हमने अभी तक संसार के महत्वपूर्ण सात सुखों की बात की । सुख के अतिरेक में हम इतने खो गए कि उसके पीछे पीछे आने वाले दुःख को भूल ही गए । परन्तु यह दुःख भी कहाँ पीछा छोड़ने वाला है । वह तो सुख के पीछे परछाई की तरह साथ साथ चल रहा है । यह तो मानव स्वभाव में ही है कि वह कई बार सुख में इस कदर खो जाता है कि उसके बाद आने वाले दुःख की आहट तक सुन नहीं पाता है । आहट न सुन पाने के कारण ही व्यक्ति दुःख के आते ही स्वयं को असहज महसूस करने लगता है । जो व्यक्ति इतना समझ जाता है कि सुख के बाद दुःख अवश्य ही आएगा तो फिर वह दुःख आने पर इतना व्यथित भी नहीं होगा । सुख का सागर इतना गहरा होता है कि व्यक्ति उसमे आकंठ डूबा हुआ ही रहना चाहता है । इसी मानसिकता के कारण जब उसके जीवन में दुःख आता है तब वह उसका सामना करने से भी घबराता है ।
संसार के सात सुखों के विलोम स्वरूप सात दुःख भी हैं । शरीर का निरोग न रहकर रोगग्रस्त हो जाना,निर्धनता का आ धमकना, धर्मपत्नी का कर्कश स्वभाव होना ,पुत्र का अवज्ञा करते रहना,संसार में रहते हुए जगह जगह सम्मान मिलने के स्थान पर अपमानित होते रहना,शत्रुओं का आपको परास्त करना तथा परमात्मा की भक्ति में मन नहीं लग पाना । यह सभी उन सात सुखों की अवस्थाओं के विपरीत की अवस्थाएं है , अतः ये सभी दुःख की श्रेणी में आ जाती है । वैसे संसार में दुखों की संखाएं अनगिनत है । सुख तो सात प्रकार के ही हैं परन्तु दुखों की कोई सीमा नहीं है । व्यक्ति को सब कुछ मिल जाये तो भी दुखी रहता है और कुछ भी न मिल पाए तो भी दुखी रहता है । अतः सभी प्रकार के दुखों की गणना करना असंभव है । आज के समय में व्यक्ति को हर समय दुखी रहने की आदत सी पड़ गयी है । वह जो कुछ भी मिला है उसमे संतुष्ट रहना भूल गया है । संतुष्ट न होना ही उसके दुःख का सबसे बड़ा कारण है । जिस दिन वह प्रत्येक परिस्थिति में संतुष्ट रहना सीख जायेगा तब दुःख उसके आस पास भी नहीं फटकेगा । अब वह दिन कब आएगा ,इसकी तो मात्र कल्पना ही की जा सकती है । आज हम स्वयं को देखकर जीने के स्थान पर दूसरे की जिंदगी और स्तर को देखकर जीना चाहते हैं । हम एक दूसरे को अधिक सुखी और सतुष्ट समझते है । जब कि वास्तविकता में ऐसा होता नहीं है ।
जिस दिन व्यक्ति स्वयं को देखते हुए जीने लगेगा उस दिन उसका दूसरे के जीवन में झांकना भी बंद हो जायेगा । तभी वह अपने आप में संतुष्ट रहने लगेगा । तभी वह दुखों से दूर जाने लगेगा अन्यथा दुःख उसका जीवनपर्यंत पीछा नहीं छोड़ेंगे ।
॥ हरिः शरणम् ॥
संसार के सात सुखों के विलोम स्वरूप सात दुःख भी हैं । शरीर का निरोग न रहकर रोगग्रस्त हो जाना,निर्धनता का आ धमकना, धर्मपत्नी का कर्कश स्वभाव होना ,पुत्र का अवज्ञा करते रहना,संसार में रहते हुए जगह जगह सम्मान मिलने के स्थान पर अपमानित होते रहना,शत्रुओं का आपको परास्त करना तथा परमात्मा की भक्ति में मन नहीं लग पाना । यह सभी उन सात सुखों की अवस्थाओं के विपरीत की अवस्थाएं है , अतः ये सभी दुःख की श्रेणी में आ जाती है । वैसे संसार में दुखों की संखाएं अनगिनत है । सुख तो सात प्रकार के ही हैं परन्तु दुखों की कोई सीमा नहीं है । व्यक्ति को सब कुछ मिल जाये तो भी दुखी रहता है और कुछ भी न मिल पाए तो भी दुखी रहता है । अतः सभी प्रकार के दुखों की गणना करना असंभव है । आज के समय में व्यक्ति को हर समय दुखी रहने की आदत सी पड़ गयी है । वह जो कुछ भी मिला है उसमे संतुष्ट रहना भूल गया है । संतुष्ट न होना ही उसके दुःख का सबसे बड़ा कारण है । जिस दिन वह प्रत्येक परिस्थिति में संतुष्ट रहना सीख जायेगा तब दुःख उसके आस पास भी नहीं फटकेगा । अब वह दिन कब आएगा ,इसकी तो मात्र कल्पना ही की जा सकती है । आज हम स्वयं को देखकर जीने के स्थान पर दूसरे की जिंदगी और स्तर को देखकर जीना चाहते हैं । हम एक दूसरे को अधिक सुखी और सतुष्ट समझते है । जब कि वास्तविकता में ऐसा होता नहीं है ।
जिस दिन व्यक्ति स्वयं को देखते हुए जीने लगेगा उस दिन उसका दूसरे के जीवन में झांकना भी बंद हो जायेगा । तभी वह अपने आप में संतुष्ट रहने लगेगा । तभी वह दुखों से दूर जाने लगेगा अन्यथा दुःख उसका जीवनपर्यंत पीछा नहीं छोड़ेंगे ।
॥ हरिः शरणम् ॥
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