Monday, August 11, 2014

सुख-दुःख -२

                                   इस भौतिक संसार में आकर कौन व्यक्ति ऐसा होगा जिसको सुख प्राप्त करने कि कामना नहीं होगी । इसी सुख प्राप्ति के लिए व्यक्ति को कर्म करने कि आवश्यकता होती है । इसीलिए परमात्मा श्रीकृष्ण गीता में कहते है कि इस संसार में कोई भी व्यक्ति कभी भी बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता । यहाँ तक कि परमात्मा के लिए कभी भी और कहीं भी कर्म करना आवश्यक नहीं है परन्तु जब जब भी उन्होंने इस संसार में व्यक्ति के रूप में पदार्पण किया है,कर्म किये ही है । कर्म करने का कोई न कोई एक परिणाम निश्चित अवश्य होता है । बिना परिणाम का कोई भी कर्म नहीं होता । परमात्मा ने इस  संसार को चलाने के लिए कर्म को ही मुख्य आधार बना रखा है । जब किसी भी प्रकार के कर्म कि आवश्यकता समाप्त हो जाएगी तभी उसी दिन से इस संसार चक्र की समाप्ति हो जाएगी । गोस्वामी तुलसीदास ने महान ग्रन्थ श्री रामचरितमानस में भी लिखा है- " कर्मप्रधान विस्व करि राखा ।" अर्थात जिस रचनाकार ने इस संसार की  रचना की है उसने समस्त विश्व को कर्म पर आधारित कर रखा है । उसी कर्म के आधार पर संसार का चक्र घूमता रहता है । इस संसार चक्र की धुरी कर्म ही है ।
                              कर्म ही व्यक्ति के सुख और दुःख के कारण है । सुख की कामना में व्यक्ति कर्म करने को विवश होता है और इसी जोश में वह कुछ ऐसे कर्म कर जाता है जिनका परिणाम अत्यंत ही दुखदाई होता है । जो व्यक्ति जिस प्रकार के कर्म करते हैं उन्हें उसी अनुरूप फल प्राप्त होते हैं । प्रायः लोग इस बात कि चर्चा करते हैं कि फलां व्यक्ति के कर्म अच्छे नहीं है फिर भी वह सुखी जीवन जी रहा है । हो सकता है कि पूर्व जन्म में उसने अच्छे कर्म किये हों और उनके अनुरूप वह उनका फल सुख के रूप में भोग रहा हो । परन्तु जिस दिन उसके पूर्वजन्म के सत्कर्मों का प्रभाव समाप्त हो जायेगा तब उसका सुखी जीवन भी समाप्त हो जायेगा । यह कभी भी नहीं हो सकता कि कर्मों का फल प्राप्त ही नहीं हो । समस्त कर्म तभी समाप्त होंगे जब उनका फल प्राप्त कर लिया जायेगा । अतः यह सोच गलत है कि कर्मों के अनुसार फल प्राप्त नहीं होता ।
                                  कई व्यक्ति यह भी कहते हैं कि पाप कर्म गंगा स्नान या दान देकर समाप्त किये जा सकते हैं । यह एकदम गलत है । कर्मों के फल तो सुख या दुःख के रूप में कहीं न कहीं और कभी न कभी अवश्य ही भोगने होंगे । अतः यह कभी भी न सोचें कि आज पाप कर्म करके भविष्य में दान,तीर्थ यात्रा या गंगास्नान से उनका परिमार्जन कर लेंगे । ऐसा होना असंभव है ।
                                    ॥ हरिः शरणम् ॥        
                                  

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