संसार में सुख का अनुभव व्यक्ति की अच्छी मानसिक अवस्था पर निर्भर होता है । जो अभी तक चार सुख गिनायें है वह व्यक्ति की मानसिक दशा को ही दर्शाते हैं । संसार का पांचवां सुख है मान-सम्मान,यश और प्रतिष्ठा । जिस व्यक्ति ने इस संसार में जन्म लेकर मान-सम्मान अर्जित कर लिया उसे एक प्रकार का मानसिक और आत्मिक सुख का अनुभव होता है । जिस को यश प्राप्त नहीं होता उसे इसकी चाह होती है । इसी चाह को के लिए वह ऐसे कर्म करता है जिससे उसे भी मान- सम्मान मिले,यश और प्रतिष्ठा मिले । जब इसी क्रम में कुछ असामाजिक कर्म हो जाते हैं तो यश के स्थान पर वह व्यक्ति अपयश का भागी बनता है,जो उसके दुःख का कारण बनता है ।
संसार का छठा सुख है-शत्रु पर विजय । संसार की दृष्टि से देखा जाये तो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनेकों प्रकार के व्यक्ति आते हैं । जिनमे कुछ उसके मित्र बन जाते हैं और कुछ शत्रु । शेष बचे व्यक्ति उभयावस्था में रहते हैं । वे प्रायः मित्र ही होते हैं परन्तु शत्रु कदापि नहीं होते । मित्र और उभय वर्ग के व्यक्तियों से आपको किसी भी प्रकार की समस्या नहीं होती परन्तु शत्रु पक्ष के व्यक्ति आपके लिए प्रतिदिन कोई न कोई समस्या खड़ी करते रहते हैं । उन संभावित समस्याओं के कारण ,उन शत्रुओं के कारण आपका ध्यान सदैव उधर उनकी योजनाओं को धूलधूसरित करने में लगा रहता है । जिस दिन आप उनकी योजनाओं को विफल कर देते है, आपको अपार सुख का अनुभव होता है ।
संसार में सात सुख ही होते है और इनमे सातवां और अतिमहत्वपूर्ण सुख है-परमात्मा की भक्ति । पहले वर्णित समस्त सुखों से व्यक्ति एक दिन अघा सकता है परन्तु परमात्मा की भक्ति ही एकमात्र ऐसा सुख है जिसको जितना भी प्राप्त करते जाएँ,व्यक्ति कभी भी अघाता नहीं है । यही एक मात्र सुख है जो सब सुखों की खान है । परमात्मा की भक्ति से समस्त सुख प्राप्त किये जा सकते हैं । परमात्म भक्ति सुख की पराकाष्ठा है । सुखों की सर्वोच्च अवस्था है । परन्तु मानव का स्वभाव देखिये,परमात्म भक्ति से मिलने वाले सुख को इस जीवन में मिलने वाले समस्त सुखों की गणना में अंतिम स्थान दिया है ।
परमात्मा की भक्ति करना कोई आसान कार्य नहीं है इसीलिए इससे प्राप्त सुख को अंतिम स्थान मिला है । जब व्यक्ति के प्रथम छः सुख, दुखों में परिवर्तित होने लगते हैं तब उसे परमात्मा की याद आती है और वह उसकी भक्ति करके सुख प्राप्त करना चाहता है । वास्तव में अगर देखा जाये तो जीवन में व्यक्ति जितनी जल्दी परमात्म भक्ति में लीन हो जाता है उतनी ही जल्दी उसे समस्त दुखों से छुटकारा मिल जाता है ।इसका कारण व्यक्ति की मानसिक स्थिति में परिवर्तन हो जाना मात्र ही है । वह सांसारिकता से हटकर आध्यात्मिकता की ओर जाने लगता है और आध्यात्मिकता में न सुख है और न ही कोई दुःख । आध्यात्मिकता में सिर्फ आनंद है और आनंद का विलोम कुछ भी नहीं है ।
॥ हरिः शरणम् ॥
संसार का छठा सुख है-शत्रु पर विजय । संसार की दृष्टि से देखा जाये तो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अनेकों प्रकार के व्यक्ति आते हैं । जिनमे कुछ उसके मित्र बन जाते हैं और कुछ शत्रु । शेष बचे व्यक्ति उभयावस्था में रहते हैं । वे प्रायः मित्र ही होते हैं परन्तु शत्रु कदापि नहीं होते । मित्र और उभय वर्ग के व्यक्तियों से आपको किसी भी प्रकार की समस्या नहीं होती परन्तु शत्रु पक्ष के व्यक्ति आपके लिए प्रतिदिन कोई न कोई समस्या खड़ी करते रहते हैं । उन संभावित समस्याओं के कारण ,उन शत्रुओं के कारण आपका ध्यान सदैव उधर उनकी योजनाओं को धूलधूसरित करने में लगा रहता है । जिस दिन आप उनकी योजनाओं को विफल कर देते है, आपको अपार सुख का अनुभव होता है ।
संसार में सात सुख ही होते है और इनमे सातवां और अतिमहत्वपूर्ण सुख है-परमात्मा की भक्ति । पहले वर्णित समस्त सुखों से व्यक्ति एक दिन अघा सकता है परन्तु परमात्मा की भक्ति ही एकमात्र ऐसा सुख है जिसको जितना भी प्राप्त करते जाएँ,व्यक्ति कभी भी अघाता नहीं है । यही एक मात्र सुख है जो सब सुखों की खान है । परमात्मा की भक्ति से समस्त सुख प्राप्त किये जा सकते हैं । परमात्म भक्ति सुख की पराकाष्ठा है । सुखों की सर्वोच्च अवस्था है । परन्तु मानव का स्वभाव देखिये,परमात्म भक्ति से मिलने वाले सुख को इस जीवन में मिलने वाले समस्त सुखों की गणना में अंतिम स्थान दिया है ।
परमात्मा की भक्ति करना कोई आसान कार्य नहीं है इसीलिए इससे प्राप्त सुख को अंतिम स्थान मिला है । जब व्यक्ति के प्रथम छः सुख, दुखों में परिवर्तित होने लगते हैं तब उसे परमात्मा की याद आती है और वह उसकी भक्ति करके सुख प्राप्त करना चाहता है । वास्तव में अगर देखा जाये तो जीवन में व्यक्ति जितनी जल्दी परमात्म भक्ति में लीन हो जाता है उतनी ही जल्दी उसे समस्त दुखों से छुटकारा मिल जाता है ।इसका कारण व्यक्ति की मानसिक स्थिति में परिवर्तन हो जाना मात्र ही है । वह सांसारिकता से हटकर आध्यात्मिकता की ओर जाने लगता है और आध्यात्मिकता में न सुख है और न ही कोई दुःख । आध्यात्मिकता में सिर्फ आनंद है और आनंद का विलोम कुछ भी नहीं है ।
॥ हरिः शरणम् ॥
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