Wednesday, August 6, 2014

तुलसी का संसार-2

                             समता का पालन करना ,इस संसार में दुधारी तलवार पर चलने के बराबर है । एक तरफ आपसे परिवार,मित्रों आदि की अपेक्षाएं है और दूसरी तरफ आपके सांसारिक कर्तव्य । व्यक्ति इन दोनों ही मोर्चों के मध्य खड़ा संघर्ष करता रहता है । ऐसे में समता का व्यवहार भला कैसे संभव है ? आपके कथित मित्रों और परिवारजनों के अनुसार ,समता आपको परिवार से दूर करती है और जिम्मेदारियों से बचने का एक  बहाना बनती है । जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है । समता आपकी  दृष्टि को विशालता प्रदान करती है । आपके लिए परिवार,मित्र और स्वजनों से अन्य सभी  भी आपको अपने लगने लगते हैं । मित्र और दुश्मन का भेद समाप्त हो जाता है । इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मित्र से सम्बन्ध समाप्त हो जाते है बल्कि इसका अर्थ है कि इस संसार में कोई भी दुश्मन नहीं रहता ,सभी मित्रवत होते हैं । परन्तु भौतिक संसार के सभी निकट के सम्बन्ध इस समता को अन्य परिपेक्ष्य में देखते हैं । उनके अनुसार समता के कारण व्यक्ति  परिवार से दूर होता चला जाता है और अपने कर्तव्य के प्रति गंभीर नहीं रह पाता । समतापूर्वक व्यवहार करने वाले को लोग पलायनवादी तक करार देते हैं । हाँ !काफी हद तक यह सही भी है कि कई व्यक्ति समता  की आड़ लेकर पलायनवादी  बन जाते हैं परन्तु फिर उनका यह "समता" का आचरण नहीं है ।
                      तुलसीदास जी समता के आचरण को और अधिक स्पष्ट करते हैं-
                                   तुलसी इस संसार में,भांति भांति के लोग ।
                                   सबसे हिल मिल चालिये ,नदी नाव संजोग ॥
                      इस संसार में आपके मित्र भी है ,दुश्मन भी हैं,परिवार भी है,स्वजन भी है ,जान पहचान वाले भी हैं और अनजान लोग भी है ,इस प्रकार इस संसार में अलग अलग प्रकार के लोग है । ये सभी लोग मिलकर आपका संसार बनाते हैं । तुलसी ने ऐसे सभी लोगों से युक्त संसार को एक नदी की उपमा दी है । आपको इस नदी से पार उत्तरना है । अगर आप इस नदी को पार करना चाहते हैं तो फिर आपको नाव बनना  होगा । नाव बनने के लिए आपको नदी में उतरना होगा और तैरते हुए दूसरे  किनारे पर पहुँचना होगा ।  इसके लिए अगर नाव ,नदी के साथ मिलकर नहीं चले तो उसका पार जाना असंभव है । इसी प्रकार इस संसार में विभिन्न लोगों से हिल मिलकर रहना ही आपको इस संसार से पार कर सकता है ,उनसे दुश्मनी गाँठ कर नहीं । तुलसी ने बहुत ही सरलता से समता की व्याख्या की है । संसार में हिलमिलकर रहना ही समता है । आपको अपने आपको नाव बनाना होगा तभी इससे पार पाया जा सकता है अन्यथा नहीं ।
                                                 ॥ हरिः शरणम् ॥ 

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