हमने संक्षिप्त में चर्चा की संसार के सातों सुखों की । हम जानते हैं कि सुख का विलोम है दुःख । अतः जो सुख नहीं है वह दुःख है और जो दुःख नहीं है वह सुख है । और जो सुख भी नहीं है और दुःख भी नहीं है-वह है आनन्द । मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि जो सुख भी है और दुःख भी है वह आनन्द है । इसलिए जरा शब्दों पर ध्यान दीजिये-जो सुख भी नहीं है और दुःख भी नहीं है वह है आनंद । यहाँ आप कहेंगे कि यह तो एक प्रकार की नकारत्मकता हुई । हाँ,यह नकारत्मकता ही है क्योंकि सकारात्मकता किसी भी अकेले एक के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर सकती । सकारत्मकता के अनुसार अगर एक है तो दूसरा भी अवश्य है परन्तु नकारत्मकता में एक है तो सिर्फ वही एक है दूसरे का कोई स्थान नहीं है । सकारत्मकता अगर कहती है कि सुख है तो उसका यह भी कहना है कि सुख के साथ दुःख भी है । नकारत्मकता अगर कहती है कि सुख नहीं है तो इसका अर्थ यह हुआ कि फिर दुःख भी नहीं है । बिना सुख के दुःख भला कैसे हो सकता है ? फिर भी नकारत्मकता के भीतर भी कुछ छुपा हुआ अवश्य है । और जो इस नकारत्मकता के पीछे जो छुपा हुआ है वह है आनंद । सांसारिकता कुछ होने की कहती है अतः यह सकारत्मकता है और आध्यात्मिकता कुछ भी न होने की कहती है अतः यह नकारत्मकता है । इस नकारत्मकता के पीछे जो छुपा हुआ है वह है परमात्मा । परमात्मा का भी कोई विलोम नहीं है जैसे आनंद का कोई विलोम नहीं है । इसलिए जो सुख परमात्म भक्ति से मिलना प्रारम्भ होता है वह एक दिन केवल मात्र सुख ही न रहकर आनंद में परिवर्तित हो जाता है ।
आनंद तो "गूंगा केरी सरकरा" है ,जिसकी मिठास को शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता । आनंद को तो केवल अनुभव किया जा सकता है । इस आनंद को आप व्यक्ति का चेहरा देखकर ही पहचान सकते है । शब्दों की कोई सार्थकता नहीं है,आनंद की अभिव्यक्ति के लिए । जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति चीनी खाकर ,मिष्ठान्न खाकर उसकी अभिव्यक्ति में केवल मुस्कुरा ही सकता है उसी प्रकार आध्यात्मिकता में आनंदित व्यक्ति केवल आपना आनन्द अपने चहरे की भाव भंगिमा से ही प्रकट कर सकता है । तभी कबीर ने कहा है -"गूंगा केरी सरकरा खाय और मुस्काय"।
जब सुख दुःख में परिवर्तित हो सकता है तो फिर क्यों न हम केवल सुख के पीछे ही दौड़ रहे हैं । हमें आनंद प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए जिसमे न सुख है और न दुःख । आनंद के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती बल्कि सुख प्राप्त करने का प्रयास छोड़ देना होता है । आपका यह त्याग ही आपको आनंद के द्वार तक ले जायेगा । आनन्द में केवल परमात्मा है और परमात्मा ही हमारा स्वरुप है । हम जब अपने आप को पहचान जायेंगे तभी परमात्मा को पा लेंगे । आत्म-दर्शन ही परमात्म दर्शन है और वही आपका असीम अनंत सुख है -आनंद,आनंद और आनंद ।
॥ हरिः शरणम् ॥
आनंद तो "गूंगा केरी सरकरा" है ,जिसकी मिठास को शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता । आनंद को तो केवल अनुभव किया जा सकता है । इस आनंद को आप व्यक्ति का चेहरा देखकर ही पहचान सकते है । शब्दों की कोई सार्थकता नहीं है,आनंद की अभिव्यक्ति के लिए । जिस प्रकार गूंगा व्यक्ति चीनी खाकर ,मिष्ठान्न खाकर उसकी अभिव्यक्ति में केवल मुस्कुरा ही सकता है उसी प्रकार आध्यात्मिकता में आनंदित व्यक्ति केवल आपना आनन्द अपने चहरे की भाव भंगिमा से ही प्रकट कर सकता है । तभी कबीर ने कहा है -"गूंगा केरी सरकरा खाय और मुस्काय"।
जब सुख दुःख में परिवर्तित हो सकता है तो फिर क्यों न हम केवल सुख के पीछे ही दौड़ रहे हैं । हमें आनंद प्राप्त करने के लिए प्रयास करना चाहिए जिसमे न सुख है और न दुःख । आनंद के लिए किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती बल्कि सुख प्राप्त करने का प्रयास छोड़ देना होता है । आपका यह त्याग ही आपको आनंद के द्वार तक ले जायेगा । आनन्द में केवल परमात्मा है और परमात्मा ही हमारा स्वरुप है । हम जब अपने आप को पहचान जायेंगे तभी परमात्मा को पा लेंगे । आत्म-दर्शन ही परमात्म दर्शन है और वही आपका असीम अनंत सुख है -आनंद,आनंद और आनंद ।
॥ हरिः शरणम् ॥
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