर्म का एक निश्चित विधान किया है | उस विधान के अनुसार वे केवल ऋतुकाल में ही मैथुन कर्म कर सकते हैं अन्य समय में नहीं | ऐसा उनकी प्रजाति को संसार में चलाने के लिए, इस संसार में उस प्रजाति का अस्तित्व बनाये रखने के लिए आवश्यक है |

               मनुष्य के अतिरिक्त अन्य प्राणी मैथुन का सुख नहीं लेते और न ही उस कर्म में आसक्त होते है | परन्तु मनुष्य इसके विपरीत मैथुन कर्म, जोकि स्पर्श सुख से अधिक कुछ भी नहीं है, फिर भी उसे ही जीवन का सबसे बड़ा सुख मानते हुए बार-बार मिलते रहने की कामना करता रहता है | परमात्मा ने भी मनुष्य के लिए इस सम्बन्ध में भी एक विधान बनाया है कि वे केवल संतानोत्पत्ति के लिए ही मैथुन कर्म करे | हमारे ऋषि-मुनि भी गृहस्थ जीवन जीते थे और वे प्रकृति के विधान का पालन किया करते थे परन्तु आज मनुष्य इस विधान की अवहेलना करने लगा है और वह इस कर्म से मिलने वाले स्पर्श-सुख के प्रति बहुत अधिक आसक्त हो गया है | यही उसके पतन का मुख्य कारण भी बन गया है | इस आसक्ति के कारण ही वह बार-बार निम्न योनियों में जन्म लेने को विवश है |

         इस प्रकार अभी तक हमने सभी प्राणियों को परमात्मा द्वारा प्रदत्त स्वाभाविक कर्म की चर्चा की है | मनुष्य बुद्धि और विवेक के क्षेत्र में अन्य सभी प्राणियों से भिन्न भले ही है परन्तु यह भिन्नता उसके जीवन में दृष्टिगत भी होनी चाहिए | आज हम अपने चारों ओर दृष्टि डालें तो यह भिन्नता कहीं भी देखने में नहीं आती | क्यों नहीं आती, इसका कारण भी स्पष्ट है –वह कारण है, मनुष्य की विषयों के प्रति अत्यधिक आसक्ति का होना, जिसके कारण उसकी कामनाओं का जीवन में कभी अन्त आता ही नहीं है | इस प्रकार सार रूप से एक ही बात कही जा सकती है कि विषयासक्ति ही मनुष्य और पशु में भिन्नता नहीं रहने देती | जिस दिन से मनुष्य अपने विवेक और विचार को महत्त्व देने लगेगा तब इन दोनों में भिन्नता भी नज़र आने लगेगी |

        प्रश्न उठता है कि मनुष्य के लिए स्वयं के द्वारा विवेक का उपयोग करना क्यों आवश्यक है ? परमात्मा ने जब इस सृष्टि का सृजन किया तब उनका उद्देश्य केवल स्वयं की सच्चिदानंद अवस्था का अनुभव करना था | यह अनुभव उन्हें तभी हो सकता था जब उनके समक्ष कोई दर्पण हो; जिसमें वे अपना प्रतिबिम्ब देख सके | उस दर्पण के रूप में उन्होंने इस सृष्टि में कई जीव बनाने के बाद भी उनसे संतुष्ट न होने पर अंततः मनुष्य को बनाया | मनुष्य में भी आदि मानव से होते हुए आज के मनुष्य तक यह सृजन की यात्रा अभी भी चली आ रही है | आदि मानव में बुद्धि तो अन्य प्राणियों से कुछ अधिक थी परन्तु उस बुद्धि को विवेक में परिवर्तित करने की क्षमता उसमें नहीं थी | यह क्षमता आज के मानव में है । इस क्षमता का उपयोग करके ही बुद्धि को विवेक में परिवर्तित किया जा सकता है |

              मनुष्य के लिए विवेक का उपयोग करना इसलिए आवश्यक है जिससे वह स्वयं के  अस्तित्ववान होने के पीछे का कारण जान सके | उस कारण को जान लेने पर वह स्वयं ही उस सृजक की अवस्था को ही प्राप्त कर लेगा जिसके लिए उसका सृजन किया गया है | यही परमात्मा का उद्देश्य मनुष्य को बनाने में रहा है |

            मेरे समक्ष दो प्रश्न आए हैं - पहला, मनुष्य के सृजन का कारण समझ लेने से क्या हो जायेगा ? दूसरा,आज इस संसार में हम विभिन्न पदार्थों और क्रियाओं के माध्यम से जो शारीरिक सुख ले रहे हैं, क्या इतना सब कुछ मिलना भी एक मनुष्य जीवन में पर्याप्त नहीं है ? हंसी आती है उस बुद्धि पर जिसमें ऐसे प्रश्न उठते हैं | होने को क्या होगा – फिर चौरासी का चक्कर कभी भी मिट नहीं पायेगा | हम केवल यह जानकर ही खुश हो रहे हैं कि इस मनुष्य जीवन में इतना अधिक शारीरिक सुख मिल रहा है | जरा विचार कीजिये, हम अनन्त जन्मों से लेकर अब तक तक कहाँ कहाँ भटक रहे थे ? आज इस मनुष्य शरीर तक कैसे आ पहुंचे हैं और इस मनुष्य शरीर के समाप्त होने पर आगे हमारा जीवन कहाँ और कैसा होगा ? जिस दिन इस बात पर विचार करते हुए हम इस मनुष्य शरीर के मिलने का उद्देश्य समझ लेंगे तब इन सभी प्रश्नों के उत्तर हमें स्वयं के भीतर ही मिल जाएंगे, कहीं बाहर जाकर इनका उत्तर खोजना नहीं पड़ेगा | चाहे जितना बाहर जाकर इस विशाल संसार में भटक लीजिये, किसी को भी पूछने से इन प्रश्नों का उत्तर मिलना संभव नहीं है |

             मनुष्य की विकसित बुद्धि की यही विशेषता है कि वह अपने विवेक से विचार कर प्रत्येक प्रश्न का उत्तर जान सकता है | जिनका विवेक अभी तक सुषुप्त अवस्था में ही पड़ा है, उसके लिए तो ये दो ही नहीं, हजारों प्रश्न भी सदैव अनुत्तरित ही पड़े रहेंगे | इसलिए भगवान् ने जब मनुष्य शरीर में विकसित बुद्धि को महत्वपूर्ण स्थान दिया है तो प्रत्येक को उस बुद्धि का समुचित उपयोग करते हुए विवेक को जगाना चाहिए |

          विवेक के जाग्रत हो उठने का क्या प्रमाण है ? जब अदृश्य शक्ति को दृश्यता नहीं मिलती अथवा दृश्य शक्ति को हम समझ नहीं पाते और उसे समझने के लिए मन जब उद्वेलित हो उठे तो समझ लें कि बुद्धि के भीतर विवेक करवट लेने लगा है ? इस करवट के माध्यम से विवेक को सक्रिय अवस्था में लाने के लिए वे सभी प्रयास करने पड़ेंगे जो आपकी मुमुक्षा को शांत कर सके | कहने का अर्थ है कि व्यक्ति की मुमुक्षा ही बुद्धि में विवेक को जाग्रत कर सकती है |

            सब कुछ जान लेने की मुमुक्षा ही व्यक्ति को बाहर भटकाने का कार्य करती है | भटकते भटकाते जब व्यक्ति शास्त्र, सत्संग और सत्पुरुषों के सानिध्य से अपनी मुमुक्षा को उच्चत्तम स्तर पर ले जाता है तब बाहर की भटकन स्वतः ही बंद हो जाती है | फिर बाहर से भीतर की यात्रा प्रारम्भ होती है | जब हम अपने भीतर प्रवेश करते हैं तब अनुभव होता है कि जिस को हम बाहर भटकते हुए ढूंढ रहे थे वह तो स्वयं के ही भीतर है | यह विवेक ही है, जो हमें आश्वस्त करता है कि बाहर भटकने से कुछ भी नहीं मिलने वाला ।

              जिस समय मनुष्य अपने विवेक का समुचित उपयोग करने लगेगा तब भटकन स्वतः ही बंद हो जाती है | अब प्रश्न उठता है कि यह बाहर भटकने वाला कौन है ? यह बाहर भटकने वाला हमारा मन है | हमारा मन बड़ा ही चंचल है | मन की एक विशेषता है कि यह जीवन की प्रत्येक इच्छा को शांत करने के लिए बाहर का रास्ता दिखाता है | जन्म-जन्मान्तर से हम समस्त सुख स्वयं के बाहर ही तो खोज रहे हैं | इस कारण से यह मन भटकने का अभ्यस्त हो चूका है | प्रत्येक मनुष्य जीवन में यही मन अपनी मुमुक्षा को शांत करने के लिए इस शरीर को बाहर भटकने के लिए प्रेरित करता है |

                  मन से सूक्ष्म और प्रभावशाली बुद्धि है और बुद्धि से सूक्ष्म और उस पर भी अपना प्रभाव रखने वाला अहम् है | अहम् अर्थात मैं यानि हम स्वयं | विवेक बुद्धि में ही है और सक्रिय होते ही यह बुद्धि और अहम् के मध्य, इन दोनों को जोड़ने वाली एक कड़ी बन जाता है | यह कड़ी जितनी अधिक मजबूत होगी, हम अपनी बुद्धि पर स्वयं के प्रभाव को उतना ही अधिक स्पष्ट रूप से समझ पाएंगे | इसीलिए कहा जाता है कि मनुष्य को अपने मन और बुद्धि के स्थान पर विवेक को ही महत्त्व देना चाहिए | यह विवेक ही मनुष्य की अंतर्यात्रा को अंतिम परिणिति तक यानि अनुभूति तक पहुंचाता है |

           इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 84 लाख प्राणियों से मनुष्य नाम का यह जीव विशिष्ट है | उसको विशिष्ट बनाती है, उसकी विकसित बुद्धि | बुद्धि तो अन्य सभी जीवों में भी होती है परन्तु उनके भीतर की बुद्धि केवल अपने शरीर के भरण-पोषण और उसकी सुरक्षा तक ही सीमित रहती है | इसका अर्थ है कि उन जीवों की बुद्धि अपने शरीर के बारे में सोचने से अलग कुछ भी नहीं सोच सकती | मनुष्य इस मामले में उनसे भिन्न है क्योंकि वह चाहे तो अपने शरीर के अतिरिक्त अन्य विषय पर भी बहुत कुछ सोच सकता है |

            मनुष्य की सोचने की क्षमता को ही विचार करना कहते हैं | लगता तो ऐसा है मानो विचार मन में उठ रहे हों परन्तु वास्तव में बुद्धि ही उनका जन्म स्थल है | बुद्धि का प्रभाव मन पर जब तक नगण्य रहता है तब तक सभी विचार मन में उठते प्रतीत होते है | जब मनुष्य अपनी इस दशा को पहिचान लेता है तब वह मन से बुद्धि को अलग कर लेता है | मन से बुद्धि के अलग होते ही बुद्धि का प्रभाव मन पर अधिक हो जाता है |

            मन पर प्रभावी बुद्धि को होना चाहिए क्योंकि बुद्धि उससे अधिक शुद्ध और सूक्ष्म है | बुद्धि से सूक्ष्म और शुद्ध अहम् है जिसका प्रभाव बुद्धि पर रहता है | परन्तु संसार के साथ अहम् जब अपना सम्बन्ध बना और मान लेता है तब सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो जाता है और मन सब पर प्रभावी हो जाता है | हमें अहम् को संसार से अलग कर बुद्धि को मन पर अधिक प्रभावशाली बनाना है | बुद्धि के प्रभावशाली होते ही मन पर अंकुश लगने लगता है | इस अवस्था में आकर ही मनुष्य अन्य प्राणियों से स्वयं को अलग अनुभव करता है |

                  बुद्धि विचार का जन्मस्थल है | विभिन्न विचार ही बुद्धि को धार देते हैं और विवेक को जाग्रत करने में सहायक सिद्ध होते हैं | परन्तु इस विचार की भी एक सीमा है | विचार व्यक्ति को शांत नहीं होने देता क्योंकि एक विचार के लगते ही दूसरा विचार आने लगता है | यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि सर्वप्रथम विचार को मन का न मानकर बुद्धि का मानें और फिर इस विचार को उर्ध्व गति दें तभी बुद्धि विवेक में परिणित होगी अन्यथा नहीं | विचार को अधोगति मिलते ही मन पुनः बुद्धि पर प्रभावशाली होने लगेगा और सब काता-कूता कपास हो जायेगा |

             विचार मनुष्य के विवेक के जाग्रत होने में सहायक हैं परन्तु इसके लिए विचारों पर भी नियंत्रण आवश्यक है | वैचारिक नियंत्रण से विवेक जाग्रत होता है और फिर उस विवेकशील विचार के माध्यम से मनुष्य अहम् तक पहुंचता है | अहम् तक पहुँचना भी पर्याप्त नहीं है | अहम् अर्थात स्वयं को जान लेने के लिए भी विचार के साथ साथ विवेक की आवश्यकता पड़ती है | बुद्धि और विचार व्यक्ति को स्थूल के बार में ज्ञान तो करा सकते है और अहम् तक भी ले जा सकते हैं परन्तु यह अहम् को जानना नहीं है बल्कि यह उसको जान लेने का मात्र अहंकार बनकर ही रह जाता है | फिर यह अहंकार ही एक दिन मनुष्य के पतन का कारण बनता है |

              अहम् तक पहुंच जाने के बाद प्रत्येक विचार का साथ छोड़ देना आवश्यक है | विचार के पीछे छूटते ही मनुष्य में अहंकार पैदा नहीं हो सकता | इस अवस्था में आकर अब हमारे पास केवल विवेक और अहम् ही शेष रह गए है | इन दोनों से भी आगे जो है, उस तक हमें पहुँचना है | इस अवस्था में आकर हमें विवेक का सदुपयोग करना है | विवेक का सदुपयोग क्या है?

               विवेक का सदुपयोग है - अहम् के प्रत्येक स्तर को जान लेना और फिर उस अहम् के सर्वोच्च स्तर अर्थात वास्तविक अहम् तक पहुँच जाना | अहम् के सर्वोच्च स्तर को छू लेना ही आत्म-बोध को उपलब्ध हो जाना है | सांसारिक मनुष्य में अहम् की दो सतह होती है अर्थात अहम् की दो परतें होती हैं | ये दो परत कौन कौन सी है ? आइए ! इस पर भी एक दृष्टि डाल लें | जब तक अहम् के इस युग्म को समझ नहीं पाएंगे तब तक हमारा वास्तविक अहम् तक पहुँचना केवल दिवास्वप्न ही बनकर रह जायेगा |

             जब दो वस्तुएं आपस में इतनी अधिक घुलमिल जाती है तब उन दोनों के मध्य अंतर करना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है | दूध में पानी मिला दिया जाये तो पानी भी दूध प्रतीत होने लगता है क्योंकि दूध में पानी पहले से ही प्राकृतिक रूप से होता है जिस कारण से ऊपर से मिलाया हुआ पानी आसानी से दूध के साथ एक हो जाता है | इसी प्रकार गंगाजी में आकर गन्दा नाला भी गिर जाता है तो वह भी गंगा कहलाने लगता है | साधारण मनुष्य दोनों में अंतर नहीं कर पाता परन्तु विवेकवान समझ जाता है कि दूध में जल मिला हुआ है और गंगा में कहीं न कहीं गन्दा नाला आकर गिर रहा है | अहम् के बारे में बात करें तो वह बात इन दोनों उदाहरणों से थोड़ी भिन्न है | उपरोक्त उदाहरण दो अलग अलग गुणों वाले पदार्थों के बारे में बात करते हैं और यहाँ अहम् में एक ही गुण वाला स्वयं को दो रूपों में प्रदर्शित कर रहा है | स्वयं के दो रूपों के लिए अहम् ही उत्तरदायी है, कोई अन्य नहीं | जिस दिन अहम् का छद्म रूप विलीन हो जायेगा, उसका वास्तविक रूप प्रकट हो जाएगा | इसी कारण से यह कहा जाता है कि मनुष्य स्वयं (आत्मा) को स्वयं में ही पा लेता है, उसे बाहर कहीं पर भी भटकने की आवश्यकता नहीं है |

            स्वयं को स्वयं में ही पा लेने में व्यक्ति के विवेक की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है | विवेक का अर्थ है कि किसी विषय का गंभीरता से अवलोकन करना | हमारे जीवन में अनेकों समस्याएं आती है | जो व्यक्ति विवेकवान है, वह बिना विचलित हुए उन परिस्थितियों से बाहर निकल आता है, जबकि साधारण मनुष्य विपरीत स्थिति में केवल रोता ही रह जाता है | विवेक ही अहम् के छद्म रूप को विलीन कर सकता है और अहम् के वास्तविक स्वरुप को प्रकट कर सकता है | विवेकवान इसी कारण से यह जानता है कि जो विषम परिस्थिति मेरे समक्ष आई प्रतीत हो रही है, वास्तव में मैं उस परिस्थिति की पहुँच से बहुत दूर हूँ अथवा यह कहा जा सकता है कि यह परिस्थिति मुझ तक पहुँच ही नहीं सकती | परिस्थिति क्यों नहीं पहुँच सकती, इसको स्पष्ट करने के लिए अहम् को विवेकपूर्वक जानना होगा |

             हमारा स्थूल शरीर अष्टधा प्रकृति के अंतर्गत है | अष्टधा प्रकृति में पांच भौतिक तत्वों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार आते हैं | मन के भी दो भाग हैं - मन और चित्त | इस प्रकार मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार चारों मिलकर अंतःकरण कहलाते हैं | अहंकार का अर्थ है अहम् का वह भाग जो शरीर के साथ हो गया है | अहम् + आकार = अहंकार | अहम् जब आकार ले लेता है तब वह शरीर के आकार को ही स्वयं का होना समझ लेता है | अहम् के आकार लेने से अर्थ है, अहम् का शरीर के साथ हो जाना | जो अहम् शरीर के साथ हो जाता है, उसी को मन भी कहते हैं | जबकि वास्तविकता यह है कि अहम् का वास्तविक स्वरुप उसके सांसारिक स्वरुप से एकदम भिन्न है |  

               अहम् (अहंकार)अष्टधा प्रकृति में सर्वोच्च पद पर है | अहंकार के अधीन बुद्धि होती है, बुद्धि के अधीन मन और मन के अधीन होती इन्द्रियां और शरीर | जब अहम् शरीर के साथ हो जाता है तो वह पदावनत होकर मन कहलाने लगता है | वह बुद्धि का भी अतिक्रमण कर जाता है और मन को सीधे आदेश देने लगता है | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि अहम् ही मन का कार्य करने लगता है | बुद्धि बेचारी अपने उच्च पदाधिकारी अहम् के अधीन होने के कारण उसके सामने मन को नियंत्रित न कर पाने में अपनी विवशता व्यक्त करती है | बुद्धि में छिपा विवेक जाग्रत तभी होता है जब मन के संग हुआ अहम् अपने वास्तविक स्वरुप के अहम् को सामने खड़ा देख थोडा सा निर्बल पड़ जाता है | बुद्धि उसकी इस निर्बलता का लाभ उठाते हुए विवेक और विचार को सक्रिय कर देती है जो कि अहम् को शक्ति प्रदान कर उसको अपने वास्तविक स्वरुप का ज्ञान कराने में सहायक हो जाते हैं |

           सार रूप से कहा जा सकता है कि अहम् तो एक ही है परन्तु उसको जब शरीर और संसार का साथ मिलता है तब वह अपना तादात्म्य उन्हीं के साथ कर लेता है | इस सांसारिक संग के कारण उसको अपने वास्तविक स्वरुप का बोध नहीं रहता | अहम् का वास्तविक स्वरुप उसके सांसारिक स्वरुप के भीतर गहराई में अनन्त काल तक दबा पड़ा रह सकता है | उस वास्तविक स्वरुप तक पहुँचने के लिए उसके इस सांसारिक आवरण को तोडना होगा, इस आवरण से उसे मुक्त करना होगा | इस आवरण को माया का आवरण भी कहा जाता है |

           माया के आवरण को स्वयं अहम् ने ही ओढ़ रखा है | वास्तव में यह आवरण छद्म आवरण ही है परन्तु साधारण बुद्धि इस आवरण को ही अहम् का वास्तविक स्वरुप समझने लगी है क्योंकि अहम् मन जैसा व्यवहार करने लगा है | इस आवरण का भेदन करना केवल विवेक के वश की बात है, अकेली बुद्धि भी इसके समक्ष असहाय है |

              विवेक जाग्रत होने में शास्त्र, सत्संग और सद्पुरुषों का सानिध्य मिलना तो महत्वपूर्ण है ही, परन्तु ये सब आपको केवल बाह्य रूप से ही प्रेरित कर सकते हैं | जबकि अहम् के वास्तविक स्वरुप को जानना स्वयं के भीतर की यात्रा है, अंतर्यात्रा है और प्रत्येक व्यक्ति की अंतर्यात्रा में उसे स्वयं को अकेले ही चलना पड़ता है | शास्त्र, गुरु और संतों की भूमिका उसकी इस यात्रा में नाम मात्र की होती है | बाह्य-यात्रा में आपको शास्त्र, संत और सत्संग मिलेंगे और ये सब आपके अहम् (स्वरूप)की ओर संकेत भर कर सकते हैं, उस अहम्  के वास्तविक स्वरूप तक पहुंचा नहीं सकते | जिस प्रकार राह में मंजिल की तरफ आगे बढ़ने पर मील के पत्थर आते है, वे केवल इतना ही संकेत भर करते हैं कि आप अपने गन्तव्य से कितनी दूर है और आप सही मार्ग पर हैं परन्तु आप वहां तक तक कैसे पहुँचेंगे, यह नहीं बतला सकते | गुरु भी आपको संकेत भर ही करता है | वह आपको अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ने को प्रेरित करता है | उनकी प्रेरणा से ही आप अपनी यात्रा के अंतिम लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं और बाहर की यात्रा छोड़ स्वयं के भीतर प्रवेश करते हैं |

            जापान में एक मंदिर है, जिसमें ‘हाथ’ के आकार की एक मूर्ति है | उस मंदिर में हाथ कोई साधारण मुद्रा में नहीं है बल्कि वह अपनी तर्जनी से ऊपर आकाश की ओर संकेत कर रहा है और शेष अंगुलियाँ और अंगूठा इक्कट्ठे होकर मुठ्ठी बंद हो रखी है | इस हाथ की मूर्ति एक महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करती है कि परमात्मा ऊपर की ओर है | इसका दूसरा अर्थ है कि परमात्मा सर्वोच्च है | इस संकेत को जिसने समझ लिया वह सही मार्ग पकड़ लेगा।यह मंदिर दर्शंनार्थियों को अपने वास्तविक स्वरुप परमात्मा की ओर चलने के लिए प्रेरित करता है | पूजा करने वाले इस हाथ की मूर्ति का क्या अर्थ लेते हैं, वह बात कुछ अन्य भी हो सकती है | कोई कहता है कि यह मूर्ति ‘परमात्मा एक है’ - यह सन्देश देती है | यह हाथ की मूर्ति क्या संकेत करती है, यह बात तो केवल उस मूर्ति को गढ़ने वाला शिल्पी ही बता सकता है |

            भीतर की यात्रा प्रारम्भ करते ही मनुष्य को अकेलापन काटने लगता है | अल्पज्ञान और उद्देश्य के प्रति दृढ भाव न रखने वाले इस अकेलेपन से घबराकर पुनः बाहर की ओर निकल आते हैं | फिर भी गुरु प्रयास करते हुए उनको स्वयं के भीतर प्रवेश करने के लिए प्रेरित करता है | अंतर्यात्रा में अकेलेपन से घबराने का अर्थ है कि अहम् के वास्तविक स्वरूप तक पहुँचने की मुमुक्षा अभी बलवती नहीं हुई है |

           मनुष्य की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि जब वह अध्यात्म की यात्रा पर निकलता है तब संसार का आकर्षण उसे अपनी ओर एक चुम्बक की भांति खींचने लगता है | चुम्बक के बारे में जानने वाले जानते हैं कि प्रत्येक चुम्बक का अपना एक निश्चित चुम्बकीय क्षेत्र होता है | जब आप उस क्षेत्र से बाहर निकल जाते हैं, तब उस चुम्बक का आकर्षण भी प्रभावहीन हो जाता है | इसी प्रकार आध्यात्मिक जीवन में भी स्वयं के सांसारिक जीवन के आकर्षण क्षेत्र से बाहर निकलना आवश्यक है |

             संसार की मोह-माया ही वह आकर्षण है, जिससे मनुष्य जीवन भर मुक्त नहीं हो सकता | उस आकर्षण से मुक्त हो जाने का नाम ही जीवन-मुक्ति है | संसार में रहते हुए भी किसी के मोह ममता पाश में नहीं बंधोगे तो फिर अंतर्यात्रा में अकेलापन आपको कभी खलेगा नहीं बल्कि वह अकेलापन भी एकांत बन जायेगा और उस एकांत के आनन्द की अनुभूति करने वाले भी केवल आप ही होंगे | अंतर्यात्रा में आप जब अहम् तक पहुंचते हैं तब तक अगर आपका सांसारिक आकर्षण मिट चूका है तो यह अहम् से माया का आवरण हटा हुआ कहलाता है | माया ही अहम् के वास्तविक स्वरुप को प्रकट नहीं होने देती | माया से मुक्त होने का अर्थ है- आप स्वयं मुक्त हो गए हैं, आपका वास्तविक स्वरुप आपके सामने प्रकट हो गया है और आप आत्म-बोध को उपलब्ध हो गए हैं | इस अवस्था में असत से आप दूर हो जाते हैं और सत का स्वरुप प्रकट होते ही आपको अनुभूति होती है कि वास्तव में वह सत आप स्वयं ही हैं | इतने दिन जिसको बाहर भटकते हुए ढूंढ रहे थे, वास्तव में आपके भीतर वह प्रारम्भ से ही उपस्थित था |

            प्रायः साधक इस स्थिति को प्राप्त होकर यह समझते हैं कि उनकी यात्रा पूरी हो चुकी है | हाँ, यह सत्य है कि आपका उद्देश्य सत को जानना था और उस सत को जानकर आप स्वयं भी सत हो गए हैं | परन्तु क्या इतना जान लेना ही पर्याप्त है ? नहीं, हमें इससे भी आगे जाना है | हम यह तो जान चुके हैं कि जिसको हम अपने से बाहर खोज रहे थे, वह हमारे भीतर पहले से ही उपस्थित है |

             हम भी वही हो गए हैं जिसको हम जानने के लिए निकले थे | परन्तु जिस संसार के आकर्षण से मुक्त होकर हम इस अवस्था तक पहुंचे हैं, वह संसार वास्तव में है क्या ? संसार को असत कहा अवश्य जाता है परंतु क्या वह असत है ? इस असत कहे जाने वाले संसार की स्वयं की सत्ता भले ही न हो परन्तु जैसा इस दृष्टि से देखा जा रहा है, स्पर्श से अनुभव हो रहा है, घ्राण के माध्यम से सूंघा जा रहा है, रसना के माध्यम से जिस संसार का स्वाद लिया जा रहा है और जिस श्रवण यन्त्र के माध्यम से शब्दों का रस लिया जा रहा है, क्या ये सब असत है ? अगर सब असत है तो फिर इनकी प्रतीति क्यों हो रही है ?

            इस प्रकार के अनेकों प्रश्न ही तब तक अनुत्तरित रहेंगे जब तक असत के पीछे छिपे सत्तावान को समझ नहीं लिया जाता | प्रारम्भ में हमें उस सत्तावान पर श्रद्धा और विश्वास करना होगा, तभी हमें अनुभव में आएगा कि असत भी वास्तव में सत ही है और यह सत भी असत तब तक ही है जब तक इसको हम अपने  सुख का साधन समझ रहे हैं अथवा मान रहे हैं | प्राणविहीन देह में भी ये सभी ज्ञानेन्द्रियाँ वैसे की वैसी यथास्थान बनी रहती है जैसी प्राणवान शरीर में रहती है | फिर भी प्राण चले जाने के बाद उन ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से किसी रस की अनुभूति क्यों नहीं होता? 

                  मृत शरीर को किसी भी विषय रस का अनुभव क्यों नहीं होता ? इन्द्रियाँ उस शरीर में यथास्थान और सुरक्षित भी हैं फिर भी मृत देह प्रतिक्रिया क्यों नहीं दे पा रही है ? इसका कारण यह है कि अनुभूति शरीर की इन्द्रियों के माध्यम से होती अवश्य है परन्तु अनुभव करने वाला इस इन्द्रियधारी शरीर से भिन्न है | सत्य यह है कि शरीर और उसकी इन्द्रियां मात्र यंत्र से अधिक कुछ भी नहीं है | हम इस भौतिक जगत में विभिन्न यंत्रों का उपयोग करते हैं परन्तु क्या ये यंत्र स्वतः कार्य करते हैं ? नहीं, इन यंत्रों के उपयोग के लिए भी एक शक्ति की आवश्यकता होती है | इस प्रकार शरीर के सुचारू सञ्चालन के लिए आवश्यक उस शक्ति का नाम ही परमात्मा है |

          जिस सत को हमने अपनी अंतर्यात्रा में अन्तर्यामी के रूप में पहिचाना है वही सत इस सृष्टि के कण कण में भी सर्वव्यापी (ईश्वर) बनकर समाया हुआ है | ईश्वर और अंतर्यामी कहना केवल शब्दों का फेर मात्र है | एक उसके बिना किसी भी प्रकार के संसार की कल्पना तक नहीं की जा सकती | केवल इस दृष्टिगत भौतिक संसार की बात ही क्यों करें, सम्पूर्ण ब्रह्मांडों में अतिसूक्ष्म सा स्थान भी उससे रहित नहीं है | यह बात संतजन सदियों से कहते आ रहे हैं और हम सब उनकी हाँ में हाँ भी मिलाते रहते है परन्तु क्या हमें इसका अनुभव किया है ? ज्ञान होना और अनुभव होना, दोनों अलग-अलग बात है | शास्त्रों में भी पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चूका है और आज के संतों से पहले भी बहुत से संतों ने विभिन्न प्रकार से यही बात कही है | फिर भी हमारा ज्ञान अनुभव में परिवर्तित क्यों नहीं हो पा रहा है ? इसका उत्तर भी वही एक ही है – संसार का आकर्षण |

              संसार के आकर्षण के कारण हमें सुख का अनुभव होता है और यह सुख आसक्ति को जन्म देता है | आसक्ति कामनाएं पैदा करती है और कामनाएं कर्मों के जाल में उलझाकर संसार से हमें मुक्त नहीं होने देती | संसार की आसक्ति से मुक्त हुए बिना भीतर की यात्रा प्रारम्भ नहीं हो सकती | भीतर की यात्रा पर निकले बिना उस सत (अंतर्यामी) तक नहीं पहुंचा जा सकता | इस प्रकार अंततः अन्तर्यामी की प्रतीति ही सर्वेश्वर/विश्वेश्वर की अनुभूति कराता है | जब तक सत तक नहीं पहुंचेंगे तब तक संसार भी असत ही बना रहेगा | इसलिए सर्वप्रथम बाह्ययात्रा को छोड़कर अंतर्यात्रा पर निकलना आवश्यक है | इस यात्रा से ही अंतर्यामी की अनुभूति होती है |

            अंतर्यामी को अनुभव कर सर्वेश्वर का अनुभव करना तभी हो सकता है जब हम इस संसार में एक परमात्मा के अतिरिक्त किसी और की सत्ता पर विश्वास न करें | देखा जाये तो उसके अतिरिक्त किसी अन्य की सत्ता यहाँ है भी नहीं | परमात्मा के अनुभव के सम्बन्ध में मैंने पहले कहा है कि संसार की प्रत्येक गतिविधि का सूक्ष्मता से अध्ययन करने से उसकी अनुभूति शीघ्र हो जाती है | यह अनुभूति कैसे हो सकती है ? आइये ! यह भी जान लेते हैं |           

           अहंकार में डूबा मनुष्य सदैव यही सोचता है कि मैं ही सब कार्यों का कर्ता हूँ | व्यक्ति यह भूल जाता है कि जिन इन्द्रियों के आधार पर वह कर्ता बना फिर रहा है, वे सभी इन्द्रियां मात्र यंत्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं |

       हाँ, इन्द्रियाँ यंत्र मात्र है और उन यंत्रों के पीछे जिसकी शक्ति कार्य कर रही है, वही इन्द्रियों के माध्यम से विषय का अनुभव कराता है | उसकी अनुपस्थिति में इन्द्रियाँ ख़राब पड़े यंत्र के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रह जाती है | लकवाग्रस्त व्यक्ति के पैर भी वही होते हैं, हाथ भी वहीँ पर रहते हैं, कहीं खो नहीं जाते फिर भी वह चलने-फिरने और कुछ भी करने में विवश है | वह चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता | उसको किसी दूसरे की इन्द्रियों की दया पर निर्भर रहना पड़ता है |

            रोगी को ठीक करना और रोगी का ठीक हो जाना - इन दोनों में बड़ा अंतर है | ठीक करने में शतप्रतिशत सम्भावना रहती है कि किसी विशेष उपाय से बीमारी मिटा दी जाएगी जबकि उस रोगी के ठीक होने से अर्थ है कि बीमारी से मुक्त होने की सम्भावना केवल वैज्ञानिक उपाय पर ही निर्भर नहीं है बल्कि कोई इन उपायों से अलग एक शक्ति और भी है जो उसके ठीक होने अथवा न होने में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भूमिका निभाती है | प्रत्येक चिकित्सक रोगी को ठीक करने का उपाय अवश्य करता है परन्तु कभी भी यह नहीं कहता कि इस बीमार को मैंने ही ठीक किया है | बीमारी से मुक्त हो जाने पर प्रत्येक चिकित्सक यही कहता है कि रोगी ठीक हो गया है |

             इसीलिए प्रायः सभी चिकित्सक ईश्वर पर पूर्ण श्रद्धा रखते हैं | बड़े बड़े चिकित्सक और चिकित्सालयों का एक ही कथन होता है – I/we treat, He cures अर्थात मैं या हम चिकित्सा करते हैं, रोग मुक्त वह (परमात्मा) करता है |

               रोग का निदान करने में वैज्ञानिकों को कुछ सीमा तक सफलता मिली है जिसके कारण यह बताया जा सकता है कि रोग शरीर के किस अंग की कौन सी प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न होने से हुआ है | जैसे लकवा सुषुम्ना नाड़ी में आये किसी व्यवधान से होता है और आज वैज्ञानिक उसको ठीक भी कुछ सीमा तक करने का दावा करते हैं | एक बीमारी होती है – मोटर न्यूरोन डिजीज जिसको अल्प शब्दों में MND भी कहा जाता है |  इसमें सुषुम्ना नाड़ी में किसी प्रकार का व्यवधान भी नहीं आता और न ही मस्तिष्क रोगग्रस्त होता है, फिर भी रोगी की एक-एक कर सभी कर्मेन्द्रियाँ धीरे-धीरे कार्य करना बंद कर देती है |  इस बीमारी की विशेषता है कि ग्यारह इन्द्रियों में से केवल कर्मेन्द्रियों का कार्य ही प्रभावित होता है, शेष पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और मन सभी स्वस्थ बने रहते है | वैज्ञानिकों के पास इस बीमारी का उपचार आज भी नहीं है |

            इस बीमारी के बारे में क्या कहेंगे ? प्रत्येक चिकित्सक ही नहीं बल्कि संसार के किसी भी प्राणी के पास इस प्रश्न का उत्तर नहीं है | चिकित्सक भी यही कहते हैं कि इस रोग का उपचार किन्हीं दवाइयों से नहीं हो सकता केवल ईश्वर ही रोगी को इस रोग से मुक्त कर सकते हैं | मेरे कहने का अर्थ है कि जानने की सीमा जहाँ आकर समाप्त हो जाती है, मानने की प्रक्रिया वहीं से प्रारम्भ होती है | ये तो उदाहरण चिकित्सा जगत के हैं परन्तु ऐसे असंख्य उदाहरण हमें अपने दैनिक जीवन में भी अनुभव में आ सकते हैं |  आवश्यकता है कि हम अपने चारों ओर के क्रियाशील संसार की प्रत्येक गतिविधि का सूक्ष्मता से अवलोकन करें | इस अवलोकन के उपरांत जो अनुभव होगा, निसंदेह वह अतीन्द्रिय अनुभव होगा और ऐसा अनुभव करना ही परमात्मा की अनुभूति होना है |

              अंतर्यामी को जान लेना संसार में ईश्वर की उपस्थिति की अनुभूति कराता है और यही ईश्वर अपनी समग्र उपस्थिति से सर्वेश्वर बन जाता है | अंतर्यामी से सर्वेश्वर तक ज्ञान हो जाने की यात्रा ही योग है | मनुष्य के उद्देश्यपूर्ण जीवन का अंतिम विश्राम स्थल सर्वेश्वर की अवस्था तक पहुँचना है | अंतर्यामी तक पहुँचने को ही प्रायः मनुष्य अंतिम अवस्था मानकर आगे बढ़ने का प्रयास नहीं करते | प्रयास करने का यहां मंतव्य यह नहीं है कि प्रयास से ही परमात्मा को जाना जा सकता है | नहीं, परमात्मा को अनुभव करना किसी जानने की प्रक्रिया के अधीन नहीं है | जानना और मानना, ये दो बातें प्रत्येक मनुष्य के जीवन में सदैव रहेगी | हाँ, यह अवश्य है कि जान लेने का प्रयास कर लेने से मानना तनिक सुगम अवश्य हो जाता है |

          जानना इन्द्रियों के माध्यम से होता है जबकि मानना श्रद्धा और विश्वास का विषय है | श्रद्धा रखने और विश्वास करने के लिए किसी प्रकार की क्रिया की कोई आवश्यकता नहीं होती जबकि जानने के लिए एक निश्चित प्रक्रिया और साधन की आवश्यकता होती है | जानना इन्द्रियों के माध्यम से होता है और सभी इन्द्रियाँ प्रकृति की देन है | इसका अर्थ हुआ कि केवल प्रकृति को ही इन्द्रियों के माध्यम से जाना जा सकता है |

            आपने पैदा होने के बाद सर्वप्रथम अपनी मां को ही जाना है क्योंकि आपने पैदा होने के बाद उन्हीं को सदैव अपने साथ पाया है | पिता के बारे में आप कुछ भी नहीं जानते | जिसको आप जान चुके हैं, वही मां जब कहती है कि ये तुम्हारे पिता है, तब आपने मान लिया कि ये ही मेरे पिता हैं | कहने का अर्थ है कि ‘जाने हुए’ के माध्यम से किसी को मान लेना सुगम हो जाता है | जानने और मानने में केवल यही अंतर है |

             आज के वैज्ञानिक युग में जैविक पिता को भी डी.एन.ए. जांच करा कर जाना जा सकता है | इसके लिए उच्च श्रेणी की प्रयोगशालाओं में परीक्षण कर पिता का पता लगाया जा सकता है |  यह बात तो है केवल सांसारिक पिता को जानने की, जिसको कुछ परीक्षणों के माध्यम से फिर भी जाना जा सकता है परन्तु जो सबके पिता है, परमपिता है, उनको जानना किसी महान वैज्ञानिक के भी वश की बात नहीं है |

             प्रकृति हमारी मां है क्योंकि हमारा शरीर प्रकृति की ही देन है और प्रकृति के माध्यम से हम इस संसार में आए भी हैं परन्तु यह प्रकृति तो हमारी पिता नहीं है | यह सत्य है की प्रकृति का अस्तित्व पिता के कारण ही है | जो प्रकृति का जनक है वही परोक्ष रूप से हमारा जनक भी है | इस प्रकार जो सबका पिता है, वही परमात्मा कहलाता है | प्रकृति को हम अपनी इन्द्रियों से अनुभव कर सकते हैं, इसलिए प्रकृति को हम जानते हैं परन्तु परमात्मा का अनुभव इन्द्रियों के माध्यम से नहीं हो सकता इसलिए उनको मानना पड़ता है | प्रकृति हमें अकेले अपने स्तर से पैदा नहीं कर सकती, उसे पुरुष (परमात्मा) का सहारा लेना ही पड़ता है परन्तु वह परमात्मा अगोचर है, उसे देखा नहीं जा सकता इसलिए उसको जाना भी नहीं जा सकता | देखना इन्द्रियों के माध्यम से होता है, शरीर के माध्यम से होता है इसलिए प्रकृति का अनुभव इन्द्रियों के अधीन हुआ | परमात्मा का अनुभव अतीन्द्रिय है इसलिए उसको माना ही जा सकता है, इन्द्रियों से जानने का प्रयास करेंगे तो हम जीवन भर उस एक को जानने में कभी सफल नहीं होंगे |

            इस प्रकार स्पष्ट है कि परमात्मा को माना ही जा सकता है | ऐसे में प्रश्न उठता है कि फिर हमें परमात्मा का अनुभव कैसे होगा ? चलो मान लिया कि परमात्मा हैं परन्तु उनकी उपस्थिति का अनुभव भी तो होना चाहिए बिना अनुभव के मान लेने में भी क्या सार है ? तो  आइये ! इसी प्रश्न के उत्तर को भी जानने का प्रयास करते हैं |

            परमात्मा का अनुभव या तो उसको हो सकता है जो संसार की प्रत्येक गतिविधि का सूक्ष्मता से अध्ययन करे अथवा यह अनुभव उसको हो सकता है जिसको सर्वत्र परमात्मा ही दिखलाई पड़ रहे हों | दोनों ही मार्ग एक दूसरे से सम्बंधित भी हैं और पूरक भी, क्योंकि दोनों का लक्ष्य एक ही है – परमात्मा की अनुभूति |

         आज के युग में जब विज्ञान के माध्यम से प्रकृति के एक एक कर सभी रहस्य खोलने का प्रयास हो रहा हो, ऐसे में किसी भी व्यक्ति के लिए सीधे सपाट रूप से परमात्मा को मानना बहुत ही कठिन होता जा रहा है | पुरातन काल में भक्ति के माध्यम से परमात्मा की स्वीकार्यता कर ली जाती थी और उससे उनको परमात्मा का अनुभव भी हो जाता था परन्तु आधुनिक युग में ऐसा होना असंभव सा प्रतीत होता जा रहा है | इसका अर्थ यह नहीं है कि केवल भक्ति के माध्यम से उसका अनुभव नहीं हो सकता | आज भी भक्ति मार्ग से उसका अनुभव हो सकता है परन्तु श्रद्धा और विश्वास की कमी के चलते ऐसा होना लगभग असंभव सा होता जा रहा है |      

        चलिए ! दोनों मार्गों का विवेचन करते हुए प्रकृति को साथ लेकर परमात्मा तक की यात्रा पर चलते हैं | प्रकृति हमारी मां है, इसमें दो मत नहीं हो सकते | यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम मां के पास रहकर, उनकी उपासना करते हुए वहीं तक सीमित रहेंगे अथवा मां की उपासना करते हुए आगे बढकर पिता तक पहुँचने का प्रयास करेंगे | प्रकृति को जाना जा सकता है क्योंकि हमारी इन्द्रियाँ और यह शरीर सब प्रकृति की देन है | प्रकृति को प्रकृति से ही जाना जा सकता है | प्रकृति ही बताएगी कि हमारे पिता कौन है ? तभी हम परमात्मा को मान पाएंगे |

        हमारी इन्द्रियों में एक इन्द्रिय है – नेत्र | नेत्रों के माध्यम से हम इस संसार को देख पाते हैं | हमें इस देखने की पूरी प्रक्रिया का सूक्ष्मता से अवलोकन करना होगा, तभी हम इस देखने की प्रकृति को जान पाएंगे | नेत्र इन्द्रिय को अध्यात्म कहा जाता है, उसके विषय अर्थात रूप को अधिभूत कहा जाता है और इस नेत्र गोलक में जो सूर्य का अंश स्थित है उसको अधिदैव कहा जाता है | नेत्र इन्द्रिय अध्यात्म है क्योंकि इसके माध्यम से हम दृश्य को देखकर स्वयं के बारे में जान सकते हैं | अधिभूत इस नेत्र का विषय है और इसका विषय है – रूप | रूप अधिभूत इसलिए है कि उत्पन्न होना और नष्ट हो जाना इसका मूलभूत स्वभाव है | सूर्य का अंश नेत्रगोलक में स्थित होकर अधिदैव कहलाता है | सूर्य का अंश है, प्रकाश | प्रकाश की अनुपस्थिति में किसी रूप अर्थात दृश्य का अनुभव नहीं किया जा सकता ।

             इस प्रकार यह स्पष्ट है कि नेत्र इन्द्रिय के माध्यम से हम इसकी प्रकृति को जान सकते हैं | ये तीनों अर्थात नेत्र इन्द्रिय (अध्यात्म), इसका विषय अर्थात रूप (अधिभूत) और सूर्य देव का अंश अर्थात प्रकाश (अधिदैव), ये तीनों परस्पर सापेक्ष (Inter related) है | परन्तु सौरमंडल में स्थित सूर्य इनसे निरपेक्ष है | इसी प्रकार हमारी आत्मा भी इन तीनों का मूल कारण है, इन तीनों का साक्षी है और इन तीनों से परे भी है | आत्मा इन तीनों से निरपेक्ष है | मूल बात यह है कि एक आत्मा ही इन तीनों के मूल में है और वही इन तीनों को प्रकाशित करता है |       

           इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रिय (त्वचा) अध्यात्म है, इसका विषय, स्पर्श अधिभूत है और इसमें उपस्थित वायु का अंश अधिदैव है | श्रवण इन्द्रिय (कान) अध्यात्म है, शब्द विषय अधिभूत है और दिशा इसका अधिदैव है | स्वाद इन्द्रिय (जिह्वा) अध्यात्म है, रस विषय अधिभूत है और वरुण (जल देवता) इसका अधिदैव है | घ्राण इन्द्रिय (नाक) अध्यात्म है, गंध विषय अधिभूत है और अश्विनी कुमार अधिदैव है | ये जो त्रिविध तत्व हैं (अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव) इनका आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है | इन तीनों को जान लेना ही प्रकृति को जान लेना है और जिसके कारण उनके विषय अनुभव में आते हैं वह स्वयं इस प्रकृति से अतीत है, निरपेक्ष है और उसकी शक्ति से ही प्रकृति के माध्यम से इन तीनों का अस्तित्व है | यहाँ तक कि प्रकृति का अस्तित्व भी उसी ‘एक’ के कारण है |

           इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि प्रकृति को जान कर प्रकृति के पीछे की शक्ति को स्वीकार किया जा सकता है | उस शक्ति की स्वीकार्यता ही उस शक्तिमान को मान लेना है | जिसको जाना जाता है, उसके अधिष्ठान को मानना ही पड़ता है | प्रकृति का अधिष्ठान यह परमात्मा ही है | वह असीम है उसके आदि और अंत को जानने में प्रकृति भी सक्षम नहीं है, फिर भला हम उसे कैसे जान सकते हैं ? इसलिए उसको मान लेना ही हमारे लिए उचित है | प्रकृति को जान लेने का प्रयास करना संसार की गतिविधियों का सूक्ष्मता से अध्ययन करना है और प्रकृति से आगे जब जानना असंभव हो जाता है, तब  जाकर भक्ति का पदार्पण होता है | जानने में न आने वाले को मान लेना, परमात्मा के प्रति समर्पण है और उस समर्पण का नाम ही भक्ति है |                

       इस प्रकार अंतर्यामी से सर्वेश्वर तक की यात्रा पूरी हो जाती है | प्रकृति को जान लेने के उपरांत यह अनुभव में आता है कि प्रकृति भी परमात्मा पर आश्रित है | इस प्रकार जितना भी हमें इस शरीर के माध्यम से हमारे अनुभव में आता है, वह सब प्रकृति है और जब इन इन्द्रियों से परे देखेंगे अर्थात अंतर्दृष्टि से देखेंगे तब सबमें और सर्वत्र एक परमात्मा को ही देखेंगे | एक परमात्मा के अलावा अन्य किसी की उपस्थिति का हमें अनुभव तक नहीं होगा | जब सारे दृश्य मिट जाएँ, विषय विषय न रहे, जब प्रकृति का अनुभव होना बंद हो जाये अर्थात प्रकृति के प्रति हम उदासीन और अनासक्त हो जाएँ तब जो एकान्तिक अनुभव होता है उसी को परमात्मा की अनुभूति होना कहते हैं |

             कहा जाता है कि सत्ता कभी दो की नहीं हो सकती | जहां दो की सत्ता होती है, वहां अराजकता पैदा हो जाती है | सत्ता एक की ही होती है और उस एक को पहिचान लेने वाला जीवन ही उद्देश्यपूर्ण जीवन है अन्यथा मनुष्य के अतिरिक्त सभी प्राणी निरुद्देश्य ही अपने जीवन का बोझ उठाए फिर रहे हैं | आहार, निद्रा, भय और मैथुन में रत मनुष्य और अन्य प्राणियों में तब कोई अंतर नहीं रह जाता जब मनुष्य भी उद्देश्यपूर्ण जीवन नहीं जी रहा होता है | मनुष्य को इन चार में उलझकर अपना जीवन बर्बाद नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मानव शरीर बार-बार नहीं मिलेगा | सभी भोग योनियों में घूमकर अंत में यह मानव शरीर मिलेगा तब तक न जाने कितनी शताब्दियाँ बीत जाएगी | इसलिए अपने उद्देश्यपूर्ण जीवन के प्रति सतर्क और सावधान रहें, तभी हम आत्म-बोध को उपलब्ध हो पाएंगे और परमात्मा तक की हमारी यात्रा सम्पन्न हो पायेगी |

             इतने विवेचन के बाद स्पष्ट हो जाता है कि परमात्मा को मान लेना ही इस जीवन में सर्वोत्तम कार्य है | अन्तर्यामी तक पहुँच जाना तो ज्ञान को उपलब्ध हो जाना है ही परन्तु सर्वेश्वर तक की यात्रा ही मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य होना चाहिए | अब प्रश्न उठता है कि अंतर्यामी और सर्वेश्वर में कोई भेद नहीं है, सिवाय शब्दों के तनिक फेर के, तो फिर अंतर्यामी से सर्वेश्वर की यात्रा क्यों आवश्यक है ? नि:संदेह अंतर्यामी और सर्वेश्वर में कोई भेद नहीं है परन्तु केवल इतने में ही संतुष्ट हो जाना मूल से दूर रह जाना ही है |

             अंतर्यामी में आप तो स्वयं वही हो जाते हो परन्तु शेष सृष्टि को किस दृष्टि से देख रहे हो, यह जानना भी महत्वपूर्ण है | केवल आपका परमात्मा हो जाना, आपमें अहंकार का भाव पैदा कर सकता है | हमारे अहंकार के मूल में स्वयं को अन्य सभी से श्रेष्ठ और विशेष होना ही मान लेना है | अंतर्यामी तक पहुँचकर अपने आप को विशिष्ट मान लेने का अर्थ यह है कि सृष्टि के अन्य सभी ज्ञान के क्षेत्र में आपसे निम्न स्तर के हैं | यह सूक्ष्म अहंकार ही आपको कभी भी अपनी स्थिति से नीचे गिरा सकता है | इसलिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि अंतर्यामी तक पहुंचकर भी हम अहंकार से न भर उठें | इसके लिए यह आवश्यक है कि हम अंतर्यामी से आगे बढ़ें और सर्वेश्वर तक जा पहुंचें | सर्वेश्वर तक पहुँच जाने से इस सृष्टि में सब ओर परमात्मा ही नज़र आयेंगे और हम भ्रम में पड़ कर अहंकार ग्रस्त होने से बच सकेंगे | अंतर्यामी तक की यात्रा में यह स्वीकार कर लिया जाता है कि आप स्वयं ही परमात्मा हैं जबकि सर्वेश्वर तक पहंचने के बाद केवल एक परमात्मा ही रह जाते हैं उसके अलावा अन्य कोई नहीं रहता |

               पूर्ण ज्ञान की अवस्था को प्राप्त कर लेने से ही अंतर्यामी से लेकर सर्वेश्वर तक की स्वीकार्यता होती है अन्यथा नहीं | कहने को तो रावण भी बड़ा ज्ञानी था | परन्तु उसी ज्ञान के आधार पर वह स्वयं को भगवान् समझ बैठा था | उसको लगता था कि उसके कारण ही सब जीव जीवन जी रहे हैं और उसके मारने से ही वे मारे जाते हैं | इसी अल्प-ज्ञान के कारण उसको बड़ा अहंकार हो गया था |

           हिरण्यकशिपु के साथ भी यही हुआ था | ज्ञान और बल के क्षेत्र में वह भी किसी से कम नहीं था परन्तु उसी ज्ञान ने उसको अहंकार से भर दिया था | जिसका प्रहलाद जैसा भगवद्भक्त पुत्र हो, उसका अन्त जिस प्रकार हुआ, क्या उस प्रकार किसी का हो सकता है ? हाँ, अंतर्यामी की स्थिति पर ही अटक जाने और सर्वेश्वर तक की अवस्था में न पहुँचने वाले अहंकार से भरे हुए प्रत्येक हिरण्यकश्यप के साथ ऐसा होता आया है और भविष्य में भी ऐसे ही होता रहेगा |

         हिरण्यकशिपु भी तो यही कहता था कि मैं ही भगवान हूँ | मेरे सिवाय किसी की भी पूजा न करो परन्तु जो सर्वेश्वर की अवस्था तक पहुँच चूका हो, वह प्रहलाद भला इस बात को कैसे स्वीकार कर सकता है ? ’मैं ही भगवान् हूँ’ और ‘मैं भी भगवान् हूँ’ दोनों बातों में बड़ा अंतर है | प्रहलाद यही तो कहता था कि सब भगवद्स्वरूप है | ऐसा कहने से उसके पिता भी तो भगवान् हो जाते हैं परन्तु ज्ञान और बल का अहंकार भला स्वयं के अतिरिक्त किसी और के भगवान् होने को स्वीकार कैसे कर सकता है ? ऐसे अहंकारित ज्ञानी का अंत भी वैसे ही होता है, जैसा हिरण्यकशिपु का हुआ था | उसकी ज्योति भले ही भगवान् में लीन हो गई हो परन्तु परमात्मा का प्रेम जो उसके पुत्र प्रहलाद को मिला उससे वह वंचित ही रहा |

               अहंकार मनुष्य की आन्तरिक दृष्टि छीन लेता है फिर उसे स्वयं के सिवाय सभी बौने नज़र आते हैं | हाँ, ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ सत्य है, ‘तत्वमसि’ भी सत्य है परन्तु ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्’ पूर्ण सत्य है |

         जब अहंकार से भरा हिरण्यकश्यप अपने पुत्र को मारने को तत्पर हुआ तब उसने तलवार निकाल कर प्रहलाद से पूछा था कि क्या इस खम्भे में भी तुम्हारा भगवान् है ? प्रहलाद का उत्तर था – ‘पिताजी इस खम्भे में ही क्यों, मुझे तो सर्वत्र परमात्मा ही दिखलाई पड़ रहे हैं | एक परमात्मा के अतिरिक्त यहाँ कोई अन्य है ही नहीं | इस खम्भे में भी, आपमें भी और मुझ में भी, सबमें वह परमात्मा समान रूप से उपस्थित है | खम्भा है ही कहाँ ? यह तो स्वयं परमात्मा ही है |’

        प्रहलाद, एक अल्पवय बालक, जब परमात्मा के बारे में इतनी बड़ी बात कह देता है, इसका अर्थ है कि इस छोटी सी सारगर्भित बात को समझ पाना किसी के लिए भी असंभव नहीं होना चाहिए |  वह बात और है कि इतनी सी बात को हम अपने भीतर गहराई तक ले जाने का तनिक सा भी प्रयास नहीं करते | जब तक ज्ञान अंतस की गहराई में नहीं उतरता तब तक वह अज्ञान ही रहता है | जिस दिन हम अपनी कथनी को करनी में परिवर्तित कर देंगे तब जीवन में धीरे-धीरे प्रत्येक प्रकार के अहंकार से दूर होते चले जायेंगे और जीवन में अंतर्यामी से सर्वेश्वर तक की स्वीकार्यता होती चली जाएगी |

         जब तक स्वयं में और अन्य जीव में, परमात्मा में और संसार में एकत्व के आधार पर भिन्नता बनी रहेगी तब तक यही कहा जायेगा कि हमें ज्ञान नहीं हुआ है | फिर भला सर्वेश्वर की अनुभूति कैसे होगी ? आवश्यकता है कि हम यह जानने का प्रयास करें कि आखिर हम में और अन्य जीव में भिन्नता कहाँ जाकर प्रकट हो रही है ? भिन्नता भौतिक दृष्टि से तो थोड़ी बहुत फिर भी हो सकती है परन्तु मूलतः भिन्नता किसी भी स्तर पर नहीं है | आपस की इस दूरी को मिटा डालने से ही यह भिन्नता समाप्त होगी अन्यथा नहीं |

                प्रत्येक जीव का शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है | मनुष्य में भी कोई छठा तत्व अलग से मिला हुआ नहीं है, जिससे कहा जा सके कि उसका शरीर अन्य जीवों से भिन्न है | सभी जीवों में समान रूप से संसार का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञानेन्द्रियां है और उस ज्ञान के अनुसार स्वतंत्र रूप से कर्म करने के लिए कर्मेन्द्रियाँ भी हैं | सभी जीवों के पास मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार, ये अंतःकरण भी है | मनुष्य और अन्य जीवों में इनकी गुणवत्ता में अंतर अवश्य है परन्तु इनसे विहीन कोई जीव नहीं है | इनकी गुणवत्ता में अंतर तो एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य में भी रहता है | किसी मनुष्य का रंग गोरा है तो कोई काला | किसी की विलक्षण बुद्धि है और कोई मूर्खता के कार्य करता है | गुणवत्ता के आधार पर भिन्न होना ही मनुष्य को अन्य जीवों से भिन्न बनाता है परन्तु तत्वों की दृष्टि से सभी में समान तत्व हैं |

             कहने का अर्थ है कि भौतिक दृष्टि से प्राणियों के शरीर भले ही भिन्न भिन्न नज़र आते हों परन्तु शरीर के बाह्यकरण और अंतःकरण के स्तर पर उनमें कोई भिन्नता नहीं है | आँखों से सभी प्राणी देखते हैं और सभी को स्पर्श का अनुभव समान रूप से होता है | सब प्राणियों में बुद्धि के स्तर पर मुख्य रूप से भिन्नता होती है | प्राणी के बौद्धिक स्तर के अनुसार ही हमारी उनसे व्यवहार करने के स्तर पर भिन्नता रहती है | व्यावहारिक भिन्नता सांसारिक स्तर पर बनाये रखना आवश्यक भी है | व्यावहारिक भिन्नता न रखने से अराजकता की स्थिति कभी भी उत्पन्न हो सकती है | मूर्ख व्यक्ति के साथ उस प्रकार का व्यवहार नहीं किया जा सकता जैसा कि एक ज्ञानी व्यक्ति के साथ किया जाता है | गाय और कुत्ते के साथ किया जाने वाला व्यवहार भी भिन्न होता है | शेर को आप छू नहीं सकते जबकि गाय को सहलाया भी जा सकता है |  

             सभी प्राणी भौतिक रूप से समान होते हुए भी व्यवहार के स्तर पर भिन्न हो जाते हैं | इस भिन्नता का कारण है - उनका स्वभाव | स्वभाव बनता है, जीव के पूर्व मानव जीवन के कर्मों से | परन्तु जो जीव को विभिन्न शरीरों की यात्राऐं करवाता है, वह सभी में समान रूप से उपस्थित है, यह महत्वपूर्ण बात है | इस बात को समझने वाला ही वास्तव में ज्ञानी है | ऐसा व्यक्ति ही अंतर्यामी से होकर सर्वेश्वर तक पहुंचता है | सर्वेश्वर की स्वीकार्यता ही ज्ञानी को भक्त की स्थिति में ला खड़ा करती है | इस अवस्था को जीवन-मुक्त्त अवस्था कहा जाता है | फिर परमात्मा से उसकी दूरी न के बराबर ही रह जाती है | इस दूरी के मिटते ही वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है | यह दूरी भी केवल इस भौतिक शरीर के रहते ही है | इस भौतिक शरीर के नष्ट होते ही वह स्वयं ही परमात्मा हो जाता है |

       परमात्मा से अपनी दूरी को समाप्त करने के लिए ही यह शरीर मिला है और यही इस शरीर का कार्य है तथा इसके मिलने का उद्देश्य भी | अंतर्यामी और सर्वेश्वर तक पहुँचने के लिए मनुष्य शरीर आवश्यक है क्योंकि मनुष्य ही विलक्षण बुद्धि का स्वामी है | परमात्मा से स्वयं की दूरी केवल शरीर के स्तर पर मानी गयी दूरी है, वास्तव में कोई दूरी है ही नहीं | इस बात का अनुभव करने के लिए गीता में मुख्य रूप से तीन मार्ग बतलाये गए हैं | ये मार्ग ‘योग’ कहलाते हैं क्योंकि इन मार्गों के अनुसार चलने से परमात्मा के साथ योग हो जाता है | कर्म, ज्ञान और भक्ति योग, कहने में भले ही ये तीन अलग-अलग प्रतीत होते हों परन्तु वास्तव में ये तीनों एक दूसरे के पूरक हैं |

         कर्म योग में अपनी कामना का त्याग करना पड़ता है अर्थात कामना रहित होना पड़ता है | ज्ञान योग में स्वयं के सच्चिदानंद स्वरुप होने का अनुभव करना होता है | भक्ति-योग में केवल यह मानना होता है कि मैं भगवान् का हूँ | तीनों ही रास्तों से व्यक्ति आत्म-बोध को उपलब्ध हो सकता है | आत्म-बोध को उपलब्ध होते ही परमात्मा से दूरी समाप्त हो जाती है और आप स्वयं ही परमात्मा हो जाते हैं |

          अब प्रश्न उठता है कि किसी भी योग को साधने का उपाय क्या है ? किसी भी योग को साधने का एक ही उपाय है – संसार से माने गए सम्बन्ध को तोड़ लेना | कहने को तो यह एकदम सरल प्रतीत होता है परन्तु इस मरणधर्मा शरीर के रहते ऐसा करना असंभव हो जाता है क्योंकि हमारा संसार के साथ सम्बन्ध इस शरीर के कारण ही तो है | शरीर को केवल आप स्थूल शरीर तक ही सीमित न समझें बल्कि सूक्ष्म शरीर भी साथ में शामिल कर लें | मनुष्य के सूक्ष्म शरीर की संसार के साथ एकता रखने में महत्वपूर्ण भूमिका रहती है |

           स्थूल शरीर से तो मनुष्य केवल सुख-दुःख का अनुभव करता है जबकि सूक्ष्म शरीर ही वास्तव में सुख-दुःख का जनक है क्योंकि सभी कामनाएं इसी शरीर में उत्पन्न होती है | सूक्ष्म शरीर में उत्पन्न होने वाले बहुत से संकल्प-विकल्पों को पूर्णता तक पहुंचाने के लिए आवश्यक कर्म करने में स्थूल शरीर ही मुख्य भूमिका निभाता है | अतः शरीर से तात्पर्य सूक्ष्म और स्थूल शरीर दोनों से ही है | इस प्रकार परमात्मा और हमारे मध्य की जो दूरी है उसको मिटाने के लिए इस शरीर को साधने की आवश्यकता है |

             इस शरीर के रहते संसार से सम्बन्ध विच्छेद करना मुश्किल है क्योंकि स्थूल शरीर तो फिर भी एक दिन मिट जायेगा परन्तु सूक्ष्म शरीर तो कारण शरीर बनकर अनंतकाल तक एक एक कर विभिन्न स्थूल शरीर प्राप्त करता रहेगा | सूक्ष्म शरीर के कारण ही कामनाओं का अंत नहीं आता क्योंकि एक कामना पूरी होती है तो फिर दूसरी कामना मन में जन्म ले लेती है | जब एक-एक कर कामनाएं पूरी होने लगती है तो वे मनुष्य में लोभ और अहंकार को जन्म देने लगती है | यह लोभ फिर नयी-नयी कामनाओं को पैदा करता है | कामनाएं पूरी होने से लोभ के साथ मनुष्य में अहंकार पैदा होता है और इस अहंकार के कारण स्वार्थ की भावना उत्पन्न होने लगती है | अगर कामनाएं पूरी नहीं होती तो मनुष्य क्रोध पैदा होने के कारण अशांत हो जाता है और यह अशांति उसको अनुचित कर्म करने की ओर ले जाती है | इस प्रकार स्पष्ट है कि मनुष्य का मन (सूक्ष्म शरीर) ही परमात्मा से उसकी दूरी का कारण है | इस मन को किस प्रकार समझाएं कि वह संसार में रुचि न लेकर परमात्मा में रुचि लेने लगे |

          सूक्ष्म शरीर में मन के साथ बुद्धि और अहम् भी रहते हैं | जैसा कि पहले स्पष्ट किया जा चूका है कि हम अहम् के दो रूप होने की कल्पना कर सकते हैं – एक रूप जो संसार के साथ जुड़ जाता है, उसके कारण अहंकार पैदा होता है और दूसरा रूप आत्मा (परमात्मा) की ओर रहता है जोकि सुप्त पड़ा रहता है | हमें सर्वप्रथम अपने अहम् को संसार से पूर्ण रूप से अलग करना होगा और इसके लिए हमारी बुद्धि में विवेक का जाग्रत होना आवश्यक है | प्रत्येक मनुष्य की बुद्धि में विवेक सुषुप्त अवस्था में रहता है और परिस्थिति अनुसार समय समय पर वह जाग्रत भी होता रहता है | विवेक की भूमिका ही अहम् को संसार से मुक्त कराने में रहती है |

       सांसारिक अहम् को तुष्टि और पुष्टि सांसारिक कामनाओं के पूरी होने से मिलती है | इस अहम् के कारण ही मनुष्य में ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिए’ की भावना पैदा होती है | व्यक्ति में ‘मैं’ अहंकार का प्रतीक है, ‘मेरा’ संसार में आसक्ति का प्रतीक है और ‘मेरे लिए’ उसकी स्वार्थ भरी भावना से सम्बंधित है | आप चाहे किसी भी योगमार्ग से आत्म-बोध को उपलब्ध होकर परमात्मा से अपनी दूरी मिटायें, इन तीन को मिटाना सबसे पहले आवश्यक है | ‘मेरे लिए’ को मिटाना मुख्य रूप से कर्म-योग है | ‘मेरा’ को मिटाना प्रधानतः ज्ञान योग है और ‘मैं’ को मिटाना ही भक्ति-योग है |

      ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिए’ – इन तीनों में से किसी एक का लोप हो जाने से शेष रहे दो का भी लोप हो जाता है | इस प्रकार कहा जा सकता है कि कर्म, ज्ञान और भक्ति-योग एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे से भिन्न नहीं | किसी एक को साधने से तीनों योग एक साथ ही सध जाते हैं | परमात्मा को न तो सत कहा जा सकता है और न ही असत; कहने का अर्थ है; सत और असत को समान मानकर निस्वार्थ भाव से संसार की सेवा करना | यह कर्म-योग हुआ | परमात्मा सत भी हैं और असत भी हैं, कहने का अर्थ हुआ सब में परमात्मा को देखो | यह ज्ञान योग हुआ | इसी प्रकार परमात्मा सत भी है, असत भी हैं और इन दोनों से परे भी हैं, इसका अर्थ है ‘वासुदेव सर्वम्’ अर्थात एक परमात्मा के अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है | यह भक्ति-योग हुआ | तीनों ही मार्ग उपयुक्त हैं । मनुष्य अपने स्वभावानुसार किसी भी एक मार्ग को मुख्य और सुगम समझकर उस पर गतिमान हो सकता है |

             जिस प्रकार एक व्यक्ति में प्रकृति के तीनों गुण विद्यमान रहते हैं; फिर भी उसमें किसी एक गुण की प्रधानता रहती है उसी प्रकार कर्म, ज्ञान और भक्ति योग के मार्ग अलग अलग भले ही प्रतीत होते हों, तीनों योग के मार्ग पर मनुष्य एक साथ ही चलता है | हाँ, इन तीनों में से कोई एक योग-मार्ग उसके लिए प्रधान अवश्य रहता है |

                               परमात्मा बहुत ही उच्च कोटि के सृजक हैं | सब कुछ करते वही हैं परन्तु प्रत्यक्ष रूप से नहीं बल्कि परोक्ष रूप से | परमात्मा ने स्वयं ही इस प्रकृति का सृजन किया और सब अधिकार प्रकृति को दे दिए | अब प्रकृति की मर्जी, वह उस सृष्टि का कैसे सञ्चालन करे ? मर्जी प्रकृति की चलती अवश्य है परन्तु परमात्मा के बनाये नियमों के अनुसार ही क्योंकि प्रकृति को भी परमात्मा ने नियमों में बाँध कर रखा है | उन्हीं नियमों के अंतर्गत ही प्रकृति अपनी मर्जी चला सकती है, नियमों को ताक पर रखकर नहीं | यह शरीर भी प्रकृति की देन है | इसको भी कुछ नियम मानने पड़ते हैं | इनमें से अगर एक भी नियम का उल्लंघन होता है तो तत्काल ही शरीर भी क्षतिग्रस्त/रोगग्रस्त हो जाता है |  

            परमात्मा कर्ता होते हुए भी अकर्ता है क्योंकि वह कर्मों में आसक्त नहीं है | परमात्मा के इसी भाव को अनासक्त होना कहा जाता है | जबकि मनुष्य इसके ठीक विपरीत आचरण करता है | वह जानता है कि सब कुछ प्रकृति के नियमों के अनुसार ही होता है परन्तु वह उसको स्वयं के द्वारा किया जाना मान लेता है | यही कर्तापन उसमें अभिमान पैदा करता है और अभिमान ही मनुष्य को पतन की ओर धकेलता है |

         प्रश्न उठता है कि मनुष्य कर्ता बनता ही क्यों है ? परमात्मा ने जब प्रकृति का सृजन किया तब उसमें तीन गुण डाल दिए | प्रकृति में जो भी क्रिया होती है, वह इन तीनों गुणों के कारण ही होती है | परमात्मा निर्गुण है अर्थात उनमें कोई गुण नहीं है, इसलिए वे अक्रिय हैं जबकि प्रकृति सगुण है क्योंकि इसमें तीन गुण है; इसलिए वह सक्रिय है | मनुष्य परमात्म-स्वरुप है, इसलिए उसको भी अक्रिय होना चाहिए | परन्तु जब वह अपने आपको शरीर (प्रकृति) मान लेता है तब वह स्वयं में हो रही क्रियाओं को अपने द्वारा होनी मान लेता है | यही कारण है कि वह प्रत्येक क्रिया जोकि उसके शरीर के गुणों द्वारा सम्पन्न होती है, उनको वह स्वयं द्वारा किया जाना मानकर उस कर्म का कर्ता बन बैठता है |

        प्रश्न है कि मनुष्य अपना वास्तविक स्वरुप क्यों भूल जाता है ? प्रकृति के गुण उसको एक प्रकार से शारीरिक और सांसारिक सुख उपलब्ध कराते हैं | गुणों की आपसी क्रियाएं ही ऐसी हैं कि उनका कोई न कोई एक निश्चित परिणाम अवश्य ही होता है | गुण आपस में क्रिया करते रहते हैं और इस प्रकार की क्रियाएं शरीर और प्रकृति में अनादि काल से चली आ रही है और प्रलय पर्यन्त सतत चलती रहेगी | उन्हीं क्रियाओं का परिणाम है कि जिस शिशु का जन्म होता है, वह जीवन की एक-एक कर शरीर की सभी अवस्थाओं से गुजरता है | जन्म, जरा, व्याधि और मरण – जीवन की ये सभी अवस्थाएं भी इन्हीं गुणों की आपसी क्रियाओं का परिणाम है |

              शरीर की मृत्यु हो जाने के उपरांत भी मृत देह में भी गुणों की ये क्रियाएं चलती रहती है | उन्हीं क्रियाओं के परिणाम स्वरुप मृत देह का विखंडन (decomposition) होता है | विखंडित देह पुनः पांच भौतिक तत्वों में परिवर्तित हो जाती है और फिर से एक नए शरीर के सृजन (creation)के लिए तैयार हो जाती है | इस प्रकार प्रकृति का यह चक्र निरंतर चलता रहता है | देह को ही स्वयं होना मान लेना ही अपने स्वरुप से दूर चले जाना है | प्रत्येक मनुष्य अपने जीवनकाल में अनेकों शरीरों को मृत होते देखता है | यहाँ तक कि प्रतिदिन उसका भी शरीर मृत होता जा रहा है, फिर भी वह यह नहीं समझता कि मैं यह शरीर नहीं हूँ । देखा जाए तो उसके इस ‘मैं’ में कोई परिवर्तन नहीं होता है | जिस ‘मैं’ में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा है, वही उसका वास्तविक स्वरुप है | लेकिन यह ‘मैं’ संसार वाला अहम् नहीं है बल्कि संसार से मुक्त हुआ अहम् है |

           इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जो मनुष्य जीवन में मृत्यु को सदैव स्मृति में बनाये रखता है वह कभी भी प्रकृति की क्रियाओं में उलझकर न तो कर्ता बनता है, न भोक्ता बनता है और न ही कभी अपने स्वरुप को भूलता है | स्वयं के स्वरुप को भूलने का महत्वपूर्ण कारण है – प्रकृति का सुख लेना | प्रकृति के सुख लेने को ही संयोगजन्य सुख लेना कहा जाता है |प्रकृति ही अपने गुणों के माध्यम से हमारा विभिन्न शरीरों और पदार्थों के साथ साथ विषयों  से संयोग कराती है जोकि हमारे सुख-दुःख का कारण बनते हैं। सुख के दिनों में मनुष्य सब कुछ भूल जाता है, यहाँ तक कि अपने आप को भी | जो क्रियाएं हमें सुख देती है, उसका रस लेने से हम स्वयं को रोक नहीं पाते क्योंकि रस लेना भी एक प्रकार की प्राकृतिक गुणों की क्रिया ही है | जीभ पर मिश्री रखेंगे तो वहां पर मिश्री नाम के पदार्थ के गुण जीभ के गुणों के साथ क्रिया कर उसका स्वाद बतलाएंगे ही | इस प्रकार यह एक सामान्य प्रक्रिया है | इस क्रिया से जिस प्रकार का रस हमें अनुभव में आता है, उस रस के प्रति आसक्ति का भाव ही हमें प्रकृति के साथ बांधता है ।

             इस प्रकार प्रकृति के साथ यह बंधन न तो प्रकृति करती है जोकि सक्रिय है और न ही परमात्मा जोकि अक्रिय हैं, बल्कि हम स्वयं प्रकृति के आकर्षण से भ्रमित होकर प्रकृति में  आसक्त हो जाते हैं। इसी आकर्षण के वशीभूत होकर हम स्वयं को भूलकर अपना संबंध प्रकृति के साथ होना मान बैठते हैं | इस बंधन के कारण ही मनुष्य एक दिन छटपटाने लगता है और चिल्लाने लग जाता है कि कोई आकर उसे इस बंधन से मुक्त करे | जो बंधा है वही उस बंधन से मुक्त हो सकता है, क्योंकि एकमात्र वही है जो इस बंधन का कारण जानता है | कोई दूसरा आकर उसे मुक्त नहीं कर सकता | देखा जाये तो प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध मान लेने से पहले मनुष्य मुक्त ही तो था, बंधन तो उसने स्वयं ने ही अपनी इच्छा से स्वीकार किया है | मुक्त तो हम सदैव से है । हमारी आसक्ति ने इस बंधन को स्वीकार किया है | जिस दिन हम अनासक्त होकर प्रकृति के गुणों की सभी क्रियाओं को सहज भाव से स्वीकार करने लगेंगे उस दिन हमें स्वयं के मुक्त होने का अनुभव हो जायेगा |

        स्मरण रहे, परमात्मा से मनुष्य होने तक की यात्रा में परमात्मा कभी अलग नहीं हुए हैं और न ही कहीं कम और कहीं अधिक ही हैं | ‘समं सर्वेषु भूतेषु तिष्टन्तं परमेश्वरम्’ (गीता -13/27)का अर्थ भी यही है कि समान रूप से परमात्मा सभी में और सर्वत्र उपस्थित हैं | हमें इस बात की विस्मृति संसार के साथ बंध जाने से हुई है | यह बंधन हमारा ही स्वीकार किया हुआ है और हम ही इस बंधन से बाहर निकलकर मुक्ति को पुनः अनुभव कर सकते हैं |

               अब इस विषय के सम्बन्ध में मुख्य प्रश्न हमारे सामने आता है कि हम इस प्रकृति के साथ माने गए बंधन से बाहर कैसे निकालें, कैसे हम इस बंधन को तोड़ सकते हैं, जिससे हमें स्वयं के मुक्त होने का अनुभव हो ? इसी बात पर हम चर्चा को आगे बढ़ाते हैं |

            संसार में भौतिक रूप से दो रचनाएँ एक समान न होते हुए भी आंतरिक रूप से सभी एक समान हैं | इस बात को समझने वाला ही उस ‘एक’ के साथ योग कर सकता है अन्यथा भौतिकता की चकाचौंध में उलझकर इस सृष्टि के वर्तुल (circle) में कोल्हू के बैल की तरह घूमता रहेगा | प्रायः लोग ग्रहों की स्थिति देखकर उस तिथि के बारे में घोषणा कर देते हैं कि इतने वर्ष पहले ऐसा ही योग पड़ा था | नहीं, परमात्मा ने जब समय के दो पल तक एक समान बनाये ही नहीं है, ऐसे में कई वर्ष पूर्व की ग्रह-स्थिति की पुनरावृति भला कैसे हो सकती है ? आपको मेरा यह कथन असत्य लग सकता है परन्तु गंभीरता से अवलोकन करेंगे तो पाएंगे कि मैं सत्य कह रहा हूँ |

            भौतिक रूप से सब कुछ असमान होते हुए भी सब रचनाओं में एक समानता अवश्य है परन्तु उस समानता को देखने के लिए हमें दूसरी प्रकार की दृष्टि चाहिए | वह दृष्टि परमात्मा की कृपा से और गुरु के माध्यम से मिलती है | उस दृष्टि के मिलते ही भौतिक रूप से असमान प्रतीत हो रही सभी रचनाएँ भी एक समान हो जाती है | आपकी वह दृष्टि प्रकृति का भी अतिक्रमण कर परमात्मा तक पहुंच जाती है | अंततः सब रचनाओं में केवल वही ‘एक’ दिखलाई पड़ने लगेगा |

          वास्तव में देखा जाये तो उसको ‘एक’ कहना भी अनुचित जान पड़ता है | ‘एक’ कहने से अर्थ है कि फिर कहीं न कहीं कोई दूसरा भी  उपस्थित है | सत्य है कि जब केवल एक ही बचता है,  वह तब तक ‘एक’ ही कहा जायेगा जब तक कि उस ‘एक’ को एक कहने वाला कोई दूसरा मौजूद हो | अंततः कहने वाला भी जब मौन हो जाता है तब वह ‘एक’ भी नहीं रहता | इसका अर्थ है कि कहने वाला भी  उस एक में ही समाहित है | फिर उसके बारे में किसी भी प्रकार का वर्णन नहीं किया जा सकेगा | जब तक देह है, तब तक प्रकृति और परमात्मा दोनों रहेंगे, जब देह होते हुए भी देह नहीं रहेगी तब केवल वही एक शेष बचेगा दूसरा कोई नहीं | फिर प्रकृति भी परमात्मा हो जाती है |

                मनुष्य जीवन की यात्रा वास्तव में देखा जाए तो प्रकृति को परमात्मा से मिलाने की यात्रा है, उन दोनों के एक हो जाने की यात्रा है | संसार में बहुत से रूप और नाम देखने को मिलते हैं | सभी के आकार और नाम भिन्न भिन्न हैं | सब कुछ आपस में भिन्न होते हुए भी उनमें कोई एक समानता रहती अवश्य है और वही समानता प्रकृति और परमात्मा के अंतर को समाप्त करती है | प्रकृति और परमात्मा तब तक ही दो प्रतीत हो रहे हैं, जब तक सांसारिक दृष्टि से हम इन्हें देखते हैं | आध्यात्मिक दृष्टि से देखेंगे तो ये दो हैं ही नहीं, केवल एक परमात्मा ही हैं |

           परमात्मा ने संसार बनाया नहीं है बल्कि स्वयं परमात्मा ही संसार के रूप में अवतरित हुए हैं | जैसे घर बनाने के लिए हमें मिट्टी, सीमेंट, पत्थर आदि इकठ्ठे करने पड़ते हैं, तब जाकर हमसे एक मकान का निर्माण होता है, वैसे परमात्मा ने नहीं किया है | मकान के निर्माण के लिए हमने इन साधनों को स्वयं के बाहर से एकत्रित किया है, इसलिए हम और मकान दो हुए | परन्तु परमात्मा ने प्रकृति के सृजन के लिए स्वयं से बाहर जाकर कुछ भी नहीं लिया क्योंकि उनसे बाहर कुछ नहीं है।इस प्रकार उन्होंने स्वयं के बाहर जाकर कुछ नहीं किया, बल्कि स्वयं ही प्रकृति के रूप में परिवर्तित होकर अवतरित हुआ है | ऐसे में भला प्रकृति और परमात्मा दो कैसे हुए ? वे दोनों दो न होकर एक ही तो हैं |

              इस बात को स्वीकार करने के लिए अपने शरीर का ही उदाहरण लें | हमारी दो आँखें है, दो हाथ हैं, दो पैर हैं | इस प्रकार हमारे शरीर के बहुत से अंग है | क्या ये सभी अंग हमसे अलग हैं ? नहीं है | हाथ अगर शरीर से अलग भी कर दिया जाये तो हम यही कहेंगे कि यह मेरा हाथ है | इसी प्रकार परमात्मा से प्रकृति और जगत, यहाँ तक कि हमारा शरीर भी उस परमात्मा से अलग नहीं हैं | हमारे में और परमात्मा में रत्ती भर भी अंतर नहीं है |

            सभी प्राणियों के शरीर असमान प्रतीत होते हुए भी आधारभूत परमात्मा के कारण समान ही है | हमारी दृष्टि ने इनको भिन्न मान लिया है वास्तव में भिन्नता किसी भी स्तर पर है नहीं | एक कोशिकीय जीव अमीबा भी केवल एक ज्ञानेन्द्रिय होते हुए भी पांचों ज्ञानेन्द्रियो का रस इस एक से ही ग्रहण कर लेता है | कोई कर्मेन्द्रिय न होते हुए भी वह सब कुछ उस एक इन्द्रिय से ही कर लेता है, यहाँ तक कि प्रजनन भी | प्राणियों की सर्वोच्च श्रेणी में मनुष्य आता है | वह अपनी इन्द्रियों से जो जो कार्य करता है, अर्थात रस लेता, करता अथवा चिंतन करता है वैसे ही अन्य सभी प्राणी भी करते हैं | इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शरीरों में भिन्नता होते हुए भी सभी जीव एक समान हैं |

               असमानता के बाद भी सभी में समानता जिसके कारण है, उसी को परमात्मा कहते हैं | परमात्मा सभी जीवों में समान रूप से व्याप्त हैं | इसका अर्थ यह नहीं है कि शरीर के भीतर कोई एक भाग बना हुआ है, जिसमें परमात्मा निवास करते हैं | शरीर के प्रत्येक रोम रोम में वह उपस्थित है | प्रत्येक कोशिका के प्रत्येक भाग में वह समान रूप से व्याप्त है | चेतन चर-अचर प्राणियों के रोम रोम से लेकर अचेतन के कण कण में वह समान रूप से व्याप्त है | यहाँ तक कि सूई की नोंक जितना स्थान भी उस परमात्मा से रहित नहीं है | गीता में ‘वासुदेव सर्वम्’ जो कहा गया है, उसका एक ही अर्थ है कि परमात्मा सर्वत्र व्याप्त हैं |

         ‘वासुदेव सर्वम्’ भी तभी तक कहा जाता है जब तक हमें अपनी दृष्टि से भौतिक संसार दिखलाई पड़ रहा है | जब यह दृष्टि भी व्यापक और दिव्य हो जाती है तो ‘सर्वम्’ का भी सर्वथा लोप हो जाता है और केवल एक ‘वासुदेव’ ही रह जाते हैं | परन्तु ऐसा होना इस शरीर के रहते असंभव सा  लगता है; इसलिए सर्वत्र परमात्मा है, इसी बात को स्वीकार कर लिया जाता है | इस मरणधर्मा शरीर में जो मनुष्य समान रूप से व्याप्त अविनाशी परमात्मा को ही देखता है वास्तव में वही व्यक्ति सही देखता है |

            जिस दृष्टि से प्राणियों के नाशवान शरीर में अविनाशी परमात्मा को देखा जा सके, वह दृष्टि हमें कैसे मिल सकती है ? पूर्व में जैसे बताया गया है कि इसके लिए परमात्मा की कृपा और गुरु का सान्निध्य मिलना आवश्यक है | सांसारिक बुद्धि में विवेक के उपस्थित होते हुए भी वह जाग्रत अवस्था में नहीं होता है | परमात्मा की कृपा से योग्य गुरु और शास्त्र इस दिशा में हमारा मार्गदर्शन करते हैं | विवेक का सदुपयोग कर हम उस दृष्टि को प्राप्त कर सकते हैं जिससे एक परमात्मा के अतिरिक्त कोई अन्य दिखलाई ही न पड़े |

            विभिन्नता और विषमताओं से भरे संसार से निकलकर हमें सर्वत्र समान रूप से व्याप्त उस परमात्मा की ओर चलना है जहाँ पहुंचकर विषमताओं की अशांति समानता की शांति में परिवर्तित हो जाती है | हमें अपने उस मूल स्वरुप को पाना है, जिसको हमने खोया नहीं है बल्कि विस्मृत किया है |

         सांसारिक दृष्टि से केवल ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिए” ही दिखलाई पड़ता है | विवेक सर्वप्रथम ‘मेरे लिए’ को तोड़ता है | ‘मेरे लिए’ मानना स्वार्थ बुद्धि है, यह वस्तु और व्यक्ति के प्रति आपका राग है | इस राग के कारण ही मनष्य बंधन में पड़ता है | इस राग के टूटते ही व्यक्ति परमात्मा को अपने निकट अनुभव करता है | ‘मेरे लिए’ का विसर्जन होते ही मनुष्य में स्वार्थ भाव समाप्त होकर निष्कामता का जन्म होता है | गीता में इसी को ‘कर्म-योग’ कहा गया है | इस अवस्था में मनुष्य को ‘शांत-रस’ उपलब्ध होता है |

           विवेक का दूसरा प्रहार ‘मेरा’ पर होता है, जिसके टूटते ही हमारी दृष्टि में सभी प्राणी स्वयं के समान ही हो जाते हैं | इस अवस्था में मनुष्य पहले तो परमात्मा को स्वयं में और फिर स्वयं को सभी में देखता है और अंत में सब में परमात्मा को अनुभव करता है | जब कोई दूसरा है ही नहीं, फिर किसमें तो राग हो और किससे द्वेष ? इसे गीता में ‘ज्ञान-योग’ कहा गया है | इस स्थिति में आकर व्यक्ति ‘अखंड-रस’ को प्राप्त करता है |

       विवेक का अंतिम प्रहार होता है, ‘मैं’ पर | इस ‘मैं’ का टूटना बड़ा ही कठिन है क्योंकि शरीर के रहते देहाभिमान का चले जाना दूर की कौड़ी होता है | ‘मैं’ के समाप्त होते ही सर्वत्र एक परमात्मा ही दिखलाई पड़ने लगते हैं – प्रत्येक मन से लेकर प्रत्येक कण-कण तक में | सबको समान समझकर प्रेम करना ही इस सर्वोच्च स्थिति तक मनुष्य को ले जा सकता है | यह प्रेम की उच्च अवस्था है, यही भक्ति है | इस अवस्था में मनुष्य ‘अनन्त-रस’ को उपलब्ध हो जाता है ।

          इस विवेचन का अर्थ यह न लें कि पहले ‘मेरे लिए’ का विसर्जन करना है और फिर एक-एक कर ‘मेरा’ और ‘मैं’ का | जिस दिन हम इन तीनों में से किसी एक का भी विसर्जन करने के लिए आतुर हो जायेंगे फिर इन तीनों का विसर्जन धीरे धीरे स्वतः ही हो जायेगा |ये तीन केवल विवेचन के लिए है परन्तु जिस दिन इनमें से किसी एक को भी हम विसर्जित कर देंगे, उसी दिन आत्म-बोध को उपलब्ध हो जायेंगे | यही कारण है कि गीता में भगवान् ने मुख्य रूप से तीन योग भले ही कहे हों अंततः वे सभी योग परमात्मा में आकर ही विलीन हो जाते हैं |

            हमारी संकुचित दृष्टि को विस्तार देना ही संसार से निकलकर परमात्मा तक पहुंचना है | प्रकृति को दोष देना अनुचित है | प्रकृति को परमात्मा ने अपने आनंद के लिए स्वयं में ही  सृजत किया है | जहाँ हम इन दोनों को भिन्न होना मान लेते हैं तभी हमें परमात्मा नीरस और प्रकृति सरस प्रतीत होने लगती है | परन्तु उस प्रकृति के सृजन का आनंद हम तभी ले पाएंगे जब हम इसे केवल सुख प्राप्त करने का एक साधन नहीं समझेंगे | केवल एक रस और उस एक रस के प्रति हमारी आसक्ति हमें उस रस के साथ चिपका देती है | फिर हमारे अथक प्रयास से भी वह आसक्ति हमें उस रस से मुक्त नहीं होने देती जबकि स्वरुप से हम मुक्त हैं | हमें आसक्त होकर किसी भी रस के बंधन में नहीं पड़ना है | बंधन ही हमें अपने स्वरुप से दूर कर देता है | स्वरुप की स्मृति पुनः प्राप्त करने के लिए हमें फिर कई पापड़ बेलने पड़ते हैं |

         इस संसार में हमें मानव शरीर अपने स्वरुप तक पहुँचने के लिए ही मिला है, केवल इन्द्रिय भोगों में डूबने के लिए नहीं | संसार में असंख्य आकर्षण भरे पड़े हैं परन्तु हमें उनमें आकर्षित होकर बंधना नहीं है | इस प्रकृति के गुणों से मिलने वाले सुख-दुःख दोनों का ही आनंद लीजिये | जिस दिन केवल सुख को चाहेंगे और दुःख को दूर से ही नमस्कार करेंगे उस दिन इस प्रकृति के साथ बन्ध कर संसार में लिप्त हो जायेंगे |

           संसार में लिप्त न होने के लिए हमें सर्वत्र समान रूप और समभाव से व्याप्त एक परमात्मा को ही देखना चाहिए फिर संसार हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएगा | यह संसार परमात्मा की ही माया है और माया से मुक्त वही हो सकता है जो इसमें सदैव मायापति को ही देखता है | सर्वत्र मायापति को देखने से हमारे लिए माया केवल खेल बन कर रह जाती है, फिर वह हमें विचलित नहीं कर सकती | यह संसार हमें सुहावना तब तक ही प्रतीत होता है जब तक हम उससे सुख लेने की अपेक्षा से बन्धे हुए हैं | अपेक्षाएं समाप्त हुई नहीं कि माया भी विलीन हो जाती है | मृग मरीचिका माया ही है परन्तु केवल प्यासे के लिए | प्यास बुझाने की आशा सूर्य की तेज धूप को भी कहीं दूर जल होने का आभास करा देती है |

           संसार से अनुराग करना मोह है | इसलिए संसार से राग न रखें | प्रेम और मोह में अंतर जिस दिन हम समझ लेंगे तब संसार में राग रखने को प्रेम न कहकर मोह कहेंगे | प्रेम तो कोई बैरागी ही कर सकता है | संसार से वैराग्य का अर्थ है - परमात्मा से प्रेम | संसार में परमात्मा को समान रूप से सर्वत्र व्याप्त देखेंगे तथा परमात्मा में समस्त संसार को व्याप्त देखेंगे, फिर जो संसार से प्रेम होगा वह भी परमात्मा से प्रेम होना कहलाएगा | संसार में आसक्ति रखना अनुराग है और संसार से अनासक्त हो जाना वैराग्य है |

          संसार में मोह रखना अज्ञान है और परमात्मा से प्रेम करना ज्ञान है | जिस दिन हमें यह ज्ञान हो जायेगा कि सब कुछ परमात्मा ही है, फिर मोह का स्थान ज्ञान ले लेगा | गीता में भगवान् श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं –

       ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति |

       समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||18/54||

   वह ब्रह्मरूप बना हुआ, प्रसन्न मन वाला साधक न तो किसी के लिए शोक करता है और न ही किसी की इच्छा करता है | ऐसा सम्पूर्ण प्राणियों में समभाव वाला साधक मेरी पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है |

             व्यक्ति जब साधक की उच्च अवस्था को उपलब्ध हो जाता है तब उसके और परमात्मा के मध्य केवल शरीर भर की दूरी रह जाती है और इस दूरी के रहने का कारण है कि इस शरीर से जो कुछ भी पूर्व मानव जीवन में चाहा गया है, उसको अभी तक पाना शेष रहा है | उस भोग के भोगने जितने समय तक ही उस परमात्मा से दूरी है | शरीर के गिरते ही वह दूरी भी समाप्त हो जाती है | प्रायः लोग योग के मार्ग पर चलने वालों के शारीरिक कष्ट को देखकर अलग अलग राय रखते और व्यक्त करते हैं | याद रखें, पूर्व के किसी भी मानव जीवन में आपने जो कुछ भी चाहा है और उस चाहे गए को प्राप्त करने के लिए जैसे भी कर्म किये हैं, उनका परिणाम आपको इस जीवन में मिलकर ही रहेगा, यह शाश्वत नियम है | इस नियम से संत भी अलग नहीं है, क्योंकि आखिर वे भी हैं तो मनुष्य ही परन्तु ध्यान रहे, वे कभी भी विपरीत परिस्थिति में विचलित नहीं होते |  

             जीवन में शोक और कामना, ये दो ही मनुष्य को अशांत करती है | शोक, उसका- जो जिन्दगी में चाहा और जिसको चाहा गया , वह मिला नहीं | शोक के मूल में कामना ही है | जिस दिन जीवन में कामना समाप्त हो जाएगी, शांति तत्काल ही उपलब्ध हो जाएगी | कामना समाप्त होने से अर्थ कामना पूरी होना नहीं है बल्कि मन में कामना का जन्म न लेने से है | कामना किसी की भी और कभी भी पूरी नहीं हो पायी है क्योंकि कामनाओं का कभी अंत आता ही नहीं है | एक कामना पूरी होने को होती है कि उससे पहले ही मन में दूसरी कामना का अंकुर फूटने लगता है |

            जीवन में ‘मेरा’ और ‘मेरे लिए’ में जब भी बाधा उत्पन्न होती है, तब मन बड़ा क्षुब्ध हो जाता है | दुखी मन से हमारे ‘मैं’ को बड़ी ठेस लगती है | ‘मैं’ का अर्थ है, अहंकार | अहंकार के कारण ही मनुष्य जीवन में सुखी-दुखी होता रहता है क्योंकि जिसका ‘मैं’ जितना बड़ा होता है उसका ‘मेरा’ और ‘मेरे लिए’ भी उतना ही विस्तृत हो जाता है | हमारा स्वरुप ‘मैं’ विहीन है | ‘मैं’ है तब तक अहम् संसार के साथ बंधा है | अहम् को संसार से मुक्त करते ही ‘मैं’ भी गिर जाता है फिर जो शेष रहता है, वह हमारा स्वरुप है | अहम् खंडित नहीं है, अहम् तो एक ही है | जब वह जगत के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है तब मूल अहम् (स्वरुप) को भूल जाता है | संसार से सम्बन्ध विच्छेद होते ही अहम् भी अपने मूल स्वरुप को प्राप्त कर लेता है |

            सत्ता कभी भी दो नहीं होती | अहम् जब संसार से योग कर लेता है तब वह उसी को सत्तावान समझ बैठता है | वह भूल जाता है कि दिखलाई पड़ने वाली संसार की सत्ता तभी तक है जब तक वह (संसार) स्वयं किसी सत्तावान पर आश्रित है |

           अहम् के संसार से दूर होते ही वह अपने मूल स्वरुप को प्राप्त कर लेता है | जैसा कि मैंने कहा है कि सत्ता सिर्फ एक की रहती है और जो सत्तावान का स्वरुप है, वही हमारा स्वरुप है | इससे सिद्ध होता है कि सत्तावान और हमारे में कोई अंतर नहीं है | इस प्रकार यदि हम प्रकृति के पीछे की सत्ता को देखें तो हमें एक वही सत्तावान नज़र आएगा | मूल बात यह है कि सर्वत्र सत्ता केवल उसी की है, जिसे परमात्मा कहा जाता है | जो कुछ भी हमारी दृष्टि से देखने में आता है अथवा हमारी दृष्टि से परे है, सबमें समान रूप से एक परमात्मा ही व्याप्त है |

               परमात्मा, जिसके आदि और अन्त का हम पता नहीं लगा सकते क्योंकि वह अनादि है, अनन्त है; सृष्टि में समभाव से उसकी उपस्थिति को हमें अनुभव करना है | जिसको इस बात का अनुभव हो जाता है वह परमात्मा की पराभक्ति को प्राप्त हो जाता है | फिर वह सदैव प्रसन्न रहता है, न तो किसी से अपेक्षा करता है और न ही उसको कभी कोई शोक होता है | भक्ति की पराकाष्ठा ही पराभक्ति कहलाती है | पराभक्ति का अर्थ है, आपका शरीर सहित परमात्मा से योग हो जाना | फिर शरीर के समाप्त होने तक ही आप भक्त रहते हैं, शरीर के छूटते ही आप स्वयं ही परमात्मा हो जाते हैं |

               क्यों आवश्यक है – परमात्मा को सभी प्राणियों में समभाव से स्थित देखना ?क्योंकि मनुष्य के अहम् को संसार से मुक्त करने के लिए ऐसा देखना आवश्यक है, परन्तु ऐसा देखना किसी प्रकार की जोर जबरदस्ती से नहीं हो सकता | इसके लिए सतत सत्संग और गुरु के सानिध्य की आवश्यकता होती है | ये तभी उपलब्ध होते हैं जब परमात्मा के प्रति  हमारी पूर्ण श्रद्धा हो और साथ ही पूर्ण विश्वास भी हो |

              परमात्मा के प्रति श्रद्धा और विश्वास को दृढ़ता मिलती है सत्संग से | कुसंग व्यक्ति के विवेक को जाग्रत नहीं होने देता और परमात्मा से वह सदैव विमुख ही बना रहता है | सत्संग भी हरि-कृपा से मिलता है | सत्संग आपको आदर्श गुरु के दर तक ले जाता है | गुरु के प्रति उतनी ही श्रद्धा होनी चाहिए जितनी परमात्मा के प्रति होती है क्योंकि परमात्मा के द्वार की कुंजी गुरु के पास ही रहती है | हम शास्त्र पढकर ज्ञानी तो हो सकते हैं परन्तु उस ज्ञान का सदुपयोग नहीं कर सकते | ज्ञान के सफल क्रियान्वन के लिए गुरु ही हमें मार्गदर्शन देता है |

             गुरु के निर्देशन में आप उस भाव को प्राप्त हो जाते हैं, जिसके कारण आपको जगत में केवल और केवल एक परमात्मा की अनुभूति होने लगती है | इस अनुभूति से आपकी दृष्टि में अपने और और पराए का भेद मिट जाता है | इस भेद के समाप्त होते ही सारे राग-द्वेष आदि समाप्त हो जाते हैं | काम, क्रोध, मद, लोभ, राग और द्वेष नामक जो षट्विकार हैं, वे अहम्  में पैदा होते हैं और तभी तक माने जाते हैं, जब तक संसार के साथ हमने अपना सम्बन्ध मान रखा है |

         वास्तव में देखा जाये तो हम संसार के साथ किसी भी प्रकार से सम्बंधित नहीं है | केवल छद्म सुख मिलने की सम्भावना के आधार पर हम इस संसार को अपना मान बैठे हैं | वास्तविक सुख संसार से कभी मिल नहीं सकता | संसार के साथ मान लिए इस सम्बन्ध के कारण ही हम सुखी दुखी होते रहते हैं और समस्त विकारों को अपने में होना मान लेते हैं | वास्तव में हम विकार रहित ही हैं | हमें विकार रहित होना नहीं है और न ही विकार रहित होने के लिए किसी प्रकार का कोई प्रयास करना है | हमें केवल संसार के साथ माने गए सम्बन्ध का त्याग करना है |

            संसार के साथ सम्बन्ध रखने से ही राग-द्वेष पैदा होते हैं | राग-द्वेष का जनक काम है | हमारी कामना पूरी होती है तो राग पैदा होता है और कामना किसी कारण से पूरी नहीं हो पाती तो उन कारणों के प्रति द्वेष पैदा होता है | काम और राग द्वेष के मध्य जो तीन विकार हैं, वे क्रोध, लोभ और मद है | मद अर्थात अहंकार, जो हमारे संसार के साथ बने सम्बन्ध को पुष्ट करता है | क्रोध काम की पूर्ति में बाधा लगने से उत्पन्न होता है और कामना पूरी होने के कारण नई और अधिक चाह का जन्म लेना ही लोभ है |

               अंततः कामना ही मूल कारण बनती है, स्वरुप को विस्मृत करने में | इसके लिए हमें संसार से दृष्टि हटानी होगी | संसार से जीवन में कभी भी कोई मनुष्य संतुष्ट नहीं हुआ है | जीवन में जो मिला है उसमें संतोष कर लेना नई कामनाओं को पैदा होने से रोकता है | इसलिए सबसे आवश्यक है- संतुष्टिपूर्ण जीवन | संतोष कर लेना एक साधारण बात है | जीवन में जो मिला है, वह परमात्मा का प्रसाद है और जो नहीं मिला है वह हमारे जीवन के लिए आवश्यक नहीं है – ऐसा मानना ही हमें संसार से मुक्त करता है |

          जीवन में संतोष का भाव तभी आएगा जब नई नई कामनाओं के जन्म लेने पर अंकुश लगे | इसके लिए हमें अपने अहंकार को समाप्त करना होगा | कामना की पूर्ति ही अहंकार को जन्म देती है | कामनाएं मन में तभी नहीं उठेगी जब हम जीवन के इस सत्य को समझ लेंगे कि जो कुछ भी इस जीवन में मिलता है, वह हमारे पूर्व मानव जीवन के कर्मों का प्रारब्ध है | उस प्रारब्ध से अधिक अथवा कम हम प्राप्त नहीं कर सकते | यह विचार आते ही मन में संतुष्टि के भाव प्रकट होने लगते हैं | संतोष ही हमें जीवन में वास्तविक सुख देता है | संतोष के धारण करते ही फिर मन में नई कामनाओं का जन्म लेना असंभव हो जाता है |

          प्रारब्ध पर विश्वास रखना भी ज्ञान है । यह ज्ञान हमें सकाम कर्म की ओर नहीं ले जा सकता | जीवन है तब तक शरीर भी है | जीवन में इस शरीर से कर्म भी होंगे | संतोषी जीव अपने लिए कोई कर्म नहीं करता क्योंकि वह प्रारब्ध पर विश्वास करता है | ऐसे में उससे जो भी कर्म होंगे वे सभी निष्काम कर्म और दूसरों की भलाई के लिए ही होंगे | ज्ञान हो जाना, इससे ही सिद्ध होता है कि मनुष्य सभी प्राणियों में स्वयं को देखने लगता है | फिर वह स्वार्थवश कोई कर्म नहीं कर सकता |

         परमात्मा को समभाव से सभी प्राणियों में देखने का अर्थ हुआ कि न तो कोई अपना है और न ही कोई पराया | ऐसे जीवन में स्वार्थ का कोई स्थान नहीं रहता है | सभी से प्रेम और सभी का हित करना ही इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य बन जाता है | इस अवस्था तक मनुष्य के जीवन को ले जाना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए, तभी हमें परमात्मा की भक्ति प्राप्त हो सकती है |

                    जितना अभी तक विवेचन हुआ है, उसमें मुख्य बात निकल कर आती है, वह है- सांसारिक अहम् का सक्रिय होना | इस अहम् को संसार से मुक्त कर परमात्मा की तरफ उन्मुख करना ही जीवन का उद्देश्य है | अहम् संसार के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है, तब वह अपने मूल स्रोत से भटक जाता है, यह बात शतप्रतिशत सत्य है | परन्तु मुख्य प्रश्न अभी भी हमारे समक्ष मुंह बाए खड़ा है कि संसार से तादात्म्य से इस अहम् को मुक्त कैसे करें ? अहम् जो इस संसार में रच-बस चूका है, उसके पीछे का कारण हमें जानना होगा |

            संसार का संग अहम् इसलिए कर लेता है क्योंकि वह विषयों और इन्द्रियों के संयोग से मिलने वाले सुख से प्रभावित हो जाता है और यह मानने लगता है कि जो सुख है वह इस संसार में ही है | इसको संसार से मुक्त करने के लिए हमारे समक्ष दो उपाय हैं, जिसके अनुसार आचरण करें तो अहम् सुगमता से इस संसार से मुक्त हो सकता है | प्रथम उपाय – विषय और इन्द्रियों का संयोग ही न होने दें | संसार में विषय-रस बिखरे पड़े हैं और वे शरीर की इन्द्रियों के साथ संयोग करने के लिए सदैव आतुर रहते हैं | हमें विषय-रस के प्रति सचेत रहना होगा जिससे वे हमारी इन्द्रियों के साथ संपर्क तक नहीं कर सके | इस उपाय का पालन करना बड़ा ही कठिन है क्योंकि प्रकृति ने हमारे शरीर और विषय-रस की रचना ही इस प्रकार की है कि न चाहते हुए भी कभी न कभी हम उनके संपर्क में आ ही जाते हैं | इसीलिए मैंने विषय-रस और इन्द्रियों के संयोग की अवस्था में सावचेत रहने का कहा है ।

            अहम् को संसार से मुक्त करने का दूसरा उपाय है – मन पर नियंत्रण करना | मन पर नियंत्रण करने से हम उन विषयों और इन्द्रियों के संयोग से मिलने वाले रस के प्रति आसक्त नहीं होंगे | आसक्ति के कारण ही जीवन में हम उसी रस के बार-बार मिलने की कामना करते हैं | इन कामनाओं के कारण सदैव असंतुष्ट ही बने रहते हैं | असंतुष्ट व्यक्ति कभी शांति को उपलब्ध नहीं हो सकता | इसके लिए हमें जो भी विषय-रस इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त होते हैं, उनसे सुख नहीं लेना है |

         प्रत्येक विषय-रस एक प्रकार का छद्म सुख देने वाला होता है | इस इन्द्रिय रस की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि प्रायः ये सभी रस पहले तो सुख देने वाले होते हैं परन्तु अंत में सभी दुखदायी सिद्ध होते हैं | इसलिए जो भी भोग हमें इन्द्रियों और विषयों के संयोग से मिलते हैं, उनको त्यागपूर्वक भोगना चाहिए | त्यागपूर्वक भोगने का अर्थ है उनको अनासक्त होकर भोगना | जब अनासक्त होकर भोगते हैं तो फिर दुःख मिलने की कोई सम्भावना नहीं रहती | हमारे जीवन में दुःख का सबसे बड़ा कारण यही है कि जो कुछ भी हमें मिला है, वह या तो सदैव के लिए हमारे पास ठहरता नहीं है या फिर जो मिला है उसको हम स्वयं के लिए अपर्याप्त मानते हैं | इसके लिए हम फिर संग्रह में लग जाते है जिससे भोग अधिक समय तक ठहरें और कभी भी उनकी कमी न हो |

           संग्रह का अर्थ है परिग्रह | जितना अधिक संग्रह होगा हमारा उतना ही सांसारिक मान-सम्मान होगा और हमारे भीतर अहंकार और अधिक बलवान होता जायेगा | इसीलिए कहा जाता है कि अगर आप एक बार भोगों के चक्कर में पड़ गए तो फिर उस चक्रव्यूह से निकलने का कोई मार्ग नहीं रह जाता है |

          इस प्रकार अहम् को संसार से मुक्त करने के लिए जिन दो उपायों की चर्चा हमने की है, उससे हमारे गुणों में परिवर्तन होता है | अंततः सात्विक गुण शेष दो गुणों राजसिक और तामसिक गुणों को दबाकर बढ़ने लगता है | अगर इतना सब इस मनुष्य जीवन में कर लें तो फिर अहम् को शरीर (संसार) से मुक्ति मिल सकती है | सत्व गुण ही इस शरीर में सर्वोच्च अवस्था है | सत्व गुण की ऊंचाई तक पहुंचा व्यक्ति एक छलांग लगाकर गुणातीत हो सकता है | इस छलांग में सहायक होते हैं – गुरु | जिस प्रकार राजसिक और तामसिक गुण व्यक्ति को सुख प्रदान करते हैं उसी प्रकार सात्विक सुख का भी मनुष्य सुख लेने लग जाता है | गुरु इस सुख को भी जीवन का वास्तविक सुख नहीं बताते हैं | वास्तविक सुख तो गुणातीत होने में है | गुणातीत मनुष्य को कोई भी गुण और उनसे होने वाली क्रियाएं प्रभावित नहीं करती |

                        राजसिक गुण की अवस्था में जो मनुष्य क्रिया को (कर्म) अपने द्वारा ‘करना’ मानता है वह सात्विक गुण की अवस्था में आकर क्रिया को प्रकृति द्वारा ‘होना’ मानने लगता है | जबकि गुणातीत मनुष्य केवल ‘है’ को मानता है अर्थात जो कुछ भी प्रकृति के गुणों द्वारा क्रिया हो रही है, उसके पीछे जो है, उस ‘है’ को मानता है | इस प्रकार गुणों से गुणातीत तक पहुँचने की यात्रा मनुष्य के लिए ‘करने’ से ‘होने’ होते हुए ‘है’ तक पहुँचने की यात्रा है | जब ‘है’ तक की यात्रा पूरी हो जाती है तब जीवन में शांति का प्रादुर्भाव होता है क्योंकि जब केवल ‘है’ ही तो फिर कोई दूसरा कैसे हो सकता है | फिर तो सभी ओर एक वही है- प्रत्येक प्राणी शरीर के रोम रोम से लेकर सृष्टि के प्रत्येक कण कण तक में | इसीलिए मन की खटपट तभी मिट सकती है जब मन इस प्रकार से शुद्ध हो जाये कि कोई दूसरा दिखे ही नहीं | फिर ऐसे मन और परमात्मा में कोई भेद नहीं रह जाता है |                 

       ‘करना’ से ‘होना’ की अवस्था को प्राप्त करना ज्ञान के कारण ही संभव होता है | मनुष्य को जब ज्ञान हो जाता है तब वह समझ जाता है कि सभी क्रियाएं जो इस प्रकृति (शरीर) में हो रही है, वह गुणों के कारण ही होना संभव हो पा रही है | इनके होने में मनुष्य की स्वयं की कोई भूमिका नहीं है | परन्तु जब भक्ति का प्रादुर्भाव होता है, तब यह ‘होना’ भी ‘है’ में बदल जाता है | भक्ति में केवल एक भगवान् को ही माना जाता है, किसी अन्य का आस्तित्व भी उस परमात्मा के कारण ही होता है, ऐसा माना जाता है | फिर प्रकृति और परम का भेद मिट जाता है और एक ‘है’ के सिवाय किसी का अस्तित्व नहीं रहता | यह भक्ति-योग है |

           जब सब कुछ ‘है’ ही है तो फिर ‘होने’ और ‘करने’ का प्रश्न ही नहीं उठता | सारा संसार ही परमात्मा हो जाता है और मनुष्य मनुष्य में भेद की बात तो छोड़ दीजिये, जड़-चेतन तक का भेद मिट जाता है | वास्तव में देखा जाये तो जड़ हो अथवा चेतन, मनुष्य हो अथवा कोई अन्य प्राणी आपस में भिन्न भिन्न प्रतीत भले ही हो रहे हों, ‘है’ के स्तर पर भिन्न कुछ भी नहीं है | जब तक मन में भिन्नता रहेगी तब तक ‘करना’ कभी भी मिटेगा नहीं और न ही ‘वासुदेव सर्वम्’ का बोध होगा | इस बोध तक पहुँचने के लिए ज्ञान को आत्मसात करते हुए ‘करने’ को ‘होने’ में बदलना होगा और ‘समः सर्वेषु भूतेषु’ को मानते हुए आगे बढ़ना होगा | तभी हम पराभक्ति को प्राप्त होंगे |

                   ब्रह्मभूत का अर्थ है – जो अभी शरीर की अवस्था में है और ब्रह्म होने की अवस्था से कुछ कदम दूर है परंतु ब्रह्म हुआ नहीं है | उसका अंतःकरण निर्मल हो गया है, इतना निर्मल की स्वयं में और किसी अन्य प्राणी में कोई अंतर उसकी दृष्टि में नहीं है | भला ऐसा ब्रह्मभूत क्यों तो प्रसन्न नहीं होगा, क्यों उसके मन में कोई कामना शेष रहेगी और क्यों उसे किसी बात का दुःख होगा ?

            पूर्व में हमने संयोगजन्य सुख की बात की थी |देखा जाय तो मन वास्तव में अहम् का ही विस्तार है | अहम् जब प्रकृति से सुख लेना प्रारम्भ करता है तभी वह उसके साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है | यह सुख बिना किसी संयोग के मिल नहीं सकता, इसीलिए इस सुख को संयोगजन्य सुख कहा जाता है | संयोगजन्य सुख ही अहम् के इस सांसारिक/शारीरिक संग का कारण बनता है | संयोग जनित सुख अर्थात जो सुख किसी दो के एक साथ मिल जाने से उपलब्ध होता है | यह दो का संयोग है – विषय और इन्द्रिय का | जब तक विषय का संयोग किसी इन्द्रिय के साथ नहीं होता तब तक मनुष्य को उस विषय का ज्ञान नहीं हो सकता |

            जब जीवन में प्रथम बार विषय का इन्द्रिय के साथ संयोग होता है तब जो सुख हमें अर्थात अहम् को मिलता है वह मन के माध्यम से मिलता है | बिना किसी विषय को अनुभव करे मन में कोई विकार (काम, क्रोध, लोभ, मद, राग-द्वेष आदि) नहीं आ सकता | कहने का अर्थ है कि जीवन की प्रारम्भिक अवस्था में मन एकदम निर्मल होता है और उसके विकारग्रस्त होने का कारण यह संयोजन्य सुख ही बनता है | विकाररहित मन और अहम् में कोई अंतर नहीं है | दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि शुद्ध मन अहम् में विलीन हो जाता है |

               प्रश्न उठता है कि विषय और इन्द्रिय के संयोग को रोक लेने से क्या अहम् संसार से मुक्त हो सकता है ? मन और अहम् का संग ही हमारे सांसारिक बंधन का कारण है | अतः मन को निर्मल करने से अहम् का संसार से मुक्त होना संभव हो सकता है | मन को विकाररहित भी रखा जा सकता है और उसे विकारों से मुक्त भी किया जा सकता है |

        मन को विकारों से मुक्त करने के लिए क्या इन्द्रिय और विषय के संयोग को रोका जा सकता है ? इस प्रश्न पर विचार करने से यह कार्य असंभव सा प्रतीत होता है | कारण – प्रथम तो संसार में विषय और इन्द्रिय एक दूसरे के लिए ही बने हैं और इनका संयोग संसार में रहते हुए होना अवश्यम्भावी है | दूसरा कारण – प्रकृति के समस्त भूत शरीर कर्म के अधीन है अर्थात प्रारब्ध के कारण प्रत्येक प्राणी को अपने कर्मों के अनुसार विषयों को और कर्मफल को भोगना ही पड़ता है | ये भोग तभी उपलब्ध होंगे, जब विषयों का संयोग इन्द्रियों के साथ होगा | प्रकृति का यह शाश्वत नियम है और इस नियम से परे परमात्मा द्वारा धारण किया हुआ शरीर भी नहीं है ।

            इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि विषय और इन्द्रिय का संयोग होना तो अवश्यम्भावी है | ऐसे में मनुष्य केवल अपने स्तर पर इतना ही कर सकता है कि वह उस संयोग से उत्पन्न हुए सुख के साथ अपना सम्बन्ध नहीं बनाए अर्थात इस संयोग जनित सुख का आनंद तो ले परन्तु बार-बार वही सुख मिलने की कामना न करे | इस प्रकार मिले हुए विषय-भोग को उपनिषद् में अनासक्त रहते हुए त्यागपूर्वक भोगना कहा गया है |

           बात घूमफिरकर वापिस कामना पर आ टिकती है | कामना मन में उठती है और काम के लिए ही मन के साथ अहम् हो जाता है । मन के साथ अहम् होने का अर्थ हुआ कि हम स्वयं को ही शरीर मान बैठे हैं | अहम् को मन से मुक्त करने के लिए मन को निर्मल करना होगा। मन को निर्मल करने का एक उपाय तो हुआ - प्रत्येक विषय को त्यागपूर्वक भोगना और दूसरा उपाय है कामना को मन में जन्म ही न लेने देना | दोनों ही उपायों से मन को विकाररहित कर निर्मल बनाया जा सकता है । निर्मल मन और अहम् का वास्तविक स्वरुप एक ही है । निर्मल मन और परमात्मा में भी कोई अंतर नहीं है |

           इतने विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि शुद्ध मन, अहम् और परमात्मा एक ही हैं | ये सभी एक ही हैं तो फिर अलग अलग नाम से क्यों कहे जाते हैं ? परमात्मा निर्गुण निराकार है | सगुण साकार होते ही वह अवतार कहलाता है | सगुण साकार होते हुए भी हमें जीव कहा जाता है,परमात्मा क्यों नहीं कहा जाता ? हमें परमात्मा न कहकर जीव कहा जाता है क्योंकि हमारा मन शुद्ध नहीं है ।मन के शुद्ध न होने का कारण है कि हम अपने पूर्व मनुष्य जीवन की कामनाएं और कर्म मन में साथ लेकर आए हैं। अहम् परमात्मा का अंश है और उसमें जीवभाव मन के कारण ही है | 

       मन शुद्ध अहम् ही है परन्तु संसार का संग कर लेने से ही वह जीव बन गया है | वास्तव में जीव भी परमात्मा का अंश है परन्तु मन के माध्यम से सांसारिक सुख में डूबकर वह अपने आपको संसार ही मानने लग गया है | इस सांसारिक अहम् को जीवभाव से मुक्त करते ही वह भी साक्षात् परमात्मा हो जायेगा ।

               अहम् को जीवभाव से मुक्त करने के लिए कई उपाय इस श्रृंखला के माध्यम से बताने का प्रयास किया है | किसी भी एक उपाय से आप इसको संसार से मुक्त कर सकते हैं | सभी भूतों में सम भाव से स्थित परमात्मा को देखना इसका सर्वोत्तम उपाय है | ऐसा देखना केवल ज्ञान और भक्ति के माध्यम से ही हो सकता है |

        ज्ञान के माध्यम से कर्म-योग फलित होता है और भक्ति के माध्यम से ज्ञान और कर्म –योग दोनों | कर्म, ज्ञान और भक्ति तीनों आपस में सम्बंधित है और एक दूसरे के सहयोगी भी | अंततः जो उपलब्धि होती है वह है आत्म स्वरुप की स्मृति | जब यह स्मृति पुनः प्राप्त होती है, तब अनुभव होता है कि इतने वर्षों तक व्यर्थ में ही बार-बार विभिन्न शरीर लेते हुए संसार में भटकते रहे हैं | जिसकी खोज में हम बाहर भटक रहे थे वह स्वयं अपने भीतर ही मिल जाता है और जब उस भीतरी तत्व के दिव्य-दर्शन होते हैं तब समस्त संसार ही परमात्मामय हो जाता है |  आपके भीतर बैठा परमात्मा आपके समक्ष प्रकट होकर सारे संसार में आपको दिखलाई पड़े, ‘समः सर्वेषु भूतेषु’ श्रृंखला का एकमात्र यही उद्देश्य है |

           संसार में हमारी भौतिक दृष्टि जहाँ तक पहुँचती है और उस दृष्टि से परे भी, जहाँ तक हमारी कल्पना उड़ान भर सकती है, एक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है | कहने को तो यह ज्ञान-मार्ग है जोकि हमें संसार से मुक्त करता है | कर्म-मार्ग और भक्ति-मार्ग भी हमें संसार के बंधनों से मुक्ति दिलाते हैं परन्तु ज्ञान हो जाने के बाद ही वे फलीभूत होते हैं | ज्ञान से कर्म-योग और भक्ति-योग दोनों ही सध सकते हैं | इसका अर्थ यह नहीं है कि भक्ति-योग में ज्ञान नहीं हो सकता | ज्ञान उसमें भी होता है तभी तो जितने भी भक्त आज तक हुए हैं, वे सभी तत्व-ज्ञानी हुए हैं |

          कर्म की प्रकृति ज्ञान से परिवर्तित होती है और ज्ञानी भी एक दिन भक्त बनता है | ‘समः सर्वेषु भूतेषु’ श्रृंखला’ वास्तव में परमात्मा का ज्ञान कराती है और उस ज्ञान से ही मनुष्य पराभक्ति को प्राप्त होता है | इस श्रृंखला का सन्देश यही है कि मुक्त होने के लिए सर्वत्र परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव होना आवश्यक है | इस प्रकार मुक्त हो जाने के बाद ही परमात्मा की पराभक्ति प्राप्त होती है | फिर व्यक्ति पुनः संसार में नहीं लौटता अर्थात संसार में रहते हुए भी वह संसारी नहीं बनता |

इसी के साथ इस लम्बी श्रृंखला का समापन होता है | बड़े धैर्य के साथ आप साथ में बने रहे इसके लिए आपका आभार |

प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल

|| हरिः शरणम् ||



No comments:

Post a Comment