Monday, August 25, 2014

सुख -दुःख -८

                           अनगिनत दुखों में सबसे बड़ा दुःख क्या है ? हम सबसे बड़े सुख की पहचान कर पायें अथवा नहीं इसकी हमें कोई फ़िक्र नहीं है  क्योंकि कोई भी सुख कभी भी बड़ा नहीं होता । जब हमें कोई सुख नसीब होता है तभी हमारी कामना और अधिक सुख प्राप्त करने की हो जाती है । जब और अधिक सुख मिल जाता है तब हमारी कामना का भी विस्तार हो जाता है और व्यक्ति  इससे भी अधिक सुख पाने की इच्छा करने लगता है । इस प्रकार व्यक्ति अपने जीवन में कभी भी मनवांछित सुख प्राप्त नहीं कर पाता है क्योंकि कामनाओं का विस्तार कभी भी नियंत्रित नहीं हो पाता है । व्यक्ति चाहे तो कामनाओं को नियंत्रित कर सकता है परन्तु उसका मन उसे ऐसा करने रोक देता है । यही कारण है कि उसके जीवन में सुख प्राप्त करने की कामना कभी भी पूरी नहीं हो पाती । इसलिए कोई भी सुख कभी भी सबसे बड़ा सुख बन ही नहीं पाता है ।
                             इसके ठीक विपरीत दुःख है।  संसार में कोई भी दुःख छोटा अर्थात कम नहीं है ।किस को छोटा कहें,व्यक्ति को सभी दुःख बड़े ही लगते हैं । सुख सभी छोटे होते है और दुःख सभी बड़े होते हैं । जिस प्रकार सुखों में सबसे छोटा सुख कौन सा है  ,यह घोषित करना कठिन है ,उसी प्रकार समस्त दुखों में सबसे बड़ा दुःख भी ढूंढ पाना अति कठिन है । इस समस्या का निदान गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने ग्रन्थ रामचरितमानस में बड़े ही सुन्दर रूप से किया है । वे सबसे अधिक बड़े दुःख यानि दारुण दुःख के बारे में कहते हैं-
                  जद्यपि जग दारुन दुःख नाना । सब ते कठिन जाति अवमाना ॥ मानस १/६३/७ ॥
अर्थात,यूँ तो संसार में अनेक प्रकार के बड़े से बड़े,दारूण दुःख है परन्तु सबसे बड़ा दुःख किसी का भी जाति अर्थात निजी अपमान है । व्यक्ति अपने बड़े से बड़े दुःख को सहन कर सकता है परन्तु अपना व्यक्तिगत अपमान कभी भी सहन नहीं कर पाता है । इसीलिए तुलसी बाबा ने व्यक्तिगत अपमान को संसार का दारुण दुःख बताया है । यह एकदम सत्य है कि व्यक्ति स्वयं का अपमान कभी भी बर्दाश्त नहीं कर पाता है । अतः इसको संसार का सबसे बड़ा दुःख कहा जा सकता है ।
                   संसार में दुःख असीम है । इन दुखों का अनुभव उन्ही को हो सकता है जिन्होंने पूर्व में सुखों का अनुभव किया हो । सुख और दुःख का अनुभव तुलनात्मक होता है । बिना एक को अनुभव किये दूसरे को अनुभव नहीं किया जा सकता । सबसे पहले जब बचपन में शिशु को माँ लाड करती है,दुलारती है तब उसको पता नहीं होता कि  यह एक प्रकार का सुख है । परन्तु जब बच्चा बड़ा होकर कुछ शरारतें करता है तब यदा कदा माँ  उसे डांट देती है तब उसे पूर्व के सुख और वर्तमान में डाँट के दुःख का अनुभव होता है । इसी अवस्था से मनुष्य को सुख-दुःख का अनुभव होना प्रारम्भ होता है । यह अनुभव  समय के साथ साथ प्रगाढ़ होता जाता है और व्यक्ति ताउम्र इस सुख-दुःख के दुष्चक्र से बाहर निकल नहीं पाता है । यही इस जीवन का सत्य है ।
                                                            ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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