Thursday, August 7, 2014

तुलसी का संसार-3

                           राम-जन्म का वर्णन करते हुए महान कवि गोस्वामी तुलसीदास ने बालकाण्ड में एक बहुत ही सुन्दर छंद लिखा है | यह लोकप्रिय छंद प्रायः प्रत्येक सनातनी व्यक्ति और यहाँ तक की बच्चों को भी कंठस्थ है । उन्होंने इस छंद में लिखा है -
                      "" भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी ।
                        हरषित महतारी मुनिमन हारी अद्भूत रूप बिचारी ॥
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                       यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा ॥ 
                           विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार ।
                           निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार ॥ बालकाण्ड-१९२ ॥
                इस छंद के अंतिम भाग में तुलसी कहते हैं कि प्रभु के इस चरित्र को जो गाता है वह परम पद पाने का उत्तराधिकारी होता है और इस संसार रुपी कुए में पुनः नहीं गिरता । यहाँ तुलसी ने इस संसार को  एक कुए की संज्ञा दी है । इस संसार का निर्माण आपकी आकांक्षाओं और इच्छाओं के अनुसार ही होता है और इस संसार  में शरीर की मृत्यु हो जाने के बाद भी बार बार नए शरीर धारण कर आते रहते हो । जबकि आप जानते हैं कि कामनाएं और अपूरणीय इच्छाएं  आपको बार बार  जन्म लेने को विवश करती हैं । और सबसे बड़ी बात तो यह कि आप चाहे जितने जन्म ले लें ,ये कामनाएं कभी भी पूरी नहीं होने वाली ।
               जब तुलसी ने इस संसार को एक कुए की संज्ञा दी है तो मुझे कूपमंडूक की कहानी याद आ रही है । एक बहित ही गहर कुआं था । उसमे बहुत सारे मेंढक रहते थे । एक बार एक मेंढक कुए में भरने आई बाल्टी के सहारे बाहर आ गया । बाहर आकर जब उसने विशाल संसार को देखा तो उसे पता चला कि उस कुए के अलावा यहाँ  बहुत सुन्दर और विशाल  दुनिया  भी है । वह कुछ दूर तक इधर उधर घूमा और वापिस कुए की तरफ लौट चला । उसने सोचा कि जाकर सबको बताऊंगा । उसने कुए में छलांग लगा दी । उसने अपने से बुजुर्ग  मेंढक ,जो कि उनका नेता था ,को सारी बात कही । परन्तु वह मानने को तैयार नहीं हुआ । उसने हवा अपने जिस्म में भरकर ,उसे फू\लाते हुए पूछा कि बाहर कितनी विशालता है ? छोटा मेंढक हर बार कहता गया कि और अधिक बड़ी है । अपने जिस्म में हर बार अधिक हवा भरने से उस मेंढक का शरीर फट गया और वह मर गया ।
                 उस मेंढक की तरह ही हम सब है । केवल कूप मंडूक बने बैठे है । उस सृजक की विशालता का ,उसके सृजन की विशालता का हमें ताउम्र अनुभव ही नहीं हो पाता और हम इस भवकूप को ही सब कुछ माने बैठे हैं और एक शरीर छोड़कर दुसरे शरीर के साथ पुनः इस कुए रुपी संसार में लौट आते हैं । परमात्मा के चरित्र को याद करने से हमें उसकी विशालता का अनुभव होता है और हम लौटकर इस कुए में आने का प्रयास ही नहीं करेंगे ।  
                                        ॥ हरिः शरणम् ॥   

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