मूर्तियां माध्यम भर हैं, ईश्वर के प्रति एकाग्र होने का। हमें धर्मग्रंथों या प्रतीक पुरुषों का अनुसरण करने के बजाय स्वयं अनुभव प्राप्त करना चाहिए।
स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
संसार में सर्वत्र एक न एक रूप में आपको मूर्तियां मिलेंगी। कहीं मूर्ति का आकार मनुष्य जैसा है। मूर्तियों में मनुष्य ही सबसे उत्कृष्ट रूप है। यदि मैं किसी मूर्ति की पूजा करना चाहूं, तो मैं पशु, इमारत या अन्य किसी आकृति की अपेक्षा मनुष्य की आकृति को अधिक पसंद करूंगा। एक संप्रदाय समझता है कि अमुक रूप में ही मूर्ति ठीक तरह की है, तो दूसरा समझता है कि वह बुरी है। यही है मूर्ति-पूजा का दोष।
वस्तुत: धर्मग्रंथों में हमारा अंधविश्वास जितना कम हो, उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। हमने स्वयं क्या अनुभव किया, यही प्रमुख सवाल है। ईसा, बुद्ध या मूसा ने जो किया, उससे हमें कोई मतलब नहीं होना चाहिए, जब तक कि हम भी अपने लिए वही अनुभव न प्राप्त कर लें। यदि हम एक कमरे में बंद हो जाएं और ईसा या मूसा ने जो खाया, उसका विचार करें, तो उससे हमारी क्षुधा शांत नहीं हो सकती। इसी प्रकार उनके जो विचार थे, उन्हीं को सोचने से हमारी मुक्ति नहीं हो सकती। इन बातों में मेरे विचार बिल्कुल मौलिक हैं। कभी-कभी तो मैं यह सोचता हूं कि मेरे विचार तभी ठीक हैं, जब वे प्राचीन आचार्यो के विचारों से मिलते-जुलते हैं, पर दूसरे समय मैं समझता हूं कि उन लोगों के विचार तभी ठीक हैं, जब वे मुझसे सहमत होते हैं।
स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने में मेरा विश्वास है। इन आचार्यो से बिल्कुल स्वतंत्र होकर विचार करो। उनका सब प्रकार आदर करो, पर धर्म की खोज स्वतंत्र होकर ही करो। मुझे अपने लिए प्रकाश अपने आप ढूंढ़ निकालना होगा, जैसा कि उन्होंने अपने लिए खोज निकाला था। उन्हें जिस प्रकाश की प्राप्ति हुई, उससे हमारा संतोष कदापि न होगा।
तुम्हें स्वयं बाइबिल 'बनना' होगा, उसका अनुसरण करना नहीं। हां, केवल रास्ते के दीपक के समान, मार्ग-प्रदर्शक साइन बोर्ड के समान उसका आदर करना होगा। धर्मग्रंथ की सारी उपयोगिता बस इतनी ही है। पर ये मूर्तियां तथा अन्य वस्तुएं इस काम की हैं कि अपने मन को एकाग्र करने के प्रयत्न में या किसी विचार पर मन को दृढ़ रखने के लिए आवश्यक हैं।
दो प्रकार के लोगों को मूर्तियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक तो वे, जिन्हें ईश्वर का विचार ही नहीं आता और दूसरा, पूर्णत्व को प्राप्त हुआ व्यक्ति, जो इन सब सीढि़यों को पार कर गया होता है। इन दोनों छोरों के बीच में ही सब को किसी न किसी बाहरी या भीतरी आदर्श की आवश्यकता होती है। यह आदर्श चाहे किसी स्वर्गीय मनुष्य के रूप का हो अथवा जीवित पुरुष या स्त्री के रूप का। यह व्यक्तित्व और शरीर की पूजा है तथा बिल्कुल स्वाभाविक है। किसी भी वस्तु को ईश्वर मानकर पूजा करना एक सीढ़ी ही है।
यह परमेश्वर की ओर मानो एक कदम बढ़ने, उसके कुछ अधिक समीप जाने के समान है। यदि कोई मनुष्य अरुंधती तारे को देखना चाहता है, तो उसे उसके समीप का एक बड़ा तारा पहले दिखाया जाता है और जब उसकी दृष्टि बड़े तारे पर जम जाती है, तब उसको उससे छोटा तारा दिखाते हैं। ऐसा करते-करते क्रमश: उसको अरुंधती तक ले जाते हैं। इसी तरह ये भिन्न-भिन्न प्रतीक और प्रतिमाएं ईश्वर तक पहुंचा देती हैं। बुद्ध और ईसा की उपासना प्रतीक पूजा है।
इससे हम ईश्वर की उपासना के समीप पहुंचते हैं। पर इससे मनुष्य का उद्धार नहीं हो सकता। उसे तो ईश्वर तक जाना चाहिए, जिस ईश्वर ने बुद्ध और ईसा के रूप में अपने को प्रकट किया, क्योंकि अकेला ईश्वर ही हमें मुक्ति दे सकता ।
॥ हरिः शरणम् ॥
No comments:
Post a Comment