वर्ण-व्यवस्था -कल से आगे
स्वभाव के कारण ही मनुष्य ही क्या संसार में कोई भी दो प्राणी अथवा वस्तुएं एक समान नहीं मिलते हैं, यहां तक कि युग्मज में भी दोनों में कुछ न कुछ भिन्नता अवश्य रहती है। समानता बाहर से भी नहीं है और भीतर स्वभाव से भी नहीं है। आधुनिकता के प्रभाव से वर्ण व्यवस्था को जाति व्यवस्था बतलाते हुए इसका चाहे जितना मान मर्दन करें, यह आदिकाल से चली आ रही व्यवस्था है और इसे कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता।साथ ही साथ यह व्यवस्था पूर्ण रूप से वैज्ञानिक व्यवस्था भी है।
वर्ण व्यवस्था के लिए केवल एक वर्ण (ब्राह्मणों) पर दोषारोपण किया जाता है परंतु यह अर्द्ध सत्य है। वास्तव में देखा जाए तो किसी मनुष्य ने इन वर्णों को नही बनाया है। वर्ण भगवान द्वारा निश्चित किए गए हैं। गीता में भगवान स्पष्ट करते हुए कहते हैं-'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः'(गीता-4/13)- अर्थात मेरे द्वारा गुणों और कर्मों के विभागपूर्वक चारों वर्णों की रचना की गई है । पूर्वजन्मों में किये गये कर्मों के अनुसार सत्त्व, रजस और तमस - इन तीनों गुणों में न्यूनाधिकता रहती है।सृष्टि-रचनाके समय उन गुणों और कर्मोंके अनुसार भगवान् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र -इन चारों वर्णोंकी रचना करते हैं।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम्।।
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