Wednesday, August 27, 2014

सुख - दुःख-१०

                              इस प्रकार हम देखते हैं कि सुख की कामना एक सीमा तक ही उचित है । सीमा से अधिक प्राप्त करने की हौड़ में  भविष्य में मिलने वाला सुख भी किसी दारुण दुःख से कम नहीं होता है । सुख और दुःख व्यक्ति के पूर्वजन्म के कर्मों के फलस्वरूप ही मिलता है  । जिस दिन यह विचार व्यक्ति अपने मन में बसा लेगा उस दिन से वह सुख प्राप्त करने के लिए एक सीमा से अधिक परिश्रम करना छोड़ देगा । इस जन्म में आप ऐसे कर्म करें ,जिससे आपको भावी जीवन में दुखों का सामना न करना पड़े ।  मेरी इस बात को सभी लोग पहले से ही जानते है परन्तु विश्वास कोई भी नहीं कर  पा रहा है । मनुष्य  की सबसे बड़ी विडंबना है यह, सब कुछ जानते और समझते हुए  भी वह यह मानाने को तैयार ही नहीं है कि नीति विरुद्ध किये हुए कर्मों का फल हमें दुखों के रूप में कभी न कभी भोगना अवश्य ही पड़ेगा । इस  जन्म में नहीं तो अगले जन्म में ।
                             मनुष्य के  सामने ,उसी के संसार में पशुओं के  ,पक्षियों के और यहाँ तक कि पशुवत जीवन जी  रहे मनुष्यों  तक के उदाहरण हैं । वह जानता है कि  ऐसा जीवन वे इसलिए जी रहे हैं क्यंकि पूर्व मानव जन्म में  उन मनुष्यों ने इसी जीवन के अनुरूप कर्म किये थे । फिर भी वह इस जन्म में चेतता नहीं है बल्कि इसके विपरीत वह सुख की कामना में बिना सोचे समझे कर्मों को करते हुए चला जाता है । जब जीवन के अंत में उसे  मनोवांछित सुख प्राप्त नहीं होता तब वह हाथ मलते रहने के अतिरिक्त कुछ कर भी नहीं सकता । जीवन के संध्याकाल में न तो उसके शरीर में ऊर्जा बचती है और न ही समय । अब उसके पास नए जीवन में  जाने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं बचता । वह पुनर्जन्म पाकर या तो निम्न योनियों में अपने नीतिविरुद्ध किये हुए कर्मों के फल के रूप में दुखों को भोगता है या फिर पुनः मानव जन्म पाकर  सुख प्राप्त करने की दौड़ में शामिल हो जाता है ।  दोनों ही परिस्थितियां मानव योनि के लिए दुःखदायी ही साबित होती है क्योंकि इस कारण से उसे इस संसार में बार बार जन्म लेने को विवश होना पड़ता है ।
                                 मानव जन्म परमात्मा ने बार बार जन्म लेकर  केवल सुख या दुःख बोगने के लिए ही नहीं दिया है । वे तो हमें अपने कर्मों के अनुरूप मानव जन्म में भोगने ही होंगे  परन्तु एक मनुष्य के रूप में हमें परमात्मा ने अपना भावी जीवन चुनने का अधिकार भी दिया  है । उस भावी जीवन के लिए हमें एक मनुष्य जीवन में ऐसे कर्म करने होंगे जिसका फल हमें आनंद के रूप में प्राप्त हों और इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति मिल सके । मेरे कई मित्र मेरी इस मुक्ति वाली बात से सहमत नहीं है यह मैं जनता हूँ । मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रत्येक यही बात कहता है कि इस मनुष्य जीवन से भी मुक्ति पाकर हमें क्या मिलेगा? मेरा अपने मित्रों से सदैव प्रत्युत्तर में यही प्रश्न रहता है कि इस मनुष्य जीवन को प्राप्त कर के भी हमने क्या पाया है ? मैं आपसे भी यही पूछता हूँ कि क्या आप अपने इस मानव जीवन से  संतुष्ट हैं ? अगर उत्तर "हाँ" में है तो मैं कहूँगा कि फिर आप  मुक्त है और अगर उत्तर में आप "नहीं" कहते हैं तो फिर मेरा पहले वाला प्रश्न अभी भी अपने स्थान पर कायम है कि यह मनुष्य जन्म प्राप्त कर के भी हमने क्या पाया है ?
                                 सारांश यही है कि हम इस संसार में एक मानव के रूप में केवल सुख और दुःख भोगने और जन्म-मरण के चक्रव्यूह में फंसने के लिए नहीं आये है बल्कि हमारा उद्देेश्य अपने जीवनमूल्यों के उत्थान का होना चाहिए । ये जीवन मूल्य हमारे अपने निजी स्वार्थ के लिए न होकर परमार्थ के लिए होने चाहिए । इस संसार में रहते हुए परमार्थ के मार्ग पर चलें । परमार्थ का मार्ग ही आनंद  देता है और यही मार्ग परमात्मा का मार्ग है और मुक्ति का मार्ग भी ।
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥   

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