ज्ञान और भक्ति
स्वकर्म करते हुए व्यक्ति कर्मयोग के माध्यम से परमात्मा तक पहुंच सकता है।इस माध्यम में व्यक्ति के स्वभाव की भूमिका रहती है। दूसरा माध्यम है, ज्ञान का। ज्ञान प्राप्त करने में मनुष्य को स्वयं प्रयास करना पड़ता है और यह प्रयास है, परमात्मा को जानने का। ज्ञान योग में विवेक की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। कर्म और ज्ञान, दोनों ही मार्ग में प्रयास करना पड़ता है। कर्मयोग में स्थूल शरीर के माध्यम से प्रयास होता है जबकि ज्ञानयोग में सूक्ष्म शरीर से।
उपरोक्त दोनों ही योग अपरा प्रकृति से सम्बंधित है। तीसरा योग है, भक्तियोग। इसमें संसार से अर्थात अपरा प्रकृति से संबंध विच्छेद करने के लिए परमात्मा के सम्मुख होना पड़ता है। इस योग में किसी भी प्रकार के प्रयास की आवश्यकता नहीं है।
कर्म तो सभी जीव करते हैं परन्तु ज्ञान प्राप्त करने के लिए केवल मनुष्य ही अधिकारी है। इसी प्रकार भक्ति भी केवल मनुष्य नाम का प्राणी ही कर सकता है। भक्ति से ज्ञान प्राप्त हो जाता है और ज्ञान से भक्ति। दोनों का परिणाम भी एक ही है -आत्मबोध। तभी गोस्वामीजी मानस में लिखते हैं -"भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा"। इसी विषय पर कल से एक नई श्रृंखला प्रारम्भ होने जा रही है।साथ बने रहें।
प्रस्तुति -डॉ. प्रकाश काछवाल
।। हरि:शरणम्।।
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