Saturday, August 9, 2014

तुलसी का संसार-4

                                   गोस्वामी तुलसीदास की रामकथा मात्र एक कहानी ही नहीं है । रामचरितमानस में केवल परमात्मा की प्रशंसा ही नहीं है अपितु इस संसार में जीने की कला सिखाने की क्षमता भी है । सनातन शास्त्रों में जो स्थान गीता का है वही स्थान काव्य ग्रंथों में रामचरितमानस का है । जिन लोगों को भाषागत दृष्टि से गीता पढ़ने में आनन्द नहीं आता ,वे रामचरितमानस को  सरल भाषा में होने के कारण पढकर उतना ही लाभ प्राप्त कर सकते हैं । संसार में किस प्रकार रहे यह गीता भी बताती है और मानस भी  । दोनों में किसी भी प्रकार का विरोधाभास नहीं है ।
                                    गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -" यो मा पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।. "जो मुझे सबमे और सभी जगह मुझको देखता है ,वह मेरे लिए कभी भी अदृश्य नहीं होता और उसके लिए भी मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ । यह  गीता में लिखा है । गोस्वामीजी रामचरितमानस में  इसी के अनुरूप लिखते हैं-
                          सिया राम मय सब जग जानी । करहूँ प्रणाम जोरी जग पानी ।
               अर्थात समस्त संसार को मैं सीता-राम समझते हुए सभी को सम्मान देते हुए,प्रणाम करता हूँ । सियाराममय से अर्थ है समस्त संसार में परमात्मा को देखना, प्रकृति और पुरुष को देखना । संसार में जितना भी दृश्यमान और अदृश्य है उन सब में परमात्मा को ही देखना । जब हम सबमे उसी को और उसी के अंतर्गत होना देखना प्रारम्भ करते हैं तो मित्र और दुश्मन का ,अपने और पराये का भेद समाप्त हो जाता है । जिस दिन यह भेद समाप्त हो जाता है उसी दिन आप जीवन जीने की कला सीख लेते हैं । यह भेद समाप्त हो जाने पर संसार आलोच्य नहीं रह जाता । फिर किस की प्रशंसा और किस की आलोचना ? यह समतापूर्ण  व्यवहार ही है जो आपकी दृष्टि से  संसार को ओझल कर देता है ।ज्योंही संसार अव्यक्त होता है ,उसकी निंदा करना संभव ही नहीं रहेगा । निंदा सदैव ही व्यक्त और व्यक्ति की होती है । कभी आपने मृत्यु उपरांत किसी की निंदा होते अथवा निंदा करते सुना है । प्रायः उस समय  उसकी निंदा नहीं होती क्योंकि वह व्यक्ति अब व्यक्त नहीं रहा बल्कि अव्यक्त हो गया । और  अव्यक्त की निंदा भला कौन करे और क्यों करे ?
                     परमात्मा अव्यक्त है  इसलिए उसकी निंदा संभव ही नहीं है । जब परमात्मा भी अव्यक्त से व्यक्त होता है ,उसकी भी निंदा प्रारम्भ हो जाती है । राम की भी हुई थी और कृष्ण की भी हुई थी । विश्वास न हो तो वाल्मीकि रामायण व महाभारत उठाकर देख लीजिये । सियाराम से यहाँ तात्पर्य प्रकृतिऔर पुरुष से है यानि परमात्मा से है । तुलसी समस्त जग को परमात्ममय जानकर उसे प्रणाम करते है और परमात्मा कभी भी आलोच्य नहीं है । ऐसा था तुलसी का संसार । रहे भी इस संसार में, बिना उसकी निंदा किये । आप भी अपने संसार में  रहते हुए उसे इसी प्रकार जियें ।
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥      

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