Tuesday, August 26, 2014

सुख -दुःख -९

                        इस भौतिक संसार में पदार्पण के साथ ही व्यक्ति सुख-दुःख के चक्र में फंस जाता है । बढ़ती उम्र  के साथ यह प्रगाढ़ होता जाता है । यह प्रगाढ़ता इतनी अधिक हो जाती है कि कुछ  समय बाद व्यक्ति छोटी छोटी बातों को लेकर भी व्यथित होने लगता है । इस बढ़ती हुई प्रगाढ़ता के लिए व्यक्ति की सतत बदलती हुई मानसिकता जिम्मेवार है । सुख की चाहत उसे  अपने प्रभाव में इस प्रकार  जकड लेती है कि वह स्वयं को इसी सुख को प्राप्त करने के लिए अच्छे बुरे कर्मों के माया जाल में उलझा लेता है । सुख की कामना व्यक्ति की मनोदशा को इतना बदल देती है कि व्यक्ति सुख प्राप्त करने के लिए किये जा रहे कर्मों की विशेषता तक को भूला बैठता है  । उसका उद्देश्य येन केन प्रकारेण सुख प्राप्त करना ही हो जाता है । इसके लिये वह नीतिगत कर्म तक छोड़ देता है । नीति मार्ग का त्याग ही उसे दुखों की तरफ ले जाता है ।
                          जब सुखों को प्राप्त करने हेतु किये जा रहे प्रयास नीतिगत कर्मों के त्याग के कारण विफल हो जाते हैं तब व्यक्ति को अतिशय दुःख का अनुभव होता है । इस दुःख के कारण व्यक्ति की सोचने समझने की क्षमता तक प्रभावित हो सकती है क्योंकि व्यक्ति इस  असंभावित आये दुःख के लिए अपने आप को तैयार ही नहीं कर पाता है । वह सुखों को प्राप्त करने के लिए कर्मों में इतना व्यस्त हो जाता है कि वह केवल मात्र सुख प्राप्त होने का इंतजार करता है,दुःख आने की वह कल्पना तक नहीं करता है । इस बात को समझने के लिए एक छोटा सा प्रतिदिन जीवन में घटित होने वाली बातों का उदाहरण देना चाहूँगा । आपका कोई प्रिय व्यक्ति,प्रियजन जब कई वर्षों बाद आपसे  मिलने आ रहा  हो और आप  उसे लेने के लिए हवाई अड्डे,रेल्वे स्टेशन जा रहे हो तो आप उस संभावित मिलन सुख के अतिरेक में  अपना वाहन तेज गति  से चलाते हुए जाते हैं । इसी सुख को जल्दी प्राप्त करने के चक्कर में आप तेज गति  के कारण अपने वाहन पर से नियंत्रण खो बैठते हैं । इस कारण से दुर्घटना घटित होकर आपको शारीरिक क्षति पहुँच सकती है जो कि असंभावित दुःख  का कारण बनती है । इसी प्रकार धन को सुख प्राप्त  करने  का सर्वोत्तम साधन मानकर व्यक्ति उचित-अनुचित तरीके से धन कमाने  और संग्रह करने  लग जाता है । इसके लिए वह  एक सीमा से अधिक परिश्रम  करता है जो उसके शारीरिक क्षय का कारण बनती है ,शरीर रोग ग्रस्त हो जाता  है और व्यक्ति सुख न भोगकर दुःख को प्राप्त होता है ।
                           सुख की चाहत में व्यक्ति अपने क्रियाकलापों में इतना व्यस्त हो जाता है कि अपने वर्तमान समय में मिल रहे सुख की उपेक्षा करने लगता है । वह अपने प्रियजनों को उनके लिए उचित समय तक नहीं दे पाता , इस कारण से वे प्रियजन इसे अपनी उपेक्षा मानते हुए उसकी  जिंदगी से दूर जाने लगते है । मित्र उसका एक एक कर  साथ छोड़ते चले जाते  है और एक  स्थिति ऐसी आती है जब वह अपने आप को अकेला खड़ा पता है ।ऐसी स्थिति में आकर अगर सुख  भी मिलता है तो वह दुःख के समान ही होता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को यह विचार करना चाहिए कि सुख की चाहत में कहीं वे अकेले तो नहीं होते  जा रहे हैं ?
                                   ॥ हरिः शरणम् ॥


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